यात्रा से पहले समेटना / कौशलेन्द्र प्रपन्न

Gadya Kosh से
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यात्राएं हमेशा से ही न केवल आकर्षित करती रही हैं बल्कि जीवन के व्यापक दर्शन से भी हमें रू ब रू कराती हैं। यही कारण है कि देश-विदेश भ्रमण करने वाले देशी-विदेशी अपने रोजमर्रे की ज़िन्दगी से समय निकाल कर यात्राएं किया करते हैं। वह चाहे राहुल सांस्कृतायन हों, फाह्यान हांे या फिर वास्कोडिगामा इन तमाम यात्रा पसंद लोगों ने अपनी जमीन को छोड़कर भ्रमण को तवज्जो दिया। इसका प्रमाण हमें साहित्यिक और गैर साहित्यिक रचनाओं के माध्यम से पढ़ने को मिलती हैं। राहुल सांस्कृतायन ने तो अथातो घुमक्कड़ी कथा ही लिख डाली जिससे गुजरना गोया स्वयं यात्रा पर निकले के आनंद से भर जाना है। मानव विकास का इतिहास गवाह है कि हमारे पुरखे महीनों यात्रा किया करते थे। वह पैदल या बैलगाड़ी से निकल जाया करते थे। माध्यम कभी भी यात्रा के रोमांच को कम नहीं करते थे। बल्कि महज साधन होते थे उनका लक्ष्य घूमना और नई-नई जगहों, संस्कृतिओं और समाजो-आर्थिक बुनावट को समझना भी होता था। संभव है इस कला में व्यापारी वर्ग ज़्यादा पगे थे। सामानांे की खपत बिक्री के बाद स्वदेश लौट आया करते थे। किन्तु यदि कोई नई जगह पसंद आ गई तो वहीं के होकर रह जाया करते थे। हम व्यापक स्तर पर मानवीय विस्थापन की शुरुआत यहाँ से भी मान सकते हैं। इस सच को भी नकारना नहीं जा सकता कि हमारी आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक हैसियत बढ़ाने की चाह ने हमें देशभ्रमण की ओर प्रेरित किया हो।

किसी भी यात्रा पर निकलने से पहले खुद को समेटना भी होता है। रेाजमर्रे की भागम-भाग में से समय चुरा कर तत्कालीन दबाओं, कामों, इच्छाओं को समेटकर आगामी यात्रा के लिए मानसिक और शारीरिक तौर पर हम खुद को दुरुस्त करते हैं। बैग की पैकिंग से लेकर होटल, स्थानों का चयन एक थका देने वाली प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है। खुद को कई बार ऑल्टर भी करना पड़ता है। किन सामानांे को लेकर जाया जाए और किन्हंे छोड़ सकते हैं।

इन पंक्तियों के लेखक को यात्रा मंे कई जाने पहचाने नाम पहली बार मिले और कई ऐसे थे जिनसे पहली बार ही परिचय सूत्र बंधे और आज तक संपर्क की डोर बंधी हुई है। लेह लद्दाख की यात्रा पर बाज़ार में टहलते हुए डॉ जगदीश्वर चतुर्वेदी जी मिले। वहीं बड़ाकर के श्री अभिजीत सरकार से मुलाकात हुई. साथ ही कश्मीर की यात्रा के दौरान स्थानीय ज़ीया बानी कक्षा में छह में पढ़ने वाली से दोस्ती हुई जिससे कहानी के मार्फत संवाद के तार अब भी कायम है। निश्चित ही यात्रा में कई बार अपने खोल से बाहर आना और खुद को खुलना भी पड़ता है तभी अन्यों की डोर से हम खुद को बांध पाते हैं। क्या कहा जाए जिन्हें यात्रा में भी घर-सा खाने की चाह होती है। उन्हें कई बार भटकने के बाद भी संतोष नहीं मिलता। फर्ज कीजिए आप यदि यात्रा में भी वही नामी गिरामी दुकान के खाने, बर्गर, पीज़ा खाते हैं तो बड़े ही दुर्भागे कहे जाएंगे। कोशिश तो यह हो कि स्थानीय भोजना का स्वाद लिया जाए. उस शहर, कस्बे की क्या ख़ास भोजन, व्यंजन है उसका आनंद लिया जाए.

