योगदान / सुषमा मुनीन्द्र

Gadya Kosh से
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परसों वाणी का ब्याह है। आज आंगन में मण्डप सजाया जा रहा है। बांस बांधे जा चुके हैं। बांसों के ऊपर छाया के लिये पाकर की हरी टहनियां तोड़ कर रखी जा रही हैं। घर के बड़े दामाद राघव हंस रहे हैं —

“मण्डप की ऊंचाई कुछ अधिक रखी है नॐ दूल्हा लम्बा है। ऊपर से मौर भी बंधेगा। कहीं कमर झुका कर फेरे न लेने पड़ जायें बेचारे को।”

सुन कर हंसी की फुलझड़ियां छूट गईं। तभी बड़ी सलहज नलिनी ने राघव की पीठ पर हल्दी से सने हाथ का छापा बना दिया। राघव नलिनी के पीछे दौड़े‚

“कुरता खराब कर दिया भाभी‚ पूरे पैसे गिना लूंगा‚ हाँॐ”

“फूटी कौड़ी भी नहीं मिलेगी बी डी ओ साहब।”नलिनी खिलखिला कर हंस रही है।

इधर पीठ पर हल्दी के धौल पड़ रहे हैं तो दूसरी तरफ ढोलक पर थाप। ट्यूब लाईटें लग चुकी हैं। आंगन दूधिया प्रकाश से जगमगा रहा है। बच्चों की टोली एक तरफ बिछाये गये गद्दों में गुलाटियां खा रही हैं। आंगन के एक निरापद कोने में बड़े से चूल्हे पर घर की मंझली बहू गौरी पूरियां तल रही है। रिश्तेदार एकत्र हो गये हैं। इतने लोगों की रसोई उसे ही तो बनानी है। हलवाई कल से लगेगा। बड़े बेटा बहू — संजय – नलिनी‚ छोटे बेटा बहू — संदीप – जयमाला‚ बड़े बेटी दामाद — गणेशी – राघव‚ मंझले बेटी दामाद — प्रभा – ओंकार आज सुबह आये हैं। अम्मां चगन मगन हैं। सबसे छोटी पुत्री वाणी के हाथ पीले कर दायित्व मुक्ति का संतोष चेहरे से स्पष्ट झलक रहा है। बाबूजी आगन्तुकों में व्यस्त हैं और अम्मां कमर पर हाथ धरे आंगन में डोलती फिर रही हैं। आदेश निर्देश दे रही हैं —

“जयमाला भीड़भाड़ है। तुम्हारा बच्चा पांच महीने का है। काम में न जुट जाना‚ उसे देखना।”

“अपनी लाड़ली ननद के ब्याह में मुझसे खाली बैठा जायेगा क्या अम्मा?”

“बच्चा पहले‚ काम तो होता रहेगा।”जयमाला ने मुक्ति की सांस ली।

“और हाँ नलिनी‚ कल वाणी के हाथ पैर में मेंहदी तुम्हें ही लगानी है। इसे ब्यूटी पार्लर भी ले जाओगी नॐ मेकअप का सामान भी खरीदना है। तुम सामान खरीदना खूब जानती हो। इसके सैण्डल तो अभी तक नहीं आये।”

“अम्मां मैं सब कर दूंगी‚ कसर नहीं उठा रखूंगी।क्यों फिकर करती हो?”नलिनी को बाज़ार भेज दिया जाये तो वह पूरा बाज़ार खम्गाल कर‚ दिन अस्त होने पर ही बहुरती है। अपना रुचि का काम पाकर वह खुश हो गयी।

“अरे गणेशी – प्रभा‚ तनिक सुनो तोॐ अभी कई जगह कार्ड नहीं बंटे हैं। कल सुबह तुम लोग नहा धो कर निकल जाना।”

“अभी तक कार्ड नहीं बंटे? अम्मां‚ यहां का काम तो बड़ा ढीला पोला है।”गणेशी ने कपाल पर हाथ मारा।

