या साक्षत्वैक गुणाश्रया साक्षात् सरस्वती! / प्रतिभा सक्सेना

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वसन्तागम हो रहा है। धरा नवल परिधान धारण कर रही है, दिशाएं सौंदर्य-सज्जा में व्यस्त, आकाश की मुस्कान- तरंगें क्षितिजों तक व्याप्ति पाने लगीं।

देवि सरस्वती,

तुम्हारे आगमन का संदेश पा धरती पुलक से भर गई है!

हे सर्व-कलामयी, तुम्हारी अभ्यर्थना की तैयारियाँ हैं ये। शीत की रुक्ष, विवर्णा धरती पर तुम कैसे चरण धरोगी? पहले पुलकित धरा पर हरियाली के पाँवड़े बिछें, विविध रंगों के पुष्प वातावरण को सुरभि- सौंदर्य से आपूर्ण करें, दिग्वधुएँ मंगल-घट धरे आगमन -पथ में ओस-बिन्दु छींटती, अर्घ्य समर्पित करती चलें, पक्षियों के स्वागत-गान से मुखरित परिवेश हो, निर्मल नभ, शुभ्र आलोक बिखेर तुम्हारे स्वागत को प्रस्तुत हो तब तो तुम्हारा पदार्पण हो !

तुम्हारे अभिनन्दन में मधुऋतु एक नई कविता रच रही है। जीवन्त कविता, जिस की नित्य नूतन सौंदर्यमयी चित्रमाला भू-पटल पर अंकित होने लगी है।

प्रकृति के ऋतु-काव्य की चिर-पुरातन, चिर- नवीना स्रोतस्विनी अनवरत बह रही है। वही तन्मय भाव पुनर्नवीन हो काल के पृष्ठों पर चित्रात्मक लिपियों में अंकित हो रहे हैं। अँगड़ाई से चटकती देह लिए कलियों का उन्मीलन करती, रंग बिखेरती तितलियों का मुक्त विहार, मत्त भ्रमरों की गुंजित मनुहारें, रोमांच भरता मलयानिल का परस, तुम्हारे अगवानी के सजीले दृष्यांकन हैं। दिशाओँ ने कोहरे की चादरें समेट ली हैं। स्वच्छ सुनहरी किरणें पर्वत-शिखरों का अभिषेक करती बड़े भोर से उतरने लगी हैं।सरिताएं स्वच्छ जल से आपूर्ण, ताल-तलैयाँ धुंध के आवरण हटा,प्रभात की मुस्कान से झलमला उठे है। जल पक्षियों की कुलेल से मुखरित, किरणों की दीप्ति से ज्योतित वासंती साँसे, हवाओं में घुली जा रही हैं। तरु-लताओं ने अरुणाभ किसलयों की बंदनवारें सजा लीं, बौराए आम्र-कुंजों में, गंध-व्याकुल नर कोकिल की प्रणयाकुल पुकार रह-रह कर गूँज उठती है।

फ़रवरी बीत रही है। वृक्ष की शाखें रोमांचित हो उठीं । मैग्नोलिया की शाखें कलियों से भर गईं -पत्ता एक भी नहीं। तरु-बालाओं की सारी देह-यष्टि, जो पल्लव-आच्छादन में छिपी रहती थी उजागर हो गई। एक-एक मोड़, पूरे उतार-चढ़ाव का चारु संयोजन और प्रत्येक घूम की मोहक भंगिमा, जो डालें पत्तों की सघनता में छिपी रहतीं थीं, उन सबका ललित संभार सामने आ गया।तनु देह-यष्टि, की समग्र रूप-रेखाएं, प्रत्यक्ष, जैसे आवरणों में छिपी देह का सारा सुकुमार संयोजन आभूषित हो निरावृत हो गया हो। अलभ्य दृष्य,नेत्रों के लिए अनायास सुलभ हो उठा। निसर्ग का यही मदिर लास्य चहुँ ओर, जैसे तुम्हारे शुभागमन का उल्लास छलक गया हो।

हवाएँ ताल दे-दे कर नचाती हैं, लचकती हुई तरु-शाखें पुष्पाभऱण धारे झूमती हैं।कुछ दिन पूर्व की नितान्त निर्वसना,चेरी की टहनियाँ फूल उठी हैं। तन्वंगी श्याम-सुकुमार टहनियों पर फूलों के गुच्छे-ही गुच्छे, नव-किसलय अभी फूट रहे हैं। फूलों भरी डालियों की तनु काया पर नन्हें-नन्हें किसलयों के आवेष्टन जैसे लघु अंतर-वस्त्र धारण कर लिये हों।

