रस्सी / चार्ल्स बॉद्लेयर

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चार्ल्स बॉद्लेयर (1821-67) को लोग एक ऐसे आलोचक के रूप में ही जानते आये हैं, जिसने फ्रेंच काव्य को नया रास्ता दिखाया और बुनियादी किस्म की आधुनिक संवेदना पैदा की। पर उसने सौ के करीब ऐसी रचनाएँ भी दी हैं, जिन्हें कहानियाँ कहा जा सकता है। ये कहानियाँ जहाँ महानगर में बसी आत्मा को नंगा करती हैं, वहीं महानगर की आत्मा को भी नंगा करती हैं।

भ्रान्तियाँ (मेरा दोस्त कह रहा था) उतनी ही अनगिनत हैं, जितने कि लोगों के आपसी रिश्ते-या लोगों और चीजों के बीच के रिश्ते। और जब कोई भ्रम टूट जाता है-या यों कह लीजिए, जब हम व्यक्ति या तथ्य को वैसे देखते हैं, जैसे वह हमसे अलग (यानी बाहर) होता है - तब हमें एक अजीब ही अनुभूति होती है, जिसमें कुछ तो खत्म होनेवाले ‘प्रेत’ का अफसोस मिला होता है, और कुछ नये और वास्तविक तथ्य के पूर्व का आश्चर्य। अगर कोई ऐसी चीज है, जो स्पष्ट है, एकदम सामान्य है, हमेशा एक-सी रहने वाली है, और ऐसी है, जिसकी गलत व्याख्या की ही नहीं जा सकती, तो वह है माँ का प्यार। प्यार के बगैर किसी भी माँ की कल्पना ठीक वैसे ही होगी, जैसे गरमी के बगैर आग की लपट की। इसलिए बच्चे से सम्बन्धित माँ की सभी बातों और कार्यों को वात्सल्य मान लेना ही क्या उचित नहीं होगा? फिर भी, मैं तुम्हें एक छोटी-सी कहानी सुनाता हूँ, जिसकी भ्रान्ति स्वाभाविक ही नहीं थी, उसने मुझे रहस्यमय अनुभूति से भी भर दिया था।

चित्रकार होने के कारण मैं राह चलते चेहरों और उनपर आनेवाले भावों को ध्यान से देखता रहता हूँ : तुम तो जानते ही हो कि हम चित्रकार इस मामले में बड़े खुशनसीब होते हैं कि हमारी नजर सामान्य लोगों की अपेक्षा कहीं अधिक गहराई और अर्थ जिन्दगी में देख पाती है। जहाँ मैं रहता हूँ, वह इलाका शहर से दूर है। घास से भरे जमीन के टुकड़े वहाँ मकानों को एक-दूसरे से अलग रखते हैं : वहीं मैं अक्सर एक लड़के को देखा करता था, जिसकी चुभती मुखमुद्रा मुझे शुरू से ही बड़ी लुभावनी लगती थी, वह कई बार मेरा मॉडल बना : कभी मैं उसे खानाबदोश बना देता, कभी देवदूत और कभी कामदेव। मैंने उसे आवारा की बाँसुरी, काँटों का ताज और क्रॉस की कीलें तथा प्रेम की मशाल उठाने-सहने को भी मजबूर किया। आखिरकार उस लड़के ने इस कदर मुझे जीत लिया कि एक दिन मैंने उसके गरीब माँ-बाप से उसे माँग लिया और वादा किया कि मैं उसे वस्त्र दूँगा, कुछ पैसा दूँगा और ब्रश साफ करवाने और कुछ दूसरे कामों के अलावा उसे और कुछ करने को नहीं कहूँगा। एक बार साफ-सुथरा हो जाने के बाद लड़का काफी निखर उठा और जो जिन्दगी मेरे साथ वह बिता रहा था, वह उसे उस जिन्दगी के मुकाबले में स्वर्ग से भी बढ़कर लगने लगी, जो उसे माँ-बाप के साथ रहते हुए बितानी पड़ती। बहरहाल, ईमानदारी से कहूँ, तो मुझे यह भी बताना पड़ेगा कि वह लड़का कभी-कभी अपने उदासी के दौरों से मुझे परेशान भी कर देता था, और जल्दी ही मुझे लगने लगा कि वह चीनी और तीखे पेय बेहद पसन्द करता है। बात यहाँ तक जा पहुँची कि वह इन चीजों को चुराने भी लगा। मैंने उसे कई बार चेतावनी दी थी। एक दिन उसने फिर वैसा ही किया, तो मैंने उसे धमकाया कि मैं उसे वापस उसके माँ-बाप के पास भेज दूँगा। उसके बाद मैं घर से बाहर चला गया और काम की वजह से मुझे काफी समय तक बाहर ही रहना पड़ा।

