यात्रा / प्रकाश मनु

Gadya Kosh से
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गाड़ी चल पड़ी है, और गाड़ी के साथ वह भी। शायद वह नहीं, उसकी देह-मात्र। थकी, खंडित, बोझिल और भीतर की ओर मार करती हुई। लड़ाई से पहले ही पराजित और टूटी हुई देह। पर मन नहीं और मन के भीतर गहरे धँसीं, जोरदार ढंग से अपने होने का एहसास कराती दो आँखें नहीं। वे अभी वहीं हैं, स्टेशन पर। वे जिन दो और आँखों को देख रही हैं, वे झुकी और उदास हैं। भीतर ही कुछ खोजती, पलटती हुई। कुछ कहना चाहती हैं, पर विवश हैं। शायद वे अपनी बात अपने, बिलकुल अपने ढंग से कहना चाहती हैं। पर इतने लोगों की भीड़ देखकर असमंजस में हैं, हताश और चुप हैं। गाड़ी चली जा रही है और स्टेशन अब लगभग छूटने को है। वह दरवाजे पर खड़ा होकर बाहर देखने लगता है।... शुभा अभी भी बेंच पर उसी तरह बैठी है। थकी और उदास। उसका मन बुझने, नहीं—अजीब तरह से सनसनाने लगता है। रक्त के भीतर कुछ जलता हुआ-सा, फट पड़ता-सा! उसे लगता है, पाँवों के पास अभी कोई काँच का गुलदस्ता टूटा है जिसकी अशुभ, निर्मम आवाज और किरचें शरीर के भीतर रेंगने लगी हैं। काले, डरावने और लहरीले साँपों की तरह।...उसे अपने हाथ, पाँव, सारा शरीर चोटिल महसूस होता है, थरथराता हुआ। उसे लगा कि वह गाड़ी से कूद जाए और शुभा से कह दे कि नहीं, उसे कहीं नहीं जाना। नहीं जाएगा वह घर और न घर वालों की मरजी से इंटरव्यू देने। अब उससे नहीं होता। नहीं देखी जाती रोज-रोज की हार। वह कुछ भी कर लेगा। कोई भी छोटी से छोटी नौकरी करके गुजारा कर लेगा, पर... पर...स्टेशन छूटता चला जा रहा है और अब शुभा दिखाई नहीं दे रही है। भीतर विवशता, दीनता और प्रतिहिंसा बुरी तरह कोंचती है और वह तिलमिलाने लगता है।


गाड़ी चली जा रही है और गाड़ी के साथ वह। वह रास्ते के तजी से भागते हुए पेड़ों, खेतों, झाड़-झंखाड़, ऊबड़-खाबड़ टीलों और अपनी मस्ती में सही मायनों में आजाद चिड़ियों और गिद्धों पर कसके निगाहें जमाए खड़ा है। पूरी ताकत के साथ, कि जैसे इनमें कुछ मिलेगा जो खो गया है, हँसकर अचानक बिखर गया है। उसका सुख-चैन, उसकी शक्ति, उसकी शांति...सब कुछ। कितनी कड़वाहट भर गई है उसके भीतर, कितनी बेचैन छटपटाहट? और उसका आक्रोश जो कहीं और टकरा नहीं पाता, लौटकर उसी के टुकड़े-टुकड़े करके बिखेर देना चाहता है, धूल में, हवा में...! पेड़ों की पत्तियाँ अचानक हिलती हैं और वह बुरी तरह चौंक जाता है। “शुभ...शुभ...!” उसके मुँह से निकलते-निकलते रह जाता है। पेड़ों की हिलती पत्तियों में उसे अभी शुभा दिखाई दी थी। हँसती हुई। हाथ हिलाती हुई। पास आती हुई। और यहाँ—माथे पर, जहाँ उसने छुआ था, उसे अपने बाल उड़ते-सरसराते हुए लगे। तो...