योग और भ्रमण / क्यों और किसलिए? / सहजानन्द सरस्वती

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मैं यहाँ पर यह बता देना चाहता हूँ कि संन्यास लेने के पूर्व मेरे हृदय में रह-रह के यह विचार आता था कि “आखिर मेरा यह पढ़ना-लिखना सिर्फ इसलिए है न, कि धन कमा कर खाऊँ, पहनूँ या दूसरों को खिलाऊँ, पहनाऊँ?लेकिन जंगल के जानवरों और पशुओं को कौन खिलाता है?वे तो स्वयं न खेतीबारी करते और न खाने-पीने की सामग्री जुटाने की चिंता ही रखते। तो भी अच्छी तरह खाते-पीते ही हैं। फिर मैं क्यों इसके लिए फिक्रमंद हो कर मरूँ?मुझे तो कोई दूसरा ही खिलाए-पिलएगा।” यही विचार मुझे परेशान कर रहा था और आखिर इसी ने मुझे घर-बार से जुदा किया। मैं तो खाने-पीने की चिंता कतई छोड़ कर भगवान की एकमात्र प्राप्ति के ही लिए दिन-रात प्रयत्न करने के विचार से संन्यासी बना और जंगल की शरण लेने को उद्यत हुआ। दूसरा कोई भी ख्याल मेरे दिल और दिमाग में न था। मैं तो इसी में मस्त था।

हाँ, यह ठीक है कि पहले थोड़ा-बहुत योग का चसका लगा था। इसीलिए फिक्र जरूर थी कि कोई अच्छे योगी को ढूँढ़ कर उससे प्राणायाम और योगाभ्यास सीखूँ। सांसारिक कामों से मुझे ऐसी घोर घृणा थी कि कह नहीं सकता। यह भी जान लेना चाहिए कि सिवाय प्राणायाम, योगाभ्यास, ध्यान, समाधि, वेदांतचिंतन और तत्संबंधी विचारों के बाकी को मैं सांसारिक काम ही मानता था। भोजनाच्छादनादि तो प्राणायाम प्रभृति के साधन थे। फिर भी इन्हें भी मैं बाधक ही माने बैठा था। कारण, कुछ समय तो ये ले ही लेते थे और उतनी देर ध्यान आदि से विमुख होई जाना पड़ता था। इसलिए उन्हें भी भार समझ उनसे लापरवाह ही रहता था। गीता का अभ्यास तो बराबर करता था। अन्य वेदांत ग्रंथ भी कुछ पढ़ चुका था। लेकिन फिर भी यह दशा थी।

आज जो अर्थ गीता का मैं समझता हूँ उसे निराला ही समझता था उन दिनों। नहीं तो वह हालत नहीं होती। गीता के बारे में आगे अवसर पा कर ज्यादा लिखा जाएगा। चाहे कितना ही उच्चकोटि का परोपकारी काम क्यों न हो, उस समय मेरी दृष्टि में वह नाचीज सांसारिक काम ही था! फिर देश कोश की बात का कहना ही क्या?जैसा आज के अधिकांश या प्राय: सभी साधुनामधारी देशसेवा आदि को छोटी चीज तथा अपना अकर्तव्य समझते हैं, वही दशा उस वक्त मेरी समझिए। फर्क इतना ही था कि देशसेवा आदि को तब जानता तक न था कि वह कोई खास चीज या काम है, जिससे मेरा कोई संबंध होना चाहिए। मेरा तो एकमात्र कर्तव्य था भगवान की प्राप्ति। मैं तो पागलों की तरह उसे ही ढूँढ़ने निकला था।

हाँ, तो मैं ग्राम से लौट कर काशी में ही गर्मियों में ठहरा। कह नहीं सकता कि पहले से ही या संन्यास लेने के बाद ग्राम पर जाने पर ही, मुझे मालूम था कि गर्मी बीतते न बीतते पं. हरिनारायण जी भी संन्यास लेंगे। दोनों की राय यही थी कि संन्यासी होने के बाद ही भारत में भ्रमण करेंगे। और सबसे पहले एक अच्छे योगी को, जहाँ कहीं हो, प्राप्त करेंगे। पंडित जी एकाध योगी के बारे में कुछ जानते भी थे। इसीलिए उन्हीं की प्रतीक्षा में मैं काशी में किसी प्रकार दिन काटता रहा। इसी बीच मंय ही मुझे घसीट कर लोग गाजीपुर भी ले गए, जिसके सिलसिले में श्री सरयू प्रसाद जी मास्टर की बात पहले लिखी जा चुकी है। क्योंकि फिर तो बरसात आते ही हम दोनों भ्रमण में निकले तो कई वर्षों के बाद काशी लौट सके।

