यादों के चिराग़ / प्रतिभा सक्सेना

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आजकल बड़ी पुरानी बातें, लगातार याद आए जा रही हैं। मित्रों ने भी चढ़ा दिया, ’और बताओ’, कह-कह कर।

तब की पत्रकारिता की क्या कहूँ -अब की तो लुटिया ही डुबोये दे रही है।

बच्चों की एक पत्रिका थी ’शिशु', मुख-पृष्ठ पर लिखा होता था-

'छिछु की गाली आती है, पूछी खींचे लाती है,
पहले मुझको देती जा, दूध-बताछा लेती जा!’

उस पर बना होता था- पूसी द्वारा खींची जाती ’शिशु' पत्रिकावाली गाड़ी का मन-भावन चित्र।

अब के बच्चे उन सुरुचिपूर्ण चीजों से वंचित रह गए हैं।

उससे भी पुरानी याद -एक लोरी, जिसे पलँग जैसे झूले पर माँ गाकर हम दोनों (मैं और दो साल छोटा भाई) को सुनाती थीं। मन लगा कर सुनते - सुनते हम सो जाते थे। मेरे बच्चे भी यह लोरी बड़े चाव से सुनते रहे। पर उनकी पूछिये मत, एक लोरी सुना कर छुट्टी नहीं, जितनी याद हैं सब सुनाती जाऊँ। हर बार पूरी होते ही अगली के लिए आँखें खोल दें - और सुनाओ।

और बच्चों के बच्चे तो काफ़ी बड़े हो कर भी कहते ’तकिया झालरदार वाली'। ।

1947 से पहले ग्वालियर राज-घराने में पुत्र का जन्म हुआ था, पूरी रियासत में उत्सव मनाए गए। बधाइयाँ दी गईं। मेरी माँ ने भी लिखी थी एक कविता जो मैंने मंच पर सुना कर इनाम पाया था। कुछ पंक्तियाँ याद हैं -

'यों कि हमारी रानी ने युवराज-रत्न को जया है,
इसीलिए द्वारे-द्वारे पर मंगल साज सजाया है।’

और भी काफ़ी था।पर जब से सुभद्रा कु।चौहान की कविता में पढ़ा, ’अंगरेज़ों के मित्र सिंधिया ने छोड़ी रजधानी थी।' उसे याद करने का मन नहीं होता,

उस राजवंश के प्रति मन की भावना को आघात पहुँचा। तब भी विदेशी-हित का साधन करते रहे थे अब सोनिया की कांग्रेसवाली कुर्सी का पाया बनने की होड़। जिसके पास सत्ता उसकी’हाँ, जू' करने की आदत जाय कहाँ!

ओह, क़लम का निब तीखा हो उठता है, कागज़ न फटने लगें कहीं।

लोगों में नया उत्साह जाग उठा था।बड़ी-बड़ी आशाएँ बाँधी थीं, अब ये होगा, वो होगा, एक नई व्यवस्था का शुभारंभ होगा, नए युग का आगमन

'विदेशियों से संघर्ष करते युग बीते, अब स्वतंत्रता मिल रही है'

पहला धक्का तो साथ ही लगा- विभाजन का दंश! वे स्मृतियाँ आज भी टीसती हैं।समय और सिखा गया कि जितनी बड़ी आशा बाँधो उतना ही भारी धक्का लगता है।एक झटके में जो काम लौह पुरुष, सरदार पटेल ने कर डाला, चिकने-चुपड़े लोग अपनी रसिक मिजाज-उदारता की झोंक में बंदर -बिल्ली की कथा रच गए।अपना हित प्रधान न होता तो राष्ट्र-भावना इतनी गौण न होती।राष्ट्र-धर्म के प्रति निष्ठा से भर तुल गए होते तो जिन्हें बलि का बकरा बना दिया गया वे जाँ-बाज़, स्वाधीन देश में शान से जीते! अपनी बात मनवाने का अचूक-अस्त्र जिनके पास था वे विदेशियों को इस अन्याय और अहिंसा से क्यों नहीं विरत कर सके।नेताजी, आज़ाद और अन्य क्रान्तिकारियों के लिये क्यों नहीं खड़े हुए? देश पर बलिदान होनेवालों को देश के लिये जीने का अवसर मिलता, पर अपनों ने ही जो द्रोह किये गए उसकी पोल अब खुलती जा रही है।

जिन्ना, मुस्लिम-लीग, गांधी, पटेल। दंगे- फसाद क्या नहीं हुआ?