तो क्या शुभा आई थी यहाँ? यहाँ कैसे! नहीं, वह तो स्टेशन पर थी। वहाँ भीड़ की नजरों से अपनी उदासी और बेचैनी को बचाती हुई वह उठी होगी और उस लाल शर्ट पहने चालू-से दिखने वाले लड़के से—जो देर से उसे अकेला पाकर घूर रहा था, बचती-बचाती हुई घर गई होगी। घर वालों की नजरों से बचकर बिस्तर तक चली गई होगी। अँधेरे के खिलाफ जलती हुई आँखों से एक अजीब विडंबना को समझने-परखने की कोशिश कर रही होगी। काश! वह शुभा को अपने साथ घर ले जा सकता। अपना, बिलकुल अपना बनाकर। कहता माँ से कि माँ देखो, देखो इसे, इसमें कोई खोट नहीं है, कोई बनावट नहीं। कोई चालाकी, कोई स्वार्थ नहीं। बिलकुल वैसी है जैसी तुम्हारी दूसरी बहुएँ हैं, दीदी हैं, बल्कि जैसी तुम हो...तुम खुद! और जैसा तुम्हारा यह बेटा है जिसे तुम लाड़ला कहती हो। काश, यह सब स्वप्न न रहता, यह सब हो सकता होता। पर... पर क्या गलत है इसमें? क्यों नहीं हो सकता यह? कौन इसके लिए जिम्मेदार है? वह सोच नहीं पाता। बस, मनहूसियत के खोल के भीतर लटक जाता है और खुद को उधेड़ने लगता है...


जीवन में कितना लुटा-पिटा, अपमानित हुआ और हारा है वह। कितना कुछ खोया है उसने। कहाँ-कहाँ भटका है, अँधेरी और अँधेरी घाटियों में। विकृतियों के रक्त-मुख प्रेतों के बीच। चारों ओर स्वार्थों की भयानक सड़ाँध महसूस करता हुआ लगातार खत्म होता गया है वह। एक अजीब पथरायापन व्याप्त हो गया है उसके संपूर्ण अस्तित्व में। अकसर वह अपने भीतर एक जहरीला धुआँ महसूस करता है, लगातार फैलता हुआ, जिसने उससे उसके बोध को, ‘स्व’ को छीन लिया है। हालाँकि यह ठीक है कि आज वह पहले की तरह अकेला नहीं है। शुभा, उसकी शुभा है उसके साथ। एक-एक क्षण उसके साथ है वह, उसकी असफलताओं और मनोव्यथाओं में सांत्वना देती, धीरज बँधाती हुई। उसकी अंतर्वेदना को जीकर उसे जिंदगी का अर्थ देती हुई। उसने वह सब महसूस किया है, जाना है पहली बार—पूरी कृतज्ञता के साथ। पर अब उसके साथ ऐसी जिम्मेदारी भी तो है जिसे उसने जीवन में पहली बार महसूस किया है—कॅरियर! नहीं तो इससे पहले कॅरियर के बारे में, जीविका के बारे में, अपने निजी घर के बारे में कब सोचा था उसने। सोचता था, मुझे क्या करना है कुछ कमाकर, या...पैसा क्या चीज है मेरे लिए? बस, पढ़ने-लिखने, लोगों को पढ़ाने-समझाने में ही सारी उम्र निकाल दूँगा और दो रोटी का इंतजाम तो कहीं न कहीं हो ही जाएगा। इसलिए दुनियादारी का कुछ पता ही नहीं था उसे। पर अब? अब वह अपने और शुभा के लिए एक छोटा-सा घर चाहता है। अब वह अपने भविष्य को नजदीक से देख रहा है। उलझनों के बीच से निकलने और जीने का उसे एक रास्ता दिखाई पड़ने लगा है। ठीक-ठीक महसूस होने लगा कि इस बार टूटा तो टूट जाएगा। फिर कभी सँभल नहीं सकेगा और हमेशा के लिए खत्म हो जाएगा। और...