“सब राम भरोसे चल रहा है‚ बिटिया। ये संजीव और गौरी तो ऐसे निठल्ले हैं कि इनसे कोई काम ही नहीं होता। अब तुम सब लोग आ गये हो । सबका योगदान रहेगा तो वाणी राजीखुशी विदा हो जायेगी।”अम्मां ने दुखड़ा रोया।

निठल्लेपन से उन्हें संजीव की याद आई —

“हाय‚ नारायण‚ संजीव वाणी के गद्दे रजाई में रुई भरवाने गया था‚ अब तक नहीं लौटा। जहाँ जाता है‚ चिपक जाता है। पनीर का ऑर्डर देने कब जायेगा? इतना दिमाग तो है नहीं कि उसी तरफ से ये काम भी करता आये।”

तभी संजय ने गुहार लगाई —

“अम्मां मैं फ्रिज ले आया। बताओ कहाँ रखवा दूँ? और ये टी वी‚ ओनिडा का है।”

भाव विव्हल अम्मां फ्रिज और टी वी पर अपना खुरदुरा हाथ फेरने लगीं। कहाँ सोचा था कि वाणी को इतना कुछ दे पाऊंगी‚ संजय और संदीप ने सब संभाल लिया। संजय थानेदार है‚ संदीप सब इंजीनियर। और एक हैं श्रीमान संजीव मिश्रा — प्राईवेट स्कूल में पी टी मास्टर। अम्मां की तो लुटिया ही डुबो दी। शेष कसर पूरी कर दी गौरी ने। न सूरत न शक्ल‚ न दहेज। संजीव अपनी साधारण पत्नी से संतुष्ट है तो रहे‚ अम्मां कैसे हो जायें? उन्हें अच्छे बुरे की परख है‚ इसलिये संजीव और गौरी पर दृष्टि पड़ते ही मुखमुद्रा विकृत हो जाती है। वे निकट खड़ी बुआ को बताने लगीं —

“संजय फ्रिज दे रहा है। संदीप कलर टी वी। अभी जाने कितना खर्चा होगा बिचारों का।”

प््राभा गर्व से बताने लगी —

“मैं स्टीरियोसिस्टम दे रही हूँ। हैसियत तो इतनी नहीं है पर वाणी का ब्याह क्या बार बार होगा?”

“सच्चीॐ मैं तो डायनिंग टेबल दिये दे रही हूँ। अरे‚ देने का दिल होना चाहिये दिल।”गणेशी ने दायें हाथ से दो बार सीना ठोंका‚ “और गौरी क्या दे रही है?”बुआ पूछने लगीं।

“देगी क्या? एक चादर तो काढ़ रही थी। कहती है पेचवर्क की कढ़ाई है। पता नहीं क्या है ये पेचवर्क।”

“इतना भारी योगदान? “प्रभा ने आँखें फैलायीं तो आँगन एक बार फिर ठहाकों से गूंज उठा।

ये ठहाके पूरियां सेंकती गौरी के कानों में पड़े तो हाथ में पकड़ी पूरी छन्न से कढ़ाही में जा गिरी और तेल उछल कर उसकी कलाई पर पड़ गया। फफोले निकल आये। वह आह भर कर रह गई।. इस घर में उसकी पीड़ा समझने वाला कोई नहीं है।

संजीव से कितना कहा‚ “कोई बड़ा आईटम दे दो। कहीं से कुछ ऋण ले लो।”

वे अड़ गये‚ “श्रमदान कर तो रहा हूँ और क्या करुं‚ महीना भर से झोला लटकाये बाज़ार दौड़ रहा हूँ। तुम अचार बड़ी पापड़‚ साड़ी के फॉल में माथा पच्ची कर रही हो। ये कुछ नहीं?”

