यह है बनारस / बना रहे बनारस / विश्वनाथ मुखर्जी

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अधिकतर लोगों का विश्वास है कि विज्ञापन आधुनिक युग की देन है। यह बात बिलकुल बेबुनियाद और बेमतलब की है। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है—काशी नगरी की स्थापना।

आज से पचास वर्ष पहले जिन क्षेत्रों में शंकर के गण और लक्ष्मी के वाहन रहते थे, अब वहाँ आदम की औलादों के लिए भी जगह नहीं। दो आने पर कमरा और दो रुपये प्रति माह किराये पर डाक बँगला मारे-मारे फिरते थे। आज यह हालत है कि कुँवारों की कौन कहे डबल बीवियों के रहते हुए भी अस्तबल तक खाली नहीं मिलता। ऐसी हालत में आप कल्पना कर सकते हैं कि प्राचीन काल में यह उजाड़ खंड नगरी बिना विज्ञापन किये बस गयी?

जिस नगरी में शंकर के गण रहते थे, उसे बताने में उन्हें छठी का दूध याद आ गया होगा। दूर क्यों, लॉर्ड विलियम बेंटिंक के ज़माने में भी यहाँ डकैतियाँ हुआ करती थीं।

यही वजह है कि राजा काश्य ने बड़े तिकड़म से इस नगरी की स्थापना की वरना इसका नाम काशी नगरी कभी न होता। सबसे पहले उन्होंने भारतवर्ष में ऋषि-मुनियों को भेजकर यह प्रचारित करवाया कि काशी ‘अविमुक्त क्षेत्र’ है, यहाँ मरने पर सीधे शिवलोक का सर्टिफिकेट मिल जाता है, यकीन न हो तो यहाँ बसकर देखो। इस प्रसार से यह लाभ हुआ कि कुछ लोग काशी आये और बस गये। धीरे-धीरे यह प्रचार बढ़ता ही गया। उसका नतीजा यह हुआ कि जो लोग मरकर सीधे शिवलोक की सैर करना चाहते थे, यहाँ आकर बसने लगे।

लेकिन इसमें एक दिक्कत यह हुई कि काशी नगरी महाश्मशान बनती गयी। बसाने का उद्देश्य विफल ही रहा। सारा शहर हर वक्त भाँय-भाँय करता रहा। जिन लोगों का, यमराज के यहाँ से परवाना देर में आनेवाला था, वे इस वातावरण में घबरा गये। आखिर उन लोगों ने एक तिकड़म किया, जिससे वे लोग जो अपने साथ हैजा, प्लेग, महामारी और चेचक के कीटाणु लेकर यहाँ मरने आये थे, चंगे होने लगे। इस प्रकार शहर में मृत्यु दर घटने लगी और बनारस बसता गया।

तिकड़म

अब सवाल है—यह तिकड़म था क्या? आधुनिक युग के कोट-पैंटवाले उसे अन्धविश्वास कहते हैं और बनारसी भाषा में ‘चलउआ’, ‘टोटका’, ‘धार’ और ‘गाँव गोठाई’ आदि क्रिया।

अगर किसी मुहल्ले में हैजा-चेचक जैसी बीमारियों के पधारने की आशंका है तो फौरन भाई लोग चन्दा करते हैं और मुहल्ले की त्रिमुहानी पर (जहाँ पीपल या नीम का वृक्ष जरूर रहे) अथवा चौरा माई किंवा कोई देवता रहते हैं; मुहल्ले की औरतें लोटे में पानी लेकर सारे मुहल्ले का चक्कर लगाकर उसकी रक्षा का कार्य कर देती हैं। जिस प्रकार खरदूषण को मारने के लिए जब भगवान राम के बाद लक्ष्मण भी जाने लगे तब उन्होंने सीताजी की कुटिया के दरवाजे पर धनुष से एक लकीर खींचकर कहा था कि हे देवि, इस लकीर के बाहर मत आना। इसके भीतर सिवाय बड़े भइया के और कोई नहीं जा सकता। ठीक उसी प्रकार मुहल्ले की गोठाई से कोई भी बीमारी उस परिधि को पार कर भीतर नहीं जा पाती।