और आज...? आज स्टेशन पर शुभा का उदास चेहरा याद करके उसका मन बुरी तरह टूटने लगा है। वह अपनी विवशता और दीनता के बारे में और अधिक कांशस हो गया है। उसने कहाँ लाकर पटक दिया है शुभा को? क्या इसी रोज-रोज की मानसिक तकलीफ के लिए वह उसे अपनी जिंदगी में लाना चाहता है।


यों आज सुबह तो काफी उत्साहित लग रही थी शुभा। बल्कि वही कुछ ढीला पड़ रहा था, “मुझसे परफार्मेंस कुछ ठीक नहीं बनेगा, शुभ। मैं पहले रिसर्च का काम पूरा कर लूँ। फिर इंटरव्यू को ठीक से फेस कर सकूँगा। वैसे भी कुछ भरोसा तो है नहीं। जाने किस-किस की सिफारिशें आई होंगी। कुछ नहीं होगा—बस वही चालाक मुद्राएँ, बोले सवाल। जाना और आना ही है, कोई फायदा नहीं।” उसने तर्क दिया था। पर शुभा ने उसकी किसी बात को नहीं सुना था। एक ही बात वह बार-बार बदल-बदलकर कहती रही थी, “लेकिन...सोचो तो! हर्ज आखिर क्या है? तुम्हें सिर्फ वहाँ हो आना है। तुम यह सोचो ही नहीं कि तुम्हारा वहाँ सेलेक्शन हो सकता है। उम्मीद लेकर जाओ ही नहीं। तब निराशा नहीं होगी। फिर घर वालों ने कितने आग्रह से लिखा है पत्र। अविनाश, उनका ख्याल तो तुम्हें करना चाहिए, अगर मेरा नहीं...” “तुम्हारा क्यों नहीं? क्या कहती हो शुभ?” वह बेहद संजीदा हो आया था। स्वर काँपने लगा था उसका। “अरे, मैं तो वैसे ही कह रही थी और तुम...? वाह जी, प्रतिभा-पुरुष!” शुभा अचानक हँस दी थी। प्रतिभा-पुरुष!... शुभा के पास उसका मजाक उड़ाने का और प्रशंसा का भी, बस यही एक सटीक संबोधन था। फिर उसने भी सोचा था कि शायद उसी की बात ठीक हो। शायद वह अपने इंटरव्यू से लोगों को प्रभावित कर सके। शायद बिना सिफारिश के ही सेलेक्शन हो। शायद भाग्य जैसी कोई चीज उसके जीवन में भी हो, शायद कुछ हो ही जाए। और अगर हो जाता है तो...? तो कितना कुछ बदल जाएगा एक क्षण में। मात्र एक क्षण में वह उखड़े हुए पत्थर की जगह आदमी हो जाएगा। जीता-जागता, महसूसता हुआ...और कभी-कभी हँसता हुआ भी। आज की तरह नहीं कि उसका हँसना रोने से भी अधिक दीन और बदतर है।...