एक दिन एकाएक अपारनाथ मठ में देखता हूँ कि एक परिचित जैसे व्यक्ति गैरिकवस्त्र पहने आ निकले और मुझे पूछ कर मेरे पास आए। सहसा मैं भौंचक सा रह गया और देखा कि संन्यासी के वेश में वही श्री हरिनारायण जी हैं बस, अब क्या था?मेरी खुशी का ठिकाना न रहा। अभी आषाढ़ की बूँदाबाँदी हुई ही थी और हम लोग चुपचाप मठवालों से बिना कहे ही फौरन प्रयाग की ओर चल पड़े उन्होंने किसी दंडी संन्यासी से दीक्षा ली थी सही। मगर दंड उनके हाथ में भी न था। अपने गुरु महाराज से बिना कहे ही वह भी चले आए। मैंने भी यहाँ मठ में गुरु जी से नहीं कहा और चुपके से दोनों ही चल पड़े। पहले घरवालों से छिपा कर संन्यासी बने दोनों ही, और संन्यासियों से भी छिपा कर भागे। बात यह थी कि जानने पर बाधा जरूर होती। क्योंकि बाबा लोग कहते कि चातुर्मास्य (वर्ष) में संन्यासी को भ्रमण करना शास्त्र निषिद्ध हैं। फिर तो विवश होना पड़ता।

मगर यहाँ तो भगवान और योगी से शीघ्र ही मिलने की बेचैनी थी, प्रीतम के दर्शनों के लिए आँखें प्यासी थीं। फिर धर्मशास्त्र कैसा?क्या विचित्र बात है धर्मशास्त्र के अनुसार संसार से विरक्त संन्यासी बने और जरूरत होने पर उसी धर्मशास्त्र को जानबूझ कर ठुकराया, जब यह पता चला कि वह आगे बाधक होगा! यह किसी नास्तिक की बात नहीं है। तब तो हम दोनों पूरे आस्तिक थे और सभी पोथी-पुराणों को पूरा-पूरा मानते थे। असल में ध्येय और स्वार्थ दुनियाँ में सबसे बड़ी चीज है और उसकी वेदी पर बड़े-से-बड़े पदार्थ जान या अनजान में बलिदान होई जाते या कर ही दिए जाते हैं। उस समय हमने यह महान सत्य हृदयंगम किया न था। हालाँकि, अमल किया उसी के अनुसार। इसे तो ईधर आ कर समझा है। फिर भी स्वभाववश, या यों कहिए, कार्य-कारणवश यही बात पहले उस समय अकस्मात हो गई।

आगे बढ़ने के पहले मैं अपारनाथ मठ के बारे में भी कुछ बातें कह देना चाहता हूँ। वह कोई आज के प्रचलित मानी में मठ न था। आजकल जैसे मठाधीश साधुनामधारी बनते हैं और बड़ी-बड़ी जाएदादें रखके गुलछर्रे उड़ाते हैं, सो बात उस मठ के बारे में न थी। वह किसी मठाधीश की संपत्ति न थी। असल में, कहते हैं, पहले काशी में बाबा अपारनाथ नामक कोई सिद्ध महापुरुष रहते थे। उन्हीं के चमत्कार से मुग्ध हो कर किन्हीं श्रीमान लोगों ने उनके निवास के नाम से दो आलीशान पत्थरों के बने बड़े-बड़े मकान बनवा दिए, जिनमें एक का नाम अपारनाथ का टेकरा और दूसरे का नाम अपारनाथ मठ है। दोनों ही में बिना आश्रय और घर-बार के विरागी संन्यासी रहते थे। शायद आज भी रहते हैं, गो कि, ईधर सुना था, कुछ लोगों ने किसी बहाने उन मठों पर आंशिक प्रभुत्व जमाने की कोशिश की थी। ऐसे संन्यासी कुछ दिन वहाँ रहते थे। फिर बाहर घूमघाम आते थे। भ्रमण के बाद शायद कोई-कोई थोड़े-बहुत पैसे भी लाते थे और वहाँ रह के उन्हीं से काम चलाते थे। यों तो सभी के लिए जहाँ-तहाँ अन्नसत्रों या अन्यक्षेत्रों में बना-बनाया भोजन दिन-रात में एक बार मिलता था। शाम के लिए केवल कहीं-कहीं जलपान मात्र का प्रबंध था। अधिकांश विरक्त और संस्कृत व्याकरण, दर्शनादि पढ़नेवाले ही बूढ़े-जवान और कम उम्र के भी गेरुवाधारी वहाँ रहते थे। काशी की यह भी परिपाटी है कि रह-रह के भंडारा के नाम पर इन साधुओं के बड़े-बड़े भोज, हलवा, पूड़ी आदि के होते रहते हैं। उनमें साल भर के लिए कामचलाऊ वस्त्र मिल ही जाते हैं। पढ़ने-लिखनेवालों को कभी-कभी श्रीमान लोग रुपए-पैसे या पुस्तकादि भी दिया करते हैं। ऐसा भी होता है कि अधिकांश पढ़ने-लिखनेवालों के अभिभावक या तो उनके गुरु महाराज होते हैं और उन्हें कोई फिक्र नहीं रहती, या बाहर से भक्तों और भक्तानियों या चेले-चाटियों के पास से पैसे ला कर वे लोग काम चलाते हैं।