पिता जी के मित्र, जो लाल दाढ़ी रखते थे, जिनके घर मुन्नी आपा के पास मैं कारचोबी का (सलमे-सितारे) का काम सीखने जाती थी, वे उस कस्बे से तभी पाकिस्तान चले गए। वहाँ उन्हें अपना उज्ज्वल भविष्य दिखाई दिया होगा।

उनका छोटा भाई मसूद हमारे साथ पढ़ता था। अपने को मसउद लिखता था और जैसा टेबललैम्प के सिलेन्ड्रिकल शेप वैसी लाल टोपी लगाता था। पीछे की ओर कुछ टेढ़ी-सी, उसमें लंबा सा फुँदना होता था जो उसके एक्शनों को साथ हिलता-झूमता रहता, देख कर बड़ा मज़ा आता था।मुन्नी आपा को हमेशा चिढ़ाता रहता था। कैसा जोकर था-कहता था ’लाला लाहिल्ल्ललिल्ला-मसूर की दाल में कुत्ते का पिल्ला'। और भी तमाम बातें, कोई मुल्ला-मौलवी सुन ले तो बाजा बजवा दे।

पाकिस्तान बनने की कहानी, रोज़ अखबारों उन घटनाओं के विवरण छपते थे जो आज भी दहला देती हैं। हमारा आँखों देखा सच! हमारी एक मौसी लाहौर में थीं। उन्हें क्या-क्या झेलना पड़ा पर वे सपरिवार आ गईँ। और जाने कितने परिवार, आधे-अधूरे, लुटे-पिटे - सारी क़ीमत उन्हीं ने चुकाई थी।

कैसे थे वे दिन! अख़बारों के शब्द पढ़ने में जैसे ज़बान काँपती, कान दहकते थे। वह समय बड़ा अजीब रहा, सुबह-शाम खबरें जैसे काटने को दौड़तीं पर बिना जाने भी किसी को चैन नहीं।

चढ़ा हुआ उत्साह उतर गया, और स्वतंत्र-भारत से बाँधे हुए लोगों के मंसूबे ध्वस्त होते चले गए।

स्मृतियाँ भी अजीब हैं, कभी सिलसिलेवार नहीं। जब आती हैं अंधाधुंध -एक दूसरी को ठेलती, कहाँ-कहाँ से निकल आती हैं - क्रमहीन!

जब स्वतंत्रता-प्राप्ति के जलसे चल रहे थे तो मंच पर मैं भी कुछ बोली थी, इनाम में पुस्तकें मिली थीं, देने वाले थे, प्रदेश के शिक्षा मंत्री सन्नू लाल। शुद्ध भाषा भी नहीं बोल पाता जो, उसे तो यह भी नहीं भान होगा कि इनमें क्या लिखा है -किसी ने खरीद कर पैकेट बना दिये होंगे, वह खड़े हो कर पकड़ाता रहा!

हम लोगों की बचपन की बड़ी बुरी आदत थी। जब कोई अशुद्ध भाषा बोलता तो हम भाई-बहिन आँखों ही आँखों में एक दूसरे को देख कर मुस्कराते थे। तब समझते थे बड़े लोग सही ही बोलते हैं। हम आपस में एक दूसरे के अशुद्ध शब्दों पर खूब खिंचाई करते। शुद्ध बोलने के चक्कर में मेरे विचित्र शब्दों का खूब तमाशा बना है।

