ये व्यंग्य नहीं आसां / कमलेश पाण्डेय

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अगर आप समझते हैं कि आप पढ़े-लिखे तो हैं ही, लगे हाथों संवेदनशील और सरोकारों से भरे हुए भी हैं, समझ भर सही-गलत की परख ही नहीं बल्कि मुद्दों पर चिंतन आदि कर पर्याप्त मात्रा में क्षोभित या आक्रोशित भी हो जाते हैं, मिजाज़ में विट लबालब भरा है, शब्दों से खिलवाड़ करने की तो बचपन से ही आदत है और इन्हीं तमाम वजहों से आप सोचते हैं कि आपको व्यंग्य लिखना चाहिए तो आप ठीक ही सोचते हैं. सोचने तो क्या लिखने पर भी हमारे यहाँ कोई पाबंदी नहीं है. पर गौर कीजिये कि व्यंग्य लिख कर करते क्या हैं, सिवा थोड़ी रचनात्मक तुष्टि पा लेने और चंद पाठकों के धैर्य का इम्तहान लेने के सिवा. अगर व्यंग्यकार कहला लिए हैं तो क्या ये पता है कि किस प्रकार, क़िस्म या समय के हैं. यानि उभरते हुए, स्थापित, प्रखर, चर्चित, सम्मानित, युवा या वरिष्ठ. आगे ये भी मालूमात करें कि उभरते हुए हैं तो तेज़ी से उभर रहे हैं या नहीं, कोरे चर्चित हैं या आगे बहु भी लगा है, युवा हैं संभावनाशील हैं कि नहीं और वरिष्ठ हैं तो महान होने से कितने दूर. व्यंग्यकारों के इन तमाम प्रकारों की सूची बनी धरी है. पर ध्यान रहे, महज़ लिख कर तो आप मरणोपरांत भी व्यंग्यकारों की किसी सूची में शामिल हो जाएं, ये ज़ुरूरी नहीं। पर फ़िक्र नहीं, व्यंग्य लिख कर या लिखे बिना ही व्यंग्यकार कैसे बनें यही बताने के लिए ये लेख आपके सामने रख रहा हूँ.

माना कि लिखना आपके लिये सहज, स्वतः स्फूर्त और आसान काम है. आप लिख कर छप भी जाते हैं और शायद पढ़ भी लिए जाते हैं और फेसबुक, ब्लॉग या ट्वीटर पर फॉलोवरों की ख़ूब वाह-वाही भी लूट रहे हैं. अपने तमाम पाठकों द्वारा लेखक स्वीकार लिए गये हैं. पर क्या इतने भर से आप व्यंग्यकार हो गये? क्या आपको पता है कि आपने ये व्यंग्य क्यों लिखा? आप कहेंगे कि बस मन में आया, लिख दिया. बात इतनी सीधी नहीं है मित्र. व्यंग्य में बहुत-सा विमर्श और आदि-इत्यादि लगता है. स्पष्ट हो कि ये विमर्श आपकी रचना पर नहीं, बल्कि खुद व्यंग्य पर होता है. विमर्श में ही व्यंग्य नामक विधा या शैली की डायग्नोसिस और पोस्मार्टम होता है. व्यंग्य कहाने वाली रचनाओं की बाढ़ को विमर्श का बाँध ही रोकता और नई नहरें खोद कर नई बाढ़ को दिशा भी देता है। इस बाँध में ढेरों दरारें हैं जिनसे रिस-रिस कर व्यंग्य के सैकड़ों परनाले बह रहे हैं। उधर ढेरों समानांतर विमर्शों की बाढ़ अलग आई हुई है जिनमें व्यंग्य पर चिंता और चिंतन से एक जलजला-सा आया हुआ है. विमर्श के ये थपेड़े रचनाओं को अबूझ चट्टानों पर पटक-पटक कर लहूलुहान करते हैं या किसी गुमनाम ज़जीरे पर पटक आते हैं. पहले व्यंग्य तो निबटे फिर व्यंग्य रचनाओं और तब व्यंग्यकार की बारी भी आयेगी.