अपारनाथ मठ ऐसा ही है। उसके आँगन में एक तुलसी-चौरा जैसी ऊँची जगह बनी है। उसमें एक बड़ा-सा ताक है। उस पर मिट्टी के बहुत बड़े दीपक में सेरों तेल भरा रहता है और अखंड दीपक जलता रहता है। वह कभी बुझने नहीं पाता। एक साधु बराबर उसकी फिक्र में रहता है। वहीं बगल की कोठरी में बनी अपारनाथ-बाबा की समाधि की पूजा भी वही बराबर करता है। उस दीपक के बारे में यह प्रसिद्धि है कि किसी भी कुत्ता, सियार आदि जहरीले जानवर के काट खाने पर जख्म पर उस दीपक का तेल मालिश करने और अच्छा न होने तक उस स्थान को पानी से बचा देने से जख्म अच्छा हो जाता और जहर भी शांत हो जाता है। जो उसमें से तेल लेता है वही उसमें दूसरा डाल कर भर देता है। यही नियम वहाँ चालू था। शायद आज भी होगा। मैंने वहाँ दो बार मिला कर वर्षों गुजारे हैं। काशी में तो बराबर बहुत वर्ष रहा हूँ। मैंने हजारों लोगों को तेल ले जाते देखा है। दूर-दूर से आ कर लोग ले जाते थे।

सन 1907 ई. की बरसात का दिन था और हम दोनों ही पैदल चल पड़े। गंगा के उत्तर किनारे चलते-चलते हम लोग दो-चार दिनों में इलाहाबाद के पास गंगा के पूर्व किनारे झूँसी जा पहुँचे। रास्ते की कहानी याद नहीं। यह ठीक है कि संन्यासी के रूप में हम दोनों की यह पहली यात्रा थी, हालाँकि, श्री हरिनारायण जी तीर्थ-यात्रा के बहाने पहले भी काफी भ्रमण कर चुके थे। वैराग्य का भूत सिर पर सवार था। इसलिए हमें कष्टों की परवाह क्या थी?न रहने का ठिकाना और न खाने का। दूसरे के घर में रात में ठहरना और खाना भी, चाहे कोई ठहराए और खिलाए या टका सा जवाब दे। चारा तो कोई था नहीं। हम दोनों ही थे भी पूरे मस्त राम। दबाव डाल कर माँगने का हक भी न था। सिर्फ भिक्षावृत्ति थी और धर्म की राह थी। पास में न तो पैसा था और न कोई सामान। कपड़ा भी नाममात्र को ही था। किसी प्रकार कामचलाऊ। छाता तो रखना मना था ही। फिर अगर कपड़े भीगे तो और भी दुर्गति। आखिर संन्यासी का धर्म ही तो ठहरा और हमें तो पूरी आस्था थी इस धर्म पालन में। फलत: हमने तो तय कर लिया था कि चाहे जो हो, पूरा-पूरा धर्म निभाएँगे।

हमें याद नहीं कि झूँसी पहुँचने तक किसी विशेष संकट का सामना करना पड़ा, कभी भोजन न मिला या कपड़े लथपथ होने से दिक्कत हुई। भोजन भी तो एक ही समय चौबीस घंटे में करना था। न तो कोई नाश्ता और न जलपान। चाय-पानी का तो सवाल ही न था। पंडित जी भी यद्यपि जवान ही थे। लेकिन मेरी तो केवल अट्ठारह-उन्नीस वर्ष की अवस्था थी, जिसमें भूख-प्यास बहुत सताती है। लेकिन, आखिर, दृढ़ संकल्प भी तो कोई चीज है। इस अवस्था में तो कई बार भोजन चाहिए, नहीं तो भूख से सिर और कलेजा फटा पड़ता है। मगर निश्चय कर लिया था कि एक ही बार चौबीस घंटे में खाना। और अगर एक-दो बार कोशिश करने पर एक दिन न मिला तो फिर बार-बार उसकी परवाह छोड़ अगले दिन के लिए तय कर के उस दिन चुपचाप बैठ या सो जाना। झूँसी तक तो नहीं, लेकिन आगे चल कर ऐसे मौके बहुत बार आए, जब दिन-रात गुजर चुकने पर ही भोजन मिल सका।30, 36 या 40 घंटे तक कभी-कभी गुजरे और एक बार तो पूरे 52 घंटों के बाद भोजन मिल सका। इससे एक फायदा जरूर हुआ कि भूख पर हमारा अधिकार हो गया। अब वह हमें खुल के सता नहीं सकती थी। खाना-पीना न मिलने पर क्या होगा, यह जो डर का महाभूत सभी के सिर सवार रहता है और हम पर भी था, वह सदा के लिए हट गया। इस मानी में तो हम पक्के संन्यासी बन गए।

