यादों के गलियारे में ले जाते छायाचित्र / जयप्रकाश चौकसे

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
यादों के गलियारे में ले जाते छायाचित्र
प्रकाशन तिथि : 20 अगस्त 2018


उन्नीस तारीख को अंतरराष्ट्रीय फोटोग्राफी दिवस मनाया गया। अनेक शहरों में स्थिर चित्रों की प्रदर्शनियां लगाई गईं। जब 1839 में स्थिर छायांकन संभव हुआ तब से ही अनुमान लगाया जा रहा था कि चलते-फिरते मनुष्यों का छायांकन भी संभव होगा और 1895 में लुमियर बंधुओं ने यह कर दिखाया। शादी के अवसर पर लिए गए चित्रों का अलबम बनाया जाता है और उन चित्रों को देखना उम्रदराज लोगों का शगल बन जाता है। इस तरह के छायाचित्र मनुष्य को यादों के गलियारों में ले जाते हैं। दर्द की सेज पर मनुष्य मंद-मंद मुस्कराने लगता है। किसी बाल सखा की तस्वीर या अनअभिव्यक्त प्रेम की टीस जागती है। अलबम में स्थिर चित्र देखकर मन चलायमान हो जाता है और गुजश्ता ज़िंदगी का कारवां 'गुबार उड़ाते' हुए चलता है। लुईस दागुएर्रे ने 1839 में पहला कैमरा बनाया। आज अवाम निरंतर कैमरे की पकड़ में रहता है। आप की छोटी-सी छोटी हरकत भी किसी न किसी कैमरे में कैद हो रही है। कैमरा भाषा में घुसपैठ कर चुका है।

गुप्त वार्ताओं को 'इन कैमरा मीटिंग' कहा जाता है। कैमरा अपराध जगत के लिए दोधारी तलवार साबित हुआ है। कैमरा उन्हें गिरफ्तार भी करवा देता है। अदालतों में फोटग्राफिक साक्ष्य भी प्रस्तुत किए जाते हैं। ट्रिक फोटोग्राफी की भी जाती है और उसकी पोल भी खुल जाती है। हर यात्रा में फोटो पहचान-पत्र साथ ले जाना होता है। मनुष्य के चेहरे परिवर्तित होते हैं तो पुराने फोटोग्राफ्स से मेल नहीं खाते। इतने कि अखबारी कॉलम में पत्रकार का फोटो दिया जाता है, जिसे प्रशंसक और आलोचक पहचान भी नहीं पाते। कहावत है कि 40 की वय तक आप ऊपर वाले के दिए चेहरे के साथ जीते हैं और उसके बाद आपकी विचार शैली और कार्य आपके चेहरे में थोड़ा-सा परिवर्तन कर देते हैं। शादी ब्याह के रिश्ते के प्रारंभ में वर-वधू को एक-दूसरे के छायाचित्र दिखाए जाते हैं। मुलाकात बाद में होती है। सुहागरात को घूंघट उठाने की रस्म होती है और दूल्हे को 'मुंह दिखाई' भी देनी पड़ती है। इन तमाम बातों का आधार है सूरत देखना परंतु सीरत (चरित्र) तो धीरे-धीरे उजागर होती है। याद आता है कि नूतन के पति सेवानिवृत्त लेफ्टिनेंट कमांडर बहमल ने 'सूरत और सीरत' नामक फिल्म बनाई थी। सूरत बदलने की विधा को प्लास्टिक सर्जरी कहते हैं। प्लास्टिक सर्जरी से प्रेरित फिल्म है 'फेस ऑफ।' कुछ महिलाएं अपने होठों को मादक बनाने के लिए सर्जरी कराती है परंतु सर्जरी के पश्चात चार माह तक उन होठों का चुंबन लेना मना है। होठों का साइज भी सौंदर्य का मानदंड है। कैमरे के अन्वेषण ने चिकत्साशास्त्र में क्रांतिकारी परिवर्तन किए हैं। कैमरा अांतों में जाकर चित्र लेता है, जो निदान में सहायता करते हैं। जेम्स बॉन्ड फिल्मों के नायक के कोट के बटन में कैमरा होता है। खलनायक भी कैमरों का प्रयोग करते हैं। खंजर पर उंगलियों के चिह्न से कातिल पकड़े जाते हैं परंतु निर्मम व्यवस्था के हाथों में दस्ताने है और उनकी उंगलियों के निशान नहीं मिलते। भूख से होने वाली मृत्यु के लिए भी व्यवस्था जवाबदार है, क्योंकि यह कत्ल ही माना जाना चाहिए। 'ब्लो अप' नामक फिल्म सतही तौर पर एक कत्ल की कहानी है परंतु फिल्मकार ने उसमें दार्शनिक तत्व शामिल कर दिए हैं। मानव अवचेतन में अंधकार है और इससे प्रेरित सिनेमा को 'सिनेमा ऑफ नोए' कहते हैं।