अब तुम मेरे त्रास और विवेकहीनता की कल्पना करो कि जब मैं लौटकर घर आया, तो जिस चीज पर मेरी नजर पड़ी, वह वही मेरा नन्हा दोस्त था-मेरी जिन्दगी का शानदार साथी - और वह भीतर के कमरे के दरवाजे में लटका हुआ था। उसके पाँव करीब-करीब जमीन छू रहे थे। एक कुर्सी, जिसे उसने अपने नीचे से ठोकर मारकर हटाया होगा, पास ही उलटी पड़ी थी। उसका मुड़ा हुआ सिर उसके एक कन्धे पर टिका हुआ था। उसके फूले हुए चेहरे और पूरी खुली, घूरती हुई आँखों ने पहले तो मुझे जिन्दगी का भ्रम करा दिया। उसे नीचे उतारना उतना आसान नहीं था, जितना तुम सोच रहे होगे, वह काफी अकड़ चुका था और इस खयाल मात्र से ही मुझे झुरझुरी हो आयी कि वह अचानक जमीन पर गिर पड़ेगा। मैंने अपनी एक बाँह पर उसके शरीर को टिकाये रखा, जबकि दूसरे हाथ से मैंने रस्सी को काट डाला। पर, जब वह भी हो गया, तब भी मामला सुलझा नहीं। उस नन्हे शैतान ने बेहद पतली डोरी का इस्तेमाल किया था, जो भीतर तक काटती चली गयी थी। और अब गरदन को आजाद करने के लिए फूले हुए मांस के दो छल्लों के बीच मुझे कैंची भी चलानी पड़ी।

मैं तुम्हें यह बताना भूल गया कि मैंने लोगों को तुरन्त मदद के लिए बुलाया था, लेकिन मेरे सभी पड़ोसियों ने आने से इनकार कर दिया, क्योंकि सभ्य लोगों में यही रिवाज भी है। वे, मैं नहीं जानता क्यों, फाँसी लगाकर मरे लोगों के मामले से खुद को किसी भी तरह सम्बद्ध नहीं होने देते। आखिर एक डॉक्टर आया। उसने बताया कि लड़का कई घण्टे पहले मर चुका था। बाद में, उसे दफनाने को तैयार करने के लिए जब हमें उसे नंगा करना पड़ा, तो उसका शव इतना कड़ा पड़ चुका था कि उसके अंगों को मोड़ने के हमारे भी सभी प्रयास असफल रहे और उसके कपड़ों को काट-फाड़कर उतारना पड़ा।

पुलिस इंस्पेक्टर ने - जिसे मैंने ही पूरी दुर्घटना का ब्यौरा दिया था - मेरी ओर बड़ी अजीब-सी नजर से देखा और बोला, “मुझे तो कुछ दाल में काला नजर आता है।” निस्सन्देह उसकी इस बात के पीछे वही तीव्र इच्छा और हमेशा की आदत रही होगी कि सामनेवाले दोषी को किसी तरह डराकर कुछ उगलवा लिया जाए।

अब एक आखिरी काम और करना बाकी था और उसके खयाल मात्र से ही मुझे बेहद कष्ट हो रहा था : माँ-बाप को भी सूचना दी जानी थी। मेरी टाँगों ने मुझे उन तक ले जाने से इनकार कर दिया। आखिरकार मैंने अपने भीतर काफी साहस पैदा कर लिया। लेकिन मैं यह देखकर हैरान रह गया कि माँ ने किसी तरह की भावुकता का प्रदर्शन नहीं किया। उसकी आँख की कोर से एक बूँद आँसू तक नहीं टपका। मैंने सोचा कि इसका कारण शायद वह त्रास है, जिसे वह अनुभव कर रही है और मुझे पुरानी कहावत याद आ गयी-‘सबसे बड़े कष्ट चुपचाप सहे जाते हैं।’ जहाँ तक पिता का सम्बन्ध है, उसने तो आधे होश, आधी बेहोशी में कहा, “हाँ, मुमकिन है, यही ठीक हो। और फिर उसे तो बुरी मौत मरना ही था एक-न-एक दिन।”

