रंजना मिश्र का कविकर्म / रवि रंजन

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"रंजना मिश्र का कविता संग्रह ‘पत्थर समय की सीढ़ियाँ’ समकालीन हिन्दी कविता के लिए एक महत्त्वपूर्ण घटना है।" - अरुण कमल

हमारे समय की उल्लेखनीय कवि रंजना मिश्र की सैकड़ों कविताएँ,यात्रा वृतांत,कुछ महान साहित्यकारों,संगीतकारों,नर्तकों आदि पर केन्द्रित स्मृति-लेख तथा हिन्दी में अनूदित विदेशी कवियों की रचनाएँ हिन्दी पाठक विभिन्न साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं, ऑनलाइन वेबसाइटों और सोशल मीडिया पर एक लम्बे समय से पढ़ते आ रहे हैं।

‘पत्थर समय की सीढ़ियाँ’ (2022) उनका सद्यःप्रकाशित कविता संग्रह है, जिसमें छोटी-बड़ी छिहत्तर कविताएँ संगृहीत हैं। इस संग्रह की कविताओं से गुजरते हुए अंतर्वस्तु एवं शिल्प का वैविध्य रचनाकार के अंत:करण के विस्तृत आयतन का सर्जनात्मक साक्ष्य प्रस्तुत करता है।

रंजना जी के हृदय में कविता की विविध भंगिमाएं हैं, जो उनके रचना-संसार में घनीभूत राग का सृजन करती हैं। कुछ मायने में वे समसामयिक स्त्री-कविता के क्षेत्र में एक नई ज़मीन तोड़ने वाली कवि प्रतीत होती हैं। कथ्य के अनुरूप कविता की वैधानिक एवं भाषिक संरचना के समायोजन में उनको महारत हासिल है। उनका रचना-मानस एक अर्थ में फ्रायड द्वारा बहुविध विवेचित वह ‘मिस्टिक लैटरपैड’ है, जिसमें निरंतर बाह्य का अभिग्रहण होता चलता है। देरिदा का मानना है कि भाषा का पूर्ववर्ती रूप वाचन के बजाय लेखन है। बक़ौल बेनेदेत्तो क्रोचे, यह बाह्य का आभ्यंतरीकरण है,जिसके बाद कोई सर्जनात्मक मानस अपनी धुरी पर घूमता हुआ अपने अंतर का वाह्यीकरण करता है और श्रेष्ठ रचना जन्म लेती है। याद रहे कि ‘प्रतिभा’ के विवेचन के दौरान प्रस्तुत क्रोचे की इन अवधारणाओं को हम हिन्दी जगत में मुक्तिबोध की नितांत मौलिक स्थापना मानने के अभ्यस्त हो चुके हैं। कहना यह है कि वाह्य का अभ्यांतरीकरण ही किसी सर्जनात्मक मस्तिष्क के ‘मिस्टिक लेटरपैड’ पर अंकित हो जाने वाला लेखन है। यह अंकन जब ‘पत्थर समय की सीढ़ियाँ’ की कविताओं के रूप में रचनाकार के माध्यम से अभिव्यक्त होता है तो संयत स्वर में रचित एक से बढ़कर एक ढली-ढलाई कविताएँ सामने आती हैं।

ऊपर जिस ‘संयत स्वर’ की बात की गयी है, उसका उत्स कवयित्री का भारतीय शास्त्रीय संगीत में विधिवत दीक्षित और निष्णात होना है। शास्त्रीय संगीत की पारिभाषिक शब्दावली के सात शीर्षकों के अंतर्गत ‘पंडित जसराज के लिए’ रचित कविताओं में इसकी बानगी दिखाई पड़ती है:

नहीं जानती आपका दुःख मुझे खींचता है
या उसके पार जाकर स्वरों में ढूँढना
उसका संधान
जानती हूँ तो बस इतना ही

जब तक रोशनी अपना सुरमंडल लिए
उज्ज्वल हो जाएगी यह धरती
सातों आसमान
और मेरा मन
मैं आश्वस्त हूँ
कि बार-बार लौटूंगी
घनीभूत पीड़ा के अंतहीन क्षणों से
तुम्हारे स्वरों तक
अपनी ही राख से
नया रूप धर कर।

(पत्थर समय की सीढ़ियाँ, पृष्ठ। 61-62)

हिंदी साहित्य का सौभाग्य है कि हमारे अनेक रचनाकार शास्त्रीय संगीत की गहरी समझ ही नहीं रखते,बल्कि खुद कभी-कभार गा या गुनगुना भी लेते हैं। किंतु,दुखद है कि हिंदी समाज का शास्त्रीय संगीत के प्रति अनुराग सीमित है। हिंदी समाज में लोक संगीत के प्रचलन का अगर जायजा लें ‘हँसि हँसि पनवाँ खियौले बेइमनवा’ को ‘लॉलीपॉप लागेलु’ ने अब लगभग अपदस्थ कर दिया है। जाहिर है कि भक्तिकाल के कवियों ने शास्त्रीय राग-रागिनियों में निबद्ध महान कविता रची है। हिंदी साहित्य में आधुनिकता के जनक कहे जानेवाले भारतेंदु हरिश्चंद्र न केवल शास्त्रीय संगीत, बल्कि लोक संगीत की भी गहरी जानकारी रखते थे,जिसका प्रमाण उनकी रचनाओं में भी मौजूद है। निराला के बारे में कहा गया है कि उन्होंने हारमोनियम पर धुन बनाकर अनेक गीत रचे हैं और काव्यपाठ के साथ ही गायन में उनको महारत हासिल थी। ‘गीतिका’ की भूमिका में उन्होंने जो बातें कही हैं उनको पढ़कर आज भी किसी सहृदय का दिल दहल जाएगा: “मैं खड़ी बोली में जिस उच्चारण-संगीत के भीतर से जीवन की प्रतिष्ठा का स्वप्न देखता आया हूँ,वह ब्रजभाषा में नहीं है। ब्रजभाषा के पदों को गाने वाले उस्ताद, प्राचीन-उत्तरी-संगीत के कलावंत,जिन्हें खड़ी बोली का बहुत साधारण ज्ञान है, मेरे गीत नहीं गा सकेंगे, यह मैं जानता था और इस ज्ञान के आधार पर गीतों की स्वर-लिपि मैं स्वयं करना चाहता था,पर कुछ परिस्थिति मेरी रही कि सब तरफ से अभाव ही अभाव का सामना मुझे करना पड़ा। एक अच्छे हारमोनियम की गुंजाइश भी मेरे लिए नहीं हुई। मेरी सरस्वती संगीत से मुक्त रहना चाहती हैं,सोचकर मैं चुप रह गया। । । चूँकि मैं बाज़ार का नहीं बन सका,शायद इसीलिए सरस्वती ने मेरे स्वरों को बाज़ारू नहीं बनने दिया। ”

गुरुवर आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री महापंडित होने के साथ ही शास्त्रीय संगीत में निष्णात बहुत अच्छे गायक भी थे। कवि सम्मेलनों में शास्त्री जी के दीक्षित कंठ से गीत सुनना एक अद्भुत अनुभव हुआ करता था। एक जमाने में मुजफ्फरपुर में बाबू उमाशंकर प्रसाद के दरबार में शास्त्री जी और सुप्रसिद्ध तबलावादक श्रीसीताराम हरि दांडेकर की जोड़ी विख्यात थी।

मुजफ्फरपुर में एक और बड़े विद्वान एवं हिंदी नवगीत के प्रवर्तक कवि राजेन्द्र प्रसाद सिंह की शास्त्रीय एवं लोक संगीत पर पकड़ के साथ ही उनको मंच से गाते हुए सुनने पर रोमांच हो जाया करता था।उनकी ‘भरी सड़क पर’,‘रात आंख मूंद कर जगी’ तथा ‘गज़र आधी रात का’ संग्रह के नवगीतों एवं जनगीतों में इसकी शिनाख्त की जा सकती है।

हिंदी कवियों में अशोक वाजपेयी अपने शास्त्रीय संगीत-प्रेम के साथ ही अन्य कलारूपों के पारखी के तौर पर विख्यात हैं। ‘बहुरि अकेला: कुमार गन्धर्व पर कविताएँ और निबन्ध’ अशोक जी का विख्यात ग्रंथ है। कवि यतीन्द्र मिश्र की ‘गिरिजा’, ‘लता सुरगाथा’, के साथ ही बिस्मिल्ला खान पर रचित पुस्तक और उनकी अन्य कई पुस्तकें एवं कविताएँ उनके शास्त्रीय संगीत के प्रति गहरे लगाव का परिचय देती हैं।हिन्दी में ऐसे और भी अनेक रचनाकार हैं।

रंजना मिश्र द्वारा ‘षड्ज’, ‘ऋषभ’, ‘गंधार’, ‘मध्यम’,‘पंचम’,‘धैवत’ और ‘निषाद’ शीर्षकों से 'पंडित जसराज के लिए' रचित सात कविताओं को इसी परंपरा की एक नायाब कड़ी के रूप में पढ़ा जाना चाहिए। इनसे गुजरते हुए किसी भी संवेदनशील पाठक को शिद्दत के साथ यह महसूस होगा कि कवयित्री ने हमारे समय के एक महान गायक पंडित जसराज की गायकी की बारीकियों को आत्मसात करते हुए शास्त्रीय संगीत की अपनी गायन-क्षमता को उसमें घुला मिलाकर इन कविताओं का सृजन किया है। जाहिर है कि ऐसी रचनाएँ क़ायदे से अपने अभिग्रहण के लिए हमसे एक खास तरह के सुर-सौंदर्यबोध की मांग करती हैं, जिनसे रहित व्यक्ति इनके आस्वादन की पात्रता से स्वभावतः वंचित रह जाने के लिए अभिशप्त होगा। विदित है कि पण्डित जसराज जब गाते हैं तो गायन के लिए चयनित पाठ की शब्दावली की प्रकृति एवं पूरी रचना की अंतर्वस्तु की आंतरिक आकांक्षा का जैसा मूर्तन उनके स्वर में संभव हो पाता है, उसका अनुभव कर पाना उनकी गायकी से परिचित हुए बगैर संभव नहीं है।

