युवा और जनान्दोलन / मनोहर चमोली 'मनु'

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अपने हिस्से को लड़ कर, छिन कर, भिड़ कर या कैसे भी उसे हासिल करने की परिपाटी हर प्रकार की व्यवस्था में एक हिस्सा है। इतिहास गवाह है कि जब कभी भी लोगों के अधिकार छीने गये और तब-तब जनता जागी व जनसंर्घषों के माध्यम से उसे हासिल किया।

आजाद भारत की लड़ाई एक लम्बा जनान्दोलन ही था। उत्तराखण्ड राज्य की मांग एक जबरदस्त क्षेत्रीय जनांदोलन था। यही नहीं समय समय पर राज्य में अनेक आन्दोलन हुये। उत्तराखण्ड में सड़क मार्गो के लिये हुये आन्दोलनों से लेकर, विश्वविद्यालय की मांग हेतु आन्दोलन, शराब बन्दी आन्दोलन, टिहरी बांध के खिलाफ आंदोलन कुछ बड़े आन्दोलन थे। किसी के चलते सरकार चेती तो कुछ में उसने यह दिखाया कि उसकी जनता के पक्ष में सहानुभति है। दरअसल आन्दोलन किसी बात की ओर ध्यान खींचने या मांग को मनवाने का एक कारगर हथियार है। इनसे काफी कुछ हासिल भी होता है। कोई भी आन्दोलन जनान्दोलन तब बनता है जब उसमें हर वर्ग की भागीदारी होती है।

किसी भी जनान्दोलन की सफलता उसमें भागीदारी पर निर्भर करती है। जनान्दोलनों में नौजवानों की भूमिका सर्वोपरी होती है। उत्तराखण्ड आन्दोलन में जब नौजवान कूदे तो सरकार भी हिल गई थी और तभी राज्य भी मिला। राज्य में दूसरे कई आन्दोलनों में जिनमें युवा नहीं जुटे, वे बाद में कुंद पड़ गये और किसी को कुछ न मिला। यदि राज्य का पिछला इतिहास देखें तों पाते हैं 1994 में चले ‘उत्तराखण्ड आंदोलन’ के बाद के राज्य में जनान्दोलनों की वह धार नहीं दिखी। आज भी कई मसले हैं किन्तु आज युवा आन्दोलनों में उस तरह से सामने नहीं आ रहे हैं जैसे कि पहले आते थे। पहले छात्र संघ सामाजिक मांगों के पक्ष में आगे आते थे। लेकिन आज ऐसा नहींे है। आज का युवा आन्दोलनों से दूर हो गया है। चाहे कुछ भी हो। उसे यह लगता है कि यह सड़क पर उतरना उसका काम नहीं है। यही कारण है कि आज अधिकतर आन्दोलनों में युवा कम ही दिखते हैं और जनान्दोलनों के नाम पर आवाज उठाने वालों में प्रौढ़ और बुजुर्ग ही दिखाई पड़ते हैं। यही कारण है कि अधिकतर आंदोलन कुछ समय चलने के बाद असफल हो जाते हैं।

आखिर क्यों आज युवा सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक सरोकारों से दूर हो रहा है? क्या युवा मौजूदा व्यवस्था से संतुष्ट है? क्या युवाओं को रोटी, कपड़ा और मकान नहीं चाहिए? क्या युवाओं के पास मूलभूत आवश्यकताएं पूर्ण हैं? कमोबेश उक्त सवालों का एक ही जवाब है-नहीं। फिर ऐसे कौन से कारण है कि युवा जनांदोलनों से ही नहीं रोजमर्रा की आम सामाजिक गतिविधियों से दूर हैं?

मान लेते हैं कि पूरी आबादी में युवाओं का जो भी प्रतिशत है उसकी आधी आबादी का युवा सूबे से बाहर खट रहा है। लेकिन यह कहना कि सूबे में युवा शक्ति है ही नहीं। तर्क संगत नहीं होगा। आखिर युवा रोजमर्रा के जीवन में क्या कर रहा है? वैसे भी जनांदोलन रोज-ब-रोज तो नहीं होते। फिर भी जनांदोलनों का हाशिए पर जाना सोचनीय तो है ही। हम यह भी नहीं कह सकते कि जनता रामराज में जी रही है। सबको आम सुविधाएं मयस्सर हैं। फिर ऐसा क्या है कि आज कोई भी विषय युवाओं को आंदोलन के लिए उद्धेलित नहीं करता। राज्य के संदर्भ में देखें तो यहां आजीविका कहीं न कहीं खेती के इर्द-गिर्द घूमती है। सुबह से रात होने तक की दिनचर्या में बहुत कुछ ऐसा है जो मानवीय श्रम की अपेक्षा करता है। अन्य काम-धंधे भी ऐसे हैं जिसमें आदमी को खपना पड़ता है।

