यारा, सीली-सीली रात का जलना / संतोष श्रीवास्तव

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बांसुरी बजाती हवाओं के बीच रेत के ढूहों पर तने तंबू। रात्रि का प्रथम प्रहर, महुए की शराब पीकर डफ पर तान अलापते बनजारे और काले कपड़ों में अपना चांदनी-सा गोरा बदन छुपाए, ठुमक-ठुमक कर नाचती बनजारिन। जलते अलाव की लपटों की रोशनी में उसका गोरा मुखड़ा सोने-सा तपा नजर आता है। यह दृश्य सहज रोमांटिक एहसास कराता है या किसी फ़िल्म का सीक्वेंस नजर आता है पर है यह हकीकत। राजपूत राजा पृथ्वीराज चौहान के वंशज ये बनजारे जो भारत में बनजारे कहलाए और यूनान मध्य तथा पश्चिमी यूरोप, जर्मनी आदि में रोमा या जिप्सी कहलाए, कभी स्थायी निवास नहीं बनाते। इनकी बस्ती तांडा गांवों से दूर हरी-भरी सूनसान जगह पर उत्तर दिशा में बसाई जाती है जहाँ इनके अस्थाई घर घास, फूस, चूना, मिट्टी से बने होते हैं या फिर तंबू होते हैं।

बनजारा समाज में औरत को लेकर अमूमन वही धारणाएँ हैं जो पूरे भारतीय समाज में हैं। बनजारों के लिए भी औरत मर्दों के मनोरंजन के लिए ईश्वर द्वारा पैदा कि गई है। मर्दों के लिए खटती, मरती, मर्दों के द्वारा शोषित की जाती, पीड़ित की जाती, उपेक्षित की जाती। मर्द, दुनिया का भोग करने के लिए पैदा होते हैं। अलमस्त और बेफिक्र होते हैं वे। बनजारा समाज में साल भर तीज-त्यौहार, पारंपरिक संस्कार, शादी-ब्याह, मुंडन, कनछेदन होते रहते हैं। इन अवसरों पर अंग-अंग फड़क उठने वाले लोक गीतों की भरमार रहती है। कमाना, खाना और मौज करना इसके आगे बनजारा कुछ सोचता ही नहीं है। लेकिन बनजारिन के लिए वहाँ भी सीमा रेखाएँ, बंदिशें...

विदेशों में बसी बनजारिनें जो कि अपने को रोमा यानी राम की संतान मानती है, महारानी सीता कि तरह आज भी वनवासी हैं। श्रीराम ने सीता का त्याग किया था, अत: जिप्सी औरत मानती है कि मर्द पर भरोसा ठीक नहीं तो वह मर्द आश्रित क्यों रहे?

बैलों, घोड़ों पर या फिर पैदल ही इधर से उधर घूमते, पड़ाव डालते बनजारों के उद्योगों में बनजारिन बराबर की मेहनत करती है। खिलौने बनाना, वायलिन या बांसुरी बनाना, बांस काटकर लाना, छीलना, टुकड़े करना, मिट्टी सानना, कूटना... हरेक काम में वह बनजारे के कंधे से कंधा मिलाए रहती है। पर शाम होते ही अपना साजो-सामान समेटकर बनजारा तो तंबू में आराम करता है, चुरुट या बीड़ी पीता है, लेकिन बनजारिन की छकी देह आराम को तरसते हुए चूल्हे-चौके में खटती रहती है। रोटी पानी से निपट जब बनजारा मस्ती के आलम में महुए की शराब पीते हुए बांसुरी पर कोई धुन छेड़ता है तो अपने घेरदार लहंगे में फिरकनी-सी थिरकती बनजारिन उसके इसारों पर नाचती है। मानो नाचना उसके सुहाग का अनिवार्य अंग है। इसके पीछे एक भावना यह भी है कि पति कहीं दूसरी औरत की ओर आकर्षित न हो जाए और अगर बनजारा थोड़ा पैसे वाला हुआ तब तो वह डंके की चोट पर दूसरी औरत पर लट्टू हो जाता है। वैसी हालत में उस औरत को पति की सेज तक लाना पत्नी का फर्ज बन जाता है।