इन कविताओं की रचनाकार की पण्डित जसराज की गायकी से गहरी आत्मीयता का एहसास होता है। शास्त्रीय संगीत की प्रकृति की तरह ही इन कविताओं में कोई हड़बड़ी या लोकप्रिय नुस्खे का इस्तेमाल न तो संभव था और न ही किया गया है। याद आते हैं मार्क्स,जिन्होंने लिखा है कि "सच्चा रचनाकार उसी तरह रचनारत होता है जैसे रेशम का कीड़ा स्वाभाविक रूप से रेशम पैदा करता है। "

अपने गीतों और गायकी के लिए नोबेल पुरस्कार से सम्मानित बॉब डिलन के यहां पॉप संगीत के लयावर्त का इस्तेमाल करने के बावजूद एक गंभीरता है। ठीक उसी तरह, जैसे गद्य में परसाई और कविता में नागार्जुन के यहां हास्य को महज हास्य के बजाय ‘गंभीर हास्य’(लाफ्टर विथ ग्रेविटी ) के रूप में रचा गया है। शास्त्रीय संगीत में निष्णात कलाकार जब लोकप्रिय गायन करते हैं तो वहां भी एक खास किस्म की गंभीरता होती है । लता मंगेशकर का गायन कैसे इसका एक बेहतर उदाहरण है, यह यतीन्द्र मिश्र की पुस्तक पढ़ते हुए महसूस किया जा सकता है।

रंजना जी की ये कविताएं वस्तुतः एक ही साथ शास्त्रीय संगीत से पूर्णतः परिचित और परिचित होने को उत्सुक,दोनों प्रकार के पाठकों को सम्बोधित हैं। सच तो यह है कि इन कविताओं से गुजरने के बाद पाठक पंडित जसराज को ज़रूर सुनना चाहेगा। यह उनके शब्दकर्म की सफलता का एक बड़ा सबूत है। दूसरे शब्दों में, इन कविताओं में हिंदी अंचल में लगातार पसरती जा रही सांस्कृतिक विपन्नता को दूर करने और संस्कृति-बोध के पुनर्वास के लिए एक बेचैन कवि का आर्तनाद सुनाई पड़ता है।जयशंकर प्रसाद ने लिखा है कि ‘संस्कृति सौन्दर्यबोध के विकसित होने की मौलिक चेष्टा है।’ ‘पंडित जसराज के लिए’ रचित इस संग्रह की कविताएँ शब्दकर्म के माध्यम से हिन्दी अंचल में ऊपर-कथित सुर-सौन्दर्यबोध को विकसित करने की चेष्टा का सुफल हैं। उनकी काव्यभाषा में गद्य की लय की उठान जब काव्यलय में पर्यवसित होती है तो वह संगीत के शिखर का स्पर्श करती है, जिसे नामवर सिंह ने हर कलाकार की चरम आकांक्षा के रूप में रेखांकित किया है। परिणामतः इन कविताओं से गुजरते हुए पाठक की अंतरात्मा में संगीत का अनुनाद ध्वनित होने लगता है। सच तो यह है कि ये कविताएँ समझ में आने के पहले सुनाई पड़ती हैं। प्रभावान्विति की दृष्टि से ऐसी रचनाएं कबीर के 'रस गगन गुफा से अजर झरै' पद में निहित उदात्तता का एहसास कराती हैं। आज के राजनीति केंद्रित समय में ऐसी कविताएं मरुभूमि में जलाशय की तरह हैं।

इन कविताओं को यदि हम 'समालोचन' में बहुत पहले प्रकाशित कवयित्री के पंडित जसराज पर केंद्रित आलेख के साथ पढ़ें तो संभवतः पाठकीय अभिग्रहण का वृत्त पूरा हो जाएगा। इस स्मृति-लेख में किसी भी सहृदय को रोमांचित कर देने वाली एक बात कही गयी है-"प्रेमिका के लिए ‘अमीर ख़ुसरो’ गानेवाले जसराज और जयदेव के 'गीत गोविंद' के पद गानेवाले जसराज जब -'मेरो अल्लाह मेहरबान' -गाते हैं तो कौन अभागा श्रोता समर्पण के स्वर को न समझने की भूल कर सकता है। "

अंतिम बात यह कि हिंदी में कवियों द्वारा अपने अग्रज कवियों की अभ्यर्थना के साथ ही मित्र कवियों की याद में रचित अच्छी या औसत दर्जे की अनेक कविताएं मिलती हैं,पर कालजयी संगीतकारों एवं गायकों पर जो गिनीचुनी कविताएं हैं, उनमें रंजना जी की ये कवितताएँ उल्लेखनीय हैं। भारतीय शास्त्रीय संगीत से आंतरिक जुड़ाव ने उनके सम्पूर्ण कवि-व्यक्तित्व को प्रभावित किया है जिसके प्रमाण उनकी बहुत सारी कविताओं में विद्यमान हैं, जिनमें प्रगीतात्मकता है। इस दृष्टि से 'आवाज़ की झुर्रियाँ' कविता भी उनकी एक महत्त्वपूर्ण रचना है।

शास्त्रीय संगीत की पारिभाषिक शब्दावली के रचनात्मक इस्तेमाल से जहाँ एक ओर इन रचनाओं का वजन बढ़ता है, वहीं यह शास्त्रीय संगीत से अनभिज्ञ पाठक के लिए यह चुनौती बनकर भी खड़ा होता है।हालाँकि विवेच्य कविता संग्रह में कुछ पारिभाषिक शब्दावलियों को सीधी-सरल भाषा में समझाने का सराहनीय यत्न किया गया है।

इसी प्रकार उनकी कुछ रचनाओं में अनुस्यूत अंतर-पाठीयता (इंटर टेक्स्च्युअलिटी) भारतीय ही नहीं,यूनानी पुरागाथाओं से भी सम्बद्ध है। ऊपर उद्धृत काव्यांश में जिस सहजता के साथ यूनान एवं मिश्र की पुरागाथाओं में प्रचलित फिनिक्स या अनल पाखी की चर्चा किये बगैर 'अपनी ही राख से नया रूप धरकर' फिर से पैदा होने की बात की जा रही है,वह काबिल-ए-गौर है। ऐसी रचनाओं पर साधिकार वही पाठक टिप्पणी कर सकता है जो इन बारीकियों से सुपरिचित हो।

वस्तुत: पंडित जसराज का गायन औदात्य के जिस शिखर पर सहजता के साथ ले जाने में समर्थ है,ये कविताएं उसका संस्पर्श कराती हैं। किन्तु,आलोचना का वहाँ पहुँचना शायद असंभव है। वजह यह कि संश्लेषण के बजाय धारदार विश्लेषण आलोचना की बुनियादी कसौटी है।

याद रहे कि एक जमाने मे निराला की रचना 'ताक कमसिन वारि' को शास्त्रीय संगीत के सम्यक ज्ञान के अभाव में कई लोगों ने उनकी मानसिक विक्षिप्तता से जोड़ कर देखा था।जबकि बाद में गुंदेचा बंधुओं के दीक्षित कंठ से वह गाया गया। कवयित्री का मानना है कि 'ध्वनि कभी नहीं मरती, नाद एक बार आयु पाकर गूंजता ही रहता है अनादि अनन्त का हिस्सा होकर।'(समालोचन) कहना न होगा कि यह बात उनकी ‘पंडित जसराज के लिए’ रचित कविताओं के संदर्भ में भी किसी न किसी रूप में सच है।

‘उम्रदराज़ औरत’ विवेच्य कविता संग्रह की एक महत्त्वपूर्ण रचना है :

'जली हुई रोटी है
दूसरी तरफ़ कच्ची
उफन गई चाय है
बच रही थोड़ी-सी
भगोने में
बची हुई मुट्ठी भर धूप हो जैसे
उतरती गहराती शाम में

बजती है
ठुमरी की तिहाई की तरह
बार-बार पलट आती है
मुखड़े पर
पता नहीं कौन रोज़ दरवाज़े खटखटा जाता है
और आँखों से नमक झरता है
अपनी देह के बाहर छूट जाती है कभी
कभी उम्र से आगे निकल जाती है
मुड़ती हुई नदी के भीतर बहती है एक और नदी
पत्थर का ताप अपने भीतर थामे
दिन ढलते ही
अपने पंख तहा रख देती है सिरहाने
और निहारती है देर तक
उन पंखों को... '

(पत्थर समय की सीढ़ियाँ, पृष्ठ. 102)

हम ऐसे युग में हैं जिसमें पुराने केंद्र टूटते नज़र आ रहे हैं और विचार-विमर्श का नाभिकीय बिंदु परिवर्तित होता हुआ दिखायी दे रहा है। दिनकर ने 'अर्धनारीश्वर' में संकलित जब 'चालीस की उम्र' निबन्ध लिखा था तो उसके केंद्र में पुरुष था,जो जवानी की दहलीज लांघ कर एक ऐसी मनःस्थिति में पहुंच जाता है जहां आवेग थिराने लगता है,पर उसकी ‘मनोकामनाएं’ थिराने का नाम नहीं लेतीं।

तब से लेकर अब तक दुनिया-भर के वैज्ञानिक विकास और चिकित्सा आदि के क्षेत्र में सुविधाओं के विस्तार की वजह से खुशहाल भारतीय मध्यवर्ग की औसत आयु में हुई बढोत्तरी के कारण कुछ लोगों का कहना यह भी है कि जीवन क़ायदे से चालीस-पचास के बाद शुरू होता है।

हमारे जमाने के रचनाकार जब उम्रदराज़ लोगों पर विचार करते हैं तो वहाँ केंद्र में केवल पुरुष के बजाय स्त्री भी है, जो अवकाशभोगी उच्चमध्यवर्ग ही नहीं, मध्यवर्ग,निम्न मध्यवर्ग या समाज के निचले तबके की भी हो सकती हैं।कहना यह भी है कि तथाकथित यौवन की दहलीज़ पार कर जाने के बाद आदमी की शारीरिक एवं मानसिक अवस्था समाज के हर तबके के लिए एक ही हो,यह ज़रूरी नहीं।

'उम्रदराज़ औरत' कविता में उस तबके की स्त्री को जगह मिली है जिसके लिए पहले की रचनाशीलता में कुछेक अपवादों को छोड़कर बहुत कम जगह थी। वजह यह कि पिछले दो-तीन दशकों में सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक विमर्श में आये बौद्धिक एवं संवेदनात्मक बदलाव ने कवियों और खासकर स्त्री-कवियों एवं विचारकों के दिल-ओ-दिमाग़ को झकझोर कर रख दिया है।

नौवें दशक में बीजिंग में आयोजित अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में संसार के विभिन्न कोने से आईं स्त्री-अधिकारों के लिए अपने -अपने देशों में आवाज़ बुलंद करने वाली स्त्रियों के व्याख्यानों तथा उस सम्मेलन के अंत में पारित प्रस्ताव इस सन्दर्भ में क्रांतिकारी कहे जा सकते हैं, जिसमें ‘संयुक्त राष्ट्र’ से स्त्री के प्रति भेदभाव को नस्लीय भेदभाव के समकक्ष घोषित करने की मांग की गई थी।

विदित है कि मनुष्य के भीतर बदलाव प्रथमतः बौद्धिक स्तर पर ही घटित होता है और कालांतर में यह सजग रचनाकारों की संवेदना में परिवर्तन का माध्यम बनता है। स्पष्ट ही जो रचनाकार बौद्धिक परिवर्तन का आभ्यंतरीकरण कर पाते हैं, उन्हीं की चेतना जागृत हो पाती है। अन्यथा मन और मस्तिष्क के बीच फाँक बरकरार रह जाती है,जिसके परिणामस्वरूप मनुष्य सोचता बहुत कुछ है,पर उसकी ‘अनुभूति की संरचना’ ज्यों की त्यों बनी रहती है।गांधी जी ने जब कहा था कि स्वाधीनता संग्राम के कवि मैथिलीशरण गुप्त हैं,पर मेरे प्रिय कवि तुलसीदास -तो हमें उनके इस कथन में दिल और दिमाग़ के बीच एक खाई नज़र आती है।

विवेच्य कविता के मूलपाठ से गुजरते हुए जिन बिंबों से संवेदनशील पाठक रू-ब-रू होता है, वे उसे सोचने-विचारने और कुछेक मार्मिक स्थलों पर विचलित कर देने में सक्षम हैं।

कविता की पहली पंक्ति में कवि ने आम जीवन से एक ऐसी रोटी का बिम्ब उठाया है जो एक तरफ से जल गई है और दूसरी तरफ से कच्ची है।सवाल उठता है कि 'उम्रदराज़ औरत' कविता के संदर्भ में इस सामान्य से प्रतीत होने वाले बिम्ब से लेखक का तात्पर्य क्या है।

वस्तुतः यह एक ऐसी औरत की छवि है जिसके जीवन का एक पक्ष दिनानुदिन क्षीण होता जा रहा है और दूसरा अनुकूल स्थितियों के अभाव में यथायोग्य पल्लवित नहीं हो सका है। यह उसका मन भी हो सकता है और तन भी अथवा दोनों ही।

यदि हम अपने आसपास की मध्यवर्गीय, निम्नमध्यवर्गीय,निम्नवर्गीय औरतों को गौर से देखें तो ऐसी अनेक औरतें मिल जाएंगी जो कई बच्चों की माँ बनकर असमय परिपक्व और वृद्ध तो हो जाती हैं,पर उनकी चेतना प्रेम के कोमल एहसास और शिक्षा से प्राप्त व्यक्तित्व के समुचित विकास से वंचित रह जाती है। दूसरे शब्दों में,उन्हें परिवार और समाज में जो प्यार और सम्मान की ज़िंदगी मिलनी चाहिए थी,वह उपलब्ध नहीं हो पाती। बावजूद इसके,उनका लहज़ा हरदम शिकायती नहीं होता। याद आ सकते हैं निर्मल वर्मा,जिन्होंने चेखव के हवाले से लिखा है कि “कुछ लोग जीवन में बहुत भोगते-सहते हैं –ऐसे आदमी ऊपर से बहुत हल्के और हँसमुख दिखाई देते हैं। वे अपनी पीड़ा दूसरों पर नहीं थोपते,क्योंकि उनकी शालीनता उन्हें अपनी पीड़ा का प्रदर्शन करने से रोकती है। ” (रेणु के कथा रिपोतार्ज ‘ऋणजल धनजल’ की भूमिका)

निराला की 'वह तोड़ती पत्थर' कविता में चित्रित मजदूर स्त्री की तरह बड़ी संख्या में कामगार औरतें आज भी दिखाई देती हैं जो 'श्याम तन भर बंधा यौवन' का भार ढोती हुई असमय मुरझा जाती हैं और कड़ी मिहनत से जीवनयापन करती हुई हरदम अपना दुखड़ा बयान नहीं करतीं । महाप्राण निराला के शब्दों में :

‘देखकर कोई नहीं
देखा मुझे उस दृष्टि से
जो मार खा रोई नहीं।’

‘उम्रदराज़ औरत’ कविता के रचनाकार के शब्दों में इन औरतों का यौवन उस ‘भगौने में बच रही थोड़ी-सी’ चाय की तरह बिल्कुल थोड़ा बचा रह जाता है और अधिकांश हिस्सा विपरीत स्थितियों से जूझते हुए असमय उफ़न कर नष्ट हो जाता है। ऐसी जूझारू औरत के भीतर मौजूद जीवट के लिए 'बची हुई मुट्ठी भर धूप' का प्रयोग रचनाकार के सूक्ष्म सौदर्यबोध का साक्ष्य है। कविता में 'उतरती गहराती शाम' जहां जीवन की उदास संध्यावेला की ओर इंगित करता हुआ चित्र है,वहीं उम्रदराज़ औरत के 'ठुमरी की तिहाई की तरह बजने' और 'बार-बार मुखड़े पर लौट आने' का उत्स रचनाकार के संगीत प्रेम और शास्त्रीय संगीत के बारे में उसके ठोस ज्ञान में निहित है।

कविता में बार-बार मुखड़े पर लौटने का मतलब संभवत: यह है कि ज़िंदगी की जद्दोजहद से रोज-ब-रोज दो-चार होती औरत सारी उधेड़बुन के बावजूद अंततः उस मुख्य मुद्दे पर बात करने के लिए बेचैन रहती है जिसका सम्बन्ध उसकी मुक्ति से है,जिस पहलू को तथाकथित सभ्य और संभ्रांत लोग प्रायः नज़रंदाज़ कर देने के आदी होते हैं।

कविता की आगे की पंक्तियों में किसी का रोज़ दरवाज़ा खटखटाना और आंखों से नमक झड़ना वस्तुतः एकांत में स्त्री के हृदय के तार झंकृत होने या दिल के दरवाजे पर दस्तक की वजह से उसके रुदन को द्योतित करने वाले अछूते एवं विलक्षण बिम्ब हैं: ‘अपि ग्रावा रोदित्यपि दलति वज्रस्य हृदयम्’। (भवभूति)

प्रसंगवश अनामिका की 'नमक' कविता की याद न आए,यह मुमकिन नहीं:

नमक दुःख है धरती का और उसका स्वाद भी
पृथ्वी का तीन भाग नमकीन पानी है
और आदमी का दिल नमक का पहाड़
कमज़ोर है दिल नमक का
कितनी जल्दी पसीज जाता है !...
जिनके चेहरे पर नमक है
पूछिए उन औरतों से -
कितना भारी पड़ता है उनको
उनके चेहरे का नमक !

याद रहे कि दुनियादार लोगों को ऐसी औरतों का शरीर भले आकर्षक प्रतीत हो, पर उस स्त्री-शरीर को धारण करने वाली उम्रदराज़ औरत लगभग विदेह की मनःस्थिति में पहुंचकर जीवन के उस पड़ाव को पार करती चली जा रही है जिसके बाद देह के आकर्षण का लगभग कोई अर्थ नहीं रह जाता।

विवेच्य कविता के अगले हिस्से में ‘मुड़ती हुई नदी के भीतर बहती है एक और नदी/पत्थर का ताप अपने भीतर थामे' को कोई भी सुधी पाठक हिंदी कविता में एक अनूठे प्रयोग के तौर पर लक्षित करेग ,जिसके माध्यम से कवि ने उम्र की ढलान पर फिसलन से बचने के लिए सावधानी के साथ उतरती स्त्री के भीतर आवेगों की अंत:सलिला और उस पर हर हालत में नियंत्रण रखने के संकल्प को चित्रित करते हुए उसके संयमी स्वभाव को रेखांकित किया है।

अरस्तू ने लक्षणा की प्रशंसा करते हुए कहा है कि “यही एक ऐसा गुण है जिसका उपार्जन नहीं हो सकता,यह तो प्रतिभा का लक्षण है। ” इस कविता के अंतिम टुकड़े में ‘उम्रदराज़ औरत’ का अपने पंख को तहाकर सिरहाने रख देना एक अनोखा लाक्षणिक प्रयोग और किसी संभावित परवाज़ की तमन्ना पर काबू कर सकने की सक्षमता का द्योतक है। इसी प्रकार ‘निहारती है देर तक उन पंखों को’ काव्यपंक्ति वस्तुत: तमाम दुनियावी मनोदैहिक आकर्षणों एवं आवेग से भरेपुरे अपने अतीत के सुखद क्षणों को उनसे दूरी बनाकर याद करना ब्रेख्त की शब्दावली में ‘अलगाव प्रभाव’(एलियेनेशन इफेक्ट) का सर्जनात्मक साक्ष्य है, जिसके माध्यम से विडम्बनापूर्ण स्त्री-जीवन का मर्म बिम्बित हुआ है। इस मर्मान्तक भावबोध की अनुभूति फैज़ की कविता-पंक्ति ‘अपने बेख़्वाब किवाड़ों को मुकफ़्फ़ल कर लो’ के साथ ही बरबस ग़ालिब की याद दिलाती है:

मुद्दआ महव-ए-तमाशा-ए-शिकस्त-ए-दिल है
आइना-ख़ाना में कोई लिए जाता है मुझे।

इतिहास को प्राक्-भविष्य(प्री-फ्यूचर) के रूप में आकलित करते हुए मार्क्स समेत दुनिया के अनेकानेक विचारकों एवं समाजवैज्ञानिकों ने किसी जाति के वर्तमान और भविष्य को संवारने में इतिहास की स्मृति पर बल दिया है। किन्तु,कवि-कलाकार के लिए केवल इतिहास की स्मृति के बजाय ‘स्मृतियों का इतिहास’ भी महत्त्वपूर्ण होता है। श्रेष्ठ रचनाओं में जातीय स्मृति के साथ ही वैयक्तिक स्मृति के इतिहास को भी पुनर्रचित किया जाता रहा है,जो वैयक्तिक होने के बावजूद अपने सामाजिक समूह के सामूहिक अवचेतन को वाणी देती है:

स्मृतियों का अपना इतिहास होता है
अल्लसुबह नींद भरी आँखों में उतरती भोर सी
वे धीमें-धीमे रिसती रहती हैं भीतर
उन खाली तहखानों के सन्नाटे को भेदती
जो न मालूम कब से इंतज़ार में हैं।

(पत्थर समय की सीढ़ियाँ, पृ। 68)

उल्लेखनीय है कि विवेच्य रचना साहित्य-जगत में आम तौर बनी-बनाई उस धारणा का प्रत्याख्यान करती प्रतीत होती है जिसके तहत यह मान लिया जाता है कि किसी ठोस वस्तु के माध्यम से मनुष्य की सूक्ष्म संवेदना का अंकन संभव नहीं है। सच तो यह है कि जिस प्रकार सूक्ष्म प्रतीत होने वाले बिंबों के माध्यम से कविता में स्थूल जीवनस्थितियों को चित्रित किया जाता रहा है,उसी प्रकार स्थूल या ठोस चीजों के माध्यम से भी सूक्ष्मतम मनोभावों की सहज एवं प्रभावकारी अभिव्यक्ति तथा उनका सार्थक मूर्तन असंभव नहीं है।

कुल मिलाकर ‘उम्रदराज़ औरत’ कविता निराला की 'वह तोड़ती पत्थर' में चित्रित स्त्री की विसंगतिपूर्ण जूझारू जीवनस्थतियों के मार्मिक चित्रण की परंपरा को अपने अंदाज़ में आगे बढ़ाती हुई ‘सबाल्टर्न भावबोध’ की रचना प्रतीत होती है,क्योंकि यह तथाकथित मुख्यधारा के बजाय हाशिए पर रहने को बाध्य सामाजिक संवर्ग के दिल-ओ-दिमाग़ की हलचलों का हमें एहसास कराती है।

इस कविता के सन्दर्भ में अंतिम बात यह कि विवेच्य कविता में हर जगह केवल और केवल 'औरत' शब्द का इस्तेमाल किया गया है -- 'नारी', 'स्त्री' या 'महिला' जैसे शब्दों का नहीं। वजह यह कि 'नारी' शब्द के ध्वन्यार्थ में जो अबलापन, 'स्त्री' शब्द में जो शक्ति और 'महिला' शब्द के निहितार्थ में जो संभ्रांत होने का भाव मौजूद है वह इस कविता में चित्रित 'औरत' की जीवनस्थितियों एवं मनोभावों के अनुकूल नहीं है।

जार्ज लुकाच ने ‘लेखक और आलोचक’(‘राइटर एंड क्रिटिक’) पुस्तक में लिखा है कि ‘सच्ची कला जीवन की सर्वग्राही समग्रता को आत्मसात करके ही अपनी अधिकतम गहनता और समझ को प्राप्त करती है और उसके प्रतिभास(अपियरेंस) और प्रतिभास के विरोधी प्रत्यय से काटकर उसे प्रस्तुत नहीं करती,अपितु उस गतिशील द्वन्द्वात्मक प्रक्रिया को प्रस्तुत करती है जिसमें यथार्थ प्रतीति में रूपांतरित होता है...‘ कहने की ज़रूरत नहीं कि कविता या किसी भी कलारूप में यथार्थ कल्पना के माध्यम से ही प्रतीति में रूपांतरित होता है।

प्रोफ़ेसर मैनेजर पाण्डेय ने साहित्य और समाज के बीच बहुस्तरीय सम्बन्ध को रेखांकित करते हुए लिखा है कि शब्द का अर्थ से,अर्थ का अनुभूति से,अनुभूति का सम्वेदना से,सम्वेदना का विचार से,विचार का यथार्थ से और यथार्थ का इतिहास से सम्बन्ध की पहचान करते हुए ही हम किसी रचना के मर्म तक पहुँच सकते हैं।

वस्तुतः यथार्थ से रचनाकार का रिश्ता द्वंद्वात्मक हुआ करता है। वह अपने परिवेश से यथार्थ को ग्रहण करता है और उसे पुनर्रचित करके संभावित यथार्थ की सृष्टि करता है। आचार्य शुक्ल ने ‘रसात्मक बोध के विविध रूप’ पर विचार करते हुए इस द्वंद्वात्मक प्रक्रिया का निरूपण किया है और बतलाया है कि इस मानसिक रूप-विधान का नाम ही कल्पना है।

देखने की बात यह है कि हमारे समय-समाज में लोकतांत्रिक पद्धति के लिए ज़रूरी चुनावी राजनीति के तहत जातिवाद और साम्प्रदायिक उन्माद भरे माहौल के साथ ही ‘क्रोनी कैपिटलिज्म’ और बाज़ारवाद से ‘पत्थर समय की सीढ़ियाँ’ की रचयिता कैसे मुठभेड़ करती हैं। प्रसंगवश ‘अंजुम के लिए’ शीर्षक कविता का एक अंश देखा जा सकता है:

“कितने दिनों से याद नहीं आया
गली के मोड़ पर खड़ा वह शोहदा
सायकिल पर टिककर
जो मुझे देख गाने गाया करता था
कुढ़ जाती थी मैं उसे देखते ही
हांलाकि आगे जाकर मुस्कुरा दिया करती
उसकी नज़र से परे...
तुम लौट जाओ अंजुम, मेरे युवा प्रेमी,
अपनी सायकिल के साथ
तुम मुक़ाबला नहीं कर पाओगे उनका
जो बाइक पर आएँगे
और तुम्हें बताएंगे अब अच्छे दिन हैं...”

वाल्टर बेंजामिन का कहना है कि जनपक्षधर रचनाकारों को राजनीति को भावुक बनाने के बजाए भावुकता का राजनीतिकरण करना चाहिए। प्रेम मूलत: भावना का विषय है और ‘अंजुम के लिए’ कविता में भी साँप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे वाले अंदाज़ में भावुकता का राजनीतिकरण किया गया है। जिस समय सत्ताधारी दल तथा वर्ग और उनके समर्थक तथाकथित संत-महंतों के ‘बगलबच्चा’ बन चुके ज़्यादातर इलेक्ट्रोनिक एवं प्रिंट मीडिया संस्थान ‘राष्ट्रवाद’ तथा ‘लव ज़िहाद’ के नाम पर देश में सामाजिक सौमनस्य की धज्जियां उड़ा रहे हों,उसमें ऐसी कविता का सृजन करने के लिए जबरदस्त नैतिक साहस एवं राजनीतिक इच्छा शक्ति की दरकार है। याद रहे कि पंथनिरपेक्षता भारत जैसे बहुभाषी,बहुधार्मिक एवं बहुजातीय समाज के ‘राष्ट्र-राज्य’ (नेशन-स्टेट) के रूप में क़ायम रहने हेतु विकल्प के बजाय एक बाध्यता है और चार खंडों में रचित इस कविता का यही मूल संदेश है।

याद आ सकते हैं प्रेमचन्द,जिन्होंने भारत में सच्ची राष्ट्रीयता के प्रसार के लिए वर्ण व्यवस्था और ऊँच-नीच की जड़ खोदने को सबसे बड़ी ज़रूरत बताया है। इतना ही नहीं, ‘अंजुम के लिए’ कविता ‘संस्कृति के चार अध्याय’ में दिनकर द्वारा बहुविध विवेचित ‘सामासिक संस्कृति’ (कंपोजिट कल्चर) की अवधारणा का काव्यात्मक उन्मेष प्रतीत होती है, जिसे सर्वप्रथम गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने रचा था:

“हेथाय आर्य ! हेथा अनार्य ! हेथाय द्रविड़ चीन !
शक हूण दल पाठान मोगल एक देहो होलो लीन। “

रवि ठाकुर से लेकर रंजना मिश्र तक के बीच भारत की सामासिक संस्कृति को अपने-अपने अंदाज़ में उकेरने वाली केदारनाथ सिंह की ‘नूर मियाँ’ या देवीप्रसाद मिश्र की ‘मुसलमान’ तथा ‘जो पीवे नीर नैना का’ समेत एक से बढ़कर एक कविताएँ रची गयी हैं,पर ‘अंजुम के लिए’ कविता में बहुत नरम ढंग से कही गयी बात के तेवर में जो तनाव है ,उसकी तासीर बहुत गहरी है।यह प्रेम कविता के शिल्प में रचित एक गहरी जीवनधर्मी राजनीतिक कविता है :

“जैसे ही उस पार्क के एकांत में तुम थामोगे अपनी प्रिया का हाथ
सेंसेक्स धड़ से नीचे आएगा मुद्रास्फीती की दर बढ़ जाएगी

..............

