यथार्थवादी / ख़लील जिब्रान / बलराम अग्रवाल

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मेज पर रखे शराब के एक बर्तन के चारों ओर चार कवि बैठे थे।

पहला कवि बोला, "कल्पना की अपनी तीसरी आँख से मैं देख रहा हूं कि इस शराब की गन्ध इस तरह वायुमंडल में फैल रही है जैसे चिड़ियों का बादल जादूभरे जंगल में फैलते हैं।"

दूसरे कवि ने अपना सिर उठाया; बोला, "अपने आन्तरिक कानों से मैं उन चिड़ियों की चहक सुन सकता हूँ। उनका गान इस तरह मेरे हृदय में बैठता जा रहा है जैसे शहद की मक्खी को सफेद गुलाब अपनी पंखुड़ियों में बन्द कर लेता है।"

तीसरे कवि ने अपनी आँखें बन्द कर लीं। उसने अपनी बाँहें ऊपर उठाईं और बोला, "मैं अपने हाथों से उन्हें छू रहा हूँ। मुझे उनके परों का आभास हो रहा है। ऐसा लग रहा है जैसे किसी परी की साँसें मेरी उँगलियों को सहला रही हों।"

तब चौथा कवि खड़ा हुआ। उसने बर्तन को उठाया और बोला, "मुझे दु:ख है दोस्तो! मेरी न नजर ठीक है न कान और न स्पर्शिकाएँ। मैं शराब की गन्ध को देख नहीं सकता, न इसके गीत को सुन सकता हूँ और न ही इसके परों की छुअन को महसूस कर सकता हूँ। मैं सिर्फ शराब को महसूस कर सकता हूँ। इसलिए, अब मैं इसको पी रहा हूँ ताकि यह मेरी इन्द्रियों को जाग्रत करके आप जितनी ऊँचाई प्रदान कर दे।"

इतना कहकर उसने बर्तन को होंठों से लगाया और आखिरी बूँद तक सारी शराब को पी गया।

तीनों कवि, मुँह बाए, अपलक उसे देखते रह गए। उनकी आँखों में प्यास थी लेकिन काव्यहीन नफरत लिए हुए।