यांत्रिक प्रवाह से मुक्ति! / ओशो

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

प्रवचनमाला

मंदिर और उपासना-गृहों में बैठने का कोई मूल्य नहीं है और तुम्हारे हाथों में ली गई मालाएं झूठी हैं, जब तक कि विचार के यांत्रिक प्रवाह से तुम मुक्त नहीं होते हो। जो विचारों की तरंगों से मुक्त हो जाता है, वह जहां भी है, वहीं मंदिर में है और उसके हाथ में जो भी कार्य है, वही माला है।

एक व्यक्ति ने किसी साधु से कहा था, मेरी पत्नी मेरी धर्म-साधना में श्रद्धा नहीं रखती है। आप उसे थोड़ा समझा दें तो अच्छा है।

दूसरे दिन सुबह ही वह साधु उसके घर गया। घर के बाहर बगिया में ही उसकी पत्नी मिल गई। साधु ने पति के संबंध में पूछा। पत्नी ने कहा, जहां तक मैं समझती हूं, इस समय वह किसी चमार की दुकान पर झगड़ा कर रहे हैं।

सुबह का धुंधलका था। पति पास ही बनाए गए अपने उपासना-गृह में माला फेर रहा था। उससे इस झूठ को नहीं सहा गया। वह बाहर आकर बोला, यह बिलकुल असत्य है। मैं अपने मंदिर में था।

साधु भी हैरान हुआ; पर पत्नी बोली, क्या सच ही तुम उपासना-गृह में थे? क्या माला हाथ में, शरीर मंदिर में और मन कहीं और नहीं था?

पति को होश आया। सच ही वह माला फेरते-फेरते चमार की दुकान में चला गया था। उसे जूते खरीदने थे और रात्रि ही उसने अपनी पत्नी से कहा था कि सुबह होते ही उन्हें खरीदने चला जाऊंगा। फिर विचार में ही चमार से मोल-तोल पर उसका कुछ झगड़ा हो रहा था! विचार को छोड़ो और निर्विचार हो रहो, तो तुम जहां हो प्रभु का आगमन वहीं हो जाता है।

उस खोजने तुम कहां जाओगे? और, जिसे जानते ही नहीं उसे खोजोगे कैसे? उसकी खोज से नहीं, स्वयं के भीतर शांति के निर्माण से ही उसे पाया जाता है। कोई आज तक उसके पास नहीं गया है, वरन् जो अपनी पात्रता से उसे आमंत्रित करता है, उसके पास वह स्वयं ही चला आता है। मंदिर में जाना व्यर्थ है। जो जानते हैं, वे स्वयं ही मंदिर बन जाते हैं।

(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाडंडेशन)