यादें / गुलजार अहमद / प्रताप पुरस्वाणी

Gadya Kosh से
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एक मित्र, अबु-अल-हसन हांगकांग से होकर आये हैं। कुछ दिन हुए सहसा एक होटल में उनसे भेंट हो गयी। हांगकांग की बातें बताते हुए उन्होंने कहा

एक दिन बांजार की सैर करते-करते एक दुकान में चला गया। दुकान बहुत ही सुन्दर तथा विदेशी वस्तुओं से भरी हुई थी। मैंने जैसे ही दुकान में प्रवेश किया, एक सुन्दर चीनी बाला ने आकर मेरा स्वागत किया। वह मुझसे अँग्रेंजी में बातें करने लगी तथा भिन्न-भिन्न वस्तुएँ दिखाने लगी। इतने में वहाँ एक सुन्दर युवक आया। शायद मेरी सूरत तथा वेशभूषा से अनुमान लगाकर वह मुझसे उर्दू में बोलने लगा। मुझे बहुत अच्छा लगा।

“आप कहाँ से आये हैं?”

“कराची से।”

मेरा उत्तर सुनते ही वह अत्यन्त प्रसन्न हो गया, उसके चेहरे पर रक्त दौड़ने लगा, आँखें चमकने लगीं, अधर फड़कने लगे। वह युवक मुझे बांह से पकड़कर उस दुकान के कोने में स्थित कमरे में ले गया। वहाँ एक खूबसूरत मेज के सामने अधेड़ आयु वाले एक सज्जन बैठे हुए थे। वह अपने काम में व्यस्त थे। जैसे ही उनकी दृष्टि हम लोगों पर पड़ी वह कलम रखकर सीधे बैठ गये तथा बिना कोई प्रश्न पूछे मुस्कराकर उन्होंने हमारा स्वागत किया।

मुझे भीतर ले आने वाले युवक ने उस व्यक्ति को मेरे विषय में कुछ बताया। वे लोग सिंधी में बातचीत कर रहे थे। युवक की बात सुनते ही वह खुशी के मारे झूम उठे। कुर्सी से उठकर उन्होंने मुझसे इतने जोर-से आलिंगन किया कि मुझे लगा, मेरी पसलियाँ ही टूट जाएंगी। अपने दोनों हाथों में मेरा हाथ थामकर उन्होंने सिंधी में पूछा”आप कराची से आ रहे हैं?”

“जी हां।”

मेरा उत्तर सुनकर फिर उसी प्रकार मुसकराते हुए वह मुझसे उर्दू में बोलने लगे।

मेरे बहुत रोकने पर भी मेरा बहुत आदर किया गया। वह बार-बार मुझसे सिन्ध का समाचार पूछने लगे। सिन्ध के प्रति उनकी इतनी श्रध्दा देखकर मुझे बड़ा खेद हो रहा था, क्योंकि मैं सिन्ध की बातों से बिलकुल ही अपरिचित था। ऐसी दशा में मैं उन्हें हैदराबाद, लाड़काणा, सखर तथा शिकारपुर का क्या समाचार सुनता! अपनी इस अयोग्यता पर मुझे शर्म आ रही थी।

आप समझते होंगे उन लोगों ने मेरा केवल उतना ही सत्कार किया होगा। नहीं, मैंने जो भी चीजें खरीदीं वे सब उन्होंने आधी कीमत पर दीं तथा एक पॉकेट ट्रांजिस्टर भेंटस्वरूप भी दिया। फिर वह युवक अपनी बड़ी शानदार मोटरकार से मुझे मेरे होटल तक पहुँचा गया तथा वह भी कह गया कि शाम को पाँच बजे फिर लेने आएगा।

मैं डरने लगा कि अगर वह युवक शाम को आ गया तथा मुझे अपने अन्य मित्रों के पास ले गया, और उन लोगों ने कहीं फिर सिन्ध के विषय में पूछताछ शुरू कर दी तो फिर मुझे लज्जित होना पड़ेगा। यह सोचकर मैंने निश्चय कर लिया कि पाँच बजने से पहले ही कहीं बाहर चला जाऊँगा।

अभी साढ़े तीन ही बजे थे कि मैंने जाने की तैयारी शुरू कर दी। ठीक चार बजे मैंने अपने कमरे में ताला लगाया। होटल के मैनेजर को चाबी देकर अभी बाहर निकला ही था कि वही शानदार लाल मोटर गाड़ी आकर मेरे समीप खड़ी हो गयी। मैं कुछ घबरा-सा गया। सुबह वाला युवक गाड़ी से उत्तर आया। मुझसे हाथ मिलाकर गाड़ी की ओर खींचते हुए उसने पूछा”आप शायद किसी आवश्यक काम से जा रहे थे?”

