यहीं तक / राजी सेठ / पृष्ठ 2

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एक अकेला अपना ही रास्ता था अपने सामने। एक अभिशप्त केंद्र...अपनी ही आस्था और विश्वास से रीता।

मेरी बात और थी। मुझे केंद्र में रख दिया गया थाबिना चाहे, बिना पूछे। बाबू भजन-कीर्तन में रहते थे, उन्हीं दिनों से ही, जब मां कहती थीं, वह मेरे खेलने-खाने के दिन थे। उनकी आंखों में एक नशा-सा रहता था हरदम। उखड़ा ध्यान...बातें ऐसी करते थे जैसे सारे वेद-पुराण को घोंट-पीसकर पी चुके हैं। घर, बाहर, चौपाल, बरगद के नीचे मेले लगा करते थे लोगों के। वह नहा- धोकर स्नान-ध्यान, अर्चना-उपासना की दत्ताचित्ता देहरियां लांघकर एक लोटा दूध चढ़ाकर आ बैठते थे लोगों के बीचोबीच। ...उस दूध से उतरी मलाई जो मां अक्सर बचा लेती थी, उनके चले जाने के बाद हम लोगों को पास बुलाकर चटाया करती थीअंगुली-अंगुली। एक दिन ऐसा करते-करते वह अंदर आ गए थे तो मां ने साड़ी की चुन्नटों के नीचे सरका दी थी कटोरी। कुछ भी समझ में नहीं आया था। बाबू खंखारते हुए कुल्ला करके चले गए थे बाहर...मां ने उसी कटोरी में एक चुटकी चीनी और मिलाकर, उसे और पतला करके और प्यार से हम लोगों को चटाना शुरू कर दिया था। बाबू को वहीं बैठने का ठरक था। उन्हीं-उन्हीं जगहों पर। उन्हीं-उन्हीं लोगों के बीच। तथाकथित भक्तों की श्रध्दा से लबालब आंखों के सामने। आत्ममुग्ध। कीर्तन और प्रवचन। प्रसाद और भभूत, समस्याएं और समाधान...वह भी लोगों के...बाबू को तो यह भी पता नहीं था कि घर में...उनके अपने घर में...उनका तो दूध पीकर, फल-मेवे खाकर काम चल जाता था। एक दिन वह चल निकले। बड़े बरगद के नीचे पुरानी धर्मशाला में साधुओं की टोली एक रात के लिए टिकी थी। उन्हीं के साथ। कहकर तो गए थे कि हरिद्वार जाकर लौट आउं+गा, पर आटे में नमक की तरह वहीं खप गए। उनके गंगा-स्पर्श पावन पैर फिर कभी नहीं लौटे। बाहर के, आसपास के, पड़ोस के लोग उन्हें देख पाने को बेचैन रहे। उनका अभाव उन सबों ने हम सबसे ज्यादा ही महसूस किया। ठीक भी था, वह सब बाबू को आदर-प्यार देते थे, केवल कुछ शब्दों के बदले और हम सब...हमारी याचक आंखें और फैली हुई हथेलियां... मां मशीन चलाने लगी थीं उनके जाने के बाद। सुई में तागा मित्ताी डालती, सत्ताो मशीन का रेला फेरता। कपड़ा मां सिलतीं। सिलकर ताक में रख देतीं। अक्सर सर्रो लोगों के घरों में कपड़े पहुंचाने जाती। कभी-कभार मां भी...भगतजी की पत्नी। वह पहुंच जाती तो लोग गद्गद हो जाते...आखिर भगतजी के घर का पैर... बड़ी पुण्य वाली हो बहन...भला ऐसा कहां होता है कि जीते- जी मोह-माया, तृष्णा से किसी को मुक्ति मिले...अरे, उं+ची आत्मा रही भगतजी की, कहां संसार के बंधनों में फंसती! हां, उं+ची आत्मा थी भगतजी की...सांसारिक बातों के बीच कहां अंटती! उन्होंने हमें नहीं सहा था पर हमें तो उन्हें सहना ही था...जब वह थे तब भी उनकी शर्तों पर और जब नहीं थे तब भी उन्हीं की दी हुई स्थितियों के बीच। गोपू की गाय का दूध जो भगतजी के लिए मुंह-अंधेरे आ जाया करता था, बंद हो गया। ...