“नहीं। योगदान वो अच्छा जो ऊपर से दिखे।”

“न दिखे। मैं ऋण नहीं लूंगा बस।”

न लें। सुनाया तो उसे जा रहा है नॐ खुद तो सुबह से न जाने कहाँ गायब हैं। फिर सच तो ये है‚ उसे स्वयं भी चादर देने में लज्जा आ रही है। वह चादर के साथ में वो एक साड़ी जो उसे मामा के घर से मिली है दे देगी और एक जोड़ी पायल भी। अपनी इज्जत अपने हाथ होती है।

“अम्मां जी‚ आज चाय वाय मिलेगी या नहीं?”पुरुषों के समूह से औंकार का स्वर उभरा।

“अभी बनवाती हूँ।”कह कर अम्मां अपने स्थान पर खड़ी खड़ी गौरी की ओर घूमीं‚

“गौरी तनिक उठ जा‚ हाथ पैर चला। सब सुबह से काम में लगे हैं और तुझे इतना होश नहीं कि चाय बना दे। चल‚ बाकि पूरियां बाद में सेंकना।”

गौरी की विचार ऋंखला टूटी। सिटपिटा कर बोली‚ “कितने कप बनाऊं अम्मां?”

“पन्द्रह बीस कप और कितना।”

“चाय हम भी पियेंगे‚ हम भी…हम भी…”बच्चे उचक उचक कर कहने लगे।

“वैसे तो ये लोग चाय पीते नहीं पर आज पी लेंगे आधा आधा कप। दो चार रोज मौज मार लें।”नलिनी का समर्थन मिल गया तो बच्चे नारेबाजी करने लगे।

“नलिनी मामी जिन्दाबाद‚ नलिनी ताई अमर रहें…।

अम्मा वानर सेना का कोरस सुन कर लोट पोट हो गयीं। आगन्तुकों के बीच बैठे बाबूजी का उत्साह समुद्र सा ठाठें मार रहा है। बार बार दोहरा रहे हैं — “एकनाथ मजिस्ट्रेट है। बड़े भले लोग हैं। दान दहेज की मांग नहीं की। बोले‚ जो इच्छा हो दे दीजिये। वाणी बड़ी भाग्यवान है‚ जो इतना अच्छा घर वर मिल रहा है। समझ लीजिये घर बैठे रिश्ता आ गया।”संजीव की खोज में बाबूजी कैसा मुंह फाड़ कर कह रहे हैं कि घर बैठे रिश्ता आ गया है। जिस लाड़ली के लिये कहते न अगाते थे कि‚ “अपनी इस बच्ची को बड़े ठाठ बाट से विदा करुंगा। ऐसी सुन्दर उच्च शिक्षिता कन्या के तो घर बैठे रिश्ते आयेंगे।”उसी रूपवती कन्या के लिये वर ढूंढने निकले तो जूते घिस गये। जहां भी जाते दहेज पर बात अटक जाती। बाबूजी नैराश्य की गहरी घाटी में लुढ़कते ही चले जाते‚ यदि संजीव अपनी कर्मठ भुजा बढ़ा कर उन्हें ऊपर न खींच लेता। गौरी के साथ उसके मामा की पुत्री के वैवाहिक आयोजन से लौटा तो एकनाथ पाण्डे का प्रसंग उसके मस्तक में छाया हुआ था — “बाबूजी‚ आयोजन में एकनाथ आया था। अभी अभी सिविल जज हुआ है। आप पत्र व्यवहार कीजिये‚ मैं पता ले आया हूँ।”

“हाँ‚ बाबूजी लड़का बहुत अच्छा है। मुझे लगता है‚ यहां बात बन जायेगी। एकनाथ के पिता नहीं हैं। बस मां और विवाहिता बहन श्यामा है।”गौरी ने पति का अनुमोदन किया।

बाबूजी को अपने इन निठल्ले बहू बेटे की बात पर विश्वास तो न था‚ लेकिन वे ऐसे कृपण भी न थे कि एक अन्तर्देशीय पर व्यय न करते। आशा पत्रोत्तर की भी न थी और कहाँ एकनाथ ने वाणी को देखने की तिथि भी लिख भेजी। अविश्वास से अम्मां का मुंह फटा का फटा रह गया। आनन फानन में संजय – नलिनी को बुलवा लिया। गौरी रसोई संभालेगी। कोई बाहर संभालने वाला भी चाहिये। और फिर गौरी और संजीव को बड़े लोगों के बीच बैठने का शऊर भी तो नहीं। संजय – नलिनी संभाल लेंगे। पहला प्रभाव अच्छा पड़ना चाहिये।