हमने देखा है, जो संन्यासी यों भ्रमण नहीं करते,वे बराबर कमजोरी दिखलाते हैं। वे लोग अच्छे पढ़े-लिखे, ज्ञानी-विरागी होने पर भी खाने-पीने के मामले में हिम्मत हार बैठते हैं। साथ ही, हम तो उस समय पक्के भाग्यवादी और भगवानवादी थे। हमारा तो विश्वास था कि न तो भगवान मरा है और न हमारा भाग्य जल गया है या बंधक रखा जा चुका है। फिर खाने-पहनने की क्या फिक्र?हमें तो ख्याल था कि ─

“ का चिंता मम जीवने यदि हरिर्विश्वंभरो गीयते “

फिर हम चिंता क्यों करते?नतीजा हुआ कि मस्ती के साथ आगे बढ़ते गए। पास में था सिर्फ एक कमंडलु, और शायद कुछ गीता आदि पुस्तकें। इस प्रकार झूँसी पहुँचे और वहाँ एक मठ में जा ठहरे।

मठ में कुछ साधु लोग रहते थे और कोई संपत्ति विशेष हमारे जानते न थी। शायद भक्तों की भेंट और चढ़ावे वगैरह से ही काम चलता था। हम वहाँ प्राय: महीनों रह गए। मठ के सभी लोग और उसके प्रबंधक, मैं नाम भूल गया, बहुत ही सज्जन थे। वह हमसे प्रेम करते थे। वहीं हमने पहले सन 1905 ई. वाले बंगभंग के आंदोलन और उससे पैदा होनेवाले तूफान की खबर यों ही किसी प्रकार सुनी। यह बात हमें ठीक-ठीक याद है। मगर उसमें हमें तो कोई स्वाद न था।'असल में बंदर अदरक का स्वाद क्या जाने' वाली बात भी थी, साधु-संन्यासियों की दुनियाँ कैसी निराली होती है?यों तो अच्छा भोजन, वस्त्र और मठ जरूर चाहिए, जो साधारण गृहस्थों को दुर्लभ हो। फिर भी “दुनियाँ से हमें क्या काम?इन सांसारिक झंझटों से हमें क्या लेना-देना है?” कह के देशसेवा और सार्वजनिक काम से वे घृणा करते हैं! गोया सुंदर अन्न-वस्त्र दुनियाँ से बाहर है, इसीलिए उनसे विमुख नहीं होते! लेकिन हमारी तो वह हालत थी नहीं। हमे प्रचंड वैराग्य था। फलत: उस राजनीतिक आंदोलन ने हमें जरा भी प्रभावित नहीं किया। मेरी तो और भी विचित्र दशा थी। अंग्रेजी से तो ऐसी घृणा थी कि कुछ पूछिए ही न। उसे तो मैं बिल्कुल ही भुला देना चाहता था। इसीलिए अँग्रेजी का एक शब्दोचारण भी मेरे लिए असह्म था। नतीजा भी यही हुआ कि आठ-दस वर्षों के भीतर मैं उसे भूल-सा गया। मालूम होता था, उसके ज्ञान पर एक पर्दा-सा पड़ गया है और उसके नीचे वह धुँधला-सा नजर आता है। आगे चल कर फिर मेरी प्रवृत्ति अंग्रेजी की ओर कैसे हुई, किस प्रकार मेरे भीतर उसका सुप्तप्राय ज्ञान जगा और धीरे-धीरे पुष्ट हुआ, यह आगे लिखा जाएगा।

झूँसी में प्राय: मठ की छत पर मैं बिना कोई बिस्तर डाले ही रात को सोया करता था। आषाढ़ की गर्मी तो बुरी होती ही है और पानी पड़ने के बाद छत ठंडी हो जाने से उस पर सोना अच्छा लगता है। मैंने यही किया। पर, कुछ दिनों बाद शरीर में बहुत दर्द होने के साथ ही खूब तेज बुखार आया, जो महीनों बना रहा। लोगों ने दर्द को सर्दी के कारण समझ पहली बार इस जीवन में मुझे चाय पिला दी। उससे दर्द तो खत्म हो गया। लेकिन उसी जगह तेज बुखार ने ले ली। ज्वर की गर्मी इतनी तेज हुई कि मैं बेचैन और थोड़ी देर में बेहोश हो गया। पहली बार की चाय का यह कटु अनुभव हुआ। लोग कहते हैं, वह ज्वर दूर करती है। पर मेरे सिर तो उलटी गुजरी। जीवन भर में इसके सिवाय एक बार और चाय पीने का मौका लगा हैं, जबकि मैं योगी की तलाश में घूमता-घूमता मध्यभारत की देहात में राजगढ़ ब्यावरा पहुँचा और वहाँ की देहात में एक जगह जाड़ों में ठहरा था। वहाँ के लोगों को चाय पीने की सख्त आदत है। जाड़ा ज्यादा होता है। मुझे भी एक दिन उन्होंने चाय पिला दी। बस, फिर क्या था, पेशाब में सुर्खी आ गई और डर कर फौरन मैंने चाय बंद कर दी। फिर तो सुर्खी चली गई। तब से कभी चाय पीने का नाम मैं नहीं लेता। उसकी हिम्मत ही नहीं होती। असल में वह इतनी गर्म है कि मेरा शरीर उसे बर्दाश्त नहीं कर सकता।