एक गृहस्थ बनजारिन केवल वंश चलाने के लिए होती है। उसका कोई व्यक्तिगत जीवन नहीं होता। बाल-बच्चों वाली होकर वह गृहस्थी के संघर्ष में खपना सबसे बड़ा सुख मानती है। क्योंकि अगर वह गृहस्थ नहीं हैं तो खुले आम वेश्या जीवन जीने के लिए विवश होना पड़ता है। पहले वह जमींदारों की रखैल होती थी, अब जंगल आॅफीसर, रेंजर आदि के लिए गेस्ट हाउस में वह अपने पिता या भाई द्वारा भेजी जाती है। अगर घर में कोई विशिष्ट मेहमान पधारता है तो कुंवारी लड़की उसके मनोरंजन के लिए भेजी है और इसे बनजारा समाज आवभगत का ही एक हिस्सा मानता है। अगर वह मेहमानबाजी में गर्भवती हो गई तो घर की बड़ी-बूढ़ियाँ जड़ी-बूटियों से उसका गर्भ गिरा देती हैं। कभी-कभी इस कोशिश में लड़की मर भी जाती है।

अंग्रेजों के जमाने में अंग्रेज अफसरों, ठाकुरों, मालगुजारों, जमींदारों के घर खूबसूरत बंजारिनें देह व्यापार के लिए परिवार के सम्बंधियों द्वारा भेजी जाती थीं और यह भरपूर कमाई का साधन था। यहाँ तक कि रुपयों के लालच में बनजारा अपनी पत्नी तक को भेजने में हिचकिचाता नहीं था। यह उसकी कमाई पर ज़िन्दगी भर ऐश करता था। परिवार में इसके लिए एक न एक लड़की बिनब्याही रखना उनका रिवाज बन गया था। रजस्वला होते ही इंतजार शुरू हो जाता था कि कब रखैल का पद मिले। इस पद को सिर ढंकना प्रथा कहते हैं। सिर ढंकना होते ही वह ज़िन्दगी भर अपने पालनहार की गुलाम हो जाती है। बच्चे भी पैदा करती है, धन दौलत, पक्का घर सबकी मालकिन होती है पर न तो उसे पत्नी के अधिकार मिलते हैं और न ही उसके बच्चों को पिता का नाम। पत्नी की तरह अपने मालिक के इसारों पर चलने वाली बनजारिन की त्रासदी यह है कि न्यौता मिलते ही उसे अपने मालिक की ड्योढ़ी पर नाचना पड़ता है। तीज त्यौहार या अन्य खइसी के मौके पर उसे ही तलब किया जाता है। मारपीट और रखैल शब्दों की उसे आदत हो जाती है। अत: मन मारकर उसे नाचना ही पड़ता है क्योंकि बनजारिन का नाचना शुभ माना जाता है। मर्द के मनोरंजन के लिए अगर शयनगार में बनजारिन का पदार्पण हुआ तो समझो सात पीढ़ियाँ तर गई। नाचते-नाचते मर्दों को रिझाओ और आंचलभर रुपया पाओ यह गुरुमंत्र उन्हें घुट्टी में पिलाया जाता है।

बनजारिनों को घर पर बुलाकर नचाने या अपने पति की रखैल होने देने में मालदार सेठानियाँ कभी हिचकिचाती नहीं थीं क्योंकि न तो उन्हें उनसे कोई खतरा था और न ही अपना पद छिन जाने का डर। बनजारिन की तरफ से अधिकार की बात कभी उठती नहीं थी। उसे तो अपना जीवन साथी चुनने तक का हक नहीं है। लड़की के पैदा होने पर कोई खइसी नहीं मनाई जाती। औरत अगर बांझ है तो तएके व्यंग्य बाणों को सहती अपनी ही सास-ननदों के द्वारा हर रीति-रिवाज, हर उत्सव, हर मंगल कार्य होते समय दुत्कारी जाती है। यदि औरत लड़कियों को ही जन्म देती चली जाती है तब भी यही सब झेलती सहती है। बिना पुत्र के वंश कैसे चलेगा, दिवंगत माता-पिता का तर्पण कौन करेगा तो बनजारिन औरत का पुत्रवती होना अति आवश्यक है। यदि पुत्र को जन्म देने में वह अयोग्य साबित हुई तो बनजारा उसे तलाक देकर दूसरी शादी रचा लेता है।

तलाकशुदा औरत का बनजारे की संपत्ति पर कोई हक नहीं होता और अगर पत्नी ने तलाक दिया है तो उसे शादी में हुए खर्च की रकम की भरपाई के बाद ही पति से तलाक मिल सकता है। रकम का इंतजाम कर वह कबीले के मुखिया के पास दरख्वास्त करती है और मुखिया पूर्व पति की शादी में हुए खर्च का भुगतान कर पूरी बिरादरी आमंत्रित कर उसका तलाक घोषित कर देता है। इस दोहरी मार से बचने के लिए बनजारों में तलाक कम ही होते हैं।