अगर आपके मुहल्ले में चेचक-हैजा जैसी कोई खतरनाक बीमारी आ गयी है तो फौरन ‘चलउवा’ निकलवा दीजिए। आपके मुहल्ले की बीमारी तुरन्त दूसरे मुहल्ले में ‘ट्रांसफर’ हो जाएगी। लेकिन यह काम जरा सावधानी से करना पड़ता है वरना सिर्फ आपकी नहीं, मुहल्लेवालों की लाशें सडक पर मछली की भाँति छटपटाती हुई दिखाई देंगी।

आज भी जब किसी मुहल्ले में ऐसी बीमारियों की दो-चार घटनाएँ लगातार होती हैं तब लोग तुरत सजग हो जाते हैं। रात भर पहरेदारी का कार्य चलता है। नगरपालिका की स्ट्रीट लाइट के अलावा हर घर के दरवाजे पर लालटेन अथवा बिजली के बल्ब रात भर जलते रहते हैं। हर गली के नुक्कड़ पर भाई लोग सेंगरी लेकर पहरा देते हैं। अगर कोई भी संदिग्ध आदमी गठरी लिये दीख गया तो खैरियत नहीं। रात भर ‘कहाँ जाला सरवा, जाय न पावे, धर सारे के’ आदि आवाजें आती हैं। बच्चों को शाम के पहले ही खाना खिलाकर सुला दिया जाता है, ताकि वे ‘हदस’ (डर) न जाएँ। गृहणियाँ भय के कारण काँपती रहती हैं, पर देवर लोग समझाते रहते हैं—‘भउजी, तू डरा जिन—बेखटके सूता। हम लोगन के रहते, कौन सरवा चलउवा लेके आई। बिछाके रख देब सारन के।’

कभी-कभी ऐसा होता है कि दूसरे मुहल्लेवाले अपनी आफ़त जब चलउवा के जरिये पड़ोस के मुहल्ले में रख जाते हैं तब इसका पता ओझाई के जरिये लगाया जाता है। ओझाई के जरिये सिर्फ उस व्यक्ति का नाम ही नहीं ज्ञात होता, बल्कि और भी अनेक रहस्य ज्ञात हो जाते हैं। जो व्यक्ति इस क्रिया को जानता है, उसका मुहल्ले में बड़ा सम्मान किया जाता है। ओझाई की एक प्रक्रिया को ‘हबुआना’ भी कहा जाता है। किस व्यक्ति के कारण मुहल्लेवालों के ऊपर यह आफ़त आयी इस बात का पता भले ही ज्योतिषीगण न बता सकें, सी.आई.डी. वाले फेल हो जाएँ, पर ओझाई के जरिये जरूर पता लग जाता है। सिर्फ यही नहीं, बल्कि इसका निराकरण कैसे होगा इस बात का पता भी लग जाता है। यही वजह है कि इस क्रिया पर अधिक विश्वास किया जाता है।