फल, मेवे, घी सब बंद। कभी-कभी टेकड़ी वालों के बाग से बहुत-से अमरूद उतर जाते तो...वह सब याद करने का अब जी नहीं होता। मां पता नहीं मुझे कैसे-कैसे देखने लगी थी...असल में मुझे देखने में उसे उतना झुकना नहीं पड़ता था जितना सत्ताो और किशना को। मैं उन सबसे लंबा था...मां के झुके हुए कंधों के लगभग बराबर। क्या कहना चाहती हो मुझसे? मैं क्यों उससे पूछता। मैं...मैं...वेदों- पुराणों की गहनता को समझने वाले भगतजी का बेटा...पांच भाई-बहनों में सबसे बड़ा भाई...मशीन फेरती मां का जेठा। अब घर में रोटी लेकर मां को मेरी बाट जोहते बैठे रहना नहीं पड़ता था। भुने चने, भुट्टे, केले, अमरूद सड़कों पर बहुतेरे मिल जाते थे। उन्हीं दिनों कोई हरिद्वार से तीर्थ करके आया था। बाबू के वैभव और संयम की कहानियां पोटली में साथ बांधकर, जिसे गद्गद होकर हमारे आंगन में बिछा दिया गया था। क्या बताएं बहन! फलों के मेवे के ढेर लगे रहते हैं। दूध, दही, शहद, घी के मटके भरे रहते हैं, पर भगतजी? ...न! न! मजाल है आंख उठाकर भी देखें...। वह भरे पेट की निरासक्ति...बाबू का न्याय अपूर्व था। मेरी बात और थी... मैं कुएं के से भुतहे खोखल में रख दिया गया था जल्दी ही। बाहर कुएं की पथरीली मेंड़ पर थेसबके चेहरे। घूरते, मांगते, कोंचते। उन सबमें से हर कोई याचक थाभिखारी। मां की आंखों में कभी-कभी चमक उठने वाली वत्सलता की चौंध के सिवा। अक्सर मां का डरा हुआ हाथ पीठ पर पड़ जाता था। जैसे समझाना चाहती हो, यह शाबाशी घर में इस कदर उपयोगी हो उठने वाली मेरी मर्दानगी के लिए नहीं, रास्ते की थकान हरने के लिए है। बस! ...ऐसे ही किसी क्षण में, मुंह उठाकर देखना अच्छा लगता था, चाहे उन झुर्रियों में चीख़ती आराम की चाह और खाली खोखल आंखें अक्सर मेरे रास्ते में अड़ जाया करती थीं। मुझे लगता था, मां मशीन चलाना अब बंद हो जाना चाहिए। मुझे लगता था, घर-घर जाकर क्लीनिंग पाउडर बेचना छोड़कर सत्ताो को अपना दाखिला भर देना चाहिए। मुझे लगता था, मित्ताी को अब बिना किसी विलंब के वहां भेज देना चाहिए जहां से पेड़ों और पक्षियों पर टंगी उसकी भटकती निगाहों को ठौर मिल जाए। वह साबुन वाले लड़के द्वारा पाए प्लास्टिक के मनकों वाले हार की अवहेलना कर सके। किशन और सर्रो...उनके बारे में सोचने का जी नहीं चाहता था। कोशिश करो तो सिर के ऊपर की छत बित्ताा-बित्ताा नीचे धसकती घोंट देने की धमकियां देने लगती थीं। मेरे लिए ज़रूरी थाएक-एक कष्दम सोचना। वामन का पग मेरा नहीं हो सकता थाबाबू से मिले संस्कारों और दैवीय विश्वासों के बावजूद। दिव्य-भव्य जो कुछ भी था, वह बाबू के लिए था, मेरे लिए नहीं। मेरे लिए थीठोस कंकरीली-पथरीली ज़मीन। और फिर एक दिन... एक दिन कोई आया था और मेरी देह पर लगी खरोंचों की दाह को लेप देने के लटके देने लग गया था। मैं कोई अफसर नहीं था कि बड़ी-सी मेज़, कोई चपरासी, एक अदद टेलीफषेन और आदेश देने का हकष् मेरे अहं को