देश को सबसे बड़ा ख़तरा तुम्हारे प्रेम से है
तुमें देना ही चाहिए राष्ट्रहित में
एक चुम्बन का बलिदान
इसलिए ज़रूरी है पार्क के एकांत से
तुम अपने घरों में लौट जाओ । “

(‘पत्थर समय की सीढ़ियाँ’,पृ। 19-21)

याद रहे कि हमारे समय के कई विचारकों ने पूरी दुनिया में तेज़ी के साथ फ़ैल रहे साम्प्रदायिक उन्माद को बाज़ारवाद तथा उपभोक्ता संस्कृति के अबाध प्रसार से नाभिनाल-बद्ध माना है जिसकी ओर यह कविता भी इंगित करती है। ‘अंजुम के लिए’ कविता से गुज़रते हुए डॉ। राममनोहर लोहिया का अनायास स्मरण हो आता है जिनका मानना था कि ‘सामाजिक क्षेत्र में पूरी एकसानियत विवाह से संबन्धित होती है। मुझे यकीन है कि जब तक देश में होने वाला सौ में से एक विवाह हिंदू और मुसलमान के बीच न होगा तब तक यह समस्या पूरी तौर पर नहीं सुलझेगी’।

कला-साहित्य के क्षेत्र में यूरोपीय नवोत्थानवाद पर केन्द्रित अपने ग्रंथ ‘चिल्ड्रेन ऑफ़ द मायर’ में आक्टोवियो पॉज़ ने अपने जमाने की कविता के बदलते आयामों पर जो उल्लेखनीय स्थापनाएँ दी हैं,वे आज भी श्रेष्ठ कविता को समझने में हमें मदद कर सकती हैं । इस क्रम में उनमें जिन तीन महत्त्वपूर्ण प्रत्ययों की ओर उन्होंने ध्यान खींचा है वे हैं - छंदक्रान्ति, नई संवेदनशीलता और स्त्री की केन्द्रीय स्थिति।

कहने की आवश्यकता नहीं कि हमारे समय के अधिकांश रचनाकारों की तरह रंजना मिश्र ने भी मुक्त छंद में ही इस संग्रह की सारी कविताएँ रची हैं । किन्तु, ‘पोएटिक्स ऑफ़ प्रोज’ के लेखक तोदोरोव की शब्दावली में कहें तो उनकी कविताओं में ‘काइनेटिक प्रिन्सिपुल्स’ के तहत हिन्दी गद्य की एक सहज-स्वाभाविक लय विद्यमान है,जो यथास्थान काव्यलय का संस्पर्श करती रहती है ।इसलिए उसमें एकाध अपवादों को छोड़कर निरे गद्य से उत्पन्न नीरसता या ऊब की कोई स्थिति लगभग नहीं है। शहरी मध्यवर्ग से रचनाकार की सम्बद्धता की वजह से इन कविताओं की भाषिक संरचना परिष्कृत होने के बावजूद अंग्रेज़ियत से मुक्त है, जो कि आज एक बड़ी बात है। यदि कोई इन कविताओं का अंग्रेज़ी अनुवाद करे तो यह बात साफ़ समझ में आ सकती है।जिस समय अंग्रेज़ी और विदेशी भाषाओं में रचित कविता पढ़कर अपनी भाषा में उसे अच्छे-बुरे ढंग से लिखने वाले कवियों की भरमार हो, उसमें ‘पत्थर समय की सीढ़ियाँ’ की कविताएँ हिन्दी जाति एवं हिन्दी के शब्द-चेतन समुदाय के लिए एक रचनात्मक आश्वासन की तरह हैं।

विवेच्य संग्रह की कविताएँ हिन्दी समाज में क्षयिष्णु(डीकेडेंट) शक्तियों का निषेध और उदीयमान (इमरजेंट) सामाजिक शक्तियों की नवीन संवेदना की पुनर्रचना हैं, जिन्हें कविताओं के रचना-विधान के साथ ही उनकी भाषा तक में लक्षित किया जा सकता है:

ईश्वर को
हमने ठीक उसी समय सूली पर चढाया
जब उसके साथ चहलक़दमी करते,बतियाते
हमें गढ़ने थे शब्दों के नए अर्थ

सुकरात को ज़हर का प्याला
ठीक उसी समय भेंट किया
जब ईश्वर के साथ हुई अधूरी चर्चा
हमें आगे बढ़ानी थी
इतिहास के प्याले को भविष्य की शराब से भरकर...

हमने
प्रेम और शब्दों के अर्थ
अपनी लालसा और भय की भेंट चढ़ाई
और अपनी आत्मा की
कालिख़ भरी सीढियाँ
उतरते चले गए...

हमने इंसान शब्द के अर्थ को
ठीक उसी वक्त अपशब्द में बदला
जब सूली पर चढ़े ईश्वर ने
अपनी आख़िरी सात पंक्तियों में से
पाँचवीं पंक्ति में कहा
‘मैं प्यासा हूँ’और छठी पंक्ति में ईश्वर ने विलाप किया
‘यह ख़त्म हुआ’
ईश्वर की मृत्यु को तीन दिन बीत चुके हैं

अब हम निर्द्वन्द्व है।

(‘पत्थर समय की सीढ़ियाँ’,पृ। 30-31)

मार्क्स ने अपने लेखन में धर्म की आलोचना को अत्यंत महत्त्वपूर्ण माना है। विदित है कि धर्म को अफ़ीम घोषित करने के साथ ही उन्होंने उसे ‘पीड़ित प्राणियों की आह’ और ‘हृदयहीन दुनिया का हृदय’ भी कहा है। किन्तु,इतिहास गवाह है कि समाजशास्त्रीय अर्थों में एक संस्था के रूप में धर्म के उदय ने कालान्तर में उसके सत्त्व-अध्यात्म- को अपदस्थ करके पूरी दुनिया में अफ़रा-तरफी का माहौल पैदा किया है। इस कविता में ‘ईश्वर की मृत्यु’ प्रकारांतर से मानव इतिहास में धर्म एवं उसके नाम पर विभिन्न धर्मों के ‘निर्द्वंद्व’ धर्माधिकारियों द्वारा अपने निहित स्वार्थ के लिए धर्मप्राण जनता की आस्था का दोहन करने के इरादे से धर्म के सत्त्व को बरतरफ़ कर देने का प्रतिपक्ष रचा गया है। जो बात यहाँ लक्षणा में रचित है वह विवेच्य संग्रह की ‘हे राम’ कविता में कुछ और स्पष्ट स्वर में कही गयी है:

राम इन दिनों आस्था की पगडंडियों से निकल
राजमार्गों की ओर जा निकले हैं
उस वनवास में पिता की कोई आवाज़ उन तक नहीं पहुँचती
कुछ रिश्तेदारों के बच्चे अब भी बेरोज़गार हैं
आस्था का प्रश्न उनके लिए बेमानी है...

इस बार वनवास से कब लौटोगे राम?
या शापित ही हो
राज द्वारा वनवास भोगने के लिए।

(‘पत्थर समय की सीढ़ियाँ’, पृ। 27)

इस सन्दर्भ में अल्लामा इक़बाल की ‘है राम के वजूद पर हिन्दोस्तां को नाज़ /अहले नज़र समझते हैं उसको इमाम-ए-हिन्द’ के साथ ही कैफ़ी आज़मी की सुप्रसिद्ध नज़्म के एक टुकड़े की याद स्वाभाविक है :

'पाँव सरयू में अभी राम ने धोये भी न थे
कि नज़र आये वहाँ ख़ून के गहरे धब्बे
पाँव धोये बिना सरयू के किनारे से उठे
राम ये कहते हुए अपने दुआरे से उठे
राजधानी की फज़ा आई नहीं रास मुझे।'

विवेच्य संग्रह में आक्टोवियो पॉज़ द्वारा कथित ‘नई संवेदनशीलता’ के आख्यान भरे पड़े हैं, जो वस्तुतः बीसवीं सदी के अंतिम चरण में भूमंडलीकरण के दौरान इस धरा-धाम पर जन्में स्त्री-पुरुष के दिल-ओ-दिमाग़ के साथ ही उनकी अनुभूति की संरचना को रूपायित करते हैं। कवि के शब्दों में यह ‘पत्थर समय’ है, जिसमें उत्तर-आधुनिक कहा जानेवाला मनुष्य जाने-अनजाने तरह-तरह की तथाकथित सफलता पाने के लिए घुड़दौड़ में शामिल होकर भीतर से खालीपन या खोखलेपन का शिकार और ‘अलगाव’(एलियेनेशन) से ग्रस्त है। नतीज़तन, उसकी संवेदना लगातार छीजती जा रही है, जिसकी चरम परिणति ‘अमानवीकरण’ है। ऐसे विचित्र माहौल में ‘पत्थर समय की सीढ़ियाँ’ कविता कोमल मानवीय संवेदना का वह अध्यात्म रचती है जिसके मद्देनज़र कभी कोलरिज़ ने कविता को धर्म के विकल्प के रूप में पेश किया था:

तुम्हारी अनुपस्थिति का एक हिस्सा थाम
उस पत्थर समय की कई सीढ़ियाँ उतरती हूँ
जिनके पार-
समय की टहनी से टूटकर गिरा
एक लम्हा
अब भी थरथराता है...

सच कहूँ तो तुम्हारी अनुपस्थिति की लम्बी आवाजाही में
मैंने मौन को अधिक साकार पाया है
इसी मौन में साकार होते हो
तुम भी

सुनो, इन दिनों मेरी प्रतीक्षा पककर थकती नहीं
सिर्फ रंग बदलती जाती है
वसंत का चटकीला रंग
पत्तों में ढलकर बहता है जैसे
बस यह सोचकर
क्या पता तुम आओ
और इन हथेलियों में
अपने मिलने की
तारीख लिख जाओ।

(‘पत्थर समय की सीढ़ियाँ’,पृष्ठ। 48-49)

जहाँ तक कविता में ‘नई संवेदनशीलता’ के साथ-साथ ‘स्त्री की केन्द्रीय स्थिति’ का प्रश्न है,यह पुरुष रचनाकारों की अनेक काव्यकृतियों से भी स्वयंसिद्ध है। हिन्दी में कवि पवन करण का ‘स्त्री मेरे भीतर’ कविता संग्रह इसका अन्यतम उदाहरण है। ध्यान देने की बात है कि हाल के कुछ दशकों में भारत समेत दुनिया के विकसित ही नहीं,बल्कि विकासशील देशों में भी सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक क्षेत्रों में स्त्रियों की भागीदारी में इज़ाफा हुआ है।

हिन्दी कविता के क्षेत्र में इस नई संवेदनशीलता की वाहक कवयित्रियों में अपनी मार्क्सवादी विचारधारात्मक प्रतिबद्धता के लिए मशहूर कात्यायनी अन्यतम हैं। मात्राभेद और गुणभेद से रचित अनामिका समेत अनेकानेक समकालीन स्त्री-कवियों की रचनाएँ भी हिन्दी काव्य-क्षेत्र में ‘स्त्री की केन्द्रीय स्थिति’ का सुखद एहसास कराती हैं।

