रमेश बत्तरा : लघुकथा की रचनात्मक धारा के प्रतीक / अशोक भाटिया

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रमेश बत्तरा उस दौर के लेखक हैं, जब लघुकथा बीसवीं सदी के आठवें दशक में, नए परिवेश के अनुरूप, अपने स्वरूप के लिए संघर्ष कर रही थी। इसकी एक पीढ़ी सदी के पूर्वार्ध से लिख रहे रावी, विष्णु प्रभाकर, हरिशंकर परसाई की वरिष्ठ त्रयी व अन्य लेखकों की थी, तो दूसरी पीढ़ी आठवें दशक में इससे जुड़े युवा लेखकों की थी। इस दूसरी पीढ़ी ने लघुकथा की अभिव्यक्ति -सामर्थ्य को उभारने के निरन्तर प्रयास किए, जिसमें रमेश बत्तरा भी अपने आलोक के साथ सक्रिय रहे। सत्तर के दशक के आरम्भ में ही लघुकथा की आँधी और शोरगुल शुरू हो चुका था। इसके बीच रमेश बत्तरा बड़ी गंभीरता और जिम्मेवारी के साथ लघुकथा के रचनात्मक पक्ष को मजबूती देने में जी जान से जुटे हुए थे। इसका एक प्रमाण उनके द्वारा अगस्त 1973 में 'तारिका' (अम्बाला छावनी) और जून 1974 में 'साहित्य निर्झर' (चंडीगढ़) के लघुकथांकों का संपादन रहा है। उनकी कलम भी इसी अवधि में लघुकथा-सृजन की ओर प्रवृत्त हुई। उनकी पहली लघुकथा 'सिर्फ एक ?' कैथल (हरियाणा) की पत्रिका 'दीपशिखा' के मई 1973 अंक (सं. स्वर्ण दीपिका, कृष्ण अरोड़ा) में प्रकाशित हुई थी। इससे पहले वे कुछ कहानियाँ लिख चुके थे। उनका उपन्यास 'पिघलते मोम का दर्द' सन् 1972-73 में तत्कालीन प्रमुख समाचार-पत्र 'दैनिक मिलाप' (जालंधर) के अंकों में धारावाहिक छप रहा था, जिसके साहित्य संपादक सिमर सदोष थे, जिसे उन्होंने 2018 में पंकस अकादमी के अपने समारोह में जालंधर में मुझे दिखाया था। इस प्रकार रमेश बत्तरा एक मुकम्मल कथाकार थे। उनके तीन कहानी संग्रह 'नंग-मनंग', 'पीढ़ियों का खून' और 'फाटक' तो आए, लेकिन न तो उपन्यास पुस्तकाकार छपा, न ही लघुकथा-संग्रह महेश दर्पण ने 'कथादेश' में एक टिप्पणी में लिखा है कि वे 'सवाल- दर सवाल' नाम से अपना लघुकथा संग्रह छपवाना चाहते थे।

रमेश बत्तरा की उपलब्ध लगभग पच्चीस लघुकथाओं में से कुछ दो या तीन नामों से मिलती हैं, तो कुछ के दो रूप भी मिलते हैं। वे स्वयं अपनी लघुकथाओं 'के नाम बदलते रहते थे। 'शीशा' लघुकथा दो अन्य नामों से भी मिलती हैं। पहले यह रचना 14 मई, 1973 अंक में 'दैनिक मिलाप' जालंधर के 'हिप्पी अंक' में 'हिप्पियाना' नाम से मिलती है, फिर 'ज़रूरत' नाम से भी प्राप्त होती है। लेकिन 'समग्र' (दिल्ली, 1978) के लघुकथांक में रमेश बत्तरा के परिचय में जिन दस लघुकथाओं का उल्लेख हुआ है, उसमें यह रचना 'शीशा' नाम से मिलती है और बाद में अनेक संकलनों में इसी नाम से प्रकाशित हुई है। समग्र के लघुकथांक पर चूँकि रमेश बत्तरा का सीधा प्रभाव था, अतः इस रचना का नाम 'शीशा' उनकी सहमति से ही रहा होगा।