फिर वह शुभा को साथ लेकर जाएगा। वे विवाह कर लेंगे। उनका एक छोटा-सा घर होगा, उनके अपने सुख और तृप्ति से छलछलाता हुआ।... और उसने तय किया कि वह जाएगा। इसलिए नहीं कि अब उसे उम्मीद हो आई थी, बल्कि इसलिए कि बाद में अवसर खो देने की ग्लानि और पश्चात्ताप न हो। वह आगरा जाएगा, इंटरव्यू देगा और इसी बहाने घर वालों से और माँ से मिलकर लौट आएगा। उसने हाँ कर दी थी। और इस ‘हाँ’ में स्वप्न सँजोने का एक और अवसर हाथ में आता देख, शुभा खुश हो गई थी। फिर वे पैदल घूमते हुए ब्रह्म सरोवर पर आए थे। वही ब्रह्म सरोवर जिसे खुशनुमा पलों में वहाँ टहलते हुए वे ‘शहर का दिल’ कहा करते थे। उसने हौले से शुभा का हाथ पकड़ लिया था। दूर तक वे हाथ पकड़े हुए साथ-साथ चलते जा रहे थे। विचित्र-सी तृप्ति और आत्मगौरव से भरे हुए। सामने सरोवर के पानी पर एक लय में तैरते हुए जलविहगों की क्रीड़ा और गर्व जैसे उनमें सिमट आया हो। फिर उसने अचानक शुभा को पास सटा लिया था। उसका माथा चूम लिया था और...और खड़ा रहा था। फिर जैसे कुछ नहीं रहा था, एक अपार्थिव अस्तित्व-तरंग के सिवा। जैसे जीवन की सारी पहचानें और छवियाँ उसके भीतर व्याप गई हों। “हम विवाह करेंगे। जरूर करेंगे।...कर लेंगे न?” शुभा ने आवेश में उसके कंधे पकड़कर हिला दिए और जलती हुई आशा से आँखों में झाँका था। “हाँ!” अंदर की घनीभूत उत्तेजना की वजह से उससे कुछ भी नहीं बोला गया था। “कोई नहीं रोक सकता हमें, कोई नहीं। कोई बीच में नहीं आ सकता, कोई हमें दूर नहीं कर सकता।” “तुम्हें भी लगता है न अविनाश...मेरा मतलब है, पूरी तरह से!” शुभा लगभग चिल्ला पड़ी थी। “हाँ शुभा, हम एक-दूसरे के लिए बने हैं। मैं बहुत भावुक होकर नहीं कह रहा। मैं सोच नहीं पा रहा, लेकिन मैं देख रहा हूँ। मैं देख रहा हूँ कि...हम दो नहीं, एक हैं। हम एक-दूसरे की संपूर्णता हैं, किसी बड़े निमित्त के लिए। सृष्टि का कोई गहरा अर्थ थाहने के लिए हमारा साथ है।” अपनी उत्तेजना पर काबू पाने के लिए उसे बेहद शक्ति लगानी पड़ रही थी। “यह तुम कह रहे हो, अविनाश तुम—यह ठीक है न? यह सच है न! साक्षी है सूरज, साक्षी है आकाश, साक्षी है जल!” उसने कहा तो लगा जैसे ऋग्वेद की कोई ऋचा दोहराई हो। फिर शुभा उसे सरोवर के मध्य बने मंदिर में ले गई थी। वहाँ उसने अविनाश से हाथ जोड़ने के लिए कहा था और खुद आँखें बंद करके थरथराते होंठों से पूजा के कुछ श्लोक पढ़े थे। वह अधमुँदी पलकों से अचानक रहस्यमय हो आए उस वातावरण को देखता रहा। “कर्पूरगौरं करुणावतारं संसारसारं भुजगेंद्रहारं, सदावसंतं हृदयारविंदे भवम् भवानीसहितं नमामि...!” लहरों की तरह हिलोरें लेता हुआ एक-एक शब्द उसे कहीं और...कहीं और ले जा रहा था। उसकी आँखें मुँदती चली गई थीं। अचानक वह चौंका था। शुभा उसके पैरों पर झुक आई थी, हाथों से उसके पैरों को छूकर वह अब उन्हें माथे से लगा रही थी। कि...त...ना...छोटा महसूस किया था उसने। इतना बड़ा सम्मान! क्या वह इसके योग्य है? अचानक दिल में बहुत तेजी से कुछ उमड़ने लगा था, बाहर फूट निकलने के लिए। उसने बहुत रोका, पर आँखें छलछला आईं।