विचारधारा के नज़रिए से रंजना मिश्र की रचनाधर्मिता पर प्रकाश डालते हुए विद्वान कवि-आलोचक प्रोफ़ेसर अरुण कमल ने विवेच्य कविता संग्रह का ब्लर्ब लिखते हुए रेखांकित किया है कि “रंजना मिश्र का कविता संग्रह ‘पत्थर समय की सीढ़ियाँ’ समकालीन हिन्दी कविता के लिए एक महत्त्वपूर्ण घटना है। यह सबसे भिन्न और विलक्षण कृति है जहाँ अनुभव अपनी निजता को अक्षुण्ण रखते हुए सार्वजनीन अर्थवत्ता ग्रहण करते हैं। सर्वथा नवीन बिम्बों, लय-संरचना और स्थापत्य से विभूषित ये कविताएँ हमें जीवन को नयी दृष्टि देखना और समझना सिखलाती हैं। । । यह स्त्रीवादी कविता नहीं है। यह बस एक स्त्री की नज़र से देखी हुई दुनिया है, सुख-दुःख,त्रास और विश्वास के साथ। ”

आज स्त्रीवाद ज्ञान के एक स्वतंत्र अनुशासन की हैसियत पा चुका है और समाज की बेहतरी के लिए सक्रिय अन्य विचारधाराओं से जुड़े चिंतकों के बीच उसके स्वत्रन्त्र महत्त्व(‘अ रूम ऑफ़ वन्स ओन’) को बड़ा से बड़ा कवि या विचारक नज़रंदाज़ नहीं करता। कारण यह कि स्त्रीवादी नज़रिए से महान कही जाने वाली दुनिया की क्लासिक कृतियों से गुजरने पर पारंपरिक एवं प्रचलित सौन्दर्यशास्त्रीय मानदण्ड अधूरे प्रतीत होने लगते हैं:

बू-ए-गुल नाला-ए-दिल दूद-ए-चराग-ए-महफ़िल
जो तिरी बज़्म से निकला वो परेशां निकला।
- ग़ालिब

निवेदन यह है कि किसी रचनाकार द्वारा घोषित तौर पर स्त्रीवाद का झंडाबरदार बने बगैर भी कविता और समाज में स्त्री के लिए यथोचित जगह बनाने या उसकी केन्द्रीय स्थिति के लिए ‘मुनासिब कार्रवाई’ की जा सकती है। विवेच्य संग्रह की ‘दुनिया में औरतें’ कविता में स्त्री विमर्श का ढोंग करनेवालों की जमकर ख़बर ली गयी है:

स्त्री विमर्श करते

तुम्हारी पुरुष आँखें
छूती रहती हैं
मेरे वक्ष और नितम्ब

मेरी आँखें
तुम्हारे चौड़े ललाट
और पैरों के लगातार हिलने में
स्त्री विमर्श का खोखलापन
भाँप लेती हैं
मुझे याद आता है
भीड़ भरी बस का वह अधेड़
जो अक्सर
लड़कियों के बगल बैठने की जगह ढूँढ़ा करता था।

(‘पत्थर समय की सीढ़ियाँ’,पृ. 89)

सामाजिक-सांस्कृतिक एवं राजनीतिक जीवन से प्राप्त अनुभव बताता है कि यदि बहुसंख्यक हरदम अल्पसंख्यक की राजनीति करने लगें,ब्राह्मण बहुत ज़्यादा दलितोद्धार की बात करें और पुरुष ज़रूरत से ज़्यादा स्त्री-विमर्श करने लगें,तो,ऐतिहासिक विकास की प्रक्रिया में पिछड़ गए इन तबकों को अतिरिक्त रूप से सावधान हो जाना चाहिए।

जवाहरलाल नेहरू ने लिखा है कि भारत जैसे एक बहुजातीय एवं बहुधार्मिक देश में बहुसंख्यक समुदाय का अल्पसंख्यकों के प्रति मंतव्य के बजाय अल्पसंख्यक समुदायों की बहुसंख्यक समुदाय के बारे में धारणा का ज़्यादा महत्त्व है। यह बात धर्म के साथ-साथ लिंग,भाषा आदि की वजह से हाशिए पर रहने को मजबूर तमाम समुदायों पर लागू होती है।

कात्यायनी की सुप्रसिद्ध ‘इस स्त्री से डरो’ कविता अथवा बहुत सारी स्त्रीवादी कही जाने वाली कविताओं में निहित आक्रोश एवं आक्रामक तेवर के बजाय सलाह की मुद्रा में रंजना जी द्वारा रचित ‘तुम पुरुष’ मर्दों को सम्बोधित एक विशष्ट भावबोध की कविता है,जिसमें समय के साथ पुरुषों को अपनी मानसिकता और व्यवहार आदि को बदलने की ज़रूरत का एहसास कराया गया है:

अगर प्यार है
तो पढ़ो हमें नई सीखी ज़ुबान की तरह
अपनी यादाश्त का कुछ करो
अपने इतिहास, अपनी परिभाषाओं, आदतों

और अपनी रसोई का कुछ करो
तुम नहीं जानते हम बदल रही हैं बदल गयी हैं
तुम किसी पुरानी सभ्यता के अवशेष न बन जाना
या खेत में खड़े बिजूके
सुनो, तुम भी इंसान हो
हमारी आदतें बदल रही हैं
तुम न बदले तो कहाँ जाओगे ?

बावजूद इसके, अपनी शक्ति एवं सीमा में स्त्रीवादी विचारधारात्मक सामाजिक-सांस्कृतिक दायित्व का निर्वाह ‘पत्थर समय की सीढ़ियाँ’ की रचनाकार ने भी किया है। कात्यायनी की सुप्रसिद्ध ‘हॉकी खेलती लड़कियाँ’ कविता की परम्परा को आगे बढाती हुई रचित उनकी ‘आवाराग़र्द लड़कियाँ’ कविता से गुज़रते हुए इसे सहज ही महसूस किया जा सकता है:

"मुझे पसंद हैं

बेबात कहकहे लगाती लड़कियाँ...

हमउम्र लड़कों के साथ छिपकर
सिगरेट के कश आजमाती लडकियाँ
लड़कों की हमराज़ बन
उनके ख़त पहुँचाती लडकियाँ
या फिर,
उनके इश्क़ के जख्मों पर
फ़ाहे लगाती लडकियाँ –

मुझे पसंद हैं
अबे तबे करने वाली
और दुपट्टे को
कहीं रखकर भूल जाने वाली लड़कियाँ

मुझे और भी पसंद हैं...
अद्धा या पौव्वा चढ़ाकर
हॉस्टल के कमरे में
ठुमके लगाती लड़कियाँ
और फिर-
किसी पुराने इश्क़ की याद में,
ज़ारोज़ार आँसू बहाती लड़कियाँ...

दरअसल मुझे पसंद हैं,
मीठे गुड़ सी
और तनी कटार सी
सारी आवारागर्द लड़कियाँ
पानी की तरह बहकर
पत्थर पहाड़ के बीच
रास्ता ढूंढ लेने वाली
दुनिया के मनहूस बगीचे में खिली
जंगली फूलों और दूब की तरह बिछी लड़कियाँ
जो मौसम की हर मार और अंधड़
झेलकर ज़िंदा रहती हैं...
मुझे प्यार है इनसे
क्योंकि ये चुनना जानती हैं
अपनी मर्ज़ी-
अपनी आवारागार्दियाँ..."

(पत्थर समय की सीढ़ियाँ,पृ. 111)

इस कविता का तेवर महादेवी वर्मा की ‘कीर का प्रिय आज पिंजर खोल दो’ या अनामिका की ‘ऐसे पढ़ी जाऊं जैसे तुकाराम का अधूरा अभंग’ से न केवल भिन्न,बल्कि विपरीत है। इसी संग्रह में पृष्ठ संख्या एक सौ सात पर छपी ‘सुसंस्कृत लड़कियाँ’ कविता के साथ ‘आवारागर्द लड़कियाँ’ को पढ़ने पर कविता में क्षयिष्णु और उदीयमान प्रवृत्तियों की सामाजिक पृष्ठभूमि की समझ पैदा होने के साथ ही पाठकीय अभिग्रहण का वृत्त भी पूरा होता है,क्योंकि दोनों रचनाएँ परस्पर ‘जक्सटापोजीशन’ में रचित हैं।

दिलचस्प है कि जब यह कविता सोशल मीडिया पर पहली बार सामने आयी थी तब किसी मासूम पाठक ने इसकी प्रशंसा करने के बावजूद यह कहते हुए इसे खारिज़ कर दिया था कि कविता में ट्राफिक सिग्नल तोड़ने की जो बात कही गयी है वह ग़ैर-क़ानूनी है,इसलिए उससे सहमति असंभव है।

याद रहे कि विश्व साहित्य के साथ ही हिन्दी में भी यथास्थितिवाद के विरुद्ध अराजक विद्रोह की एक लम्बी परम्परा रही है जिसे भारतेंदु, निराला, नागार्जुन, राजकमल चौधरी, धूमिल सरीखे बहुत सारे बड़े कवियों के यहाँ लक्षित किया जा सकता है। उदाहरण के लिए नागार्जुन की ‘मन करता है’ शीर्षक से रचित कविता की कुछ पंक्तियाँ देखी जा सकती हैं:

मन करता है
नंगा होकर सागर तट मैं खड़ा रहूँ
यूं भी क्या कपड़ा मिलता है
धनपतियों की ऐसी लीला !

