रमन और उनका संगीत / संजय कुमार अवस्थी

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बात जनवरी 1907 की है। एक 19 वर्ष का युवा, जिसने अल्प आयु में ही भौतिकशास्त्र में एम.ए. में प्रथम मेरिट प्राप्त कर और फिर आई.सी.एस. में भी सर्वोच्च अंक प्राप्त कर नौकरी प्रारंभ की थी। कुशाग्र बुद्धि, असीम ऊर्जा से भरा एवं ज्ञान के उस सुदूर स्थित क्षितिज हो छू लेने की उत्कट अभिलाषा से ओत प्रोत वह युवा, यह जानता था कि वित्त विभाग विवाहित कर्मचारियों को 150 / -रुपये का विशेष भत्ता देता था, उसने सोचा कि नौकरी में आने से पहले अच्छी लड़की देख विवाह कर लिया जाए. आधुनिक विचारों वाला यह युवा जन्म कुण्डली को विचार कर, पारम्परिक तरीके से दुल्हन के चुनाव के विरुद्ध था। इस नौजवान को अपनी पसंद की दुल्हन अपने अभिन्न मित्र रामास्वामी शिवन के घर मिली। रामास्वामी के घर मदुरई से आई उनकी साली एक दिन किसी कमरे में वीणा बजा रही थी जब वह युवा रामास्वामी के घर आया। वह युवती श्री त्यागराज का कीर्तन बजा रही थी 'रामा नी समानम इ्वरो' (राम, क्या तुम्हारे समान कोई है) । संगीत प्रेमी हमारा युवा, उस युवती लोक सुंदरी के मधुर वादन में खो गया। लोक सुंदरी को अपना राम मिल गया। वह राम था, हमारा वह ओजस्वी युवा जिसे दुनिया आज आचार्य चन्द्रशेखर वेकट रमन के रूप में जानती है। संगीत प्रेमी रमन ने अपने माता-पिता को मनाया और लोक सुंदरी रमन की जीवन संगिनी बनी।

अभूतपूर्व क्षमताओं वाले विज्ञानी रमन संगीत को प्यार करते थे। वे कहते थे कि " मै अधिक जीना चाहता हूँ, जिससे की मैं वह सब संगीत सुन सकूँ जिसे मैं सुनना चाहता हूँ। वे बलेपेट, बैंगलोर में साजों की दुकान में सदा जाया करते थे। उनके पास मृदंग, तबला, वीणा एवं नागास्वरम जैसे संगीत उपकरण थे। अपनी संगीत की रूचि को उन्होने केवल सुनने तक ही सीमित नहीं रखा, क्योंकि वे मूलतः विज्ञान के विद्यार्थी थे इसलिए उन्होने संगीत उपकरणों के विज्ञान पर विस्तार से शोध किये। बचपन से ही रमन को संगीत से प्यार था, वे महान भौतिकशास्त्री हरमन वॉन हेल्महोल्टज के संगीत पर कार्य से प्रभावित थे। कॉलेज के दिनों में ही उन्होने हेल्महोल्टज के ग्रंथ On the Sensations of tone को अपना साथी बना लिया था। संपूर्ण जीवन रमन का संगीत से अटूट रिश्ता बना रहा तथा उन्होने अपनी वैज्ञानिक समझ से वाद्य यंत्रों के विज्ञान को समझा।