नलिनी ने अपनी बहुमूल्य गुलाबी साड़ी और सफेद मोतियों का सेट पहना दिया वाणी को। घर की सामान्य स्थित से विक्षुब्ध बाबूजी के मुख पर‚ वाणी को देख तनिक उत्साह जागा। जैसे हारी बाजी जीतने के आसार दिख रहे हों। एकनाथ पाण्डे प्रायÁ चुप रहा। उसकी मां ने ही सामान्य वार्तालाप किया‚

“ये मेजपोश किसने काढ़ा है?”

“वाणी ने।”अम्मां तपाक से बोलीं।

“और ये मठरी‚ भुजिया‚ शकरपारे‚ हलुआ बाज़ार के नहीं लगते हैं।”

“वाणी ने बनाये हैं।”

अम्मा के झूठ पर वाणी की झुकी गर्दन और झुक गयी। लगा जिस गौरी को सदा नेपथ्य में रखे जाने का प्रयास किया जाता है‚ वह इस कक्ष में उपस्थित है। वाणी की सहेलियां आतीं‚ गौरी भीतर चाय नाश्ता बनाती और सहेलियों से नलिनी जयमाला को मिलवाया जाता — “दोनों भाभियां बहुत पढ़ी लिखी हैं‚ स्मार्ट हैं‚ बड़े घर की हैं ।”और गौरी? बखान के लिये कोई सुदृढ़ पृष्ठभूमि तो हो। शिक्षा सामान्य‚ रूप रंग सामान्य।

वाणी पसन्द कर ली गई। बात चुटकियों में बनते देख बाबूजी हतप्रभ थे। अभिभूत थे। चमत्कृत थे। विवाह का मुहूर्त जल्दी का निकला। अम्मां के हाथ पैर फूलने लगे‚ किन्तु गौरी ने बड़ी दक्षता से सारी जिम्मेदारी उठा ली। संजीव आढ़त‚ हलवाई‚ सुनार‚ टेन्ट हाऊस के चक्कर काटने लगा। गौरी अचार‚ पापड़‚ बड़ी‚ चिप्स‚ चादर तैयार करने में संलग्न हो गयी। कितनी दुकानें देख कर तो कपड़े का चुनाव कर पाई। आसमानी चादर में टंके काले कपड़े के फूल। अपने निर्माण पर मुग्ध थी गौरी।

दूसरे दिन सुबह से मंत्री पूजा की तैयारी होने लगी। संजय और संदीप लाईट अरेन्जमेन्ट और पण्डाल की व्यवस्था देख रहे थे। दामाद तो ऐसे अवसरों पर ठाठ भोगने आते हैं। अधिक से अधिक व्यवहार में आने वालों लिफाफों और उपहारों की सार संभाल कर देंगे‚ किसने क्या दिया‚ इसकी सूचि बना देंगे। नलिनी वाणी को ले ब्यूटीपार्लर खिसक गयी। दोनों जीजियां कार्ड बांटने। जयमाला के कन्धे पर नन्हे शिशु का भार था‚ ऊपर से जिठानी और ननदें अपने बच्चों को नहलाने धुलाने और नाश्ता देने का वृहद काम उसे ही सौंप गयी थीं। एक गौरी ही बचती थी। नहा धोकर पाकशाला में घुसने लगी‚ तब उसे ध्यान आया‚ अभी चादर‚ साड़ी‚ पायल अम्मा को दे दे तो वे सहेज कर वाणी के बैग में रख देंगी। फिर उसे रसोई से अवकाश नहीं मिलेगा। वह तत्परता से सामान निकाल लायी —

“अम्मा‚ ये वाणी को दे रही हूँ — देखो ठीक तो है नॐ मन तो बहुत कुछ देने को है पर हैसियत…”

“अब हैसियत न सुना। ये भी रख ले। वाणी के लिये कमी नहीं है।”अम्मा ने प्रक्षेपास्त्र दागा —