इसी प्रकार उनकी 'सरकारी काम' लघुकथा 'कैथल दर्पण' के नवंबर 1978 अंक में प्रकाशित हुई। इसके बाद 'सारिका' के 16 मार्च, 1980 अंक में पृ. 25 पर दो दफ्तरी लघुकथाएँ' नाम से उनकी 'निज़ाम' और 'नौकरी' लघुकथाएँ छपीं। 'निज़ाम' लघुकथा 'सरकारी काम' रचना ही है। जया रमेश ने भी हमें यह रचना 'निज़ाम' नाम से ही उपलब्ध कराई। रमेश तब 'सारिका' में उप-संपादक थे, अतः हमने 'निज़ाम' नाम से ही इसे संकलित किया है। नाम बदलने के बावजूद उनकी किसी लघुकथा में संशोधन के कोई प्रमाण नहीं मिलते-जो उनकी वयस्क दृष्टि का प्रमाण है।

आश्चर्य है कि उनकी दो लघुकथाओं के दो-दो रूप मिलते हैं। ये है 'सिर्फ एक?', 'खोया हुआ आदमी'। लेखक शीर्षक वही, किन्तु रचना की शब्दावली, वाक्य-विन्यास में थोड़ी भिन्नता। ऐसे में, पहले छपी लघुकथा को ही मूल रचना माना जा सकता है।

आठवें दशक के पूर्वार्ध (1971-75) की लघुकथाओं को देश की संघर्षशील चेतना का मुखर स्वर कहा जा सकता है। हालांकि इस अवधि में आए - विशेषांकों (प्रयास, दोआबा पंजाब 1971 ) 'तारिका', (अम्बाला छावनी 1973), 'साहित्य निर्झर' ( चंडीगढ़ 1974), 'शब्द', (कानपुर 1975), सारिका, दिल्ली 1973, सारिका, दिल्ली 1975) और समाचार-पत्रों के लघुकथा - परिशिष्टों (दैनिक स्वदेश ग्वालियर, दैनिक मिलाप जालंधर, नवभारत इंदौर) आदि को देखकर लघुकथा की गंभीर रचनात्मक धारा उथली धारा के साथ संघर्ष करती लगती है। लेकिन इसी अवधि में रमेश बत्तरा ने (तारिका,साहित्य निर्झर के लघुकथांकों के) संपादन के साथ कुछ लघुकथाएँ लिखकर अपनी और लघुकथा की रचनात्मक शक्ति का प्रमाण दे दिया था। ये लघुकथाएँ थीं-सिर्फ एक?, शीशा, हालात, नौकरी, उसकी रोटी, खोया हुआ आदमी।

सन् 1974 में रमेश बत्तरा की 'सिर्फ एक ?' लघुकथा 'गुफाओं से मैदान की ओर' संकलन में प्रकाशित हुई थी। इस समय वे उपन्यास, कहानी और लघुकथा – तीनों कथा- विधाओं में सक्रिय रूप से लिख रहे थे। उनकी उपलब्ध - लघुकथाओं में से लगभग आधी 1978 तक लिखी जा चुकी थीं। 1978 में ऐतिहासिक महत्त्व के लघुकथांक 'समग्र' में रमेश बत्तरा के परिचय में उनकी दस लघुकथाओं का उल्लेख है सिर्फ एक ?, हालात, नौकरी, अहिंसक, उसकी रोटी, मांएं और बच्चे, संदर्भ, शीशा, कर्मक्षेत्र, अनुभवी । इन दस में से 'अहिंसक और 'कार्यक्षेत्र' उपलब्ध नहीं हुई। इसके अलावा उनकी 'कहूँ कहानी' और 'खोज' लघुकथाएँ भी इसी अंक में शामिल हैं। रमेश सन् 1978 में 'सारिका' (दिल्ली) में उप-संपादक हुए, तो पत्रिका में लघुकथाओं को समुचित महत्त्व के साथ छापा जाने लगा था। 10 - दरियागंज स्थित दफ्तर में नए-पुराने बहुत-से लेखक इनके पास रचनाएँ लेकर आने लगे थे। रमेश आवश्यकतानुसार किसी का शीर्षक, आरम्भ या अंत बदल / बदलवाकर और रचना छापकर उन्हें उत्साहित करते थे। 16 अप्रैल, 1985 में 'सारिका' में छपी मेरी लघुकथा 'दिल की बात' का शीर्षक उन्हीं का दिया है। चाय आने पर वे सामने बैठे और लघुकथा पढ़ी, फिर शीर्षक बदलते हुए मेरी तरफ गहरी मुस्कराती आँखों से देखा । आगामी अंक में वह छप भी गई। रमेश बत्तरा ने लेखकों की पूरी एक पीढ़ी को उत्साहित किया, दिशा दिखाई।