हिंदी व्यंग्य में अभी विमर्श काल चल रहा है. बहस ये तय करने पर चल रही है कि व्यंग्य है क्या. इससे व्यंग्य होने का दावा करने वाली हर रचना को व्यंग्य कहलाने का हक मिला भी हुआ है और नहीं भी. इसलिए आपको रचना-प्रक्रिया में शुरू से ही विमर्श के बताये रास्ते पर चलना होगा. मसलन अगर विसंगति, विडम्बना वगैरह के बारे में पता हो तो ये तय कीजिए कि कथ्य में कौन-सी विसंगति पकड़ कर धुनना तय किया है. जो है वो विसंगति है या विडम्बना या कोई और वस्तु. आपकी संवेदना किस प्रवृत्ति पर उद्वेलित हुई, प्रतिक्रिया में क्षोभ उभरा या आक्रोश या बस यूं ही खिसिया कर खम्भा नोचने लगे. जो मुद्दा पकड़ा ज़िंदा है या मुर्दा, यानी सामयिक है या शाश्वत. व्यक्ति से जुड़ा है या प्रवृत्ति से. उसमें सरोकार है या यूं ही बेकार है. परम्परा में है या लीक छोड़ कर टहल रहा है. अपने कथ्य के सारे तथ्य बटोर कर गहराई में उतरना है या सतह पर ही रगड़ देना है. आगे ये सोचिये कि लिखें कैसे. विट से विसंगति को कोंचें या आइरनी से या सर्काज़्म ही आजमा लिया जाय? हास्य की चाशनी में डुबायें या तीखे रूखे व्यंग्य का तडका लगा दें. शैली कौन-सी लें, सपाट ही रगड़ दें या फैतेसी व् वक्रोक्ति में लपेट कर मुद्दे को झकझोरें. भाषा में कितना लालित्य डालें, मुहावरेदार बनाएं या मसालेदार. उसके प्रवाह की गति कितनी रखें. तिर्यक दृष्टि से परखना हो तो एंगल कितना रखें. भाषा व् शैली की व्यंजना-शक्ति और सम्प्रेषण को नापने का मीटर तो आपके पास होना ही चाहिए. रचना की संरचना में किस-किस चीज़ से बचना है, दो पंचों के बीच कितनी दूरी बरतनी है जैसे ढेरों सवाल हैं जो विमर्श से ही हल होते हैं, बल्कि विमर्श के बाद भी हल हो जाएँ ये जुरुरी नहीं. हिंदी व्यंग्य रचना से अधिक एक विमर्श है. ये सतत चलते आ रहे विमर्श किसी परंपरा की तरह एक बार शुरू हो जाएँ तो बस चलते ही चले जाते हैं. व्यंग्य क्यों, कैसे, कितना, कैसा, किस के लिए, किस पर या कब तक जैसे सवालों पर लगातार सामूहिक तौर पर सर धुन कर कुछ अस्पष्ट, विरोधाभासी और असम्बद्ध तथ्य ढूंढ निकालने की प्रक्रिया को व्यंग्य-विमर्श कहते हैं. यही तय करते हैँ कि आपने जो लिखा या जो लिख रहे या लिखना चाहते हैं वो व्यंग्य है या फाख्ता. सो बात इतनी सीधी भी नहीं जितना आपने समझ लिया था-

ये व्यंग्य नहीं आसां, इतना ही समझ लीजे विमर्श का दरिया है और कूद के जाना है.

अमूमन साहित्यिक विमर्श विचारों का एक दरिया होते हैं, जिसमें विमर्श की विविध धाराएं आकर मिलती जाती हैं. पर हिन्दी व्यंग्य-विमर्श पोखरों, कुओं यहाँ तक कि गड्ढों में भी जारी है. किसी एक में कूद कर आप देखेंगे कि विमर्श के मुद्दे और प्रकट विचार एक से ही होते हुए भी निष्कर्ष अलग-अलग हैं. एक पोखरे में अजाना-अनचीन्हा लेखक दुसरे कुँए में महान व्यंग्यकार है. एक बावड़ी के लिए अपठनीय, कूड़ा या मलबा रचने वाला रचनाकार दुसरे गड्ढे में अद्भुत किस्म का लेखक है. बाकी विधाओं की तरह हिंदी व्यंग्य में भी सम्मानित करने–होने की परम्परा है, जो इसी विमर्श पद्धति से तय होता है. एक पोखर से सम्मानित होने को चुन लिए जाने के बाद तुरंत बाकी पोखरों से उस व्यंग्यकार को अपमानित करने का ज़ोरदार अभियान शुरू हो जाता है. इससे पुरस्कृत रचनाकार उसी प्रकार कन्फ्यूज़ हो जाता है जैसे अभी आप हो गए हैं कि विमर्श के इस उल्लास भरे माहौल में कूदने को सही गड्ढे का चुनाव कैसे करें. कन्फ्यूज्ड न हों. जी न करे तो किसी में मत कूदें. एकल या स्वतन्त्र विमर्श का भी इंतजाम है. किसी ऊँचे टीले पर बैठ कर तमाम विमर्शों के कोरस सुनें और घोट कर काढा-सा बना लें. फिर लम्बे-लम्बे आलेखों में कुछ फतवे-सा जड़ कर इन्टरनेट के तमाम फ़ोरम पाट दें. किसी विमर्श मंडली को भा गया तो ले उड़ेंगे और आप प्रबुद्ध व्यंग्य-समीक्षक या प्रधानविमर्शकार जैसे किसी पद के हक़दार हो जायेंगे.