छक्-छक् छक्छक्...छक्छक्छक्...! गाड़ी चल रही है, चलती जा रही है। ऊपर से देखने पर सीधी-सपाट, लेकिन भीतर बेतरतीब अनियंत्रित आवेश दबाए। फौलादी पहियों से वक्त की रीढ़ पर गहरी अग्नि-रेखाएँ खींचती हुई। और इसके साथ तरह-तरह की शक्ल और आकारों के पेड़। खेत। झाड़-झंखाड़। अपनी संवेदना की धुकधुकी छिपाए सपाट टीले और उनके दुख-दर्द की कथाएँ बाँचती चिड़ियाँ। सब जैसे मिलकर जीवन की अक्षुण्ण कहानी, अनजानी संवेदना को आकार देना चाहते हैं। जैसे किसी एक की वेदना किसी सीमा पर आकर किसी एक की नहीं रह जाती। मनुष्य मात्र की पिघलती हुई संवेदना, कोंचता हुआ सवाल बन जाती है। वह सोचता है, सोचता है और पता नहीं, क्या-क्या सोचता चला जाता है। जैसे हवा के थपेड़ों में फड़फड़ाती कोई फटी हुई पतंग, जिसकी लाचारी कोई नहीं समझता। कोई समझना भी नहीं चाहता। यह जिंदगी ऐसी ही है। ऐसी ही है हर उस शख्स की कहानी, जिसने सब कुछ सीखा, मगर दुनियादारी नहीं। फायदे और नुकसान के हिसाब-किताब वाला गणित भी नहीं। भला उसे क्यों न ठोकरें मिलेंगी। ठोकरें...और मार...! उफ, कितनी मुश्किल से काटे हैं ये दिन उन्होंने? यूनिवर्सिटी के चुस्त, भड़कीले ‘लिबासों’ की शोख फे्रंडशिप और फैशनेबल मुसकराहटों के बीच एक जोड़ा उनका भी था। बेहद सादा, सीधा और निरीह। शुभा अकसर किसी साधारण, बदरंग सलवार-कमीज में होती और वह ढीली-ढाली पैंट पर मैला, लंबा-सा कुरता लटकाए साथ-साथ चल रहा होता। अकसर ही सबकी निगाहों में, सबके मजाक भरे स्वर में वे उभरते। कितने अजीब हैं ये? लोगों की निगाहों में एक अजीब-सा व्यंग्य मुसकराता—नागफनी के नुकीले काँटों की तरह। और वे चप्पलें फटकारतेे हुए परेशान से गुजर जाते। शुभा के घर कुछ रुक-रुककर शादी की बातचीत चल पड़ती। विरोध करते-करते वह उद्विग्न और उन्मत्त तक हो जाती। “मुझे नहीं करनी शादी। अभी नहीं करनी!” वह जोरों से प्रतिवाद करती। लेकिन कुछ भी घर पर बता नहीं सकती थी और न उन्हें उसके लिए पति तलाश करने की निरंतर कोशिशों से विरत कर सकती थी। अगले दिन डिपार्टमेंट में आते ही वह फूट-फूटकर रोने लगती। उसे सहारा देते-देते वह खुद बेचैन हो जाता। वह समझ नहीं पा रहा था, क्या करे, किससे कहे! किस सहारे पर शुरू करे जीवन? एक छोटी और मामूली शुरुआत तक नहीं कर सकता वह। कहीं पैर रखने को भी जगह नहीं। अभावों के प्रचंड आकाश के नीचे सख्त दोपहर में, इतने अंगारे हैं पैरों के नीचे...कि इस झुलसते हुए दाह को अब और बर्दाश्त कर पाना नामुकिन है। लेकिन...रास्ता?