हाँ, तो ज्वर पीछे घटा सही, मगर कुछ-न-कुछ बना रहा। इस बीच एक कषायवस्त्रधारी जवान संन्यासी बाबा वहीं आ पधारे। उन्होंने मुझे देखा और दवा दी कि ज्वर हट जाए। फिर वह चलते बने। मैं उनकी दवा खाता रहा। कई खुराक खाने के बाद एक दूसरे अनुभवी संन्यासी बाबा आ गए। उन्होंने वह दवा देख ली। वह तो देखते ही चौंक उठे और मुझे कहा कि “यह जहर क्यों खा रहे हैं?यह तो कच्चे लोहे का भस्म है। तवा के जले पेंदे का बुरादा बना कर भस्म के नाम पर कोई नादान आप को दे गया है। यह तो मार डालेगा।” मेरा ज्वर तो छूटा नहीं और यह नई बला मालूम हो गई। मैंने उसे उठा फेंका। मुझे रोज ज्वर नहीं आता था। एक या दो दिन का अंतर दे कर आता था। हम दोनों ने तय कर लिया कि यहाँ से अब चल ही देना ठीक है, और चल पड़े, त्रिवेणी पार हो कर प्रयाग से चित्रकूट जानेवाली पक्की सड़क पकड़ कर उसी ओर, हमारी इच्छा थी कि चित्रकूट होते आगे बढ़ें। तुलसीकृत रामायण में उसका बहुत ही सुंदर वर्णन पढ़ा था। कामदगिरि आदि का बार-बार उल्लेख वहाँ आया था। इसीलिए वहाँ जाने की उत्कट अभिलाषा थी। ठीक याद नहीं, शायद एक या दो दिनों के बाद ही शंकरगढ़ स्टेशन (जी. आई. पी. रेल्वे) के पासवाले गाँव में हम लोग जा पहुँचे। कह नहीं सकते, वही गाँव शंकरगढ़ है या दूसरा। बहुत दिन गुजरने पर स्मृति ठीक नहीं रही। वहाँ वर्ष में हम लोग ठहर गए। पहाड़ की तली में वह गाँव है। पहाड़ तो ज्यादा ऊँचा नहीं है। हाँ, गाँव की अपेक्षा ऊँचा जरूर है। रात में हम लोग गाँव में ही, एक स्थान पर सोते थे। वहाँवाले झाल, ढोल वगैरह की सहायता से उसी जगह खूब ही मस्त हो कर रामायण गाते थे। मैंने बचपन में और उसके बाद भी रामायण का गाना बहुत ही सुना है। मगर दो ही स्थानों का खूब चित्ताकर्षक और सुंदर पाया है। एक तो वहाँ का और दूसरा उसके दो-तीन वर्ष बाद बलिया जिले में, गंगा तट पर, भरौली गाँव का, जिसे उजियार-भरौली भी कहते हैं। दोनों जगह लोग बहुत ही अच्छा गाते थे। लेकिन अब तो शायद वह परिपाटी प्राय: उठ ही गई।

हाँ, तो रात में गाँव में रहते और दिन भर, सिवाय खाने-पीने के समय के, पहाड़ी पर पड़े रहते। बरसात के दिनों में पहाड़ी स्थान बहुत ही रमणीय लगता है। एक बात जरूर थी कि न जाने कहाँ से इतनी ज्यादा मक्खियाँ उस गाँव में थीं कि खाने-पीने में बड़ी दिक्कत होती थी। उतनी मक्खियाँ मैंने आज तक और कहीं नहीं देखी हैं। इसलिए भी दिन बाहर ही काटते थे।

कुछ दिन ठहर कर आगे बढ़े और करबी होते चित्रकूट पहुँचे। चित्रकूट गाँव के पासवाली नदी को मंदाकिनी कहते हैं। उसी के तट पर वह बसा है। उस समय वहाँ के पेड़े की बड़ी प्रसिद्धि थी, जैसा मथुरा के पेड़ों की। न जाने अब क्या दशा है। हम लोग आगे चल के कामदगिरि के पास पहुँचे। वर्षा का समय और रात में बाहर टिकना यह ठीक न समझ हमने कामदगिरि की परिक्रमा में उसकी चारों ओर बने वैष्णव साधु नामधारियों के मंदिरों और मठों के द्वार खटखटाए कि वे रात में ठहरने दें। मगर एक स्वर से सभी ने नाहीं की। हालाँकि, यह जान कर हमारे क्रोध और घृणा की सीमा न रही कि सभी मठों में न जाने कितनी ही माई-दाईयाँ रहा करती हैं। फिर तो बाबा लोगों के चरित्र का खुदा ही हाफिज। हार कर किसी टूटे-फूटे लावारिस स्थान में जैसे-जैसे रात गुजारी।