“एक नलिनी और जयमाला हैं। ननद के लिये खर्च किये बिना इनसे रहा नहीं जाता। भाई‚ तू ये भी रख ले। मैं निठल्लों से आशा नहीं करती।”

गौरी दीनता की मूर्ति बनी कुछ देर सामान लिये खड़ी रही‚ फिर अम्मां के सामने रख रसोई में जा घुसी।

सांझ घिरते तक नलिनी और जयमाला वाणी के हाथों में मेंहदी लगाने बैठ गयी। लगे हाथ अपने भी हाथ रचा लिये। बच्चों के हाथों में बेल बूटे सज गये। अम्मा ने गौरी को पहले ही समझा दिया था — “गौरी‚ तू मेंहदी रचा के न बैठ जाना। काम बहुत है। तू यहां रहती है। तुझे ही मालूम है‚ कौनसी चीजें कहां रखी हैं। मेंहदी घुली रखी रहेगी। बिदा के बाद लगा लेना।”

विवाह के दिन गौरी चक्करघिन्नी सी घूमती रही। उधर संजीव शाम पांच बजे तक भी नहीं नहा पाया था। उसको मैला कुर्ता पजामा पहने देख गौरी बोली थी‚

“नहा लो‚ शेव कर लो‚ धुले वस्त्र पहन लो। संजीव और संदीप भैया को देखो कैसे बने ठने हैं।”

“अरे हमारा सजना धजना कौन देखेगा। लड़की का भाई हूँ‚ दूल्हे का मित्र नहीं जो सुबह से सूट टाई बांधने लगूं।”

अम्मां बीच में कूद पड़ीं‚”हाँ हाँॐ फिर ये कैसे पता चलेगा कि तुमने बहन के ब्याह में खूब काम किया है। जाओ तनिक हुलिया सुधार लो। बरात में बड़े बड़े अफसर लोग आ रहे हैं। और गौरी‚ तू अब तक बाल छितराये घूम रही है। जा‚ तैयार हो झटपट। अपनी ननदों‚ जिठानियों से कुछ तो गुण सीख। सब तैयार हो रही हैं‚ पर तुझे कुछ परवाह नहीं। तेरे दोनों बच्चों को गणेशी ने तैयार कर दिया है‚ भूत बने घूम रहे थे।”

अम्मा एक ओर चली गयीं। गौरी का जी चाहा‚ यहीं बीच मण्डप में धम्म से बैठ जाये और जी भर के रो ले। वह भारी मन से हाथ मुंह धोने चली गयी।

जब तक बारात विदा नहीं हुई उसके पैर नहीं थमे। पुत्री को विदा कर रोती कलपती अम्मां एक कोने में ढह गयीं। नलिनी‚ जयमाला‚ गणेशी‚ प्रभा अपने इधर उधर बिखरे कपड़े लत्ते‚ जूते चप्पलें सहेजने बटोरने लगीं। एक दो दिन में उन्हें जाना होगा और फैले घर में सामान ढूंढना क्या कम श्रमसाध्य होता है?

संजीव गुम हुए बाउल‚ चम्मच‚ गिलास ढूंढता फिरता रहा तो गौरी बच गये किराने के सामान के गणित में लगी रही। हाल का हाल बचा सामान वापस हो जायेगा तो ठीक होगा। भोजन बहुत बच गया था। महरी‚ नाईन‚ जमादारिन अभी आ डटी थीं। गौरी को ही माथा खपाना पड़ा। बाथरूम रगड़ना धोना था‚ सो अलग। वहां इतनी फिसलन हो गयी थी कि बाबूजी फिसलते फिसलते बचे। लापरवाही व सफाई पर बहुत देर तक बोलते रहे। उधर रात के गरिष्ठ भोजन से उकताये बुर्जग अतिथि ताजे दाल चावल खाने की इच्छा व्यक्त कर रहे थे।