कैंट...! आगरा...आगरा कैंट!! आगरा कैंट स्टेशन आ गया है। वह खुद को और कंधों पर लटके थैले के बोझ को अनचाहे खींचता हुआ, रिक्शा पर बैठ जाता है। सर्दी की ठिठुरन हड्डियों तक को कँपा रही है। फिर भी थैले से स्वेटर निकालकर पहनने का मन नहीं होता। घर पहुँचने पर वह अपराधी जैसे भाव से उतरता है रिक्शे से। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ। पर आज वह चाहकर भी एक अबूझे द्वंद्व से निकल नहीं पा रहा है। अपने घर आकर भी उसे लग रहा है कि किसी बेगाने घर आया है, दो-तीन दिन रुकने के लिए और यहाँ उसका कोई हक नहीं है। कोई उसे समझने वाला नहीं है। वह अपनी भाषा बाहर भूल आया है और गूँगा होकर घर में दाखिल हो रहा है। उसकी संवेदनशीलता, स्नेह, समझदारी सभी उसे छोड़कर जड़ बना गए हैं। उसने दरवाजा खटखटाया। एक बार, फिर दूसरी बार। भीतर वाले कमरे की बत्ती जली है। फिर कदमों की आवाज। जरूर पिता जी ही हैं। दरवाजे के पास आकर वे पूछते हैं, “कौन...?” “मैं, अविनाश...!” उसे लगा, शब्द उसके गले में फँस गए हैं। पिता जी दरवाजा खोलते हैं तो वह हड़बड़ाकर पैर छू लेता है। पिता जी हमेशा की तरह प्रसन्न होकर आशीर्वाद देते हैं। किस गाड़ी से आए हो? कोई तकलीफ तो नहीं हुई? हर बार की तरह पूछते हैं। हर बार की तरह ये सवाल ताजे और जीवंत लगते हैं जिनमें ऊपरी सपाटता के भीतर दिल की गहन ऊष्मा छलछलाती है।...पर इस बार न जाने क्यों उसे कोई जवाब नहीं मिल पा रहा। माँ पहले की तरह उसे छाती से चिपका लेती हैं, उसका सिर चूमती हैं और देर तक ‘हे शुकरे, हे शुकरे’ (ईश्वर का शुक्र है!) कहकर उसकी पीठ पर हाथ फेरती हैं। उसे अपने साथ ही भीतर रजाई में लेकर माथा थपथपाने लगती हैं। वह भीतर से पिघलने लगता है—आह! वह माँ तक से कितना कुछ छिपा रहा है, नहीं बता सकता कि...! वह जोर लगाकर अपने भीतर उमड़ते हुए इस तूफान को तोड़ देना चाहता है। इसलिए आँखें बंद करके सोने की कोशिश करने लगता है। माँ खाना बनाने के लिए उठती हैं, तो वह औपचारिक ढंग से रोकता है, “भूख नहीं है माँ, मथुरा स्टेशन पर पूड़ियाँ खा ली थीं।” “क्यों?...ए वी कोई गल्ल ए!” माँ डाँटती सी हैं। फिर रसोईघर में स्टोव जलता है, बरतन खड़कते हैं। पहले की तरह। माँ खाना बनाकर ले आती हैं। खाना खाते-खाते साथ में चाय भी—पहले की ही तरह। माँ उसकी यह आदत भूली नहीं हैं। खाने के बीच माँ के ढेरों सवाल। वहाँ किस तरह रहता है, खुश और स्वस्थ रहता है कि नहीं। कपड़े कभी-कभी धो लेता है या नहीं। बाल तब से क्या एक बार भी नहीं बनवाए? नहाता तो रोज है न और आरती भी करता है क्या? चेहरा कैसा पीला पड़ गया है। नाश्ते में क्या लेता है, रोज रात को दूध लेने की उनकी आज्ञा में कोई गड़बड़ी तो नहीं हुई...और इसी तरह की दूसरी चीजें। वह हाँ-हूँ में किसी तरह जवाब देता है। “के गल्ले ऐ...बिमार रियाँ एँ?” माँ उसकी उदासीनता ताड़ लेती हैं और अंदर तक पहुँचना चाहती हैं—पहले की तरह। “न...न, बिलकुल ठीक।” वह हँसने की कोशिश करता है। हँस नहीं पाता। “वाह, बीमार ताँ हैं ईं, मुँह वेख नाँ किवें हो गया है, पीला परत। हुण मैं पूरे महीने जाण नईं देणा। खवा-खवा के तगड़ा बणा के भेजाँगी।” माँ उमड़ते हुए स्नेह से कहती हैं और पास बैठकर माथा दबाने लगती हैं। वह न जाने कब सो जाता है।