भारत की जनगणना 2011 भी यही इंगित करती है कि हर परिवार औसतन चार-पांच सदस्य का है। उसमें भी बहुलता महिलाओं की है। महिलाएं घर-परिवार-चैका-चूल्हा और खेती सहित बाजार तक की भूमिका में मुखिया के रूप में है। अब महिलाएं काम करेंगी या रोज के काम में जिसमें वो केन्द्र में है, छोड़कर सड़कों पे आएगी? यह भी कहना ठीक होगा कि इसका यह अर्थ नहीं कि पहले हम अपने घर को देखेंगे और फिर जनांदोलनों की बात करेंगे। सूबे में समाज के स्वस्थ होने, पड़ोस में चूल्हा जलने की चिंता हर उत्तराखण्डी को है। फिर? युवाओं का जनांदोलनों से दूर होना किस बात का परिचायक है? आज का युवा पहले से अधिक शिक्षित है। उसके पास सूचना तकनीक से लेकर संपर्कों-संवादों को बढ़ाने-कायम रखने के प्रभावी माध्यम हैं। फिर ऐसे कौन से कारण हैं कि युवा शक्ति जनसरोकारों से विमुख हो रही है। सामाजिक मसलों को उठाने, नेतृत्व देने और मशाल उठाने से परहेज कर रही है।

हालिया संपन्न हुए विधान सभा चुनाव में तो प्रत्याशियों की रणनीति बनाने में युवा ही सबसे आगे थे। ये युवा चुनाव में कैसे सक्रिय हो गए? अचानक ये युवा विधायक प्रत्याशियों के दाएं-बाएं चुनाव अभियान में क्यों थे? अब चुनाव खत्म हो गए हैं। विजय जुलूस भी निकल चुके हैं तो क्या ये युवा भी कहीं और निकल गए हैं। जी नहीं। ये यहीं हैं। हमारे और आपके आस-पास। लेकिन इनकी सक्रियता आम दिनों में निष्क्रिय क्यों हो जाती है? यह सोचनीय है। कारण जो भी हों, लेकिन दम-खम, मस्ती, दिन भर जो भी हो, शाम होते थोड़ा बहुत नशे की चाह और तनाव से दूर रखने वाले साधन संपन्न वर्ग के साथ समय बिताना आज के अधिकतर युवाओं का शगल हो गया है। या यूं कहें मजबूरी। यही कारण है कि आज जिस पीढ़ी को सबसे ज्यादा सामाजिक सरोकारों में व्यस्त होना चाहिए था, जिसे सबसे ज्यादा रचनात्मक होना चाहिए था, वह सबसे अधिक उदासीन हो गई है। यह नहीं कहा जा सकता कि उसे कॅरियर की चिंता नहीं है। उसे पता है कि दो जून की रोटी जुटाने को पापड़ बेलने होंगे। लेकिन वह ‘शार्टकट’ से कुछ बनने की चाह में किसी न किसी का पिछलग्गू बन रहा है। अपना काम निकालने की सोच उसके मन-मस्तिष्क में गहरे से पैठ गई है। वह अराजकों, ठगों और न जानें कितनों के साथ दरबारियों की तरह खड़ा है। आज वह सिद्धान्तविहीन होता चला जा रहा है। राजनीतिक दलों में यूथ बिग्रेडों को देखकर उसे लगता यह है कि वहां कुछ होता होगा। लेकिन ऐसा नहीं है। दलों में रह कर युवा किसी भी मांग या आन्दोलन या सामाजिक सरोकारों को राजनीति के चश्में से देखने लगता है। अन्यथा स्वार्थ, झूठ, कपट, टालू रवैया, उदासीनता, निराशा और मक्कारी उसके युवा मन में कहां से आई? इन कथित ब्रिगेडों में कुछ समय रहकर आज का युवा जो सीख रहा है वह है- मूल्यों का अवमूल्यन। राजनीति में आदर्शवादिता होती तो कम से कम दलों में युवा दिग्भ्रमित होते। आज के युवाओं ने जिन्दगी के दूसरे मायने गढ़ लिये हैं। उनके लिये ‘बिंदास जिंदगी’ के मायने हैं -‘खाओ-पियो और मस्त रहो। सरोकारों या आन्दोलन से तभी जुड़ो जब उससे कुछ निजी लाभ हो। राज्य आन्दोलन ने यही तो सिखाया। जो मूल आन्दोलनकारी रहे वे आज भी हासिये पर है। कई चालाक किस्म के लोग आज आन्दोलनकारी के रूप में घोषित हो गये हंै। यह बात कमोबेश हर युवा के भीतर गहरे पैठ गई है।

युवाओं में एक हिस्सा उन युवाओं का है जिन्हें सामाजिक सवाल कभी उद्वेलित नहीं करते है। यह युवा हरदम प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी में ही दिखता है। नौकरी और पैसा कमाना ही उसकी जिन्दगी का मुख्य मकसद होता है। सफल होने पर जब वह अच्छी नौकरी पा जाता है,तब कहीं जाकर उसका ध्यान सामाजिक सरोकारों की ओर जाता तो है, लेकिन वह उसमें शामिल कम ही होता है। युवाओं का एक छोटा सा हिस्सा उन युवाओं का भी है जो विरासत में मिली राजनीति के सहारे नेतृत्व करना चाहते हैं। उनके लिये जनसंघर्ष का मतलब होता है वोट बैंक। कई युवा तो सूरज के उठने से पहले उठ जाते है और रात गहरा जाने पर ही घर लौटते हैं। उनकी सारी उम्र फिर घर को चलाने में बीत जाती है। एक हिस्सा वह है जो बाजार में कम साइबर कैफे में, अपने मोबाइलों में या अपने कंप्यूटरों में इंटरनेट में सिर खपाए बैठे रहते हैं।