आज भी कामदगिरि बहुत ही सुंदर लगता है। खास कर वर्षाकाल में उसके ऊपर कोई चढ़ने नहीं पाता। कहते हैं, उसके शिखर पर श्री रामचंद्र की चरणपादुका बनी है। कामदगिरि को वहाँ कामतानाथ कहते हैं।

दूसरे दिन अनुसूया नामक स्थान देखने के लिए प्रमोद वन होते ही हम लोग चले। असल में तो हनुमान धारा नामक स्थान, जहाँ पानी का प्रपात पहाड़ से जारी रहता है, सबसे दर्शनीय और रमणीय है। मगर वर्ष में वहाँ घोर जंगल में जाना असंभव है। अत: दूर से उसका दर्शन कर संतोष किया और अनुसूया पहुँचे। घूमते-घामते देर लगी और चौथे पहर कामदगिरि को लौटे। सामने कामदगिरि था। बहुत ही निकट मालूम हुआ। लेकिन पहाड़ दूरी की दृष्टि से कितना धोखा देते हैं, यह बात पहले-पहल हमें उसी दिन विदित हुई। हमें चलते-चलते कई घंटे लग गए और रात होते-होते हम वहाँ मुश्किल से पहुँच सके। बीच का रास्ता भी इतना बीहड़ था कि कुछ कहिए मत। न जाने बीसियों नदी-नाले मिले, सो भी काफी चौड़े। खैरियत यही थी कि उनमें ज्यादा पानी न था। नहीं तो लौटना असंभव हो जाता! असल में पहाड़ी नदी-नाले वर्षा होती रहने पर ही भरे होते हैं और वह हटी कि इनके सूखते देर नहीं लगती।

जब हम अनुसूया गए तो हमें पता लगा कि वहाँ जो एक पुराना वैष्णव साधु रहता था, उसके पास सोलह या बीस हजार रुपए जमा थे। वह अकेला ही था। लोभ के मारे किसी को पास न रखता था कि खर्च होगा। लोगों को बताता भी न था कि इतने पैसे पास में हैं। उस समय वह मर चुका था। चोरों को किसी प्रकार पता चल गया कि उसके पास पैसे हैं। असल में उन लोगों को रुपए की महक मिलती है। फिर क्या था, एक रात को धीरे से दो-चार चोर वहाँ पहुँचे और कुटिया की छत पर, जहाँ वैरागी बाबा रहते थे, चढ़ गए। बाबा को जगा कर खजाने का पता पूछा और ले कर चल देना चाहा। मगर वह तो नाहीनुकुर करते ही रहे कि बच्चा साधुओं के पास कैसे कहाँ?फिर भी, उन जैसे साधुओं को तो वे लोग खूब ही पहचानते हैं। फलत:, आखिरकार उन्हें मार कर छत से नीचे गिरा दिया और सभी रुपए ले कर चलते बने। उन्होंने शायद सोचा कि जिंदा रहने पर चिल्लाएगा और पीछे पुलिस को खबर देगा। इसलिए 'रहे न बाँस, न बाजे बाँसूरी'। ऐसे रुपयों का तो कुछ ऐसा ही अंत होना चाहिए। साधु लोग भी इस प्रकार पैसे रखते हैं और इस प्रकार भ्रष्ट होते हैं, यह बात अनुसूया और कामदगिरि के मठों की बातें जान कर मुझे पहले-पहल ज्ञात हुई।

प्रमोद वन आचारी वैष्णवों का अच्छा अव माना जाता है। जब तक हम वहाँ रहे, हमारे साथ उनकी कुछ शास्त्र चर्चा भी होती थी। लेकिन हमें तो वहाँ टिकना न था। सोचा, अब फिर यमुना पार हो कर फतहपुर, कानपुर की ओर चलें। इसलिए चल पड़े।