विवाह के बाद आचार्य रमन कलकत्ता अपनी नौकरी एवं वैवाहिक जीवन प्रारंभ करने आ गए. अच्छी खासी नौकरी थी, वेतन भी 400 / -रूपये प्रतिमाह साथ ही विवाहित होने का भत्ता 150 / -अलग से। एक दिन नौकरी से वापिस आते हुए उन्होंने एक साइन बोर्ड देखा जिस पर लिखा था Indian Association for the Cultivation of Science जहाँ उन्हें मिले आशुतोष डे (आशु बाबू) जिन्होने उन्हे इस संस्था के सचिव अमृतलाल सिरकार से मिलाया। अमृतलाल सरकार के पिता महेन्द्र लाल सरकार के द्वारा स्थापित यह संगठन भारत का ऐसा पहला संगठन तथा जिसका उद्देश्य वैज्ञानिक शोध करना था। संगठन का काम था, विज्ञान की खेती करना, नए शोधों की फसल तैयार करना और इससे भारत को समर्थ बनाना। रमन ऐसे पहले व्यक्ति थे जिन्होने इस संगठन में शोध करने में रुचि ली। नौकरी से बचे समय में रमन वहाँ शोध करने लगे, 1917 तक रमन वहाँ लगातार शोध करते रहे। इस छोटी-सी अवधि में रमन ने नेचर, द फिलासॉफिकल मैग्जीन एवं फिजिक्स रिव्यू जैसे प्रतिष्ठित शोध गं्रथों में 30 शोध पत्र प्रकाशित किये। अपने संगीत प्रेम एवं विज्ञान की साधना को आधार बना रमन ने मुख्यतः ध्वनि विज्ञान एवं कम्पनों पर अपने शोध किए. उन्होंने बहुत से संगीत उपकरणों जैसे इकतारा, वायलिन, तम्बुरा, वीणा, मृदंग, तबला आदि का वैज्ञानिक अध्ययन किया। वायलिन पर उनका विस्तार से अध्ययन 'On the Mechanical theory of vibrations of Musical Instruments of the Violin Family with experimental verifications of the results Part-I.' के रूप में समाने आया। सहयोगी आशू बाबू जो कभी भी विश्वविद्यालय में नहीं गए थे, उनके कई शोध पत्रों में सहयोगी लेखक थे और तो और रॉयल सोसायटी ऑफ लंदन के एक शोध पत्र में तो आशू बाबू, अकेले लेखक थे। रमन ने कभी नाम और प्रसिद्धि के लिए काम नहीं किया, उन्होंने अपने सहयोगियों एवं शोध छात्रों को उनके काम का श्रेय लेने दिया। इन दस सालों में रमन का स्थानांतरण रंगून (1909) एवं नागपुर (1910) में हुआ, पर उन्होंने अपने शोध को रुकने नहीं दिया।

वायलिन पर उनके वृहद शोध ने उत्पन्न सुन्दर संगीत तथा उसकी वैज्ञानिकता पर प्रकाश डाला। उन्होने वायलिन की भौतिकी को स्पष्ट रूप से दुनिया के सामने रखा। उन्होने वायलिन की यांत्रिकीय कि वह गणितीय सम्बंध क्या है जिससे वायलिन में प्रयुक्त धनुष द्वारा लगाए गए बल एवं स्थायी कंपनों के मध्य सम्बन्ध स्पष्ट होता है। वह परिस्थितियाँ क्या हैं जिससे धनुष निरन्तर मधुर ध्वनि वायलिन से उत्पन्न करता है। वायलिन की संरचना और उत्पन्न ध्वनि का आचार्य रमन ने विस्तार से अध्ययन किया। इस शोध पत्र क द्वितीय भाग में आचार्य रमन ने यांत्रिकीय वादक की रचना कर, वास्तविक वादक की तकनीक का अध्ययन करने का प्रयास किया। वायलिन वादक की नकल कर कृत्रिम यांत्रिकीय वादक द्वारा उसी कार्य को करवाने से वायलिन से वादक द्वारा निकाली गई मधुर ध्वनि की तकनीक समझ में आई. वायलिन के धनुष द्वारा लगाया दाब, वायलिन के तारों पर धनुष की गति एवं उत्पन्न ध्वनि का कानों पर वास्तविक प्रभाव का इस प्रकार से अध्ययन से वायलिन वादक की कला की वैज्ञानिकता पता चली। कैसे वादक धनुष को पकड़े, कैसे तारों पर चलाए, टकराए, इन सब का सुमधुर प्रभाव कैसे वादक निरंतर कठिन श्रम से किए अभ्यास से प्राप्त करता है उसका विस्तार से वैज्ञानिक अध्ययन आचार्य रमन ने किया।