सन् 1980-81 के दौरान रमेश बत्तरा की लघुकथाएँ नई ऊँचाइयों पर पहुँचने का सफल प्रयास करती हैं। इनमें सूअर, लड़ाई, नागरिक, बीच बाजार प्रमुख हैं। इनमें तत्कालीन सामाजिक-राजनीतिक यथार्थ की धड़कन सुनी जा सकती है। यह वह दौर था, जब लघुकथा अपनी साहित्यिक गरिमा और कलात्मक आयामों के प्रति सजग हो रही थी। रमेश की उपरोक्त लघुकथाएँ इन पक्षों का समुचित प्रतिनिधित्व करती हैं। इसी समय आए विशेषांकों (समग्र- 1978 नवतारा-1979, वर्ष वैभव - 1980, कथाबिंब - 1981) में भी इन पक्षों का उभार देखा जा सकता है।

इसी अवधि में नवलेखकों को लघुकथा-क्षेत्र में आने छाने वाले खतरों से वे अपनी टिप्पणियों/आलेखों के ज़रिए आगाह करने लगे थे। 'तारिका' (अगस्त 1973) का उनके द्वारा संपादित अंक तो उपलब्ध नहीं हो पाया, किन्तु 'साहित्य निर्झर' (जून 1974) की अपनी संपादकीय टिप्पणी 'लघुकथा नहीं ' के प्रारंभ में ही वे लिखते हैं-"आज जबकि कहानी, कविता/निबन्ध/नाटक आदि विधाओं के साथ एक पाँव होकर नित नये आयाम स्थापित कर रही है और इनकी पारस्परिकता इतनी विशाल तथा प्रगाढ़ हो सकती है कि इन विधाओं के तत्व एक-दूसरी विधा में बाखूबी शामिल होते जा रहे हैं, तो लघुकथा का स्वरूप निर्धारण करने से पहले यह सोच लेना ज़रूरी है कि कुछ नया करने के चाव में कहीं कोई गलत शुरूआत तो नहीं की जा रही। और कि कुछ नया करने के पीछे महज़ कुछ नया करने के बहाने महान बनने की भावना काम कर रही है या सचमुच कुछ ऐसा है, जो अब तक की साहित्यिक यात्रा में उपेक्षित रह गया था और अब उसका जीर्णोद्धार किया ही जाना चाहिए।" और रमेश बत्तरा के सामाजिक - साहित्यिक सरोकार व दायित्व को देखना ही हो तो उनके आगामी आलेखों के केवल शीर्षक देख लें-

1984 - लघुकथा : किसलिए और क्यों?

1984 - लघुकथा : संवेदना का गहन सूत्र

1986- लघुकथा की साहित्यिक पृष्ठभूमि, संदर्भ और सरोकार

1989 - लघुकथा : बारीकी, सलीका और करीना

अन्तिम आलेख से एक उदाहरण देना पर्याप्त होगा। सन् 1987 में मैंने अपने 'लघुकथा और शास्त्रीय सवाल' आलेख में लघुकथा को व्यर्थ के शास्त्रीय बंधनों में बाँधने पर सवाल उठाए थे। रमेश बत्तरा ने अपने इस आलेख में मानो इसी तथ्य को अधिक तर्कपूर्ण और व्यापक परिप्रेक्ष्य प्रदान करते हुए अपने नए लेखकों को दिशा दिखाई। एक उदाहरण देखें- “आज जबकि कहानी, उपन्यास, नाटक, कविता, निबन्ध, संस्मरण, रिपोर्ताज यहाँ तक कि आत्मकथा तक भी विधा के बन्धनों को दूर से ही सलाम करते हुए रचनात्मकता के नए आयाम खोज रहे हैं, लघुकथा को विधि में डालकर उसकी शास्त्रीय व्याख्याएँ करते रहना उतना ही गैर ज़रूरी है, जितना कि अपने पाँव पर खुद ही कुल्हाड़ी मारना।"