चित्रकूट के नजदीक की ही कहानी है। एक दिन मैदान में ही थे कि भयं कर आँधी-पानी का सामना हुआ, ऐसा भयं कर कि आज तक भूला नहीं। दौड़ कर गाँव में जाना भी असंभव था। पास के खेत में एक छतरीनुमा झोंपड़ी थी-बहुत ही छोटी थी। दौड़ कर उसके नीचे खड़े हो गए। तूफान था कि गजब और बिजली ऐसी कड़कती थी कि कलेजा दहला देती थी। बहुत देर तक यह बला रही। वह छतरीनुमा झोंपड़ी नीचे तथा चारों ओर खुली थी। उधर ऐसी ही बनती है। इसलिए पानी के झंकोरों ने हमें बुरी तरह भिगा दिया था। मालूम होता था, हर बार कि बिजली हम पर गिरी और वह झोंपड़ी ही एक प्रकार से उससे बचाती हुई मालूम पड़ी। बहुत देर तक आँधी-पानी की इस बला का सामना करना पड़ा। शाम होते-न-होते जब वह हटी तो पानी से लथपथ हम दोनों पास के गाँव में गए और जैसे-तैसे रात गुजारी।

हमने उसी रास्ते में जीवन में पहली बार देखा कि बुंदेलखंडी लोग निराले जूते बनाते हैं, जो एड़ी की तरफ ऊपर तक चढ़े होते हैं। पुश्तपाँव के ऊपर भी आगे से आया हुआ हाथी के कान जैसा चमड़ा पड़ा रहता है। असल में वहाँ काँटे बहुत होते हैं। खेत भी उनसे भरे होते हैं। उनसे बचने के लिए ये बनते हैं। हलवाहे और मजदूर-मर्द, औरत, बच्चे सभी─ये स्वदेशी जूते पहनते हैं। नहीं तो काँटों से पाँव खून-खून हो जाए। उत्तर की ओर चलते-चलते हम यमुना के तट पर राजापुर गाँव में पहुँचे। असल में चित्रकूट से एक सड़क यमुना पार जाने के लिए राजापुर आती हैं। पहले तो कच्ची थी। अब, न जानें, उसकी क्या दशा है। इसलिए अनजान में ही हम वहाँ अकस्मात आ पहुँचे। हमें अत्यंत प्रसन्नता हुई कि जिस तुलसीदास की रामायण में हमें अपार भक्ति रही उसी तुलसीदास की जन्मभूमि में पहुँच गए। हम पढ़ा करते थे कि “राजापुर यमुना के तीरा, तुलसी वहाँ बसै मतिधीरा।” आज उसका साक्षात्कार हो गया। हमने बहुत कोशिश की कि उनके हाथ की लिखी रामायण की प्रति वहाँ मिले तो देखें या अगर उनका कोई खास दर्शनीय स्थान हो तो, उसका ही दर्शन करें। मगर महज मामूली जगह के सिवाय और ऐसी कोई बात हमें नहीं दिखाई या बताई जा सकी। न जानें, इस समय वहाँ उनके जन्म-स्थान की स्मृति में कुछ विशेष बातें ढूँढ़-ढाँढ़ कर निकाली गई हैं या नहीं और कोई विशेष आयोजन वहाँ है या नहीं। आज तो ऐसी बातों का युग है, मगर तीस-चालीस वर्ष पूर्व यह बात न थी। देखा कि जितना प्रेम तुलसीदास और उनकी भूमि से हमें है उसका शतांश भी वहाँवालों को नहीं है।

अस्तु, एक ही दिन वहाँ हम ठहरे और बरसात में लबालब भरी यमुना को अगले दिन पार किया। राजापुर यमुना के ठीक किनारे पर था और गाँव धीरे-धीरे कट कर गिर रहा था। नहीं मालूम आज उसकी क्या हालत है, गिर कर और जगह जा बसा या यमुना माई ने रहम की और बच गया।

एक दिन की बात है। फतहपुर जिले के खागानगर में दोपहर की भिक्षा (संन्यासी लोग भोजन को भिक्षा कहते हैं) कर के हम लोग आगे बढ़े और कुछ दूर जा कर एक गाँव से बाहर पेड़ों की छाया में सोए थे कि ठंडी हवा के साथ तेज बारिश आई। भागते हुए गाँव में पहुँचे तो कहीं ठहरने को स्थान न मिला। एक जर्जर मकान धर्मशाले के नाम से था। वहाँ गए तो उसे कूड़े करकट से भरा पाया और खूब चूता भी था। ईधर मुझे ज्वर भी तेज था। एक बात भूल ही गया। उस दिन किसी भक्त जन ने खूब मिठाई-पूरी खिलाई थी। ज्वर की बारी उसी दिन थी। दूसरी चीज खाने को मिली नहीं और एक ही बार चौबीस घंटे में खाना था, फिर करते क्या?हाँ, तो लाचार हो कर सब कूड़ा एक कोने में, जहाँ चूता न था, जमा किया, क्योंकि समूचा मकान पानी से भरा था, और उसी पर पाँव रख के दीवार के सहारे खड़ा हो गया। बैठने के लिए जगह कहाँ?देह ज्वर से जलती थी। हवा-पानी दोनों ही गजब के थे और मैं खड़ा था। उस दशा का अनुभव कौन कर सकता है?लेकिन उसी तरह खड़े-खड़े पानी की मूसलाधार गुजार ली और पानी छूटते ही आगे बढ़ना चाहते थे। ज्वर उतर चुका था। मगर शाम हो चुकी थी और गाँव के किसी सज्जन ने वहाँ आ कर अपने घर पर चलने को कहा। फलत: रात वहीं कटी। सुबह होते ही आगे चल पड़े।

