रंग / कल्पना रामानी

Gadya Kosh से
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“विनोद, अभी हमारे विवाह को केवल ६ महीने ही हुए हैं और मैं देख रही हूँ कि तुम्हारा रंग आजकल बदलने लगा है। रात में तो तुम्हारा रंग और ही होता है, मैं तुम्हारी रानी, परी, हुस्न की मलिका और वगैरा, वगैरा होती हूँ... तुम मेरे बिना रह नहीं सकते... लेकिन दिन में... “

विनोद की महिला मित्र के जाते ही कजली बिफरकर बोली। वो आए दिन उसकी महिला मित्रों को घर लाकर अपने सामने ही चुहलबाजी और छेड़छाड़ से खुद को अपमानित महसूस करने लगी थी।

“वो क्या है डियर कि, रात में तुम्हारा काला रंग नहीं दिखता न... और अब कान खोलकर सुन ही लो- अगर मेरे साथ रहना है तो तुम्हें मेरे दोनों रंग स्वीकार करने होंगे। मैंने तुमसे विवाह केवल अपने माँ-पिता की सेवा करने के उद्देश्य से किया है, वे ही तुम्हारे गुणों पर रीझे थे।” विनोद ढिठाई के साथ बोला।

“कदापि नहीं, अगर ऐसा है तो मैं यहाँ से जा रही हूँ हमेशा के लिए... एक तीसरे रंग की तलाश में, जो मुझे अपने निश्छल प्रेम से सराबोर कर सके। मैं अनाथ, अबल ज़रूर हूँ लेकिन आत्मबल से वंचित नहीं... ” कहते हुए कजली अपने सामान सहेजने लगी। तभी अचानक कमरे का दरवाजा एक धक्के के साथ खुल गया और माँ ने अंदर आकर गरजते हुए कहा-

“मैंने तुम दोनों की सारी बातें सुन ली हैं। बहू, तुम कहीं नहीं जाओगी, तुम्हें वो तीसरा रंग भी विनोद में ही मिलेगा, मैं उसे जानती हूँ...। आज के बाद इस घर में उसके साथ कोई महिला मित्र नहीं आएगी”...

कहते हुए माँ ने प्रश्नसूचक निगाहों से विनोद की ओर और विनोद ने कजली की ओर देखा। कजली ने सिर झुका लिया और पूरे माहौल में एक खुशनुमा रंग बिखर गया।