कला और विद्याओं की अधीश्वरी,ज्ञान-विज्ञान की मूल, सृजन की प्रेरणा,साक्षात् सरस्वती, इस ऋतंभरा धरा को अपने चरणों से धन्य करने अवतरित हो रही हैं। मधु और माधव का युग्म - सुख-सुरभि-सौंदर्य का अनुपम जगत जिसे वाणी के अवतरण की रुपहली स्वर-लहरी मुखरित कर देगी। क्षण-क्षण नवीन होता रूप, मधु- गंधी मलयज का स्पर्श, गगन के रंग और निसर्ग का संगीत, वनस्पतियों में अंकुरों के पुलक-कंटक, अरुणाभ नव-पल्लवों के विकसने की अकुलाहट, वातावरण में नव-चेतना का संचार कर रहे हैं। झूमते बिरछ, लताओँ की सुकुमार अँगुलियाँ थाम, में बाहुओं में ले अपने आप में समेट लेंगे।

इस मंगल बेला में, मन-रंजन के सारे उपादान लिए प्रकृति स्वागतार्थ प्रस्तुत हो गई है। हवाओं में वसन्त की गमक, कोलाहल -हलचल चारों ओर जैसे ढोल-नगाड़े बज रहे हों लगातार, और उनकी ढमक उर-तंत्री को रह-रह कर उद्वेलित कर रही हो।

श्री-सौंदर्य और सृजन की मूल हो तुम, ये नवल अंकुरण अभिव्यक्तियाँ हैं, अंतस् के आनन्दोद्गार, पुष्पित पल्लवित,सृजन की मूल धाराओं के प्रवाह में चेतना का असीम विस्तार,प्रेम का राग सबको छाये है,ये सब तुम्हारी ही तो कलाएँ। इस धरा पर कितनी धाराओं को प्रवाहित कर सिंचित कर रही हैं !सारी अनुभूतियों, अभिव्यक्तियों की मूल तुम, यह सारा पुलक रोमांच प्रकृति की अंतर अभिव्यक्तियाँ हैं,तुम्हारी यह रचना, सृष्टि तुम्हारे आगमन से रोमांचित हो उठी है,

सृजन का मूल तुम्हीं, हर रचना का आदि कारण। तुम्हीं से स्नेहित-अनुप्राणित जीवन की ज्योति,अंतर का राग तुमसे स्वरित, तुम्हीं आधार हो मानस के अतीन्द्रिय संचार का, सारे विज्ञान-ज्ञान सारे शास्त्र,तुम्हारा मुख जोहते हैं- व्यक्त होने के लिए, विवृति पाने के लिए चमत्कृति देने को। आदि कारण हो तुम। तुम्हारे बिना सृष्टि मूक है कहीं जीवन की मर्मर नहीं, संवाद- संलाप नहीं स्वरों का उद्गम -विस्तार नहीं , भाव-स्पंदनहीन जड़ता मात्र, हिमीकृत हुई सी। तुम्हारी ऊर्जा के संचार से ऊष्मित हो उपल सी जड़ता,तरल-तरंगित जल में परिणत हो गई है, विरस क्षीण होती चेतनाएँ जीवन-रस से अनुप्राणित हो गई हैं।

अक्षरे,तुम वाङ्माया रूपिणी, तुम अगम- सुगम सुभावमयी , मुखर उच्चारण तुम्हारा आवाहन, शब्दों में विहित मात्राओँ से सँवारे अक्षऱ पुष्प-गुच्छोंमें ग्रथित वाक्य-योजना तुम्हें अर्पित अँजलि है। संयुति से विवृति की ओर युग्मों में -चेतना का पल्लवन वाग्धारा की तरल छवियाँ धारे सारे भोग -स्वरों के व्यंजनों के भोग- तुम्हीं तो अनेक भूमिकाएँ धार ग्रहण करती हो।

तुम्हारी परछाईँ जो पड़ने लगी,सृष्टि का अणु-परमाणु चैतन्य हो उठा।

दुर्गा सप्तशती में कथा आती है मूल-प्रकृति ही पुरुषात्मक रूप को जनमती है।

वही सत्वगुण दो रूपों में प्रतिफलित हुआ - शिव और सरस्वती।

कैसे अनुरूप भाई-बहिन। तुम्हारी उज्ज्वलता सारे शाप -ताप कलुषों का शमन करनेवाली, शीतल प्रलेप दे कर, दृष्टि को नये क्षितिजों तक विस्तारती, निर्मल जल सी वाणी अंतर में उमड़ सारा कलुष बाहर उलीच देती है।

शिव की भगिनी तुम, वैसी ही कल्याणकारिणी, शुभ्र, निरंजना !