हमारे साथी ने कहा था कि ज्वर कैसा भी क्यों न हो यदि महादेव बाबा के सामने बैठ कर उनका ध्यान किया जाए तो तीन दिनों के ध्यान के बाद ही वह जरूर हट जाता है। हम दो दिन ध्यान कर चुके थे। तीसरे दिन फिर ज्वर आया रास्ते में ही ज्वर से दबे हुए हम जैसे-तैसे फतहपुर के पुराने शिव मंदिर में शाम को पहुँचे और शिव जी के सामने जा डटे। हम तो धार्मिक ठहरे ही हमें पूरा विश्वास था। कुछ देर के बाद पसीना शुरू हुआ और हम लथपथ हो गए। फिर भी बैठे रहे। अंत में ज्वर जो उस दिन गया जो सदा के लिए विदा हुआ, कम-से-कम बहुत समय के लिए तो जरूर ही। यह भी आश्चर्य की बात है कि मिठाई-पूड़ी खा के और पानी में लथपथ हो के खड़े-खड़े जिस ज्वर को एक रोज बर्दाश्त करना पड़ा वही एकाएक उस दिन खत्म हो गया! हमारे जानते उसके बाद भी बहुतों के ज्वर इस प्रकार की आराधना से छूटे हैं। दिमागदार लोग चाहे इसका कारण दिमाग की तद्विषयक दृढ़ धारणा को ही बताएँ या और कुछ कहें। हमें उससे मतलब नहीं। हम तो कोई सिद्धांत स्थापित करने चले हैं नहीं। किंतु अपने जीवन के संघर्ष की एक अनुभूत घटना का उल्लेख मात्र करना हमारा काम है।

यहाँ एक बात और भी कह देनी है। जब-जब चलने में परिश्रम होता था तो मैं देखता था कि शरीर के ऊपर पानी के शीकर जैसी कोई चीज निकल आती थी। उसके ऊपर निहायत ही बारीक सफेद पर्दा जैसा होता था। हाथ से मसलते ही यह चीज खत्म हो जाती थी। पर, पुन: पैदा हो जाती थी। मैंने अंदाज किया कि कच्चे लोहे का ही यह असर था। बचपन में जिस पित्त के प्रकोप और संग्रह (जमा होने) की बात पहले कही है और हिंदी मिड्ल की पढ़ाई के समय जो ज्यादा कुनाइन खाई थी। इन दोनों के साथ मिल कर यह कच्चा लोहा गजब करने पर आमादा हो गया। इस भयं कर त्रिपुटी ने मुझे भयभीत कर दिया। लक्षणों से ऐसा लगता था कि पेशाब की तथा दूसरी इंद्रियों पर भी इसका भयं कर असर होगा, जिससे लोग खामखाह कहेंगे कि यह जवान संन्यासी कहीं व्यभिचार में फँस कर सिफलिस और सुजाक से आक्रांत हैं।इस धारणा ने मुझे बहुत ही विचलित किया। मगर हिम्मत मैंने न हारी और साथी को भी कुछ न बताया। केवल ताकीद और संयम से रहने लगा। फलत: कुछ ही दिनों के बाद वे सभी कुलक्षण खत्म हो गए और मैंने न जाने किसे-किसे धन्यवाद दिया। यह ठीक है कि खून में उसकी गर्मी घुस गई और शरीर के अष्टधातुओं पर उसने खूब असर किया। मगर बाहरी चिद्द फिर कोई भी दृष्टिगोचर न हुए।

हम पैदल ही फतहपुर से आगे बढ़े और कानपुर में कई दिन ठहरे। रात में एक बाग में रहते और दिन में शहर में भिक्षा कर आते। सरसैयाघाट की पहले-पहल जानकारी मुझे उसी समय सन 1907 ई. की वर्ष के दिनों में हुई। पीछे तो कानपुर जाने का मौका सैकड़ों बार लगा है। कानपुर से आगे गंगा का किनारा छोड़ झाँसीवाली लाइन की बगल से जाना हमने तय किया। क्योंकि हमारा विचार था मध्यप्रांत के खंडवा जिले के ओंकारेश्वर में जा कर हिंदुओं के द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से एक श्री ओंकारेश्वर नाथ जी का दर्शन नर्मदा के बीच में करना और वहीं पास के जंगल में श्री कमल भारती नामक योगी से मिल कर योगाभ्यास सीखना। पैसे पास थे नहीं। शास्त्रों के अनुसार न तो हमें पैसे रखने की आज्ञा थी और न हमारी इच्छा ही थी कि रखें। पैदल यात्रा में अनुभव और मजा भी था। अत: पैदल ही बढ़े।