यौगिक नियमों द्वारा वैयक्तिक अनुशासन /कविता भट्ट

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प्राचीन काल में भारतीय मनीषियों द्वारा खोजा एवं प्रतिष्ठापित किया गया योगदर्शन आज वैश्विक स्तर पर लोकप्रिय है। वर्तमान में इसे वैज्ञानिकता की कसौटियों पर रखते हुए एक वैज्ञानिक पद्धति के रूप में व्याख्यायित करने का प्रयास किया जा रहा है; जबकि इसके आध्यात्मिक, नैतिक एवं दार्शनिक पक्षों की उपेक्षा की जा रही है। योग भारतीय दर्शन की एक शाखा है। दर्शन को सरल शब्दों में उल्लिखित किया जाय तो; इसकी परिभाषा होती है- ‘‘दृश्यते अनेन इति दर्शनम्।” अर्थात् देखने की प्रक्रिया जिसके द्वारा सम्पन्न हो वह दर्शन है। यह देखना मात्र सामान्य आँखों से नहीं; अपितु किसी भी व्यक्ति, वस्तु, स्थान तथा घटना आदि का सूक्ष्म विश्लेषण ही दर्शन है। किसी भी दर्शन के तीन अनुभाग होते हैं- तत्त्व-मीमांसा, ज्ञान-मीमांसा एवं नीति-मीमांसा। इन तीनों अनुभागों में क्रमशः तत्त्व अर्थात् सृष्टि के मूल कारण, ज्ञान अर्थात् उसको जानने की प्रक्रिया तथा नीति अर्थात् शुभ की ओर प्रवृत्त करने वाले नियमों का अध्ययन किया जाता है। इस दृष्टि से योगदर्शन के भी ये तीन अनुभाग हैं।

उल्लेखनीय है कि भारतीय दर्शन की समग्र परम्परा दो विचारधाराओं में विभक्त है- आस्तिक एवं नास्तिक। ये दोनों ही शाखाएँ यों तो वेदों से निःसृत हैं; किन्तु फिर भी नास्तिक दर्शन वेदों को नहीं मानते। सामान्य रूप से आस्तिक का अर्थ होता है- ईश्वर को मानने वाला और नास्तिक का अर्थ है- इसे न मानने वाला; किन्तु भारतीय दर्शन शाखाओं के सन्दर्भ में आस्तिक अर्थात्- वेदों को मानने वाला एवं नास्तिक अर्थात् इन्हें न मानने वाला। सांख्य, योग, न्याय, वैशेषिक, मीमांसा एवं वेदान्त ये छह आस्तिक दर्शन हैं; इन्हें षड्दर्शन कहा जाता है। चार्वाक्, जैन एवं बौद्ध ये तीन नास्तिक दर्शन हैं।

इस प्रकार योग आस्तिक दर्शन है। योग की भी अनेक शाखाएँ- हठ, राज, भक्ति, ज्ञान, कर्म, तन्त्र, नाथ, कुण्डलिनी, मन्त्र, जप, क्रिया योग आदि नामों से जानी जाती हैं। इनकी अभ्यास पद्धति एक दूसरे से न्यूनाधिक भिन्न होते हुए भी एक दूसरे में समाहित है। हठयोग एवं राजयोग एक दूसरे पर आश्रित हैं। राजयोग अर्थात् समाधियोग सर्वोत्कृष्ट माना गया। इसका लक्ष्य है- मानवमात्र को दुःख से मुक्त करना। दुःख त्रिविध हैं- परिणाम, ताप तथा संस्कार। परिणाम अर्थात् सुख का परिणाम भी दुःख ही है। ताप अर्थात् संवेदनाओं से प्राप्त दुःख ये तीन प्रकार के हैं- आध्यात्मिक, आधिदैविक तथा आधिभौतिक। संस्कार अर्थात् इन संवेदनाओं से बुद्धि पर पड़ने वाले प्रभाव जो बाद में दुःख देते हैं। यहाँ तापदुःख की बात करेंगे। आध्यात्मिक दुःख दो प्रकार के हैं- शारीर एवं मानस। वात, पित्त एवं कफ नामक त्रिदोषों के असंतुलन से होने वाले शारीरिक रोग तथा सत्त्व, रजस् एवं तमस् नामक त्रिगुणों के असंतुलन से होने वाले मानसिक रोग आध्यात्मिक हैं।आधिदैविक अर्थात् दैविक प्रकोप-भूकम्प तथा बाढ़ आदि से उत्पन्न एवं आधिभौतिक अर्थात् अन्य प्राणियों जैसे- साँप-बिच्छू आदि के काटने से होने वाले दुःख।योगदर्शन में योगाभ्यास का लक्ष्य त्रिविध दुःख निवृत्ति है; किन्तु आज उसे मात्र आध्यात्मिक दुःख के परिप्रेक्ष्य में ही विवेचित किया जा रहा है। इसमें भी शारीर दुःखों की निवृत्ति हेतु योगाभ्यास पर अधिक बल दिया जा रहा है।