“नहीं तो, बस, यों ही बैठे-बैठे तंग आ गया था। मैंने सोचा कहीं घूम आऊँ।”

युवक ह/स पड़ा। मुझे कार में बिठाकर वह अन्य मित्रों के पास ले गया। उसने मेरी पहचान करायी। कुछ ही समय में हम एक बड़े स्टोर में पहुँच गये। वहाँ कुछ सज्जन पहले ही हमारी प्रतीक्षा कर रहे थे।

सभी उपस्थित व्यक्तियों से मेरी जान-पहचान करवाई गयी। कमरा बहुत ही सुन्दर लग रहा था। कमरे के कोने में एक मेज पर एक गुलदस्ता रखा हुआ था। बिलकुल वैसा ही एक गुलदस्ता मैंने कराची में भी देखा था। मेरी दृष्टि उस गुलदस्ते पर स्थिर देखकर उस मोटर के मालिक ने बताया”यह मेरे प्रिय देश सिन्ध की भेंट है। यह जंडी (लकड़ी पर फूलदार नक्काशी की कला) का बना हुआ है। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि कुछ दिन हुए, फोर्ड मोटरकम्पनी के मालिक का करोड़पति बेटा हांगकांग घूमने आया था। इत्तंफाक से वह हमारे स्टोर में भी आया था। जब उसकी नंजर इन गुलदस्तों पर पड़ी तब बड़ी उत्सुकता से उसने पूछाये अनोखी चीजें किस देश में बनती हैं? मैंने उसे बतायायह कला हमारे सिन्ध देश की है जो इस समय पाकिस्तान का एक प्रान्त है। मैंने उसे एक रल्ही (गुदड़ी) तथा शीशों जड़ी हुई टोपी भी दिखायी। उन पर की गयी हस्त-कला देखकर वह आश्चर्यचकित रह गया। पहले उसने उनका मूल्य पूछा, किन्तु जब मैंने कहा कि वह वस्तुएं बेचने के लिए नहीं हैं, तब वह हठ करने लगा। जेब से एक हजार पाउंड का चेक निकालकर मेरे सामने फेंकते हुए कहने लगाउनमें से कोई भी वस्तु मुझे दे दो। उसकी इतनी रुचि देखकर मैं उससे इन्कार नहीं कर सका। वह रल्ही, जिसमें उसने अधिक दिलचस्पी दिखायी, मैंने उसे दे दी तथा वह चेक भी लौटा दिया। वह बहुत प्रसन्न हुआ...”

इतने में एक युवक के साथ एक बूढ़ा व्यक्ति वहा6 आया। उसके आदर में सब लोग खड़े हो गये। भीतर आते ही वह अपने चश्मे के मोटे-मोटे शीशों में से इधर-उधर कुछ ढूंढते लगा। उसके साथ आया हुआ युवक अपने हाथ का सहारा देकर उसे मेरे पास ले आया। जैसे ही मैंने उस बूढ़े से हाथ मिलाया उसने अपने दोनों हाथों में मेरे हाथ को जकड़ लिया। हम दोनों एक सोफे पर बैठे गये। उसने बडे प्रेम से पूछा”तुम कभी शिकारपुर गये हो?”

मैंने हिचकिचाते हुए उत्तर दिया”जी नहीं, कभी वहां जाने का मौका नहीं मिला।”

मेरे उत्तर से वह कुछ शान्त-सा हो गया, किन्तु फिर कहने लगा”क्या तुम कभी जाने वाले हो उस ओर?”

मैं उसे दुखी करना नहीं चाहता था अत: बोला”हो सकता है कभी चला जाऊँ।”

यह सुनते ही वह सीधा होकर बैठ गया। फिर कहने लगा”बेटे, तुम वहां अवश्य जाना। बहुत ही अच्छा शहर है शिकारपुर। वहां की मिठाइयाँ और कुल्फियाँ खाकर देखना। जीवन-भर नहीं भुला सकोगे। स्टेशन पर उतरकर तांगेवाले से कहोगे तो वह तुम्हें लखीदर के टावर के पास ले जाएगा। वहां तुम शहर की सुन्दरता का अनुभव कर सकोगे।...” उसकी बैचनी बढ़ती जा रही थी। लगता था, वह अपना हृदय सिन्ध में कहीं खो आया था। कुछ समय के बाद वह फिर बोलने लगा”तुम्हें शिकारपुर जाना ही होगा। अपने लिए नहीं तो मेरे लिए!” थरथराते हुए उसने अपनी जेब में हाथ डाला। सौ-सौ के दो नोट मेरे हाथों में रखते हुए वह कहने लगा”यह मेरी ओर से आने-जाने का किराया...”