हमें कई मर्तबा यात्रा पर कुछ खास उद्देश्यों को पूरा करने के लिए भी चुनना चाहिए. इन पंक्तियों के लेखक अपनी यात्रा में स्कूल और शिक्षण संस्थानों में बच्चों और स्थानीय प्राध्यापकों से बातचीत के अवसर भी तलाशता है ताकि स्थानीय स्तर पर किस प्रकार की शिक्षा, भाषा, सृजनात्मकता को बढ़ावा दिया जा रहा है उसे समझने और अपनी दक्षता का लाभ उन्हें हस्तांतरित किया जा सके. अमूमन हम अपनी यात्रा पर एक बने बनाए फ्रेम से बाहर नहीं झांकना चाहते। न ही बाहर जाना देखना समझना चाहते हैं। यही वजह है कि हम तय पर्यटन स्थलों को देख कर वापस अपने शहर लौट आते हैं। यदि सचमुच उस शहर, गांव-कस्बे को जानना है तो करीब जाना है। जो शोर और चाक-चिक्य से दूर वहाँ के स्थानीय लोगों से मिलना बतीयाना बेहतर होता है। जब यात्रा पर बच्चे भी हों तो हमें उस स्थानों, कलाकृतियों, इमारतों से ज़रूर परिचय कराना अच्छा होता है जिसे वे अपनी पाठ्यपुस्तकों में पढ़ते हैं।

रुदयाड किप्लिंग की किताब ऑन द टैक ऑफ किम पढ़नी चाहिए क्योंकि यह एक ऐसी यात्रा वृत्तांत है जिसे पढ़ते हुए पाठक उन-उन स्थानों की यात्रा भी कर लेता है जहां का जिक्र किताब में की गई है। हिन्दी में भी बेहतरीन यात्रा संस्मरणें लिखी गई हैं जिन्हें पढ़ते हुए रोमांच से भर जाते हैं। इस सिलसिले में गीता श्री की लिखी बाली देश की यात्रा-संस्मरण पढ़ी जा सकती। वहीं प्रताप सहगल की लिखी रचनाएं भी सरस और रोचक यात्रा-संस्मरण हमें यात्रा पर ले जाने की ताकत रखती हैं।

हालांकि हर यात्राएं मनोरंजक के साथ दिलचस्प ही होती हों ऐसा नहीं कह सकते। हमें क्योंकि कई बार खट्टे अनुभव भी अपने साथ बटोरने पड़ते हैं। ऐसे में यात्राएं करने से तौबा कर लेते हैं लेकिन जो सच्चे यात्री हैं वे एक यात्रा से लौटने के बाद दूसरी यात्रा की मानेजगत में भूमिका और योजनाएं पकाने लगते हैं। कभी मेरे बड़े भाई राघवेंद्र प्रपन्न बचपन मंे नानी के घर की यात्रा कराया करते थे। उस यात्रा मंे रोमांच तो होता ही था साथ ही 'यही जो दुनिया' की यात्रा भी कराया करते थे। यात्रा में पढ़ने-लिखने और लोगों से संवाद करने के अवसर मिलते हैं। दूसरे शब्दों मंे कहें तो अपने खोल से बाहर निकलने और फैलने का मौका भी मिलता है। अफ्सोस की कई लोग अपनी बनी बनाई सुविधाओं की चादर से बाहर नहीं आ पाते। यात्रा का आनंद लेने की बजाए तकनीक में स्मृतियों को कैद करने में वक्त जाया कर दिया करते है। निजी अनुभव है हम पहले कम से कम हजार तस्वीरें उतारा करते थे। उनमंे से कुछ को सोशल मीडिया के पेट में डाल कर सो जाते थे दुबारा उन तस्वीरों को देखने का मौका नहीं मिलता। बस वह मेमोरी में पड़ी रहती हैं। कितना अच्छा हो कि हम उन पलों स्थानों को उस वक्त जीएं बजाए कि उस क्षण को लेंस की नज़र कर दें।