योगदर्शन का सर्वप्रमुख ग्रन्थ राजयोग के पक्षों का सूत्रात्मक प्रस्तुतीकरण पातंजलयोगसूत्र नामक ग्रन्थ में किया गया है; जिसके रचयिता महर्षि पतंजलि हैं। योग वेदों एवं उपनिषदों में यत्र-तत्र उपदिष्ट था; किन्तु उसे सूत्ररूप में व्यवस्थित एवं क्रमबद्ध रूप से प्रस्तुत करने का श्रेय महर्षि पतंजलि को ही जाता है। इसमें अष्टांग योग (यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान एवं समाधि) को दुःखनिवृत्ति हेतु आवश्यक माना गया है। आज योगाभ्यास मात्र आसन, प्राणायाम तथा ध्यान आदि तक ही सिमट गया है; वह भी मात्र शारीरिक लाभों के लिए अधिक किया जा रहा है। ध्यान देने योग्य बात यह है कि यह यम एवं नियम जैसे नैतिक नियमों से प्रारम्भ होता है; इनके अनुपालन के बिना व्यक्ति आसनादि अग्रिम योगांगों का अपेक्षित फल प्राप्त नहीं कर सकता। उल्लेखनीय है कि यम अर्थात् अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह तो सार्वभौम सामाजिक नैतिक अभ्यास हैं ही; किन्तु उनके सामाजिक लक्ष्य अधिक हैं। व्यक्तिगत अनुशासन की दृष्टि से नियम का अभ्यास अति महत्त्वपूर्ण है। नियम पांच हैं- शौच (शारीरिक व मानसिक शुद्धि), संतोष (अनावश्यक द्रव्य-अर्जन/संग्रह की अनिच्छा), तप (द्वन्द्व अर्थात् सर्दी-गर्मी आदि सहिष्णुता), स्वाध्याय (शास्त्राध्ययन व ओंकार जप), तथा ईश्वर-प्रणिधान (परमगुरू ईश्वर को अर्पित करते हुए समस्त कर्म करना) पांच नियम हैं। नियम का प्रथम चरण शौच है, जो अन्य अभ्यासों में प्रवृत्त होने के लिए अत्यावश्यक प्रक्रिया भी है। इसलिए अब हम सर्वप्रथम इसका संक्षिप्त विवेचन करेंगे।

योगाभ्यास का प्रथम नियम शौच- ‘शौच’ का अर्थ है- शुद्धि, पवित्रता या निर्विकारत्व। दो प्रकार की है बाह्य (शारीरिक) एवं आभ्यन्तर (मानसिक)। स्थूल शरीर में ही बाह्य व आभ्यन्तर दो प्रकार की शुद्धि होती है। बाह्य शौच गोमूत्रादि के ग्रहण से व व्रत-उपवासादि से होती है। आभ्यन्तर शुद्धि मानसशुद्धि को कहा जाता जो सत्त्व गुण के अभाव से होने वाली मानसिक नकारात्मक भावों यथा राग-द्वेष आदि मलों का अपसारण प्रसादन कहलाता है। प्रसादन को पातंजलयोग में चित्त प्रसादन कहा गया है; जिसमें सुख, दुःख, पुण्य और पाप- इन भावों के प्रति क्रमशः मित्रता, दया, आनन्द और उपेक्षा का भाव धारण कर सकने से चित्त प्रसन्न होता है। इससे मानसिक शुद्धि होती है।उल्लेखनीय है कि राजयोग से घनिष्ट सम्बन्ध रखने वाली हठयोग शाखा में षट्कर्म को शारीर व मानस दोनों ही प्रकार के विकारों को दूर करने हेतु निर्देशित किया गया है। महर्षि घेरण्ड ने ‘‘षट्कर्मणा शोधनं” 36 अर्थात् षट्कर्म से शुद्धि होती है। षट्कर्म में धौति, वस्ति, नेति, नौलि, त्राटक और कपालभाति छह अभ्यास बताये गए हैं। ये क्रियाएँ वात, पित्त एवं कफ के वैषम्य को दूर करके शारीरिक व सत्त्व, रज तथा तम में उचित संतुलन स्थापित करके बाह्य व आभ्यन्तर दोनों ही प्रकार की शुचिता हेतु उत्तम साधन है। शौच के पश्चात् दूसरा नियम सन्तोष है। जिसे अग्रांकित विवेचन द्वारा जाना जा सकता है।