रुतबा देने के लिए मुझे हासिल होते। हर समय फाइलों के ढेर पर झुकी रहने वाली मेरी गर्दन का विद्रोह, रीढ़ के रास्ते उतरता-उतरता काठ की कुर्सी पर जमे मेरे नितंबों तक पहुंचते अपना नाम बदल लेता थादर्द! एक दिन मां ने फटी-पुरानी धोती तहाकर प्लास्टिक की थैली में डालकर गद्दी बना दी थी। देह राजा हो गई लगी थी उस दिन। वह आया था। मेरी पीठ पर हाथ रखकर, मुझे टोहकर, अपने नाम की फाइल की तरफष् इशारा करके मुझे लिवा ले गया था। दफ्तर के सामने के स्टाल से उसने ख़ूब ज्यादा दूध डलवाकर भभकता हुआ चाय का एक प्याला बनवा- कर मुझे नज़र किया था और पनीर के पकौड़ों से लबालब भरी एक प्लेट। कैप्स्टन का एक सिगरेट उसने मेरी उंगलियों में खोंस दिया था और मेरी मुट्ठी में दाब दिया थाएक गड्डी सुख। मैंने अपनी मुट्ठी भींच ली थी। पहले लगा था, मैं तैयार नहीं हूं, पर मैं असल में तैयार ही था। एक सतही हिचकिचाहट के बाद। उस रात मैं सो नहीं पाया था। अंधेरा मुझे बड़ा निर्मम लगा था। सुबह उठने पर जान में जान आई थी। सुबह में सेंक था। रोशनी थी। चीज़ों के सही आकार-प्रकार दिखाकर अंधेरे के भय-भ्रम को तोड़ सकने की शक्ति। जल्दी ही लगने लगा था, मैं यहां उतना अकेला नहीं हूं। दूसरों के विश्वास को पा सकने का नायाब हथियार मुझे हासिल हो गया है। मुट्ठियां झाड़ दी थीं मैंने उन सब पर...कृपाओं की बरसात बनाकर। वे सब भीगे। तृप्त हुए। आकंठ डूबे। उनके चेहरों पर लिखी इबारतें पढ़ता-पढ़ता मैं भूल गया था उस निर्मम अंधेरे में अकेला जागते होने की बात...हवा में डोलती बाबू की दी वेद-पुराणों की सदाचारी सीखें। विरासत के बोझ को मैंने फालतू समझकर झाड़ दिया था। अब तक बाबू ने मुझे नाकाम किया था। मैं पहली बार उन्हें नाकाम कर पाया था। उनकी ज़रूरत का, उनके स्मरण और आचरण का अतिक्रमण करके।

धीरे-धीरे मां की मशीन छूट गई थी। वह अब बरांडे में सफेद कलफदार धोती पहने पीढ़े पर बैठी दीखतीं...यह शुभ्र भव्यता पहले कहां छिपी बैठी थी? सत्ताो ठेकेदारी करता अब शिलांग में रहता था। सर्रो और मित्ताी अपने संसार में कब की खप चुकी थीं। किशना के बारे में सोचने में डर नहीं लगता था। वह अपनी छोटी-सी दुकान में फल बेचता अक्सर मेरी दूसरी बांह होने का भ्रम पैदा करने को होता था, पर चुप हो जाता था। शायद अपने घर की लगाम के अनुशासन में लौट जाना उसके लिए ज़रूरी था। सबने चुपचाप ले लिया था और मुट्ठियां बंद कर ली थीं। सवाल नहीं किए थे। हिसाब नहीं मांगा था। जो मिलता गया था, उसे स्वीकारते गए थे। पहले कृतज्ञता से, फिर सुविधा की सभ्यता से और अंतत: अधिकार की ठसक के साथ। एक वह ही थातेजस्वी माथे वाला वह...चमकीली निडर आंखोंवाला वह...मेरे ही शुक्राणुओं में से जन्मा...प्रश्नों के बेदर्द नेजे हाथों में लिये मेरा ही साक्षात् सामना करता हुआ वह। वह मुझे भी मशीन के सामने बैठी म की तरह उठा देना चाहता था। उसके हिसाब से मैं बौखलाया हुआ थाउलझा और अस्थिर जाने कैसी-कैसी भूलों के लिए मजबूर! अगला भाग >>