युवावस्था / प्रताप नारायण मिश्र

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जैसे धरती के भागों में बाटिका सुहावनी होती है, ठीक वैसे ही मनुष्‍य की अवस्‍थाओं में यह समय होता है। यदि परमेश्‍वर की कृपा से धन बल और विद्या में त्रुटि न हुई तौ तो स्‍वर्ग ही है, और जो किसी बात की कसर भी हुई तो आवश्‍यकता की प्राबल्‍यता यथासाध्‍य सब उत्‍पन्‍न कर लेती है। कर्तव्‍याकर्तव्‍य का कुछ भी विचार न रखके आवश्‍यकता देवी जैसे तैसे थोड़ी बहुत सभी कुछ प्रस्‍तुत कर देती है। यावत पदार्थों का ज्ञान, रुचि और स्‍वाद इसीमें मिलता है। हम अपने जीवन को स्‍वार्थी, परोपकारी, भला, बुरा, तुच्‍छ, महान् जैसा चाहें वैसा इसीमें बना सकते हैं।

लड़काई में मानों इसी अवसर के लिए हम तैयार होते थे, बुढ़ापे में इसी काल की बचत से जीवन यात्रा होगी! इसी समय के काम हमारे मरने के पीछे नेकनामी और बदनामी का कारण इसी समय के काम हमारे मरने के पीछे नेकनामी और बदनामी का कारण होंगे। पूर्वपुरुषों के पदानुसार बाल्‍यावस्‍था में भी यद्यपि हम पंडित जी, लाला जी, मुंशी जी, ठाकुर साहब इत्‍यादि कहाते हैं, पर वह ख्‍याति हमें फुसलाने मात्र को है। बुढ़ापे में भी बुढ़ऊ बाबा के सिवा हमारे सब नाम साँप निकल जाने पर लकीर पीटना है। हम जो कुछ हैं, हमारी जो निजता है, हमारी निज की जो करतूत है वह इसी समय है, अत: हमें आवश्‍यक है कि इस काल की कदर करने में कभी न चूकें।

यदि हम निरे आलसी रहे तो हम युवा नहीं जुवाँ है अर्थात् एक ऐसे तुच्‍छ जंतु हैं कि जहाँ होंगे वहाँ केवल मृत्‍यु के हाथ से जीवन समाप्‍त करने भर को! और यदि निरे ग्रह धंधों में लगे रहे तो बैल की भाँति जुवा (युवाकाल) ढोया। अपने लिए धर्म ही श्रम है, स्‍त्री पुत्रादि दस पाँच हमारे किसान चाहे भले ही कुछ सुनानुभव कर लें। यदि, ईश्‍वर बचाए, हम ईद्रियाराम हो गए तौ भी, यद्यपि कुछ काल, हम अपने को सुखी समझेंगे। कुछ लोग अपने लोग अपने मतलब को हमारी प्रशंसा और प्रीति भी करेंगे, पर थोड़े ही दिन में सुख का लेश भी न रहेगा, उलटा पश्‍चात्ताप गले पड़ेगा, बरंच तृष्‍णा पिशाची अपनी निराशा नामक सहोदरा के साथ हमारे जीवन को दु:खमय कर देगी।

काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद मात्‍सर्य यह षड्वर्ग यद्यपि और अवस्‍थाओं में भी रहते ही हैं, पर इन दिनों पूर्ण बल को प्राप्‍त हो के आत्‍म मंदिर में परस्‍पर ही युद्ध मचाए रहते हैं बरंच कभी-कभी कोई एक ऐसा प्रबल हो उठता है कि अन्‍य पाँच को दबा देता है और मनुष्‍य को तो पाँच में से जो बढ़ता है वही पागल बना देता है। इसी से कोई-कोई बुद्धिमान कह गए हैं कि इनको बिलकुल दबाए रहना चाहिए, पर हमारी समझ में यह असंभव न हो तो महा कठिन, बरंच हानिजनक तो है ही। काम शरीर का राजा है (यह सभी जानते हैं) और क्रोधादि मानो हृदय, नगर, अथवा जीवन, देश ही कुछ न रहा। किसी राजवर्ग के सर्वथा वशीभूत हो के रहना गुलाम का काम है। वैसे ही राज-परिषद का नाश कर देने की चेष्‍टा करना मूर्ख, अदूरदर्शी अथवा आततायी का काम है।

सच्‍चा बुद्धिमान, वास्‍तविक वीर वा पुरुषरत्‍न हम उसको कहेंगे जो इन छहों को पूरे बल में रख के इनसे अपने अनुकूल काम ले! यदि किसी ने बल नाशक औषधि आदि के सेवन से पुरुषार्थ का और "ब्रह्म सत्‍यं जगन्मिथ्‍या" का दृढ़ विश्‍वास करके कामनाओं का नाश कर दिया और यावत् सांसारिक संबंध छोड़ के सबसे अलग हो रहा तो कदाचित षड्वर्ग का उसमें अभाव हो जाए! यद्यपि संभव नहीं है, पर उसका जीवन मनुष्‍य जीवन नहीं है। धन्‍य जन वे हैं जो काम शक्ति को अपनी स्‍त्री के पूर्ण सुख देने और बलिष्‍ठ संतान के उत्‍पन्‍न करने के लिए रक्षण और वर्धन करने में लगावें। कामना अर्थात् प्रगाढ़ इच्‍छा प्रेममय परमात्‍मा के भजन और देशहित की रक्‍खें।

क्रोध का पूर्ण प्राबल्‍य अपने अथच देश भाइयों के दु:ख अथच दुर्गुण पर लगा दें। (अर्थात् उन्‍हें कच्‍चा खा जाने की नियत रक्‍खें) लोभ सद्विद्या और सद्गुण का रक्‍खें। मोह अपने देश, अपनी भाषा और अपनेपन का करें। जान जाए पर इन्‍हें न जाने दें। अपने आर्यत्‍व, अपने पूर्वजों के यश का पूर्ण मद (अहंकार) रक्‍खें। इसके आगे संसार को तुच्‍छ समझें, दूसरे देश वालों में चाहे जैसे उत्‍कृष्‍ट गुण हों उनको कुछ न गिन के अपने ऐसे गुण संचय करने का प्रयत्‍न करें कि दूसरों के गुण मंद न पड़ जाएँ। मात्‍सर्य का ठीक-ठीक बर्ताव यह है। जो ऐसा हो जाए वही सच्‍चा युवा, सच्‍चा जवान और सच्‍चा जवाँमर्द है। उसी की युवावस्‍था (जवानी) सफल है। पाठक! तुम यदि बालक वा वृद्ध न हो तो सच्‍चा जवान बनने का शीघ्र उद्योग करो।