पता नहीं, इन क्रियाओं से कुछ लाभ होता है या नहीं, पर ऐसी घटनाएँ प्रत्येक वर्ष शहर के विभिन्न अंचलों में होती हैं। जहाँ बड़े-बड़े डॉक्टर, हकीम और वैद्य फेल हो रहे हों, वहाँ चलउआ—ओझाई रामबाण ही नहीं ‘दशरथ-बाण’ की तरह असर करता है। उतारा के जरिये रोगी की बीमारी तुरन्त ट्रांसफर कर दी जाती है। किसी भी त्रिमुहानी पर रकसवा कोहड़ा, कागज की पालकी, पान, सुपारी, फूल, माला, बतासा और पंचमेवा रख दिया जाता है। कहीं-कहीं बकरी का बच्चा बाँध दिया जाता है। अगर किसी को मालूम हो जाए कि अमुक त्रिमुहानी पर उतारा रखा हुआ है तो वह भूलकर भी उधर से घर नहीं जाएगा। लोगों का ऐसा विश्वास है कि जो व्यक्ति पहले-पहल ‘उतारा’ लाँघता है ‘उतारे’ का प्रभाव उस पर पड़ता है। इसीलिए हर व्यक्ति यही सोचता है कि सम्भवत: मैं ही पहला व्यक्ति हूँ। उतारा-चलउवा के नाम पर आज भी बड़े-बड़े महारथी दहल जाते हैं। उतारा रखते वक्त पीछे मुडकर नहीं देखा जाता और रखते वक्त टोक-टाक करने पर उसका असर नहीं होता। यही वजह है कि यह काम चुपचाप होता है।

उतारा और चलउवा से कुछ हो या न हो, पर एक क्रिया है—‘बान चलाना’। उससे कितनों को मरते देखा गया है। टोटका विज्ञान के अन्वेषकों को चाहिए कि इस विद्या के रहस्य से साधारण जनों का परिचय कराएँ। आज के स्पुतनिक युग में नकली ग्रह की तरह आसमान में हँड़िया चलते देखा गया है और वह जहाँ गिरा है, वहाँ किसी को ले बीता है अर्थात जिसके नाम पर चला उसकी मौत निश्चित है।

कुछ अन्य प्रथाएँ

चलउवा और उतारा के अलावा बनारस में कुछ ऐसे रहस्य भी हैं जो उनके अपने हैं। मुमकिन है, वैसे दृश्य आपको अन्यत्र कहीं न दीखें। इन रस्मों को बनारसवालों ने इस तरह अपना लिया है मानों जैसे उनकी यही संस्कृति हो।

उदाहरण के लिए गंगा पुजइया। बनारस के अलावा अन्यत्र कहीं यह प्रथा शायद ही देखने में आती हो। विवाह के पश्चात जब बहू ससुराल आती है तब मुहल्ले भर की औरतें वर-वधू को सजाकर घर से गंगा घाट तक बाजे-गाजे के साथ, ‘सोने की थाली में जेवना परोसों’ गाती हुई चलती हैं। उस समय बेचारे दूल्हे की हालत पर तरस आता है। मुझे अच्छी तरह याद है कि हजार विरोध करने पर भी मेरे कतिपय मित्रों को गंगा पुजइया में जाना पड़ा था। उनकी नजरें शर्म से ऊपर नहीं उठती थीं। जब वे घर आये तब यही कहा कि भगवान करे कोई विवाह न करे, अगर करे तो गंगा पुजइया में न जाए।

अकसर बनारस में आपने कुछ लोगों को जमीन में लेटते तथा निशान लगाकर पुन: उसी जगह से आगे लेटते देखा होगा, यह शयन परिक्रमा है। इससे पुण्य लाभ होता है।

इसी तरह का एक दूसरा दृश्य है—गया दर्शन का प्रदर्शन। आधुनिक युग के लोग जब रूस, चीन आदि देख आते हैं तब पत्रकार गोष्ठी में अथवा ‘बार एसोसियेशन’ में उनका भाषण होता है, ठीक उसी प्रकार जब कोई दम्पती ‘गया’ दर्शन कर आता है तब वे लाल रंग की धोती पहने, कन्धे पर एक बाँस की लकड़ी रखे और हाथ में एक लोटा पानी लेकर छिड़कते हुए चलते हैं। जो लोग इस प्रथा के बारे में नहीं जानते, अकसर ऐसा दृश्य देखने पर चकित रह जाते हैं। कुछ लोग तो सोचते हैं कि बुढ़ऊ ने इस उम्र में दूसरी सगाई (विवाह) की है।