ये कल्चर्ड नहीं! / प्रतिभा सक्सेना

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साथ वाले प्लाट पर बहुमंजिली इमारत बन रही है। मज़दूर-मज़दूरिनें अधिकतर पूरब के हैं - कई के पत्नी-बच्चे भी साथ हैं - ऐसे जीवन के अभ्यस्त। उठाऊ गृहस्थी हमेशा साथ चलती है। पति-पत्नी दोनो मज़दूरी करते हैं। बच्चे वहीं आस-पास खेलते रहते हैं। जहा काम पर लगे वहीं टेम्परेरी गृहस्थी जमा ली। ऐसे काम महीनों चलते हैं न.

सुमिरनी का चौका-चूल्हा यहीं नीचे है। वे लोग सोते भी सामने के ऊपरवाले कमरे में हैं, जो पूरा बन चुका है। अब तो काम उससे ऊपरवाली मंज़िल पर चल रहा है.

पड़ोस की किसी बिल्डिंग में जो लोग काम कर रहे हैं उनमें लगता है इसकी बहिन भी है। कभी-कभी एक स्त्री आती है। ये उससे ' दिदिया' कहती है। उसी के मुँह से इसका नाम सुना है नौमी ने। आवाज़ लगाती है, 'सुमिरनी हो..'। 'हो' को काफ़ी लंबा खींच देती है। उसके आदमी का भी वह नाम लेती है - 'चैतू '.

नमिता के बेडरूम की खिड़की से इधर का पूरा हिस्सा दिखाई देता है। पर नमिता कौन कहे नौमी नाम चल गया है उसका !

सुमिरनी सुबह-सुबह ईँटों के चूल्हे पर खाना बनाती है।

दाल उबाल कर चूल्हे के आगे अंगारे खींच कर बटलोई रख देती है मंदी आँच में धीरे-धीरे सीझने को, और ऊपर बड़ी सी कड़ाही रख कर सब्ज़ी छौंकती है - जरा सा तेल और, आलू, गोभी, या जब जैसा मौसम हो। हींग मेथी के साथ अच्छी तरह मिर्च, चटपटी सब्जी !

ऊँची कोरवाली थाली ऊपर से औंधा कर ढाँक देती है। तब तक आटा गूँदती है।

नमिता देखती है बच्चे को गोद में डाल वह आटा माड़ लेती है, थोड़-सा नहीं, खूब सारा। वैसे ही रोटी बेलते-बेलते गोद में डाले रहती है, तवे पर और अंगारों में सेंकती भी रहती है। लगता ही नहीं कि उसे कोई असुविधा भी हो रही है। खाना खाते पर भी आराम से बच्चा गोद में पड़ा रहता है। वह बीच- बीच उसे चटाती जाती है। वह चटखारे लेकर खाता है तो देख देख कर हँसती है।

चमचे में तेल गर्म कर दाल में लहसुन- मिर्च का जो करारा बघार बनता उसकी तीखी धाँस यहाँ तक आती है।

हमारे घर के लोगों को मिर्च का तीखा स्वाद लेना नहीं आता, दूर दूर भागते हैं। नौमी को लगता है कि झन्नाटेदार बघार की तेज़ी जब कण-कण में रस जाती है तो एक सोंधी -सी महक, एक करारा-सा स्वाद व्यंजन में बस जाता है.

बोरा बिछा कर आदमी-बच्चे भोजन करने बैठते हैं। ऊँची कोरवाली थाली के नीचे एक ओर कोयला लगा कर ढाल के हिस्से में वह चमचे से दाल परस देती है। उसी में से दोनो बच्चे और आदमी खाते हैं। सुमिरनी चूल्हे के आगे फैले अंगारों पर तवे से उतार कर रोटी डालती है फिर उसे खड़ी कर घये की आँच में घुमा घुमा कर दोनों ओर से सेंकती है और उछाल देती है। उसका आदमी हाथ बढ़ा कर झेल लेता है -कभी-कभी थाली में जा गिरती है। गोद का बच्चा लपकता है आदमी उसे ले लेता है - बीच-बीच में उसके मुँह में भी डालता रहता है।

दो-चार रोटी सेंक कर रख देती है। मोड़ा-मोड़ी को तीसरे पहर भूख लगती है न !