अगले दिन वह इंटरव्यू के लिए गया तो वहाँ पहले से एक लंबी कतार थी। लगभग बीस लोग थे। वह चुपचाप एक कोने में बैठ जाता है और सबके चेहरे पढ़ने की कोशिश करने लगता है। सबके चेहरे जिस ढंग से उड़े हुए और बदरंग हैं, उससे उसे अजीब-सी दहशत, करुणा, दया, पता नहीं क्या-क्या महसूस होता है। कभी वह एकदम नर्वस हो जाता, कभी प्रतियोगिता के भाव से उद्धत और उत्साहित और कभी-कभी हिंसक भी। कभी लगता, इतने लोग निराश और खाली हाथ लौटेंगे। उनमें वह हो या न हो, क्या फर्क पड़ता है? इनमें हर किसी का एक अपना संपूर्ण संसार है, एक व्यथा, एक निजी दुख है, जैसा उसका है। पर एक का दुख दूसरे के लिए निरर्थक, उपेक्षणीय! और दुनिया ऐसे ही चलती है। “अविनाश अरोड़ा...!” उसका नाम बुलाया जाता है और वह खुद को चार-छह चिढ़े हुए, चालाक चेहरों के सामने कुर्सी पर बैठा हुआ पाता है। “अपने जगूड़ी को तो पढ़ा होगा?” उसके रिसर्च का टॉपिक जानकर एक चेहरा इंटरव्यू की टोन में पूछता है। “बहुत अच्छी तरह।” “आपने जगूड़ी की ये लाइनें पढ़ी हैं, आमाशय, यौनाशय, गर्भाशय...!” “महाशय, ये जगूड़ी की नहीं, कुँवरनारायण की पंक्तियाँ हैं।” वह सुधार देता है, एक चुनौतीभरे आक्रामक लहजे में। फिर किसी की पूछने की हिम्मत नहीं होती। हेड झिझकते हुए ‘छायावाद का अर्थ’ एक्सप्लेन करने के लिए कहता है। बता चुकने के बाद एक मिनट का मौन। अब प्रिंसिपल का नंबर है। “यह आप दाढ़ी क्यों रखे हैं जी? अनौपचारिक-सा सवाल है। बुरा नहीं मानिएगा।” वह मुसकराते हुए कहता है। “बस, यों ही। अच्छा लगता है, यही समझिए।” “आप क्या कम्युनिस्ट है?” “जी, नहीं।” “तो...?” “तो क्या?” “कुछ नहीं। मैं तो यों ही जरा बस पूछ रहा था।...” वह गुस्से और उत्तेजना में उठकर बाहर आता है। फिर बिना रुके घर चला आता है।


अब सारा दिन उसके पास खाली है। पर वह किसी दोस्त के पास नहीं जाता। दो-चार किताबें लेकर ऊपर वाले कमरे में बंद हो जाता है। कुछ देर बाद उठकर बिना बात कमरे में घूमने लगता है वह। उसे अपने साथ-साथ कमरा घूमता हुआ लग रहा है। लगता है, माथे की नसें फट पड़ेंगी और वह लड़खड़ाकर गिर पड़ेगा। थककर वह कुर्सी खींच लेता है। बार-बार शुभा सामने आ जाती है, कभी उदास, बुझी हुई, झुकी हुई आँखें। कभी हँसती, उत्सुकता से देखती और जल्दी-जल्दी आगे बढ़ती हुई। क्या कहेगा वह उससे? कैसे आगे जाने के लिए उत्साह जुटा पाएगा? दोनों कैसे एक-दूसरे को फेस करेंगे? थरथराते हुए पास आएँगे, एक मजबूरी से बँधे, न रोने को मजबूर। कौन किसको सांत्वना देगा? कैसे कहेंगे, किस भरोसे पर कि नहीं, नहीं, हम एक-दूसरे के लिए बने हैं। कोई हमें दूर नहीं कर सकता! वह नहीं छीन सकता कि जो मणि है, अर्थ है, जिजीविषा! शुभा का उदास चेहरा। चेहरा पर बिखरे हुए बाल। वह खुद में डूबती जा रही है, जैसे दूर जा रही है—घुल रही है हवा में! नहीं-नहीं, यह नहीं हो सकता। इच्छा हुई, बहुत तेज इच्छा—कि माँ से कह दे सारी बातें साफ-साफ। रो-रोकर, पैरों पर पड़कर मनवा ले, कह दे कि माँ मुझमें और इसमें अब कोई फर्क नहीं है। मुझे मानती हो तो इसे भी स्वीकार कर लो माँ! पर फिर माँ का चेहरा...? पिछली बार उसके मुँह से निकल ही गया था, “माँ, शुभा वहाँ मेरा ख्याल रखती है, साथ ही रिसर्च कर रही है।” माँ ने उत्सुकता से सुना था, पर वह ब्राह्मण है, सुनते ही उनके चेहरे का रंग बदल गया था। कोई बेहद सख्त भाव आँखों में आ गया था और...और...