उनका डमरू और तुम्हारे स्वर, वे नट तुम वाक् - कैसी युति है, उस महाशक्ति की अभिव्यक्ति के आदि रूप तुम दोनों, जिनसे सारी सृष्टि का अनुप्रणन हुआ। भ्रातृ-भगिनी की समरूपता।सात्विक अनुबंध के दोनों पक्ष एक ही उद्गम के दो रूप,पुरुष-प्रकृति स्त्री-पुंसात्मक हो सम्पूर्ण व्याप्ति के आदि-सूत्र स्वरूप हैं !

मुखर उच्चारण तुम्हारा आवाहन! नाद-स्वर से पूरित करते, जड़ पंचभूत में दिव्यता का संचार कर आनन्द का रोमांच भर जीवन को सार्थकता प्रदान कर देते हैं।

सर्वगुणयुक्ता।-दृष्य-अदृष्य रूप से संपूर्ण विश्व को व्याप्त करने वाली त्रिगुणापरमेश्वरी का रूप -

'स ददर्श ततो देवींव्याप्त लोक त्रयां त्विषा,
पादाक्रान्त्या नतभुवंकिरीटोल्लिखिताम्बराम्
क्षोभिताशेषपातालां धनुर्ज्यानिःस्वनेन ताम्
दिशो भुज सहस्रेण समन्ताद्व्याप्य संस्थिताम्।।'

सृष्टि संचालनके क्रम में विस्तार की परंपरा आगे चली है,गुणों की भिन्न आवृत्तियाँ, अभिव्यक्तियाँ। प्रकृति के नारीत्व के तीन रूप जिनमें तुम विलक्षण हो- शुद्ध सत्वमयी, चिद्रूपा, ज्ञान से गौरवान्वित,कलाओं से सरस-रुचिर-आनन्दमयी !

या सत्वैकगुणाश्रया साक्षात्सरस्वती प्रोक्ता -अक्षमाला,अंकुश, वीणा एवं पुस्तक धारिणी महामेधा महास्मृतिः

जड़ता के आघात से अकुलाए देवगण लालायित हैं तुम्हारी कृपा हेतु,

वे दौड़ते हैं तुम्हारी स्तुति करते तुम्हें अपने अनुकूल बनाने के लिये। तुम परम तेजोमयी अवतरित होती हो, शुद्ध अंतःकरण में बुद्धि रूप से, परा विद्या मेधा शक्ति बन,जिससे सारे शास्त्रों का ज्ञान प्राप्त होता है, सबकी आदिभूत अव्यकृता परा प्रकृति बन कारण स्वरूपा, महाव्याप्ति। तुम्हीं स्मृति, तुम्हीं विशुद्ध धारणा हो माँ।

धीश्वरी ! क्या कहे जा रही हूँ मैं? मेरी प्रतीति ही कितनी ! तुम इन सबसे परे, अपरंपार, अभिव्यक्तियों का संसार, श्री-सौंदर्य की आगार, आनंदमय कोष का शृंगार और, तुम्हीं में निवसित सृष्टि का असीम विस्तार ! आत्मा का संचरण हो तुम। जो कुछ भी व्यापता है व्यक्ति को -उस सारी अनुरक्ति -विरक्तिमय चित्त के चारु संचार का संभार और उच्चार भी हो तुम।

भूत-जगत में दिव्यत्व-संचारिणी।

कलुषों की निवृत्ति, मन की परिष्कृति, अंतरात्मा की परितृप्ति हो तुम, सुकृति-विकृति तक परिणामित मूलप्रकृति तुम,साथ ही उस परम चिति की इस नश्वर तन में अवतरित साधक के मृण्मय तन में करती हो तेजोमयी ऊर्जा का अजस्र प्रवाह, जिस में विहरती दिव्यता चिदानन्द बन स्वरों में फूट पड़ती है। यह सारा सौंदर्य तुम्हारी छाया है, सारे भाव तुम्हारी प्रतीति,जीवन के सारे राग तुम्हारी ललित वीणा की मूर्छनाओं में विलय पाकर सार्थक होते हैं,

किस विध तुम्हारा सत्कार करूँ, कि ये जन्म-मृत्युमय प्राण तुम्हारे परस से दिव्य हो उठें, जो जन्मान्तर तक संस्कार बन सँवारते रहे, कब संभव होगा कि मैं चेतना की परम परिष्कृति स्वरूप तुम्हारी भव्यता से ओत-प्रोत, अपनी इस लघुता को विसर्जित कर तुम्हारी महत्ता को, स्वयं में अनुभव कर उसके कुछ अणु-परमाणु आत्मसात् कर सकूँ

आओ सर्व मंगले, विराजो इस धरा पर, जो तुम्हारे आगमन का संदेश पा कृतकृत्य हो उठी है,

तुम्हें हमारा नमन है, वंदन है !