ये गैस की नीली लपट पर सिंकी रोटियाँ और कुकर में गली दाल -सब्ज़ी, खा-खा कर मेरा तो जी ऊब गया है - नौमी सोचती.

उस का मन करता है सुमिरनी के बोरे पर जा बैठे और चूल्हे की मंदी आँच पर सिंकती रोटियाँ और बटलोई की दाल खा कर तृप्त हो जाये।

रात का समय उनका अपना ! खा -पी कर, इधर सामने के बड़े कमरे में इकट्ठे होते हैं। फिर क्या तानें उठती हैं लोक-गीतों की।

कहाँ सुनने को मिलते हैं ऐसे मन में उतर जानेवाले दुर्लभ लोकगीत?और इतना तन्मय गायन !

कोई वाद्ययंत्र नहीं, ढोल मँजीरा नहीं, एक घड़ा औंधा कर सुमिरनी का आदमी, चैतू ऐसी कुशलता से बजाता कि कानों में रस घुल जाता है।

और गाने?

पूरव के हैं ये लोग। बिहारी और मैथिली लोक-गीत इनके कंठ में बसे हैं !मस्ती में आने पर, कभी-कभी दिन में भी एकाध तान छेड़ देते हैं।

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आस-पास सभ्य जगत की दुनिया है. पढ़ी-लिखी महिलायें भी बहुत बिज़ी हैं। बाहर काम करने वाली तो हैं ही, गृहिणियाँ भी कम व्यस्त नहीं हैं। इतने काम हैं इनके पास कि समय कम पड़ जाता है। सचेत-सजग मस्तिष्क ! सब कल्चर्ड हैं.

उनकी अपनी जरूरतें हैं। परेशानी होगी तो शिकायत करेंगी ही।

बच्चा पालना कोई आसान काम है?

कल ही ललिता झींक रही थी -

- बाज़ार करके घर पहुँची और सास जी बच्चे को पकड़ाने आ गईं। ये भी नहीं सोचा थक कर आई है, बस अपनी ही गाये जाती हैं.

मैंने यह किया, मैंने वह किया, कितना थक गई। बच्चे ने इतना परेशान किया। चार बार तो। .कपड़े बदलाये। बस अपनी गाथा सुनाने बैठ जाती हैं। और मैं जो सुबह से चकरघिन्नी बनी हूँ?वह कुछ नहीं? घर में पाँव रखते ही ऊपर से लदाने को तैयार। मैंने भी साफ़ कह दिया, अम्माँजी, ज़रा साँस ले लेने दीजिये। कहीं भागी नहीं जा रही हूँ। आधे घंटे लेट ली तब लिया जा के।

और ऊपरवाली सरिता जी, बैंक में काम करती हैं। दिन का बड़ा हिस्सा बाहर निकल जाता है। कामवाली रखी है, बच्चे को सम्हालने के लिये एक लड़की भी।

जब लौटती हैं तो थकी हुई।

बच्चे को जबरन बाहर भेजना पड़ता है लड़की के साथ. रोता है तो वह चुपायेगी, आखिर रखा किस लिये है?बच्चा रोते-रोते घूम-घूम कर माँ को देखता है, उसकी गोद में लपकता है पर माँ बहुत थकी है। और बहुतेरे काम अभी बाकी पड़े हैं, कहाँ समय है उसके पास?

कितनी परेशानियाँ हैं यह तो पूछिये ही मत !

एक से एक दुख-तकलीफ़ का भोगा हुआ यथार्थ सुनने को मिल जायेगा। जो सबसे अधिक विद्वान है सबसे अधिक झिंकना उसी का। रोज का किस्सा सुन लो। आज बच्चे ने कितनी बार शू-शू -छिछ्छी्की। बिचारी को खाना खाते से उठना पड़ा, जी ऐसा घिना गया कि फिर खाने की इच्छा नहीं हुई.अब दो पत्ते चाट के खाकर संतोष करना पड़ रहा है.