वायलिन के अलावा भारत के परंपरागत तारवाद्यों का आचार्य रमन ने विस्तार से अध्ययन किया। तानपुरा के चार तारों और उनके तनाव को नियंत्रित कर किस प्रकार सही स्वरमान प्राप्त किया जाता है; इस तथ्य की वैज्ञानिकता क्या है? यह रमन ने स्पष्ट की। तानपुरा की संरचना की वैज्ञानिकता एवं उससे उत्पन्न मधुर ध्वनि की वैज्ञानिकता से दुनिया को रमन ने परिचित कराया। तानपुरा जहाँ संगत के लिए प्रयुक्त होता है वहीं वीणा प्रधान वाद्ययंत्र है जिससे मूलतः मधुर धुन उत्पन्न होती है। इन दोनो तार वाद्यों में प्रयुक्त सेतुओं की रचना की वैज्ञानिकता आचार्य रमन ने विश्व में सर्वप्रथम प्रस्तुत की। इन उपकरणों में प्रयुक्त सेतु से उत्पन्न सुरों के गुणों में अंतर, ओवर टोन का उत्पन्न होना, ध्वनि विज्ञान के हेल्महोल्टज और यंग के नियम के विरूद्ध था।

रमन ने जो भी कार्य तार वाद्यों पर कार्य किया वह भविष्य की पीढी़ आगे नहीं बढ़ा पाई. आज आधुनिक उपकरण है प्रौद्योगिकी है फिर भी रमन के कार्य को आगे बढ़ाने वाला कार्य विज्ञान में नहीं हुआ। अभी भी यह क्षेत्र शोध की संभावनाओं से भरा है।

तारवाद्यों के अलावा रमन ने ताल वाद्यों के विज्ञान पर भी बहुत कार्य किया। भारत में प्राचीन काल से प्रयुक्त हो रहे ताल वाद्यों जो कि मुख्यतः तार वादयों के साथ संगत करने में प्रयुक्त होते थे उनकी संरचना, उनके विकास, उनकी विशेषता की किस प्रकार एक वृत्ताकार ढोल अपने पर पड़ने वाली थाप से निकलने वाली बेसुरी आवाजों को लयबद्ध सुरों में बदल देता है। उन्होने अजंता की गुफाओं में चित्रित आदि काल से प्रयुक्त तालवाद्य मृदंग के अध्ययन से प्रारंभ किया। उन्होने अपने शोध में पाया कि इस वा वाद्य में एक विशेषता है जिससे कि वह विभिन्न प्रतिरूपों के कंपनों में मुक्त रूप से कंपन कर सकता है, पर इन कंपनों की आवृत्तियाँ समान होती हैं जिनका अध्यारोपण होता है। कंपनों की इन आवृत्तियों के अध्यारोपण से उत्पन्न कुछ तरंग प्रतिरूप, तनी हुई डोरी में उत्पन्न कंपनी के प्रतिरूप से मेल खाते हैं। मृदंग की इस विशेषता के विज्ञान पर प्रकाश डालने वाले रमन प्रथम व्यक्ति थे। मृदंग की संरचना का विस्तार से वैज्ञानिक अध्ययन आचार्य रमन ने किया। दो पार्श्व वाले इस वाद्य यंत्र को, जिसे दोनो हाथों से बजाया जाता है कि बनावट में वह खूबी होती है कि उससे निकलने वाली आवाज, कानों को सुमधुर मालूम पड़ती है। मृदंग कि बनावट दो शंकु रूपी फूलदान जिन्हे उनके आधारों के सहारे चिपकाया गया है के समान है, फिर भी कारीगर मृदंग को इतनी सान्द्रता से बनाता है कि हमें मृदंग पर हाथों की थाप मधुर जान पड़ती है। रमन ने मृदंग की संरचना का विस्तार से वैज्ञानिक अध्ययन किया।

मृदंग से समानता ढूँढते हुए, मृदंग का ही परिवर्तित रूप तबला का भी रमन ने वैज्ञानिक अध्ययन किया। मृदंग से ही उत्पन्न तबले की धुनों में बहुत ही स्पष्ट अंतर होता है। मृदंग और तबले से निकलने वाली ध्वनि के विज्ञान का आचार्य रमन ने विस्तार से अध्ययन किया एवं उनका स्पष्ट वैज्ञानिक चित्र विश्व के सम्मुख रखा। उन्होंने तनी हुई डोरी में कंपन एवं तनी हुई झिल्ली में कंपन की समानता एवं वैज्ञानिकता का अध्ययन किया।