“हां, हां, चाचाजी, मैं अवश्य जाऊँगा। ये रुपये आप रख लीजिए। इनकी कोई आवश्यकता नहीं है।”

मगर वह नहीं माना। अन्य सज्जनों ने भी रुपये रख लेने का संकेत किया। वह फिर कहने लगा”जब तुम लखीदर पहुंच जाओ, तो वहां से सीधे बेगारी वाह (नदी) की ओर जाना। जहाँ रास्ता पड़ता है, वहाँ कोने पर तुम्हें एक पुराना घर दिखाई देगा। तुम सीधे जाकर उस घर के आँगन में द्वार खटखटाना...पता नहीं अब वहां कौन रहते होंगे...और हां...उस घर के आँगन में तुम्हें एक आम का पेड़ भी दिखाई देगा। इतना छोटा-सा था तब मैंने हाथा से उसे लगाया था...अब तो पेड़ बहुत बड़ा होगा...आम भी देता होगा...वहाँ जो भी लोग रहते हों, उनसे मिलना। फिर उन्हें बताना कि हमारे सिन्ध देश में आम किस प्रकार मजे से खाये जाते हैं। उन्हें बताना, जब बेगारी (नदी) में पानी भर जाए तब वे आमों को नए कोरे मटकों में भरकर, वहाँ पर ले जाएं। जैसे ही वे पुल के पास पहुँचेंगे, बायीं ओर उन्हें एक घना सरों का पेड़ दिखाई देगा। उनसे कहना कि वे लोग उस पेड़ की ठंडी छाँव में जाकर बैठें। फिर उन मटकों को वाह की गीली मिट्टी में इस तरह दबाकर रखें कि दरिया शाह का निर्मल जल उन्हें ठंडा करता आगे बढ़े...फिर उनसे कहना कि वे लोग वहाँ दरिया शाह में स्नान करें...और स्नान करते-करते मटके से एक-एक आम निकालकर खाते जाएं...फिर उन्हें उन आमाें के असली स्वाद का पता लगेगा...”

बूढ़ा अब अधिक प्रसन्न लग रहा था। सहसा वह गम्भीर होकर कहने लगा”बेटे, मेरा एक काम अवश्य करना। मैं तुम्हें आशीर्वाद दूंगा। जब तुम उस घर में जाओ, तब वहाँ रहनेवालों से विनती करके उस आम के पेड़ का एक ताजा पत्ता मांग लेना। फिर वह पत्ता बड़ी खबरदारी से मेरे पास पार्सल कर देना। मैं यहां पार्सल छुड़ा लूंगा...यही मेरा सबसे बड़ा काम है। तुम्हारी मुझ पर बड़ी कृपा होगी।...” बहुत समय तक वह सिन्ध के विषय में बातें करता रहा तथा अपने हृदय का भार हलका करता रहा। पर्याप्त समय बीत चुका था। उसी रात दस बजे वाले हवाई जहांज से मुझे कराची लौट आना था। अत: मैंने उनसे विदा ली। सभी सज्जनों ने बड़े प्रेम से आलिंगन करके मुझे विदा किया। हर व्यक्ति कह रहा था'सिन्धियों को हमारा प्रणाम कहना, हमारे देश को हमारा प्रणाम कहना...'हांगकांग में अन्तिम दिन हुई उन सिंधी मित्रों की भेंट को अपने हृदय में संजोये मैं उसी लाल मोटरकार वाले मित्र श्री श्याम के साथ अपने होटल लौट आया। अन्त तक वह मेरे साथ रहा। सामान बा/धने तथा आवश्यक कार्यों में वह मेरी सहायता करता रहा। हवाई अड्डे तक वह मेरे साथ था। ज्यों ही हवाई जहांज के उड़ने की सूचना दी गयी, उसने बड़े प्रेम से मुझे अपनी बांहों में जकड़ लिया। जब मैंने उसकी बांहों के बन्धन को कुछ ढीला किया तो देखा, उसकी आँखें आँसुओं में डूबी हुई थीं। मैंने पूछा”श्याम, तुम्हारा कोई काम हो तो बताओ, मैं बड़ी प्रसन्नता से करूँगा।”

वह आँसू पोछते हुए बोला”नहीं, बस इतनी दुआ करना कि कभी अपने देश सिन्ध के दर्शन कर सकू/।”

अबु-अल-हसन एक ठंडी सांस लेकर सिर झुकाकर फिर कहने लगाजीवन में पहली बार मैंने अनुभव किया कि आखिर कितने दिन हम अपने आपको परदेशी समझते रहेंगे? परदेशी, यह गलत विचार है। जुनून है, द्वेष है। नहीं, नहीं, बिलकुल नहीं, हम अब परदेशी नहीं हैं। मैं सिंधी हूं.सिन्ध देश है, यह विचार आते ही मैंने स्वाभिमान का अनुभव किया।

हवाई जहाज बादलों में उड़ा जा रहा था। मैंने खिड़कियों से बाहर देखा, श्याम अब तक आँसू भरी आँखों से कह रहा था ,दुआ करना...कभी अपने देश के दर्शन कर सकूं...मेरा हृदय भर आया। मैं सोचने लगा, यह हवाई जहाज और तीव्र गति से उड़े...मैं अपने देश के दर्शन करूं...अपने सिंधी भाइयों से भेंट हो...मेरी बेचैनी बढ़ती जा रही थी...