और लड़की? उनकी व्यथा मुखर हो उठती है -जब मैं होती हूँ तब उसे लगता है ये काम मुझे कराने चाहिये। कभी शू-शू के कपड़े तक नहीं बदलाती। मेरे पर चढ़ाये रखती है। बच्चा भी तो उसके पास से दौड़ा चला आता है। कहाँ तक मना करें, रोना-धोना मच जाये और अपना मूड खराब हो जाये। अरे, हम भी सोचते हैं हमारे पीछे तो सम्हाले रहती है। और थोड़ा-बहुत ऊपर का काम भी करवा लेती हूँ। छुड़ा दें तो सब हमें ही झेलना पड़ेगा।

'देखो कल यहाँ कितना काम था। बुरी तरह थकी !घर पर बैठ कर चाय का कप उठाया ही था कि वह अंदर ले आई और वह दौड़ कर गोदी में चढने लगा। ऐसा धक्का लगा कि गरम-गरम चाय मेरे ऊपर तो गिरी ही मेरी नई साड़ी खराब हो गई। ऐसा ताव आया कि कस के एक चाँटा रसीद कर दूँ। पर दौड़ कर लड़की ने उठा लिया।

जितना वे बचने की कोशिश करती हैं,.उतना ही उत्कंठित हो कर वह दौड़ता है - माँ का दुलार पाने को व्याकुल! पर कहीं तो छुटकारा मिले ! पैदा तो कर ही दिया है किसी तरह, अब सम्हाल तो कोई और भी कर सकता है।

'अरे, ले जाओ इसे !सामने लिये खड़ी हो फिर तो मचलेगा ही। उधर बाहर क्यों नहीं ले जाती?'

न फ़ुर्सत है, न निश्चिंती ! गोदी में लेकर भी तो मन उलझा रहता है, तमाम चिन्ताये हैं। बहुत से महत्वपूर्ण चीज़े जिनके बारे में सोचना है। इसके कारण बड़ा टाइम वेस्ट होता है, नहीं तो जाने क्या-क्या कर लेती।

अरे, रात में भी चैन नहीं। जरा सो जाओ तो रोना शुरू। ऊपर से चिपटा चला आता है। जब देखो तब भीगा !लगता है आया दूध बनाने में पानी ज्यादा कर देती है। और कहो तो कहती है बीबी जी गाढा रहेगा तो पेट में मरोड़े उठेंगे। पेट भी तो अक्सर ही दुखता रहता है, ऊपर से लूज़ मोशंस !

एक बार बात हो रही थी -हमारे यहाँ के साहित्य में बाललीलाओं का जितना व्यापक वर्णन हुआ है और कहीं सुनने में नहीं आता। सूर तो बिल्कुल ही डूब जाते हैं।

तुरंत उत्तर मिला -

'अरे, सूर ने कभी बच्चा देखा तक नहीं होगा, पालना तो दूर की बात !इन आदमियों का क्या? उन्हें कुछ करने-धरने से मतलब नहीं। जब तक हँसता -खेलता रहे उन्हें अच्छा लगता है नहीं तो तुरंत पुकारेंगे अरे, इसे ले जाओ। '

हमें तो कहना पड़ता है ' आया, बच्चा क्यों रो रहा है?भूखा है क्या?'

'अभी अभी फ़ीड किया है। बस, आपके पास लपकता है। '

'अभी इसे बाहर ले जाओ, मैं खाली नहीं हूँ।

माँ की मुद्रा देख कर बालक सहम गया है।

वह फिर आवाज़ लगाती है -

'अरे, आज इसे जूस निकाल कर दिया कि नहीं?'

'हाँ, पी चुका है। '

सूप -जूस सब पीता है फिर भी। ..बताइये कितने बच्चों को यह सब मिलता है जो इसे मिल रहा है?

गोद में लेकर भी मन कहीं औऱ भागा रहता है। फिर टी.वी.का कोई दृष्य कहीं मिस न हो जाये! पास होकर भी पास नहीं !