रमेश बत्तरा की लघुकथाएँ पढ़ने पर उनकी चिंताओं और सरोकारों की तीन मुख्य दिशाएँ पता चलती हैं। सन् अस्सी के दशक में देश सांप्रदायिक हिंसा,घृणा और आतंक की चपेट में रहा है। रमेश बत्तरा की 'सूअर', 'दुआ', 'वजह', 'राम-रहमान', आदि लघुकथाएँ उसी परिवेश की उपज हैं। मस्जिद में 'सूअर' नहीं, वास्तव में मनुष्य के मन में संकीर्णता और घृणा घुस आई है, जिसे निकालने की ज़रूरत है।

धर्म का बाहरी आवरण किस कदर खोखला है, इसे 'राम-रहमान' में बखूबी दिखाया गया है। अंतिम पंक्ति देखें- “रामदीन होने से ही मैं हिंदू हूँ तो मैं रहमान हो जाता हूँ।" धर्म का मज़हबी रूप संकीर्ण होता है, जिससे हिंसा घृणा की खूनी नदियाँ निकलती हैं- 'वजह' लघुकथा इसी ओर संकेत करती है। इसका कलात्मक अन्त लघुकथा की अभिव्यक्ति सामर्थ्य का द्योतक है। एक हिंदू और मुसलमान सद्भावनापूर्ण वातावरण में बतियाते हुए खुदा और भगवान को लेकर तंगदिली पर उतर आते है। रचना अंत में सन्देश दे जाती है। देखिए-

" नहीं भगवान... नहीं खुदा!... न खुदा...न भगवान...न भगवान... न खुदा!...खुदा न भगवान... भगवान न खुदा... खुदा न भगवान न भगवान न खुदा न खुदा न भगवान...! "

सांप्रदायिक समस्या पर केंद्रित ये लघुकथाएँ जहाँ लेखकीय विचारधारा से प्रेरित - संचालित हैं, वहीं आर्थिक अभावों पर केंद्रित इनकी लघुकथाएँ संवेदना की गहराइयों से लिखी गई हैं। इनमें 'माँएँ और बच्चे', 'हालात', 'खोज', 'अनुभवी' जैसी रचनाएँ आती हैं। 'हालात' लघुकथा प्रचण्ड की चर्चित लघुकथा 'अन्तर' का स्मरण करा देती है। 'अन्तर' का अन्त देखें- “उसकी किस्मत अच्च्छी थी बाबू साहिब जो ज़हर खाकर मेरा । हमारा कलुवा तो बेचारा भूख ही मर गिया । " संवाद शैली की 'हालात' को इसके पहले चरण की रचना मान सकते है। 'हालात' के अंतिम दो संवाद देखें-

- समझ में नहीं आता क्या किया जाये, सुबह के लिए मुट्ठी भर अनाज भी नहीं है।

- खुशनसीब हो यार, मैंने तो आज भी कुछ नहीं खाया।

रमेश बत्तरा की 'अनुभवी' हर लिहाज़ से एक भरी-पूरी लघुकथा है। इस रचना की संरचना का सूक्ष्म अध्ययन करने पर पता चलता है कि कथ्य के अनुरूप परिवेश किस प्रकार निर्मित किया जाना चाहिए, जो इसे लघुकथा का अधिक विश्वसनीय और प्रभावशाली बना दे । रमेश बत्तरा बया की तरह महीन कथा बुनने में सिद्धहस्त थे।

एक भिखारी को, माँगने पर फटकार मिलना, किसी लड़के को भीख माँगते देखना, तो अपने बेटे को माँगने पर प्रेरित करना, फिर बेटे द्वारा एक बाबू के सवालों के जवाब देते हुए रचना को चरम पर ले जाने की कला देखते ही बनती है। ज़रा देखें-

"इस उम्र में भीख माँगता है?"