मन करता है
जो पहन रखा है
आग लगा दूँ
उसमें भी
फिर बनूँ दिगम्बर बमभोला।

विवेच्य संग्रह की ‘आवारागर्द लडकियाँ’ कविता भी इसी काव्य-परम्परा की कड़ी के तौर पर पढ़ी जाने की मांग करती है। इसमें ‘आवारा’ शब्द का उसी प्रकार ‘अर्थादेश’ हो गया है जिस प्रकार मजाज़ की सुप्रसिद्ध ‘आवारा नज़्म’ की ‘जगमगाती जागती सड़कों पे आवारा फिरूँ’ पंक्ति में संभव हुआ है।

किन्तु,इस संग्रह में संभवत: ऐसी रचनाएँ शामिल नहीं है जिसमें राजेन्द्र यादव की शब्दावली उधार लेकर कहें तो ‘स्वतंत्रता के ख़तरे’ उठाने के बजाय ‘गुलामी का आनन्द’ भोगती पितृसत्तात्मक मानसिकता से ग्रस्त स्त्री-देहधारी संभ्रांत महिलाओं को प्रश्नांकित किया गया हो। संभवतः यह एक विधा के रूप में कविता की सीमा भी है। हिन्दी कथासाहित्य में ऐसे पात्र भरे पड़े हैं, जिनमें गोविन्द मिश्र का ‘हुज़ूर दरबार’ तथा सुरेन्द्र वर्मा का ‘दो मुर्दों के लिए गुलदस्ता’ सरीखे उपन्यास उल्लेखनीय हैं।

भारतीय एवं पाश्चात्य साहित्याशास्त्रियों और सौन्दर्यशात्रियों के अलावा कुछ बड़े कवि-आलोचकों ने भी साहित्य में कल्पना के विभिन्न आयामों की विस्तार से चर्चा की है। कोलरिज का कल्पना-विमर्श तथा हिन्दी कवि प्रोफेसर केदारनाथ सिंह की पुस्तक ‘कल्पना और छायावाद’ लिखने-पढने वालों के मानसिक क्षितिज का विस्तार करती है। उल्लेखनीय है कि इस कल्पना-विमर्श में ‘शिशु-कल्पना’ को बहुत सुन्दर और संभावनापूर्ण माना गया है,जिस पर वर्ड्सवर्थ की रचनाओं के सन्दर्भ में विचार करते हुए ओक्तोवियो पॉज़ ने लिखा है कि शिशु-कल्पना प्रकृति के साथ ही वस्तुजगत से मनुष्य के सम्बन्ध के प्रथम स्पन्दन का एहसास कराती है। कविकुलगुरु कालिदास ने ‘रघुवंशम्’ में संतान प्राप्ति के पश्चात दशरथ की माता इंदुमती को शैशव की पुलक के संस्पर्श से प्राप्त आनंदानुभूति को ‘चेतना का प्रसार’ कहा है: ‘पाश्चिमात यामिनी यामात प्रसादमिव चेतना’।

गहरे मातृत्व-भाव से ओतप्रोत ’पत्थर समय की सीढ़ियाँ’ की संवेदनशील रचनाकार के अंत:करण में जब शिशु-कल्पना उद्दीप्त होती है तो जहाँ एक ओर वे अपने बचपन का स्मरण करती हुईं माता और पिता को कविता का विषय बनाती हैं, वहीं दूसरी ओर ‘तुम -- मेरे बेटे’ जैसी मार्मिक कविता का सृजन संभव होता है:

आँखों का काजल रखा है कजरौटे में
सुन्दर बिल्लौरी झुमके कब से राह देख रहे हैं
कंगन अब चुभते हैं।
भूल चली हूँ सुन्दरता की परिभाषा
और देह के सारे माप

गोर्की और सिमोन द बोउआर
अपनी जगह से निष्कासित हैं।
किताबों का शेल्फ अब
नन्हीं ज़ुराबों का नया घर है

गहरी साँझ यमन और
उजली सुबह भैरव गूंजते हैं मेरे भीतर
लोरी की लय में
और बगल में सोए पड़े
तुम- मेरे नन्हें बेटे
तुमारी साँसे बजती हैं
सृष्टि के मधुरतम संगीत की तरह

मेरे कंधों पर नन्हें हाथ हैं
और उनका कोमल दबाव
नन्हें क़दमों से चलती-गिरती मैं
रोज ज़िंदगी के नए सफ़र पर निकल जाती हूँ।

(‘पत्थर समय की सीढ़ियाँ’, पृ. 123-124)

इस रचना से गुजरते हुए ‘लहर’-सम्पादक प्रकाश जैन की ‘अबोध तुतलाहट’ कविता का स्मरण हो आता है जिसका स्वर गोरख पाण्डेय की ‘बच्चों के बारे में’ या राजेश जोशी की ‘बच्चे काम पर जा रहे हैं’ जैसी कविताओं से भिन्न एवं विशिष्ट है:

उससे बतियाते हुए
एक अबोध तुतलाहट
मेरे ओठों पर फिसलने लगती है
खो जाता है मेरा जाना-समझा,शब्द
और उसका अर्थ
मैं रेशू हो जाता हूँ।

जीवन और वस्तुजगत से लेकर काव्यजगत तक में साम्य या सादृश्य का अनुभव करने की प्रक्रिया के अनेकानेक उदाहरण वैदिक साहित्य से लेकर हमारे समय तक के साहित्य में प्रचुर मात्रा में मिलते हैं। सादृश्य की विस्तार से चर्चा करते हुए ओक्टोवियो पॉज़ कहते हैं कि “सादृश्य अनुरुपताओं का विज्ञान है। यह ऐसा विज्ञान है जो भिन्नताओं के कारण ही अवस्थित है। चूँकि यह वह नहीं है,तो यह संभव है कि ‘यह और वह’ के बीच एक सेतु निर्मित कर दिया जाय। ”(Analogy is the science of correspondences. It is, however, a science which exists only by virtue of differences. Preceisely because this is not that, it is possible to extend a bridge between this and that.” Childern of the Mire, Page, 72) एक अन्य स्थान पर पॉज़ ने लिखा है कि ‘सादृश्य वह रूपक है जिसमें अन्यत्व खुद को एकत्व के रूप में देखता है और भिन्नता स्वयं को तादात्म्य के रूप में प्रक्षेपित करती है’।

विद्वान मित्रों को याद दिलाने की आवश्यकता नहीं है कि पॉज़ से बहुत पहले आचार्य शुक्ल ने हिन्दी कविता के संदर्भ इस मुद्दे पर गहराई से विचार किया है। दीगर बात यह कि कोलरिज़ कविता में जिस ‘रिकोन्शिलिएशन ऑफ़ ओपोजिट्स’ में सौन्दर्य की सत्ता देखते हैं, वही आचार्य शुक्ल के यहाँ ‘विरुद्धों का सामंजस्य’ है, जिसके एक से बढ़कर एक उदाहरण समकालीन हिन्दी कविता में भी मौजूद हैं।

विवेच्य कविता संग्रह में ‘सादृश्य’ एवं ‘विरुद्धों का सामंजस्य’ के ऐसे नायाब उदाहरण मौजूद हैं जिन्हें विभिन्न कविताओं से एकाध अंश लेकर यहाँ गिनवाना यांत्रिक प्रतीत हो सकता है। इसलिए मूल पुस्तक में ही इन्हें पढ़ना बेहतर होगा। इस दृष्टि से ‘इतिहास असमंजस और चीटियाँ’, ‘लौट जाना’, ‘पिंजरे का अस्तित्व’, ‘वैसी ही दुनिया’, ‘एक मन:स्थिति’,‘पेड़’, ‘बंजारेपन का मारा प्रेम’, ‘पागल औरत’, ‘कैसे भूलते हैं दुःख’, ‘बुधवार की रात’, ‘वह और मैं’, ‘अभाव’, ‘मैं पूछती हूँ’, ‘अनुपस्थिति’, ‘नींद और रात’,’बारिश और नाउम्मीदी से ठीक पहले की दुनिया’,’पन्हाला की एक शाम’, ‘माँ का स्मार्ट फ़ोन’, ‘माँ और नींद’, ‘लौटते हुए जीवन की ओर’, ‘क़ैद’, ‘पुल पर औरत’, ‘नामकरण’, ‘तपस्या’, ‘दुनिया में औरतें’, ‘प्रतिध्वनियाँ’, ‘मृत्यु’, ‘प्रतीकों की आड़ में’, ‘पेड़’, ‘घड़ियाँ और समय’ आदि कविताएँ ख़ास तौर से पठनीय हैं।

‘क़ैद’ कविता पढ़ते हुए शिद्दत से याद आती हैं बोउआर,जिन्होंने लिखा है कि जो व्यक्ति दूसरों की यातना के प्रति संवेदनहीन होता है वह अपने लिए बहुत पहले हृदयहीन हो चुका होता है। इसलिए जहाँ कहीं भी ऐसी स्थिति दिखाई पड़े वहाँ उत्तेजना के बजाय संवेदनहीनता का रेखांकन और उसके कारणों की पड़ताल की जानी चाहिए, ताकि, उससे ज़ल्द से ज़ल्द निजात मिल सके:

सुनो
अपने साथ मैं तुम्हें भी आज़ाद करती हूँ
तुम नहीं जानते
क़ैदी हो तुम भी उस छल के
जो तुम समझते हो सिर्फ़ मेरा है
जो ज़ंजीरें बाँधती हैं मुझे,
तुम्हें कहाँ आज़ाद करती हैं
जिसे समझते हो तुम मेरा पिंजरा
दरअसल वह तुम्हारा है
बस उस पिंजरे में आइना नहीं है।

विवेच्य संग्रह की ‘इतिहास असमंजस और चींटियाँ’ कविता में जहाँ एक ओर व्यवहार जगत में शब्दकर्म की सफलता को लेकर संदेह है, वहीं गहरी शब्दकर्म में आस्था भी। राजेश जोशी की शब्दावली उधार लेकर कहें तो इस रचना में बात ‘दो पंक्तियों के बीच’ कही जा रही है:

जानती हूँ

कुछ नहीं बदलेगा
इतिहास गवाह है
सिर्फ़ शब्दों से कुछ बदला भी नहीं

शब्दों की बेतरह भीड़ में
मेरे शब्द भी
अजन्मे बच्चे की अनसुनी चीख बनकर
असमंजस के घूरे में फेंक दिए जाएंगे
इनका मूल्यांकन भविष्य की कोई किताब नहीं करेगी

फिर भी
वह चींटी भाती है मुझे
जो इतिहास, समय और असमंजस से परे
विश्वास की उंगली थामे
मौन
अपनी क़तार बनाती चलती है

रंजना मिश्र की यह रचना कवि केदारनाथ सिंह की ‘मुक्ति’ कविता याद दिलाती हैं, जिन्होंने लिखा है: “मुक्ति का जब कोई रास्ता नहीं मिला/ तो मैं लिखने बैठ गया हूँ/। । । यह जानते हुए कि लिखने से कुछ नहीं होगा/मैं लिखना चाहता हूँ। ”