दूसरे विश्वयुद्ध पर रूस, अमेरिका, यूरोप और इंग्लैंड में इतनी अधिक फिल्में बनी हैं कि उस युद्ध से जुड़े सारे दस्तावेज और किताबों के नष्ट हो जाने पर भी मात्र फिल्मों की मदद से पूरे युद्ध को समझा जा सकता है। रूस में बनी 'बैलाड ऑफ अ सोल्जर' और 'द क्रैन्स आर फ्लाइंग' क्लासिक का दर्जा रखती है। अमेरिका में बनी ' द लॉन्गेस्ट डे' युद्ध के अंतिम दिनों का दस्तावेज है। भारत-पाक विभाजन पर गोविंद निहलानी की 'तमस' एमएस सथ्यू की 'गर्म हवा' महान फिल्में हैं। खुशवंत सिंह की लिखी 'ट्रेन टू पाकिस्तान' की भी प्रशंसा हुई है। विभाजन की त्रासदी से सआदत हसन मंटो की कहानियां में परिचित कराती है।

फिल्म की शूटिंग के समय शॉट लेने के बाद मूवी कैमरे के स्थान पर कैमरा रखकर स्थिर चित्र लिए जाते हैं, जिनकी सहायता से फिल्म की प्रचार सामग्री बनाई जाती है। फिल्मकार भी उसे देखकर अपनी फिल्म की निरंतरता को बनाए रखता है।

एयरपोर्ट और रेलवे स्टेशन पर कैमरे लगे होते हैं। हर यात्री के चित्र संजोकर रखे जाते हैं। व्यवस्था की निगाह से कुछ छिप नहीं सकता। निमई घोष ने सत्यजीत राय की फिल्मों में स्थिर छायांकन का काम किया है और एक किताब भी प्रकाशित हुई है। आजकल मोबाइल में फिट कैमरे का बहुत उपयोग किया जाता है और सेल्फी का दीवानापन सारी हदें पार कर चुका है। मोबाइल को लंबे समय तक कमीज की जेब में रखने से बीमार पड़ने की आशंका बनी रहती है। छायाचित्र विज्ञापन में भी काम आते हैं। अमेरिका में एक मुकदमा चला था और आरोप था कि एक विज्ञापन फिल्म में स्त्री की निर्वस्त्र देह दिखाई गई है। सूक्ष्म परीक्षण से ज्ञात हुआ कि हर पांचवीं फ्रेम स्त्री देह की है। अत: वह विवादास्पद दृश्य एक सेकंड में चार बार दृष्टि के सामने से गुजरता है। स्थिर छायांकन के आविष्कार को 179 वर्ष हो चुके हैं और टेक्नोलॉजी ने इस क्षेत्र में क्रांति कर दी है। प्रकृति के हर बदलते हुए स्वरूप के छायाचित्र लिए जा रहे हैं, पर्यावरण में परिवर्तन भी देखा जा रहा है। इंदौर के प्रतापराव शिंदे ने इस क्षेत्र में नाम कमाया है और अरुण ठाकरे भी शौकिया फोटग्राफर हैं।