बनजारिन औरत गर्भवती होते ही बेटे की कामना से माहूरगढ़ की भवानी माता (बनजारों की कुलदेवी) को कांच के दीपक में कपूर की ज्योति जलाकर सवा किलो मिठाई चढ़ाने की मन्नत मांगती है। यदि बेटा हुआ तो जचकी कराने वाली दाई को पांच जोड़ी कपड़े, मिठाई, फल आदि देकर घोड़े या बैलगाड़ी में बैठाकर सम्मान सहित बिदा किया जाता है। लेकिन यदि बेटी जन्म लेती है तो दाई पैदल ही खाली हाथ घर लौटा दी जाती है। बेटी के जन्म पर खुशियाँ नहीं मनाई जातीं। यह मान्यता है कि लड़की को पाल-पोसकर पराए घर के लिए तैयार करना है। वह दूसरे घर की धरोहर के रूप में माता-पिता पर भार मानी जाती है। वह माता-पिता कि सेवा के लिए पैदा नहीं हुई है बल्कि उन्हें दहेज जुटाने और शादी का खर्च उठाने की जद्दोजहद में कमजोर और असमय बूढ़ा करने के लिए पैदा हुई है। कन्या का नामकरण, मुंडन कभी भी कर दिया जाता है पर लड़के का सिर्फ़ होली के ही त्यौहार पर खूब धूमधाम से किया जाता है जिसे घुंड कहते हैं।

शादी-ब्याह के समय भी लड़की की पसंदगी, रजामंदी आदि नहीं पूछी जाती। लड़की यदि लड़के और उसके परिवार को पसंद आ गई है तो मनाही का सवाल ही नहीं उठता।

गीत-संगीत बनजारा समाज का ज़रूरी हिस्सा है। बनजारा गीतों में औरत ही औरत का बखान है। जन्म से लेकर मृत्यु तक औरत का जीवन गीतों में मौजूद है। व्रत, त्यौहार, शादी-ब्याह, मृत्यु लोकगाथाएँ सब जगह। तीज-त्यौहार हो, होली की फाग हो, खेती के मौसम में खेती, खलिहानों के मौन को अटपटी तानों से तोड़ती, झूमती-नाचती बनजारनें रात दिन, शुभ-अशुभ की कल्पनाओं के साथ मंगलकामना के गीत गाती रहती हैं।

बनजारा कबीले की धार्मिक परंपराओं में भी औरत पर कमोबेश पाबंदियाँ हैं। जन्माष्टमी के दिन प्रसाद बनाने, पूजा आदि में औरतों को शामिल नहीं किया जाता। प्रसाद भी पुरुष ही बनाते हैं, पूजा भी उन्हीं के हाथों संपन्न हो जाती है। औरत न तो प्रसाद बनाती है, न ही पूजा कि जगह में प्रवेश करती है। ब्याहता बेटियाँ तो प्रसाद खा भी नहीं सकतीं और आरती भी ग्रहण नहीं करतीं। यह कुल देवी की पूजा मानी जाती है। बेटियाँ तो दूसरे का कुल चलाती हैं। उनके लिए मायके में इस दिन देवी दर्शन तक की मनाही है।

बनजारा समाज में विधवा या तलाकशुदा बनजारिन को पुनर्विवाह की अनुमति पंचायत की ओर से पहले नहीं थी। अब धीरे-धीरे इस प्रथा में थोड़ा फेरबदल कर अनुमति दे दी गई। मुखिया के पास इसकी रजामंदी लेने जाना पड़ता है। औरत अपने पहले पति को तलाक के समय ही शादी पर हुआ खर्च लौटा देती है। इधर पंचों और मुखिया कि अनुमति मिलते ही वह पुनर्विवाह कर सकती है। विधवा औरत को पहले अपने परिवार की अनुमति लेनी पड़ती है।

भारत के विभिन्न प्रदेशों में बसी बनजारा समाज की औरत अपने कबीले से कभी बाहर नहीं आई जबकि पुरुषों का राजनीति और अन्य क्षेत्रों में पदार्पण हुआ। बनजारों के धर्मगुरु होते हैं पर यह सुनने में नहीं आया कि कोई बनजारिन धर्मगुरु हुई हो। वे औरत को उस पहुँच का मानते ही नहीं। बनजारा कबीले का गहराई से अध्ययन करने पर राजेन्द्र ऋषि ने अपने शोधग्रंथ में लिखा है कि बनजारा औरत, बनजारों के बीच मात्र उपयोगिता कि वस्तु है जो जवानों में प्रेम से मस्ती भरती है, बूढ़ों का मन बहलाती है, अधेड़ों को अपने सामीप्य से ऊर्जा प्रदान करती है। बैरागी, संन्यासी के उपदेशों की वह श्रोता है और विरही युवकों के मन की कसक मिटाती है।