खिड़की के पीछे से फिर झाँकती है शुभा, आँखें उठाकर देखती है। वे आँखें गीली हैं। फिर भी वे उसे सांत्वना देती हैं, “जिंदगी बहुत बड़ी है अविनाश, कुछ न कुछ जरूर होगा।” और फिर—“साक्षी है सूरज, साक्षी है आकाश, साक्षी है जल...! तुम बस आ जाओ, प्रसन्न और स्वस्थ। मैं तुम्हें अंक में ले लूँगी, पूरी सामर्थ्य दूँगी, शक्ति दूँगी! तुम अगली बार और अच्छी तरह खुद को एक्सप्रेस कर सकोगे। अभी तुम आकर आराम से रिसर्च का काम करो।” वह किताबें समेटता है और अटैची में मुड़े-तुड़े कपड़े और किताबें भर लेता है। पाँवों में चप्पल पहनकर अटैची लिए नीचे आ जाता है। “माँ, आज ही जाना है, वहाँ जाकर काम करना है।” वह काँपती हुई आवाज में कहता है। इससे पहले कि माँ कुछ कहें, वह जल्दी से बात आगे बढ़ाता है, “अगली बार जल्दी आऊँगा और काफी दिनों के लिए। तुम चिंता न करो माँ। मैं वहाँ अच्छी तरह हूँ। थोड़ा सा पढ़ना-लिखना और खूब खाना-पीना, सोना। कोई किसी किस्म का दुख तो है नहीं।” वह फीकी हँसी के साथ बात खत्म करता है और आँखों को दूसरी तरफ फेर लेता है। “वहाँ भी मेरी एक संरक्षिका है माँ, तुम्हारी प्रतिनिधि। तुम्हारी करुणा है उसमें। मुझे वह टूटने नहीं देगी!” यह बात वह कह नहीं सकता था, नहीं कह पाया।


छुटकू रिक्शा ले आया है। वह एक बार मुड़कर आद्र्र नजरों से घर को देखता है। फिर माँ की गहरी स्नेहिल, पनीली आँखों से बचता हुआ चोरी से उनका चेहरा देखता है और प्रणाम करके चलने लगता है।... अचानक उसे याद आता है कि शुभा ने कहा था, मेरी तरफ से माँ के पाँव जरूर छू लेना। वह लौटता है और दुबारा माँ के पाँव छू लेता है। माँ कुछ नहीं समझतीं, कुछ नहीं कहतीं सिवाय इसके कि सेहत का ख्याल रखूँ, इस बार दुबला होकर आया हूँ इसलिए दूध जरूर पीता रहूँ। माँ डबडबाई आँखों से विदा करती हैं, रिक्शे पर बैठाकर पीठ पर हाथ फेरती हैं। उसने अपने होंठों को भींच लिया है, दोनों हाथों को कस लिया है—पूरी ताकत से। जैसे भीतर का अवसाद जो तेज दबाव के साथ फट पड़ना चाहता है, इससे रुक जाएगा। दोनों हाथ आपस में उलझ गए हैं और उँगलियाँ चरमरा पड़ना चाहती हैं। रिक्शा रेलवे स्टेशन की ओर चल पड़ा है।