इस दौरान शव मेरे काउच पर पड़ा रहा। एक नौकरानी मेरी मदद कर रही थी और मैं अन्तिम संस्कार का सामान जुटा रहा था। तभी लड़के की माँ मेरे स्टूडियो में आयी। उसने कहा कि वह अपने बेटे का शव देखना चाहती है। मैं इनकार नहीं कर सका। बाद में उसने मुझसे गुजारिश की कि मैं उसे वह स्थान दिखाऊँ, जहाँ लड़के ने अपने आपको फाँसी पर लटकाया था। “उफ! नहीं,” मैंने उत्तर दिया, “यह ठीक नहीं होगा।” और ज्यों ही मेरी आँखें अपने आप ही क्रूर भीतरी कमरे की ओर घूम गयीं, तो मैंने निराशा, भय और गुस्से के मिले-जुले भाव से देखा कि कील दरवाजे के ऊपरी भाग पर ठुकी ही रह गयी थी और उस पर अब भी रस्सी का एक टुकड़ा झूल रहा था। उन दुर्घटना के अन्तिम अवशेषों को भी उखाड़ फेंकने के खयाल से मैं उधर की ओर तेजी से लपका और उन्हें खिड़की के बाहर फेंकने ही वाला था कि उस गरीब औरत ने मेरी बाँह पकड़ ली और बड़ी दीन-हीन आवाज में बोली, “श्रीमान! ये मुझे दे दीजिए! मैं आपसे भीख माँगती हूँ! मैं आपसे गुजारिश करती हूँ!” मैंने सोचा, निराशा ने शायद उसे इतना ग्रस लिया था कि उसका सारा वात्सल्य अब उस चीज पर केन्द्रित हो गया था, जिसने उसके बेटे की जान ले ली थी। शायद वह उसे एक भयावह और कीमती स्मृतिचिह्न के रूप में सँभालकर रख लेना चाहती थी। उसने वह कील और रस्सी मेरे हाथ से छीन ली।

आखिरकार! आखिरकार, सब खत्म हो गया! काम की ओर लौट जाने के अलावा मेरे पास और कुछ करने को नहीं रह गया था-काम, पहले से भी ज्यादा तेजी से और लगन से, ताकि मैं उस नन्हे शव को थोड़ा-थोड़ा करके बाहर निकाल सकूँ, जो मेरे मस्तिष्क के भीतरी कोनों तक में समा गया था और अपनी खुली घूरती आँखों से मुझे बेहाल किये था। बहरहाल, दूसरे दिन मुझे कई पत्र एक साथ मिले। कुछेक मेरे ही मकान के अन्य किरायेदारों की ओर से थे, कुछ पड़ोस के मकानों से, एक पहली मंजिल से आया था, एक दूसरी मंजिल से, एक तीसरी से और चौथी, पाँचवीं, छठी से भी। कुछ पत्रों की भाषा में हलके मजाक का पुट था, जैसे वे अपनी माँग की तीव्रता को छुपा रहे हों। बाकी पत्र बड़े सीधे थे और उनमें हिज्जों की ढेरों गलतियाँ थीं। बहरहाल, विषय सभी का एक ही था : क्या मैं उन्हें उस मनहूस और किस्मत जगानेवाली रस्सी का एक टुकड़ा दे सकूँगा? यह मैं जरूर बता दूँ, उन चिट्ठी लिखनेवालों में पुरुषों की अपेक्षा औरतें कहीं ज्यादा थीं, और वे किसी भी नजर से निम्नवर्गीय औरतें नहीं थीं। पत्र मैंने रख लिये।

यह तभी की बात है कि अचानक जैसे कुछ कौंध गया और मेरी समझ में आ गया कि लड़के की माँ मेरे हाथ से रस्सी को छीन लेने को क्यों इतनी उतावली थी और किस तरह के व्यापार से वह अपने कष्ट को दूर करनेवाली थी!

डेनिश