आचार्य रमन ने भारतीयों के ध्वनि विज्ञान के ज्ञान की स्वर्णिम विरासत का विस्तार से अध्ययन किया। वैदिक काल में ऋचाओं का स्वरबद्ध उच्चारण से लेकर भारत में ताल एवं तार वाद्यों के प्राचीन ज्ञान का आचार्य रमन ने विस्तार से अध्ययन किया।

आधुनिक युग के विज्ञानियों के पास नई अत्याधुनिक प्रायौगिक तकनीक है, उपकरण है साथ ही अत्याधुनिक विश्लेषणात्मक तकनीक हैं। कम्प्यूटर है, बहुत ही सटीक साफ्टवेयर भी है जिनसे संगीत उपकरणों के ध्वनि विज्ञान का विस्तार से अध्ययन किया जा सकता है। आचार्य रमन के समय, विज्ञान इतना सक्षम नहीं था फिर भी आचार्य रमन ने संगीत के विज्ञान पर पथप्रदर्शक कार्य किया। अभी भी यह क्षेत्र संभावनाओं से भरा है, आवश्यकता है आचार्य रमन के पथ पर चलने की।

आचार्य रमन ने तेरह शोध पत्र वायलिन पर लिखे और छह शोध पत्र भारतीय संगीत उपकरणों पर, ये सभी कार्य अनमोल मोती हैं, पथ प्रदर्शक है, युवाओं को चुनौतियाँ लेकर विज्ञान के क्षेत्र में आगे बढ़ना चाहिए.

आचार्य रमन को हम नोबल पुरस्कार दिलाने वाले 'रमन प्रभाव' से पहचानते है जबकि आचार्य रमन ने संगीत के विज्ञान के साथ, विज्ञान के कई ओर विषयों पर कार्य किया। रमन ने क्वांटम यांत्रिकी, क्रिस्टल रसायनशास्त्र, जैवरसायन इत्यादि क्षेत्रों में कार्य किया। आचार्य रमन एक आदर्श शिक्षक और उत्कृष्ट वैज्ञानिक संस्थानों के निर्माणकर्ता भी थे।

आचार्य रमन ज्ञान को हासिल करने की जिद के पक्के थे, जो ठान लेते थे वह करके ही दम लेते थे। जीवन पर्यन्त वे विज्ञान की साधना में लगे रहे। वे सोचते थे कि विज्ञानी का काम केवल एकाकी होकर शोध करना नहीं उसे देश और समाज की चिन्ता करनी चाहिए, उसे नव युवाओं को शिक्षित करना चाहिए, जिन्हें वे अपनी शोध यात्रा का ध्वज सौंप सके.

अपने अंतिम दिनों में रमन, सरकार की विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के बारे में नीतियों से सहमत नहीं थे। उन्हें लगता था कि जो चल रहा है उससे इस देश को समर्थ बनाने में समय लगेगा। रमन की वैज्ञानिक तपस्या स्वःस्फूर्तः थी, उन्हे प्रेरणा अपने अंतःकरण से मिलती थी। उनकी ज्ञान यात्रा, जिज्ञासा, जुनून तथा सरलता में निहित थी। वे तथ्यों की समझ विकसित करने तथा उन्हें सरलता से समझाने पर विश्वास करते थे। उनका कहना था कि जब तक खुद करके नहीं देखोगे, विज्ञान को नहीं समझ सकते। उनका मानना था कि विज्ञान, मौलिक विचार है। कठिन श्रम एवं व्यक्तिगत प्रयास विज्ञान के क्षेत्र में आगे बढ़ने के लिए आवश्यक है। परंतु यह प्रयास अंत में सुंदर अनुभूति एवं कभी न भूलने वाला अनुभव देता है। आचार्य रमन का जीवन अत्यंत प्रेरणादायी है, आवश्यकता है कि युवा इससे प्रेरणा ले, विज्ञान के क्षेत्र में ऊचाइयाँ हासिल करें।

-0-