सुख दुख का अनुभव समेटे वाणी ससुराल पहुंची तो रात हो चुकी थी। परछन के बाद उसे घर के भीतर ले जाया गया। दूसरे दिन सुबह से ही कथा व भोज की तैयारी होने लगी। अफरातफरी मची थी। पूरे गांव को भोज दिया जा रहा था‚ पंगत बैठ चुकी थी। तभी एकनाथ की मां दांत पीसती हुई बोली‚

“ये लो अचार खत्मॐ अब क्या परोसें‚ अपना मूढ़? कहती थी ना‚ बच्चों की पहुंच के ऊपर रखो बरनियां। पर यहां तो चार दिन पहले से अचार खिलाया जा रहा है। अब नाक गयी।”

श्यामा फुसफुसायी‚ “अम्मां‚ बहू के साथ अचार आया है‚ उसे क्यों नहीं परोसवा देतीं।”

अम्मां की जान में जान आयी। कथा के बाद वाणी को जिस कमरे में बिठाया गया था‚ दहेज का सारा सामान वहीं ठुंसा था। अम्मां अचार की बरनियां ढूंढती वहीं पहुंची। आम के अचार की बरनी खोली।

“वाह‚ क्या बढ़िया खुश्बू है। बहू‚ गौरी ने बनाया है अचार?”

“जी हाँ।”

“वह बहुत बढ़िया अचार बनाती है। सिंघाड़े का‚ सेम का‚ आलू का। उसका बस चले तो घास फूस का भी बना डाले और ये पापड़…कितने पतले बने हैं। उसी ने बनाये होंगे। बड़ी निपुण है गौरी‚ अभी कुछ दिन पहले मामा के घर ब्याह में‚ मिलना हुआ‚ तब उसकी फुरती देखी मैं ने। सारा काम संभाले हुई थी‚ वरना आजकल के नातेदार अपनी साज सज्जा और मेजबान की नुक्ताचीनी ही अधिक करते हैं। यहीं देख लो। काम कम हो रहा है‚ हायतौबा अधिक मची है।”

अम्मा बरनी लेकर चली गयीं। वाणी के सामने प्रश्नचिन्ह छोड़ गयीं। ये लोग गौरी भाभी को कैसे जानते हैं। उन्होंने तो कभी बताया नहीं कि इन लोगों से कुछ सम्बन्ध है। नववधू के संकोच के कारण वह किसी से इस विषय में पूछ न सकी।

कहीं कह न दे‚ 'तुम्हें यह भी नहीं मालूम? '

खाना खाने के बाद उसे नींद आ गयी। सांझ ढले उसे श्यामा ने जगाया‚

“वाणी‚ पेटी से कोई चादर निकाल दो‚ बिछा दूं। तुम्हारा कमरा तैयार कर रही हूं नाॐ”

वाणी ने श्यामा को बॉक्स की चाभी थमा दी। दो बॉम्बेडाईंग की चादरें थीं और एक गौरी की दी हुई। श्यामा ने वही आसमानी चादर निकाल ली —

“कितनी सुन्दर है। रेडीमेड है? “

“नहीं। गौरी भाभी ने बनाई है।”

“कितनी सफाई है गौरी के हाथों में।यहां भी उसके हाथ से सुई धागा छूटता नहीं था।”

श्यामा चादर में टंके फूलों को बारीकी से देखती हुई चादर लेकर चली गयी। वाणी को रह रह कर क्रोध आ रहा था‚ गौरी पर — अजीब मूर्ख है। बस मुंह सिये बैठी रहेगी। बता नहीं सकती थी कि यहां उनका कैसा रिश्ता है। वाणी क्रोधावेश में भूल रही थी कि उन लोगों ने गौरी को कुछ बताने का अवसर ही कब दिया। वह तो सबकी सुन सकती है‚ बोल नहीं सकती। बोली कि व्यंग्य बाणों का मौलिक कोश खुला। वो और उसके मायके वाले सदैव दोयम दरजे के प्राणी समझे गये। वो बिचारी कुछ बताती तो कैसे? और सुनता कौन?