मार्क्सवादी सौंदर्यशास्त्र में बहुचर्चित ‘आधार-अधिरचना’(बेस एंड सुपरस्ट्रक्चर) विमर्श के अंतर्गत विस्तार से चर्चा मिलती है कि कैसे समाज का आर्थिक ‘आधार’ कला-साहित्य,क़ानून,धर्म,राजनीति सरीखी ‘अधिरचना’ को किसी न किसी रूप में अवश्य प्रभावित करता है। इस बारे में कुछ लोगों का कहना है कि आधार से अधिरचना प्रभावित होती है,पर अधिरचना और ख़ास तौर से कला-साहित्य से ‘आधार’ प्रभावित नहीं होता। सामाजिक-आर्थिक आधार में परिवर्तन के लिए पहलकदमी अक्सर परिवर्तनकामी और क्रांतिकारी राजनीतिक दल करते हैं,साहित्यकार नहीं। इस मुद्दे पर लेनिन और गोर्की के बीच हुए तीखे विचारोत्तेजक वाद-विवाद-संवाद का निष्कर्ष यह है कि अधिरचना का अंग होने के बावजूद जनता की मानसिकता को सामाजिक परिवर्तन के लिए पार्टी के विभिन्न क्रांतिकारी अभियानों के परिशंसन के लिए तैयार करने में साहित्य की भी महती भूमिका होती है। यह भूमिका साहित्यकार सामाजिक यथार्थ को आत्मसात कर रचित साहित्य के साथ ही अभियान गीत, सुन्दर और प्रभावकारी नारे सरीखे प्रचारात्मक साहित्य (प्रोपगंडा लिटरेचर) आदि लिखकर अदा करते हैं। किन्तु,ग्राम्शी कहते हैं कि ‘अपनी रचनाओं के माध्यम से सामाजिक यथार्थ को अभिव्यक्त करने वाले रचनाकारों में एक सामाजिक यथार्थ का प्रवक्ता होता है और दूसरा कलाकार’। स्पष्ट ही, ‘पत्थर समय की सीढ़ियाँ’ की कविताएँ कवि रंजना मिश्र के कलाकार होने का बोध कराती हैं।

‘घड़ियाँ और समय’ एक अर्थ में जटिल कविता है। तुलसीदास के शब्दों में -‘जिमि मुँह मुकुर मुकुर निज पानी।गहि न जाइ अस अद्भुत बानी।।’ जिस आइने में चेहरा है वह हाथ में है,पर चेहरा हाथ की पहुँच से बाहर है। इस कविता को क़ायदे से हृदयंगम करने के लिए संभव है कि अज्ञेय का ‘काल का डमरूनाद’ निबन्ध और एलियट रचित ‘फोर क्वार्टेट्स’ के ‘बर्न्ट नॉर्टन’ कविता की आरंभिक पंक्तियाँ सहायक हों: ‘

Time present and time past
Are both perhaps present in time future,
And time future contained in time past।
If all time is eternally present
All time is unredeemable।

‘कवि का चेहरा’ कविता में रचनाकार ने कवि होने के लिए बड़बोलापन के बजाय विनम्रता और लोगों को अपनी ‘उपस्थिति का कम से कम एह्साह कराने’ को मूलभूत अर्हता माना है:

कवि के चेहरे पर कितनी विनम्रता
आँखें कितनी सुलझी
जैसे देख रखे हों उन्होंने तमाम दुःख।

क्या कवि ने सदियाँ गुजारी हैं
अपने भीतर इंसान होकर
कवि होने से पहले ?
(‘पत्थर समय की सीढ़ियाँ’,पृष्ठ। 143)

वाल्मीकि रामायण में कृतज्ञता को जीवन-मूल्य के रूप में रेखांकित किया गया है। इसी प्रकार यदि मनुष्य विनम्रता को भी जीवन-मूल्य के रूप में अपना ले, तो, यह दुनिया और अधिक सुन्दर हो जाएगी। यह ठीक ही कहा गया है की ठूँठ के विपरीत फलों से लदा पेड़ झुक जाता है। किन्तु, वांक्षा और अपेक्षा से विलग वास्तविक जीवन-व्यवहार को अगर कसौटी मानें तो इस पर वाल्मीकि, व्यास, कालिदास से लेकर आज की कात्यायनी समेत तमाम बड़े कवि ही नहीं,बल्कि स्वयं ‘पत्थर समय की सीढ़ियाँ’ की रचनाकार भी किस सीमा तक खरी उतर पाएँगी, यह कहना मुश्किल है। दूसरी बात यह कि प्राय: विनम्रता असली के बजाए नकली या ओढ़ी हुई भी होती है। विनम्रता की असली परख सहज नहीं, असहज या विपरीत परिस्थितियों में होती है। इस सन्दर्भ में अंतिम बात यह कि समाज की बेहतरी के लिए आवश्यकतानुसार सात्विक क्रोध भी ज़रूरी है। ‘नागरिक पराभव’ कविता में कुमार अम्बुज कहते हैं:

बहुत पहले से आरम्भ करूँ तो
उनसे डरता हूँ जो अत्यंत विनम्र हैं
कोई भी घटना जिन्हें क्रोधित नहीं करती।

वस्तुत: कवि-कलाकार का सर्जनात्मक मानस अत्यंत जटिल होता है। वह उदात्तता को जितना समझता है,उतना ही क्षुद्रता,ओछेपन और धूर्तता को भी। ख़ास बात यह है कि ओछेपन को भलीभांति समझने के बावजूद बड़ा रचनाकार हर हालत में खुद को ओछा होने से बचाए रखने के लिए जीवनपर्यन्त आत्मसंघर्ष करता रहता है। अभी हाल में कात्यायनी ने लिखा है कि “निष्कपटता और सादगी का अपना विरल और दुर्दान्त सौन्दर्य होता है। जीवन में भी और कविता में भी! स्वार्थ, दुष्टता और क्रूरता को लोगों को छलने और लुभाने के लिए शब्दों और बिम्बों से धुंध और रहस्य भरा जादुई संसार - एक मायालोक रचना पड़ता है। ”

‘मिट्टी की ओर’ पुस्तक के ‘हिन्दी कविता और छंद’ निबन्ध में दिनकर मानते हैं कि “प्रत्येक कवि जीवन-भर एक ही कविता लिखता है,अर्थात प्रत्येक कवि की सारी रचनाओं के भीतर कोई एक ही सूत्र व्याप्त रहता है तथा उसकी सभी कविताओं के पीछे एक ही तरह की मनोदशा उपस्थित रहती है। ” यह ‘एक ही तरह की मनोदशा’ किसी कवि की कविताओं में जिन कुछ विशेष शब्दों के माध्यम से व्यक्त होती है उसे रेमंड विलियम्स ने ‘बीज शब्द’ (‘की वर्ड्स’) के रूप में अभिहित किया है।

‘पत्थर समय की सीढ़ियाँ’ की कविताओं से गुज़रते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि इनमें ‘बीज शब्द’ है- ‘दुःख’, जो रोजी-रोटी या दैनंदिन आवश्यकताओं के अभाव के बजाए रचनाकार के अस्तित्त्वमूलक भावबोध एवं चिंतन की उपज है। इस दृष्टि से विवेच्य संग्रह की ‘अपना होना’ एक अनूठी रचना है:

एक दुःख
मेरे भीतर बैठा है
एक ख़ामोशी
उसे स्वर देती है
मैं
इनके बीच
अपना होना तलाशती हूँ।
(पत्थर समय की सीढ़ियाँ, पृ। 151)

अज्ञेय की ‘वेदना में एक शक्ति है,जो दृष्टि देती है। जो यातना में है वह द्रष्टा हो सकता है’(शेखर:एक जीवनी) के साथ ही ‘दुःख सबको मांजता है’ कविता-पंक्ति का स्मरण करते हुए देरिदा की शब्दावली में कहें तो ‘पत्थर समय की सीढ़ियाँ’ कविता संग्रह की अनेकानेक कविताओं (‘फिर वही दुःख’, ‘हार जाना’, ‘अनुभव की धूल’, ‘गर्म कम्बल-सा दुःख’, ‘बुधवार पेठ की वेश्याएं’,‘अनुपस्थिति’,‘अभाव’,‘कैसे भूलते हैं दुःख’, ‘भाषा की स्मृति’ आदि) में दुःख का जो स्वरूप विनिर्मित या विखंडित (डिकंसट्रक्ट) हुआ है, उसका सम्बन्ध उस ‘विषाद-दृष्टि’ (‘ट्रेजिक विज़न’) से है, जिसे रचनाकार-विशेष के सामाजिक समूह (वर्ग नहीं) से जोड़कर ‘साहित्य का समाजशास्त्र’ के क्षेत्र में नवीन व्याख्या-विश्लेषण के उद्गाता लुसिएँ गोल्डमान(1913-1970) ने अपने ग्रंथ ‘प्रच्छन्न ईश्वर’ (‘द हिडन गॉड’,1964। ) में रासीन (Racine) और पास्काल (Pascal) की रचनाओं का विवेचन किया है। गोल्डमान कहते हैं कि ‘ट्रेजिक विज़न’ वाले काव्य के नायकों में चूँकि समझौतापरस्ती नहीं होती, इसलिए त्रासदी लगभग उनकी नियति है और कविता में उसकी अभिव्यक्ति का अंदाज़ क्लासिकल होता है।

मुक्तिबोध ने ठीक ही काव्य-विवेक को मूलत: जीवन-विवेक माना है। ‘पत्थर समय की सीढ़ियाँ’ की रचनाकार के जीवन और कवि-कर्म में भी मौक़ापरस्ती या समझौतापरस्ती के लिए कोई जगह नहीं है। इसलिए इस संग्रह की कविताओं में गहन ‘विषाद-दृष्टि’ के तहत अभिव्यक्त ‘दुःख’ का स्वरूप भी क्लासिकल है,जिसका विवेचन एक स्वतंत्र विनिबंध की मांग करता है। इत्यलम।

(रंजना मिश्र: ‘पत्थर समय की सीढियाँ’ कविता संग्रह,लिटिल बर्ड पब्लिकेशन्स,नई दिल्ली, कुल पृष्ठ 151,मूल्य: 250 रूपये मात्र। ई। मेल: ranjanamisra4@gmail। com)

डॉ. रवि रंजन, प्रोफ़ेसर एवं पूर्व-अध्यक्ष, हिन्दी विभाग, मानविकी संकाय, हैदराबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय, हैदराबाद-500046 पूर्व विजिटिंग प्रोफ़ेसर, ‘सेंटर फॉर इंडिया स्टडीज,पेकिंग यूनिवर्सिटी’(2005-2008) एवं ‘सेंटर फॉर साउथ एशियन स्टडीज,यूनिवर्सिटी ऑफ़ वारसा’(2015-2018)।

ईमेल: raviranjan@uohyd। ac। in मोबाइल। 9000606742