योगाभ्यास का द्वितीय नियम संतोष- ‘संतोष’ को परिभाषित करते हुए लिखा गया है- जीवनयात्रा के निर्वाहार्थ अत्यावश्यक मूलभूत साधनों के अतिरिक्त पदार्थ-विषयिणी अनिच्छा को सन्तोष कहते हैं। इस सूत्र का तात्पर्य यह है कि जीने के लिए जितना भोजन, वस्त्रादि आवश्यक हैं मात्र उतने को ही ग्रहण व अर्जन किया जाय। इन्द्रियों की विषयों से संलिप्तता को कम करने हेतु ऐसा करना आवश्यक है। इन्द्रियों के विषय-भोग से कभी भी तृप्ति नहीं होती, अपितु तृष्णा बढती ही जाती है। इसलिए संतोष का पालन करते हुए मात्र आवश्यक द्रव्य को ही ग्रहण करना चाहिए। संतोष के अभ्यास को विकसित करने के लिए प्रत्याहार को सिद्ध करने हेतु तप अगला अभ्यास है। इसलिए अब हम इसको विवेचित करने का प्रयास करेंगे।

योगाभ्यास का तृतीय नियम तप-शास्त्रसम्मत पद्धति से आनन्दपूर्वक सुख-दुःख, लाभ-हानि, जय-पराजय एवं गर्मी-सर्दी आदि का सेवन करते हुए उन्हें सहन करना। प्रत्येक स्थिति में समभाव रहते हुए विचलित न होना ही तप कहलाता है। श्रीमद् भगवत्गीता में त्रिविध (शारीर, वाचिक व मानसिक) तप बताया गया है। शारीर तप के अन्तर्गत देवता, ब्राह्मण, गुरू, ज्ञानीजनों का पूजन, पवित्रता, सरलता, ब्रह्मचर्य और अहिंसा जैसे अभ्यास आते हैं। वाचिक तप में उद्वेगहीन, प्रिय, हितकारी व ययार्थ संभाषण, शास्त्र-पाठन तथा ईश्वर नाम का जप ये सभी आते हैं। मानसिक तप के अन्तर्गत मन की प्रसन्नता, शान्तभाव, भगवच्चिन्तन करने का स्वभाव, मन का निग्रह और अन्तःकरण के भावों की भलीभांति पवित्रता सन्निहित। जो अवधूत योगी विषयभागों में उद्दीप्त (रागासक्त) समस्त इन्द्रियों को प्रत्याहृत (नियन्त्रित) कर स्वकीय अखण्ड स्वरूप में सदा लीन रहता है, ऐसा योगी ही तापस या तपस्वी कहलाता है। मात्र गोबर की भस्म के अवलेपन मात्र से कोई तपस्वी नहीं हो जाता। तप के अभ्यास के पश्चात् अगला नियम स्वाध्याय है। जो निम्न प्रकार से समझा जा सकता है।

योगाभ्यास का चतुर्थ नियम स्वाध्याय- मोक्षोपयोगी शास्त्रों का अध्ययन तथा ईश्वर के नाम/प्रणव का जप स्वाध्याय है। स्वाध्याय के अन्तर्गत शास्त्राध्ययन व प्रणवजप द्वारा ज्ञान प्राप्त होने से कुतर्कों का निवारण व एकाग्रता का विकास होने पर साधक के मार्ग में आने वाली अज्ञान व चित्त-चपलता जैसी विकृतियों का प्रशमन होता है। स्वाध्याय के पश्चात् नियम का अगला एवं अन्तिम चरण ईश्वर-प्रणिधान है; अब हम इसको स्पष्ट करेंगे।

योगाभ्यास का पंचम् नियम ईश्वर-प्रणिधान- वस्तुतः जब तक हम ईश्वर-प्रणिधान का अभ्यास नहीं करते तब तक अन्य किसी भी अभ्यास में सिद्धि प्राप्त नहीं होती। इसका कारण यह है कि हममें अज्ञान के कारण कर्मों को स्वयं के द्वारा पूर्ण किये जाने का जो अभिमान होता है। वह कर्मबन्धन की ओर प्रवृत्त करता है। इससे संस्कारादि का उपार्जन होता है, जिससे हम योगमार्ग में चित्तवृत्तियों आदि से उद्विग्नावस्था में रहते हैं; जबकि ईश्वर प्रणिधान का तो अर्थ ही है- परमगुरू (ईश्वर) को अपने समस्त कर्मां को अर्पित करते हुए करना।

प्रासंगिकता- शौच से मनोशारीरिक रोग दूर होते हैं। सन्तोष से मानसिक तनाव, अवसाद एवं निराशा आदि नकारात्मक भाव दूर होते हैं। तप से कठिन परिस्थिति में भी दृढ़ रहने का अभ्यास विकसित होता है। स्वाध्याय से ज्ञान में वृद्धि होती है। ईश्वर-प्रणिधान द्वारा सुरक्षा का भाव विकसित होता है। इस प्रकार व्यक्ति में यथोचित अनुशासन विकसित होता है। आसन आदि से पूर्व नियमों का अनुपालन अत्यंत आवश्यक है; तभी योगाभ्यास से अपेक्षित फल प्राप्त होने सम्भव हैं; अन्यथा नहीं। इसलिए नियमों का पालन आवश्यक है। -0-