वाणी सुहागकक्ष में ले जाई गयी। देखा‚ सुहागसेज पर बड़ी आन बान शान से वह आसमानी चादर बिछी थी। वाणी को वितृष्णा सी हुई कि फ्रिज‚ टी वी‚ और जहां देखो‚ वहां यह चादर ही दिख रही है। उसका जी चाहा इस दो टके की चादर को खींच कर हटा दे और दूसरी चादर बिछा दे। पर ऐसा कर न सकी। एकनाथ कमरे में आया तो उसकी दृष्टि सबसे पहले चादर पर ही गयी‚ उसकी समझ में नहीं आ रहा था‚ बात कहां से आरम्भ करे। वह चादर ही जैसे श्री गणेश करने का माध्यम बन गयी —

“बड़ी सुन्दर चादर है। श्यामा दीदी बता रही थीं कि गौरी ने बनायी है।”

गठरी सी बनी वाणी ने स्वीकृति में गरदन हिलायी। क्या मुसीबत हैॐ मधुयामिनी का श्रीगणेश भी इस चादर प्रसंग से हो रहा है। “ओहॐ बहुत सुन्दर चादर है।”एकनाथ वाणी के निकट बैठ कर चादर के फूलों पर हाथ फेरने लगा…”पर गौरी कहां अन्र्तध्यान थी? एक बार भी नहीं दिखी। तुम्हें देखने आया था तब भी नहीं। ब्याह में भी नहीं।”

“कम पढ़ी लिखी है‚ इसलिये लोगों के सामने आने में झिझकती है। नलिनी भाभी और जयमाला भाभी को ही बाहर का संभालना पड़ता है।”

“यह गौरी है ही झिझक वाली। बेचारी को आगे पढ़ने का अवसर नहीं मिला‚ वरना अंक बुरे नहीं लाती थी। स्कूल में मैं और वो कुछ साल साथ पढ़े हैं।”कहकर एकनाथ ने प्रसंग बदला — “तुम्हारे रूप लावण्य और दहेज की खूब सराहना हो रही है। बाबूजी ने नाहक इतना कुछ किया। उनकी आर्थिक स्थिति क्या हमसे छिपी है? सिर पर ऋण चढ़ा लिया होगा।”

“नहीं तो। मेरे संजय भैया और संदीप भैया का भरपूर योगदान था‚ ऋण क्यों लेते।”

“कैसा योगदान? “

“फ्रिज संजय भैया ने‚ टीवी संदीप भैया ने‚ स्टीरियो प्रभा जीजी ने और…।”

“और गौरी ने?”

“ये चादर देख तो रहे हो। उनसे उम्मीद ही नहीं करते हम लोग।”

वाणी ने स्वर को पर्याप्त नियंत्रित किया‚ पर व्यंग्य उभर ही आया।

एकनाथ कुछ देर अपनी सद्यÁपरीणिता पत्नी को निहारता रहा‚ तत्पश्चात बोला — “सबसे बड़ा योगदान तो गौरी का है वाणी। वह मेरे दूर के रिश्ते की बहन है। रिश्ता तो ऐसा गहरा नहीं है पर वह सबको अपना बना लेती है। परिश्रमी ऐसी है कि उसने कभी तुम लोगों को कभी शिकायत का अवसर नहीं दिया होगा। जिसके भी घर जाती है‚ काम संभाल लेती है। अभी कुछ दिन पहले वह अपने पति के साथ अपने मामा की बेटी के विवाह में आयी थी। मैं भी अम्मा को लेकर गया था। कितनी दुर्बल हो गयी है गौरी। हंसकर कहने लगी — “दुबली कैसे न हो जाऊं‚ गृहस्थी चलाना हंसी खेल नहीं है। अब तुम भी गृहस्थी बसा लो एकनाथ। कहो तो एक अच्छी सी लड़की बताऊं। मेरी ननद है वाणी। रूपवती‚ गुणवती‚ बुद्धिमति। बाबूजी अधिक दहेज नहीं दे पा रहे वरना लड़की तो हीरा है‚ हीरा जिसके घर जायेगी‚ स्वर्ग बना देगी। तुम उसे एक बार देख लो‚ तो मना नहीं कर पाओगे।”मैं ने पूछा — “तुम्हारी तरह निपुण है नॐ “कहने लगी‚ “मैं तो उसके सामने कूड़ा करकट हूं‚ उसे देख लो‚ वरना बाद में पछताओगे। और हां दहेज के लिये लार न टपकाने लगना। वरना मैं द्वार से ही कह दूंगी‚ आगे जाओ बाबा।”कह कर हंसने लगा एकनाथ — “ऐसी मसखरी करती है कि पूछो मतॐ “