कोई सोचता नहीं चिल्लाना पड़ता है, 'अरे खाना तो खा लेने दो, अभी हाथ चला कर कपड़े गंदे कर देगा। '

उनके पास इतने काम हैं कि दिमाग़ वैसे ही परेशान रहता है। थोड़ा मनोरंजन चाहें, उसमें बाधा, घूमने फिरने में बाधा। कभी किसी से बात करने बैठ गईँ तो बीच में बाधा। हर तरह से बाधा बने रहते हैं ये बच्चे!

माँएँ सचमुच कल्चर्ड हैं !

अरे, मैं भी कहाँ की लेकर बैठ गई नौमी फ़लतू बातों को दिमाग़ से झटक देना चाहती है, ये परेशानियाँ तो जग-विदित हैं !

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छोटे को दूध पिला, ज़मीन पर बोरा बिछा कर बैठाल देती है सुमिरनी, और अपने काम में लग जाती है। काम?वही, सुबह खान बनाना फिर दिन में ईँटें या सीमेंट- मसाला ढोना !

बच्चा क्या बोरे पर टिकनेवाला है -खिसक -खिसक कर कच्ची जमीन में पहुँच जाता है। बड़े भाई-बहिन या सुमिरनी चलते-फिरते उसे फिर बोरे पर कर देती है।

कच्ची ज़मीन है हाथ-पाँव धूल-धूसरित हो जाते हैं। माँ अपने कपड़ों की चिन्ता नहीं करती उठा कर हाथ से मिट्टी झाड़ती है और गोद में भर लेती है। कौन मँहगे कपड़े पहन रखे हैं जिन्हे बचाने के लिये बच्चे को दुरदुरा दे। यहाँ तो कलफ़-प्रेस भी नहीं जो मुसने का डर हो। पयपान कराने के लिये आँचल में दुबका लेती है।

कभी जब माँ को देखे काफ़ी देर हो जाती है और बच्चा सामने पड़ जाता है तो आकुल-सा लपकता है माँ की ओर।

मजूरी में लगी रह कर भी सुमिरनी आँखें नहीं फेरती।

अरे, 16 ईंटों से भरा तसला सिर पर सम्हाले वह अनायास झुकी, आँखों में वात्सल्य उमड़ता हुआ, और बच्चे को एक हाथ से सम्हाल कर बगल में दबा लिया, दूसरे हाथ से ईंटों भरा भारी तसला साध कर सीढियाँ चढने लगी।

नमिता चकित ! इसने सोचा तक नहीं, सिर पर इतना भारी बोझा उठाये झुकेगी कैसे?कैसे बच्चे को साधेगी?

अब उसकी जगह वह ख़ुद सोच में पड़ गई है। सुबह -मुँह अँधेरे से व्यस्त रहती है?रोज़ ही मेरे सो कर उठने से पहले उधर की अरगनी पर गहरे रंग की धोती सूखती दिखाई देती है। लोगों की जगार से पहले वह बाहों के नीचे पेटीकोट कसकर बांधे, इधर नल पर नहा लेती है।

यह थकती नहीं?

एक सहज वृत्ति! अनायास, बिना कठिनाई के सहज सस्मित मुख, सिर का भार एक हाथ से साधे कमर से झुकती है दूसरे हाथ से जमीन पर बैठे बालक को उठा कर गोद में दबा लेती है। कोई शिकायत नहीं। कैसे करेगी, कितना ज़ोर पड़ेगा सोचने की जरूरत नहीं। बस उर में ममता उमड़ती है तो अपने आप करवा लेती है. उमड़ता हुआ वात्सल्य! कोई बाधा कहाँ रह पाये वहाँ। स्वचालित सा सब अपने आप हो जाता है-तनाव-रहित। दिमागी ऊहापोह यहाँ कहाँ। सोचने-विचार करने की सारी एनर्जी क्रियाशीलता में बदल जाती है। किसी दबाव में आकर नहीं- भावना से परिचालित। अति सहज रूप से उनके क्रिया- कलाप संपन्न होते हैं। हृदय में भावना उमड़ती है तो कोई तर्क सिर नहीं उठाता। उस वेग में थकान बह जाती है। मन का मोह-छोह मुख पर माधुर्य बन कर छा जाता है।

हाँ, पढ़ी-लिखी समझदार महिला होती तो सोचती-विचारती - इतने भारी बोझ के साथ कैसे उठाऊँगी?कैसे साधूँगी दोनों को?कहीं ईंटें गिर पड़ीं तो? चलो, रो लेगा थोड़ी देर क्या फ़र्क पड़ता है !