फिर कौन सा हिस्सा बचा युवाओं का? फिर क्यों युवा जनहित की सोचे? क्यों करे? कैसे करे? कब करे? ये तो वे ही जाने। लेकिन इतना तो तय है कि नीतिकारों ने, बाजारवाद ने और आज की शिक्षा ने जनांदोलनों से युवा को इतना दूर कर दिया है कि बड़ों की पुकार, समाज की पुकार, मूल्यों की पुकार उनकी कानों में पड़ती ही नहीं। यदि पड़ भी गई तो वह अनसुना कर और,बहुत दूर हो जाना चाहता है। कोई उनसे मूल्यों की बात करता है तों भी वह सिर तो हिलाता है, लेकिन न मन से न तन से वह अपने बड़ों के साथ होता है।

ये निराशावाद की अति नहीं है। बल्कि वास्तविकता है। आज का युवा ज्यादा रचनाशील हो सकता है। उसमें असीम संभावना है। आज के युवा में सैकड़ों अखिलेश होंगे। लेकिन उनकों इसका भान कराने वाली परिस्थितियां उन्हें कौन देगा? साजिश करना, असामाजिक गतिविधियों में लिप्त रहना और आंख-कान बंद कर चलना, बाइक में स्टंट करना इन युवाओं को को किसने सिखाया? यह प्रश्न भी विमर्श के विषय हैं।

जब कोई आंदोलन शुरू होता है तो उसके सही-गलत होने पर सवाल उठ खड़े होते हैं। लंबे समय तक बहस चलती है कि अमुक आंदोलन जायज भी था कि नहीं। इसे आंदोलन माना जाए या नहीं। समय के साथ-साथ आंदोलन की दिशा भी तय होती है और दशा भी। समय ही तय करता है कि जिसे आंदोलन माना जा रहा था वो आंदोलन था ही नहीं। समय ही तय करता है कि जनता द्वारा उठाया गया हर कदम सही नहीं होता। फिर उसे भेड़ चाल का नाम दे दिया जाता है। इतना तो तय है कि जनता के सरोकारों से जुड़ा, दमनकारी नीतियों के खिलाफ आम जन की लामबद्धता और उसमें सफलता ही जनांदोलन है। ये ओर बात है कि सभी जनांदोलन जिन मुद्दों-बातों और हकों के लिए शुरू हो उनका अंत हमेशा शत-प्रतिशत सफलता प्राप्त करने पर ही खत्म हो,जरूरी नहीं। आज का युवा शुरूआत करने से पहले ही उसके परिणाम पर सोचने लग जाता है। अगर-मगर, किन्तु-परन्तु में वह किसी भागीदारी में भाग नहीं लेता या पीछे रह जाता है।

यह दौर संक्रमण का है। लेकिन कब तक? हम सब प्रयास करें और ऐसा माहौल बनायें कि आज के बच्चे युवा उम्र में कदम रखते समय महसूस करे कि सबसे पहले समाज का स्वस्थ रहना जरूरी है। हमारी खुशी में पड़ोस का शरीक होना भी महत्वपूर्ण है। क्षेत्र के साथ-साथ जिला और राज्य का खुशहाल होना भी जरूरी है। तभी आने वाली युवा पीढ़ी जनसरोकारों की और कान देगी। अन्यथा जैसा हम और आप कह रहे हैं। जैसा हमने अपने बड़ों से सुना है, वैसा ही हम बच्चों से न सुनें कि ‘इस देश का कुछ नहीं हो सकता।’ यह वाक्य अति निराशावाद से भरा है। आइए। हम कहें कि स्थितियां बदलेगी और आज जैसा है कल भी ऐसा नहीं रहेगा। यह कोई जरूरी नहीें कि जनसंघर्ष से कुछ मिलने के बाद सब सामान्य हो जाता है। हां। कुछ समय के लिये जनता का असंतोष कम जरूर हो जाता है। लेकिन फिर नये हालात में नयी मांगे जन्म लेती है। आंदोलन का स्वरूप-रूप समय के साथ बनता-बिगड़ता रहा है। फिलहाल तो यह कहना ही ठीक होगा कि युवा जन सरोकारों से खुद को कब तक दूर रख सकेगा। आज नहीं तो कल युवाओं को समझना ही होगा कि बिन लड़े कुछ भी नहीं मिलता। वो भी ऐसी लड़ाई जो जनहित के लिए लड़ी जाती है। उम्मीद की जाती है कि सूबे का युवा खुद को निराशावाद से जल्द ही उबार लेगा।