हाँ, तो सन्नू लाल को देख-सुन कर बड़ी निराशा हुई थी। पता लगा पढ़े-लिखे नहीं हैं, दलित जाति को ऊँचा उठाने के लिय इन्हें मंत्री बनाया गया है। सुधार और सुव्यवस्था के लिए कोई योग्य और समर्थ व्यक्ति नहीं जुड़ा? मखौल बना कर रख दिया शिक्षा-नीति और दलित दोनों का! अब तो नेताओं का दिमाग़ी दिवालियापन देखने की आदत पड़ गई है।

तब लड़कियों के स्कूल बहुत कम होते थे, प्राइमरी से आगे तो केवल शहरो में ही।

मैंने लड़कियों के स्कूल में, अपने जीवन में सिर्फ़ एक वर्ष पढ़ा। शेष सारा सड़कों के साथ।

शुरुआत में ही घर में पढ़ा कर सीधे छठी कक्षा में भर्ती करा दिया गया, लड़कों का स्कूल ज़िन्दाबाद! चारों ओर के गाँवों के पढ़नेवाले लड़के वहीं समाए थे।

आठवीं की परीक्षा बोर्ड की होती थी उज्जैन में सेंटर। वहीं जाकर दी। फ़र्स्ट आई थी।

हमारे घर के पास वाले घर में भोंपूवाला ग्रामाफ़ोन था, रोज़ शाम को वही-वही गाने लगा देते थे वे लोग।उनमें से दो थे -'हमें तो शामे ग़म में... और ज़िंदगी चंदरोज़ है!’

इधरवाले पंडित जी की विधवा लड़की कमला, बड़े शौक से सुनने बैठ जाती। कहती कैसी भगती के गाने हैं ’श्याम' (शामे-ग़म) का नाम आ गया भक्ति तो उमड़ेगी ही! और ज़िन्दगी’चंदगोद' भी उसे पसंद था।

बहुत-कुछ याद आता है। पर सब कहना न संभव है, न उससे कोई लाभ!

यह तो अभी कुछ बरस पहले की बात है। विष्णु (मेरा भाई) के एक मित्र लंच पर आए, खानें में सहिजन की फलियाँ भी बनी थीं -मसालेवाली।

स्वाद लेते रहे फिर पूछ बैठे, ’ये क्या भिंडी की तरकारी है?'

विष्णु ने, मैंने कौतुक से एक दूसरे को देखा एक ही भाव- ये क्या भिंडी भी नहीं जानते?

मैं तो किसी बहाने उठ कर रसोई में चली गई। हँसी न रुके तो और क्या करूँ!

विष्णु की आदत थी, कोई मेरे लिए चिट्ठी डालने को दे (पहले पोस्टकार्ड खूब चलते थे) तो उसके गलत शब्दों को अंडर-लाइन करना फिर डाक में छोड़ना।और कुछ लोग हमेशा शाम को’श्याम' और’हम जाऊँगी' लिखते थे। उन लाल स्याही से टीपे शब्दों पर बड़ी हँसी आती थी। मैंने कहा भी कम से कम ये चिट्ठियां तो मत रंगा करो। पर आदत कहीं छूटती है!

पत्रों का ज़माना बीत गया, अब तो हैं बस फ़ोन और ई-मेल!

हाँ, जो कहने की इच्छा बहुत दिनों से हो रही थी वह बात तो रह ही गई -

एक बड़ी पुरानी कविता, यह भी पता नहीं किसकी -’ख़ैबर का दर्रा!' कुछ -कुछ ध्यान में हैं। पर यही पंक्तियाँ स्मृति में कौंधती हैं -

'कड़कती बिजलियों की इस जगह छाती दहलती है, ।।। घटा बच के निकलती है, ।।। हवा थर्रा के चलती है।'

रचयिता और पूरी रचना यदि कोई बता सके तो तो कितना अच्छा हो!

इतनी प्रभावशाली कविता कहीं विस्मृतियों में खो न जाए!

अब कोई मत कहना- और बताओ,

अपनी गाथा गाती चली गई, बहुत हो गया!