पर उसे अपने बोझे का भान नहीं, शिथिलता या थकान नहीं आँखों में उमड़ा नेह चेहरे में नई दमक भर रहा है।

आते-जाते उसकी नेहभरी दृष्टि बच्चे पर, वह पुलक उठता है मुख पर हँसी सज जाती है, गहरी परितृप्ति से चेहरा दमक उठता है। भाई-बहन को आते -जाते देख कर किलकता है। वे भी बीच-बीच में उसे बहला लेते हैं।

आदतन काम करती रहती है थकान का भान कैसे हो? शरीर तो माध्यम है अनुभव करनेवाला मन मगन रहता है अपनी सीमित सृष्टि में। शिकायत कौन करे दिमाग़ को प्रेरित करके?ध्यान बच्चे में लगा होता है। बात खतम !

बच्चा भी उस दृष्टि के वात्सल्य से सिंचित रहता है- संतुष्ट,तृप्त। दोनो एक दूसरे से दूर कहाँ?

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रात गहरा रही है। पड़ोस की बिल्डिंगो से खाना-पीना निबटा कर उसी कमरे में दो-चार और मज़दूर परिवार जुड़ आये हैं। छोटे बच्चे माँ या बाप की गोदी में, बड़े भाई-बहिन रात का खाना खा साँझ पड़े से सो गये है.

चैतू ने घड़ा साध कर अपना हाथ उस पर धर लिया है।

एक नहीं, कितने-कितने गीत !रोज़ नये-नये। बार-बार सुनते रहो तो भी जी न भरे ! सिनेमा के सारे गाने इन लोक-गीतों के आगे फीके लगते हैं।

नौमी खिड़की खोल कर जब तक उनका संगीत चलता है, सुनती रहती है। कभी कभी आधी-आधी रात तक !

जितने सहज ये गीत हैं उतनी ही गहरी अनुभूति, संगीत के निनादित स्वरों में गूँज भरती है ! लोक-धाराओं की इस त्रिवेणी में डुबकियाँ लगाकर जो सुख मिलता है उसकी स्मृति भी तरल लहरों सी सरसा जाती है।

इनके दिन भर के कठोर श्रम का परिहार, लगता है इसी से हो जाता है- चेहरों पर क्लान्ति के बजाय स्निग्ध शान्ति छा जाती है !

बड़ी टीम-टाम वाले, जगमगाती स्टेज पर आयोजित सांस्कृतिक आयोजन, नौमी को लगता है इनके आगे फीके हैं। इतनी शान्ति और तन्मयता, चित्त को विभोर कर देनेवाली रस की यह सहज वर्षा वहाँ कहाँ?

एक नये गीत की तान उठ रही है --
अकेल सिया रोवे !हो राम जी,
बोलें जिनावर, कोई लोग ना लुगाई,
घोर बन माँ डिरावै !हो राम जी !
गरुआ गरभ, लाय भुइयाँ में डारी,
हिया पल ना थिरावे, हो राम जी
कैस दुख झेले सतवंती मेहरिया,
केहि का बुलावे, हो राम जी !
कैस बियाबान अहै, हो राम जी !'

बीच-बीच में कुछ और कंठ, अपने स्वर मिला देते हैं -पुकार और गहन हो जाती है

लगता है सारा वन-प्रदेश टेर रहा है 'हो राम जी !'

ध्वनि-प्रतिध्वनि सब ओर छाई हुई है.

अपने बिस्तर लेटी-लेटी तन्मय नमिता लोक-मन में लीन हो गई है।