रवि बुले की ‘आखेट’और विलुप्त जंगल / जयप्रकाश चौकसे

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
रवि बुले की ‘आखेट’और विलुप्त जंगल
प्रकाशन तिथि : 26 फरवरी 2021


फ़िल्मकार रवि बुले की फिल्म ‘आखेट’ ओटीटी पर हाल ही में प्रदर्शित हुई है। फिल्म की शूटिंग बेतला, झारखंड में की गई है। कथासार यह है कि झारखंड में शेर नहीं बचे हैं परंतु वहां के लोग जंगल में शेर होने का भरम बनाए रखते हैं ताकि पर्यटक और शिकारी वहां आते रहें और उनकी रोजी-रोटी चलती रहे। आर्थिक तंगी सारे नैतिक मूल्यों और मान्यताओं को भंग कर देती है। ज्ञातव्य है कि राजेंद्र सिंह बेदी के महान उपन्यास ‘एक चादर मैली सी’ में भी यही बात अभिव्यक्त की गई थी और इससे प्रेरित फिल्म भी बनी थी। साहित्य की एक कथा में यह अभिव्यक्त किया गया कि प्रेम करने वाले पति-पत्नी के बीच आर्थिक तंगी एक तीसरे व्यक्ति की तरह प्रवेश कर जाती है और उनकी अंतरंगता समाप्त हो जाती है। व्यवस्था आर्थिक तंगी बनाए रखती है क्योंकि नैतिकता विहीन अवाम उनका वोट बैंक है।

खाकसार, आरके नैय्यर और उनका कैमरामैन छत्तीसगढ़ में एक फिल्म बनाना चाहते थे। वहां की जनजातियों की प्रथाएं और परंपरा को एक अफसाने के रूप में फ़िल्मकार महानगरों में दिखाना चाहते थे। गुलशेर शानी का साहित्य हमारा प्रेरणा स्रोत था। छत्तीसगढ़ की जनजातियों में घोटुल प्रथा है। नौजवान सल्फी पीते हैं और नृत्य करते हैं। इस दौरान अंतरंगता भी पनपती है। सभी गैरों का प्रवेश इसमें प्रतिबंधित है। खाकसार को एक टूरिस्ट गाइड ने कहा कि 5 हजार देने पर वह हमें एक स्थान पर छिपाकर बैठा सकता है ताकि हम घोटुल देख सकें। हमने आधुनिक कैमरे से घोटुल की शूटिंग छुपकर की। फिर फिल्म को बड़े परदे पर देखा तो लगा कि घोटुल में जनजाति की कन्याएं लिपस्टिक लगाए हुए हैं। पता चला कि इस तरह का प्रदर्शन प्रायोजित है और पर्यटक से धन लूटने का एक साधन मात्र है। हमने जंगल ही समाप्त कर दिए हैं और नदियां प्रदूषित कर दी हैं। अत: जानवरों और पक्षियों की कई प्रजातियां समाप्त हो चुकी हैं।

फ़िल्मकार रवि बुले की फिल्म ‘आखेट’ में नेपाल सिंह नामक शहरी अफसर अपनी रोज की जिंदगी से ऊबकर शेर का शिकार करने जंगल जाता है। आशुतोष पाठक ने यह भूमिका अभिनीत की है। जंगल के गेस्ट हाउस में वह रहता है।

नरोत्तम बेन द्वारा अभिनीत पात्र मुर्शिद उसका गाइड है। मुर्शिद के पागल भाई की पत्नी का पात्र तनीमा भट्टाचार्य ने अभिनीत किया है। यह पात्र ही शहरी शिकारी के साथ सप्रयास अंतरंगता स्थापित करती है। उसका यह कार्य धन पाने के लिए किया गया है। ऐसे प्रायोजन आर्थिक तंगी के कारण किए जाते हैं। इसमें भावना का कोई स्थान नहीं है। शहर में हम इसे तवायफाना कह सकते हैं।

तवायफ या कॉल गर्ल कहते ही हमें गुरु दत्त की ‘प्यासा’ याद आती है। वहीदा रहमान ने कितनी नज़ाकत और मर्यादा को बचाए रखकर यह पात्र अभिनीत किया है। गीत ‘जाने क्या तूने कही’ में न्यूनतम साजिंदों का प्रयोग किया गया है। इसी महान फिल्म का दूसरा गीत भी स्मृति के बादलों में बिजली की तरह चमकता है, ‘कहां हैं कहां हैं मुहाफिज खुदी के, जिन्हें नाज़ है हिंद पर,वो कहां हैं, ज़रा मुल्क के रहबरों को बुलाओ ये कूचे, ये गलियां, ये मंजर दिखाओ...’

बहरहाल ‘आखेट’ के अंत में खुद से पशेमान शहरी शिकारी शहर वापस लौटना चाहता है। बस में मुर्शिद उसे शेर की नकली खाल देता है। निवेदन करता है कि शहर पहुंचकर वह जंगल में शेर के होने की बात प्रचारित करे ताकि पर्यटक आते रहें और गांव के लोगों को जीवन-यापन के साधन मिलते रहें।

शहरों के बड़े मकानों के फर्श पर शेर की खाल बिछी होती है, दीवारों पर बारहसिंगे का सिर मड़ा होता है। शायद किसी दिन इनमें प्राण लौटें और पूछें कि जंगल कहां गए और पृथ्वी को किसने लूटा? पार्श्व में गीत बजे, कहां हैं कहां हैं जिन्हें नाज़ है हिंद पर...आज तो मतदाता हांका लगाता है और व्यवस्था आखेट करती है।