रसात्मक बोध / रस मीमांसा / रामचन्द्र शुक्ल

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रस
रसात्मक बोध / रस मीमांसा / रामचन्द्र शुक्ल

ज्ञानेंद्रियों से समन्वित मनुष्य जाति जगत् नामक अपार और अगाध रूपसमुद्र में छोड़ दी गई है। न जाने कब से वह इसमें बहती चली आ रही है। इसी की रूपतरंगों से ही उसकी कल्पना का निर्माण और इसी की रूपगति से उसके भीतर विविध भावों या मनोविकारों का विधान हुआ है। सौंदर्य, माधुर्य, विचित्रता, भीषणता, क्रूरता इत्यादि की भावनाएँ बाहरी रूपों और व्यापारों से ही निष्पन्न हुई हैं। हमारे प्रेम, भय, आश्चर्य, क्रोध, करुणा इत्यादि भावों की प्रतिष्ठा करनेवाले मूल आलम्बन बाहर ही के हैं-इसी चारों ओर फैले हुए रूपात्मक जगत् के ही हैं। जब हमारी ऑंखें देखने में प्रवृत्त रहती हैं तब रूप हमारे बाहर प्रतीत होते हैं; जब हमारी वृत्ति अंतर्मुख होती है तब हमारे भीतर दिखाई पड़ते हैं। बाहर भीतर दोनों ओर रहते हैं रूप ही। सुंदर, मधुर, भीषण या क्रूर लगनेवाले रूपों या व्यापारों से भिन्न सौंदर्य, माधुर्य, भीषणता या क्रूरता कोई पदार्थ नहीं। सौंदर्य की भावना जगना, सुंदर-सुंदर वस्तुओं या व्यापारों का मन में आना ही है। इसी प्रकार मनोवृत्तियों या भावों की सुंदरता, भीषणता आदि की भावना भी रूप होकर मन में उठती है। किसी की दयाशीलता या क्रूरता की भावना करते समय दया या क्रूरता के किसी विशेष व्यापार या दृश्य का मानसिक चित्र ही मन में रहता है, जिसके अनुसार भावना तीव्र या मंद होती है। तात्पर्य यह कि मानसिक रूपविधान का नाम ही संभावना या कल्पना है।

मन के भीतर यह रूपविधान दो तरह का होता है। या तो यह कभी प्रत्यक्ष देखी हुई वस्तुओं का ज्यों-का-त्यों प्रतिबिम्ब होता है अथवा प्रत्यक्ष देखे हुए पदार्थों के रूप, रंग, गति आदि के आधार पर खड़ा किया हुआ नया वस्तु व्यापार विधान। प्रथम प्रकार की आभ्यंतर रूपप्रतीति स्मृति कहलाती है और द्वितीय प्रकार की रूपयोजना या मूर्तिविधान को कल्पना कहते हैं। कहने की आवश्यकता नहीं कि इन दोनों प्रकार के भीतरी रूपविधानों के मूल हैं प्रत्यक्ष अनुभव किए हुए बाहरी रूपविधान । अत: रूपविधान तीन प्रकार के हुए- 1. प्रत्यक्ष रूपविधान

2. स्मृत रूपविधान और

3. संभावित या कल्पित रूपविधान ।

इन तीनों प्रकार के रूपविधानों में भावों को इस रूप में जागरित करने की शक्ति होती है कि वे रसकोटि में आ सकें; यही हमारा पक्ष है। संभावित या कल्पित रूपविधान द्वारा जागरित मार्मिक अनुभूति तो सर्वत्र काव्यानुभूति या रसानुभूति मानी जाती है। प्रत्यक्ष या स्मरण द्वारा जागरित वास्तविक अनुभूति भी विशेष दशाओं में रसानुभूति की कोटि में आ सकती है, यहाँ पर हमें यही दिखाना है।