"वह क्या होती है?

"तेरे माँ-बाप कहाँ हैं?"

"माँ बीमार है।"

"और बाप?"

"बाप?" बेटे ने उसकी ओर एक उड़ती नज़र डालकर उसे नजरअन्दाज कर दिया - " बाप मर गया है बाबू साब!"

अंतिम द्वयर्थक वाक्य पाठक को स्तब्ध कर देता है। जो बाप अपनी संतान को रोटी तक नहीं दे सकता, उसके लिए वह मर गए के बराबर है। इसके गहन अर्थ के बरक्स 'खोज', 'संदर्भ' लघुकथाओं को देखें जिनके निहितार्थ उसका सौंदर्य बढ़ाते हैं। 'उसकी रोटी' में भूखे लड़के का प्रतिरोध पाठक को याद रहता है, तो ‘अंधे खुदा के बंदे' में भी एक दृष्टि-बाधित व्यक्ति का स्वाभिमान और प्रतिरोध रचना को भी नई ऊँचाई दे जाता है-

"मुझे अंधा समझकर मुझ पर दया मत कीजिए, मुझे अपने लायक बनने दीजिए, अंधा हो चुका, मोहताज नहीं होना चाहता । "

प्रशासन-क्षेत्र में रमेश बत्तरा की तीन उल्लेखनीय लघुकथाएँ हैं - नागरिक, निज़ाम, नौकरी। नागरिकता बोध से सम्पन्न व्यक्ति चाहकर भी देश में अपना दायित्व नहीं निभा पाता-कारण है निकम्मी पुलिस व प्रशासन । छुरेबाजी की रपट लिखवाने को थाने पहुँचे एक नागरिक को ही पुलिस 'खून-खराबा करने के आरोप में धर दबोचती है।

दफ्तरी जीवन की खींचतान, चालबाजियाँ देखनी हों तो 'निज़ाम' और 'नौकरी' में बड़ी जीवन्तता व रोचकता से इसे उकेरा गया है।

कुछ और रचनाओं का ज़िक्र करते हैं। आम जीवन की बात कहते हुए लेखक उसे कैसे सटीक और रचनात्मक बना देता है इसे रमेश बत्तरा की - बाल मनोविज्ञान की लघुकथा 'नई जानकारी' पढ़कर जान सकते हैं। अपने देश के लोगों की खूबियाँ ही देश को विशेष बनाती हैं - इसे 'सिर्फ हिन्दुस्तान में ' लघुकथा चुपके से कह जाती है। 'बीच बाजार' लघुकथा मध्यवर्गीय स्त्रियों के नैतिकता व ऐश्वर्य के द्वन्द्व और आर्थिक आकर्षण की मानसिकता का ऐसा जीवन्त दस्तावेज़ बन गई है कि अन्त में पाठक हतप्रभ रह जाता है। लक्ष्मी का कैबरे डांस होने पर उसकी माँ विद्या को मोहल्ले की स्त्रियाँ खूब खरी-खरी सुनाती हैं कि बेटी को होटल की थाली में परोस दिया। किंतु विद्या का आर्थिक रूप से सम्पन्न हो जाने का पक्ष सुन, वे अपना रंग बदलती हैं। खूब पूछताछ करती हैं। अंतिम पंक्तियाँ हैं-" लड़कियाँ दफ्तरों में भी तो काम करती हैं, होटल में कौन हौआ बैठा है। खुद अच्छे तो भगवान भी अच्छा... तेरे तो ठाठ हो रहे होंगे आजकल । जरा हमें भी तो बता न?... और हाँ, तेरी लाडली सरोज कह रही थी. मौसी से कहो न, मुझे भी सिखवा दे न कैबरे...।"

यह निस्संकोच कहा जा सकता है कि रमेश बत्तरा ने समाज और साहित्य के बाद स्वयं को हमेशा तीसरे स्थान पर रखा। लघुकथा के सामाजिक और साहित्यिक हस्तक्षेप को बढ़ाने में रमेश बत्तरा की महत्त्वपूर्ण और ऐतिहासिक भूमिका रही है।