गौरी भाभी हास परिहास भी जानती है? वाणी चकित हुई। उसने तो उन्हें सदैव मरी बछिया की भांति मुंह लटकाये ही देखा है। एकनाथ आगे बोला — “गौरी ने तुम्हारा ऐसा विस्तृत वर्णन किया कि मैं तुम्हें देख लेने का लोभ संवरण न कर सका। और जब देखा‚ तो देखते ही ढेर हो गया। पहली नज़र में ही अपना दिल हार बैठा। लगा‚ गौरी ने तुम्हारा वर्णन ठीक ही किया था। और जब तुम्हारा बनाया मेजपोश देखा‚ गुझिया खायी तो लगा‚ जैसे मुझे मेरा अभीष्ट मिल गया। गौरी ने तुम्हारे बाबूजी की आर्थिक स्थिति पहले ही बता दी ‚ अतÁ दहेज मांगने का तो प्रश्न ही नहीं था।”

वाणी को जैसे काठ मार गया। जिव्हा तालू से चिपकी जा रही थी। एकनाथ ने निकट खिसक कर उसके प्रकम्पित हाथ थाम लिये‚ “ये क्या? इतना घबरा क्यों रही हो? मुझसे डर रही हो क्या? भई‚ मैं बड़ा सज्जन व्यक्ति हूँ। एकदम सीधा सरल‚ निष्कपट। ग्रामीण परिवेश में पला बढ़ा। इच्छा थी‚ गौरी जैसी सीधी सरल‚ घरेलू पत्नी मिले‚ जो अपने दो दक्ष हाथों से मेरे घर को संवार दे। पत्नी चुनने के मापदण्ड प्रत्येक व्यक्ति के भिन्न भिन्न होते हैं। मुझे खुशी है कि तुम मेरे मापदण्ड में खरी उतरी हो।”

वाणी कुछ देर चुप बैठी रही। जैसे शब्द ही विलुप्त हो गये हों। फिर देह की समस्त ऊर्जा कण्ठ में संग्रहीत कर किसी प्रकार बोली‚ “पर …गौरी भाभी ने कभी नहीं बताया‚ कि इस विवाह के लिये उन्होंने प्रयास किया था।”

“उसकी श्रेय लेने की आदत नहीं है। उसने पत्र लिख कर मुझे भी मना किया था कि तुम्हें कुछ न बताऊं। कहीं तुम ये न समझ लो कि तुम्हें मैं ने गौरी के दबाव में आकर पसन्द किया है। ऐसे निष्कपट‚ निष्कलुष‚ निस्वार्थ लोग भी हैं इस धरती पर।”

वाणी निरुत्तर हो गयी। क्या कहती‚ भाभी की सारी चेष्टायें हमारे घर में बुरी तरह असफल सिद्ध हुई हैं? कोई भी उनसे प्रसन्न नहीं है? पत्नी को चुप देख कर एकनाथ मुस्कुराया‚ “तुम सोच रही होगी‚ प्राणनाथ ये क्या ले बैठे। कितना सोचा था‚ कम से कम आज की रात किसी अन्य का प्रसंग न उठाउंगा। बस‚ अपनी कहूंगा‚ तुम्हारी सुनूंगा। पर इस चादर ने सब गड़बड़ कर दिया। चादर देखी तो अनायास गौरी की याद आ गई‚ खैर…अब मास पारायण का एक अध्याय समाप्त और दूसरा अध्याय शुरु…।”

वह बत्ती बुझाने के लिये उठ खड़ा हुआ। इधर वाणी‚ गौरी के योगदान की समीक्षा में डूबी थी।