इसलिए मेरी सलाह है कि व्यंग्य में उतरने से पहले ऊपर बताये गए जलाशयों में से किसी में उतर लें. दो-चार विमर्शों से दो-चार होते ही आप जान लेंगे कि आप कितने और कैसे पानी में हैं. अधिक संभावना है कि आप खुद को पानी में नहीं, रेगिस्तान में खडा पायें. पानी अगर होगा तो गन्दला, तकरीबन कीचड़ या दलदल जैसा हो सकता है जिसमें छप-छप करते आप उसी कीचड़ को अपने साथी व्यंग्यकारों पर उछालना भी सीख लेंगे. विमर्श से जुड़ कर ही आप व्यंग्य के जंगल में विचरते कई कबीलों में किसी एक में दीक्षित हो सकेंगे. इसके बाद आप अपनी रचना का पाठक खोजने की ज़हमत से भी आज़ाद हो जायेंगे. सब मिलजुल कर एक दूसरे को बांचेंगे और जांचेंगे. इस आपसी साझेदारी में कभी आपकी रचना की छीछालेदर हो जाए तो वहीँ किसी और की रचना का कीमा बना कर बदला लेने का मौक़ा भी मिलेगा. ये यकीन आते ही कि रचना पढने-लिखने से जियादा मज़े लेने की चीज़ है आप रचनात्मक सरोकारों की ज़द्दोज़हद से आज़ाद हो जायेंगे और बेखटके लिख सकेंगे. अलग-अलग समूहों में विमर्श करते ये विद्वान लोग एक वृहद् परिवार का ही हिस्सा हैं, जहां राग-द्वेष, महत्वाकांक्षा, टांग-खिचाई जैसे उद्दात्त पारिवारिक मूल्य उन्हें मज़बूती से जोड़े रखते हैं. ये विमर्श परिवार आपको व्यंग्य-टूरिज्म पर पहाड़ों और समन्दर-तट पर भी ले जाएगा जहां पिकनिक के हलके-फुल्के माहौल में हलकी-हलकी रचनाएं सुनकर आप बौद्धिकता के बोझ से एकदम हलके हो जायेंगे.

हिन्दी व्यंग्य-विमर्श के आकाश में उन्मुक्त विचरण करते कभी टपके तो मूल्यांकन के खज़ूर पर अटकना तय है. इतना आश्वस्त हो लेने के बाद कि आप व्यंग्यकार तो हैं ही, और व्यंग्यकारों की भीड़ में एक विशेष स्थान के हक़दार हैं, आपमें मूल्यांकित होने की हुडक जाग उठेगी. आप पायेंगे कि वहां तो कतार बड़ी लम्बी है. अमूमन मूल्यांकन के खजूर से लोग सम्मान और पुरस्कारों के गद्दे पर कूदते हैं. पर आप चाहें तो हैरान हो सकते हैं कि हिन्दी व्यंग्य में दर्ज़नों सम्मान पाए हुए व्यंग्यकार सिरे से मूल्यांकित ही नहीं हुए. ये लोग व्यंग्य के कुछ स्थापित मठों से पैराशूट लेकर सीधे सम्मान के गद्दों पर कूद पड़े थे. उन्हें दुबारा खज़ूर पर चढ़ने की क्या ज़ुरूरत जो पहले ही चने की झाड पर चढ़ लिए हों. इसलिए ज़ुरुरी है कि अपने विमर्श-काल में ही किसी मठ से जुड़ कर अपने लिए एक अदद पैराशूट की सेटिंग कर लें. भीड़ वहां भी बहुत है, पर काम इतना मुश्किल भी नहीं. बस श्री गुरु चरण सरोज-रज का रोज़ सेवन करते रहें. अगर आपसे ये सब साध गया फिर मूल्यांकन-फूल्यांकन छोडिये, व्यंग्य लिखने की भी ज़ुरूरत नहीं रह जायेगी.

इस आलेख से प्राप्त ज्ञान के बाद अगर आपकी श्रद्धा हो तो व्यंग्य भी लिखें. एक लाइन में लिखें, शब्द-सीमा में जकड़े कालमों के लिए डिजायनर लिखें या बस बगटुट भागती शैली में लफ्फाजियों के समूहों से हजारों शब्दों का ताना-बाना बुन लें, पर जिद यही रहे कि ये व्यंग्य है. सपाटबयानी हो या लफ्जों की लंतरानी, निबंध हो या कहानी, आप तो बस उसे व्यंग्य कहने पर अड़े रहें. कोई न कोई विमर्श उसे व्यंग्य कह देगा. फिर उसी गुट के हो लें और इत्मीनान से व्यंग्य के नक्कारखाने में अपनी तूती बजाते रहें.

ढेर सारे विशेषणों से लदे एक व्यंग्यकार में आपके कायांतरण की शुभकामनाओं सहित.