रहीम की कहानी: उनके मज़ार की जुबानी / गोपालप्रसाद व्यास

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(तीन सप्ताह पूर्व हम रहीम खानखाना की कब्र पर अपना लेख लिखकर इसलिए रख आए थे कि उनकी पवित्र रूह उसे देख ले और संपुष्ट कर दे। मगर वैसा कुछ नहीं हुआ। महाकवि रहीम ने वह लेख रिजेक्ट कर दिया और अपने मज़ार से कहा कि वह इस संबंध में उनके विचार हमें बता दे। मज़ार साहब ने क्या कहा, यह इस लेख में ब्योरेवार दिया गया है।)

लेखक को निडर होना चाहिए। हम भी किसी से डरते नहीं। पर उस दिन हमारे छक्के छूट गए। फोन सांय-सांय, सूं-सूं कर रहा था। उसमें से कभी किलकारी निकलती थी तो कभी हू-हू! लगता था जैसे कोई वृक्ष टूटकर गिर रहा हो और कभी-कभी पत्थरों के टूटकर चटखने की-सी आवाज़ भी सुनाई पड़ जाती थी। हम अभी तक फोन पर मधुर कंठों को ही सुनने के आदी थे, पर आज जो अट्टहास सुना तो घिग्घी बंध गई। पंखे के नीचे बैठे-बैठे भी हमें पसीना आगया था। घबराकर हमने फोन बंद कर दिया। न जाने कौन बला है?

मगर घंटी फिर घड़ियाल की तरह घनघना उठी। सुनाई दिया, “डर गए!”

स्वर इतना भारी और भैरव था कि सहसा हमसे जवाब देते न बना। कुछ सेकंड के बाद हमने साहस बटोरकर पूछा, “कौन हैं आप?”

उत्तर में पुनः अट्टहास ध्वनित हुआ। एक बार तो हमें लगा कि रिसीवर हाथ से छूटकर अपनी इहलीला समाप्त करने पर उतारू है, पर हमने उसे मज़बूती से पकड़े ही रखा। दूसरे हाथ से कुर्सी का हत्था मज़बूती से पकड़ लिया। फोन पर कोई कह रहा था “जनाब, मैं आदमी नहीं हूं।”

वह तो हम पहले ही समझ गए थे कि आज हमारा पाला आदमी से नहीं पड़ा है। अवश्य ही कोई भूत या जिन्न है। टेलीफोन पर हमने साहित्यकारों जैसी बातचीत करने का सिलसिला शुरू किया। पूछा,

“तब आप कौन हैं? क्या चाहते हैं?”

ऐसा लगता है कि हमें ही नहीं, एक्सचेंज में काम करने वाली लड़कियों को भी इस वार्तालाप से कंपकंपी आगई थी। कारण, एकाएक फोन कट गया और बाद में जब पुनः सिलसिला जुड़ा तो लाइन पर लड़की नहीं, कोई सरदारजी बैठे थे।

शायद सरदारजी के लाइन पर आने से या किसी अन्य कारण से इस बार की बातचीत अपेक्षाकृत मुलायम स्वर में आरंभ हुई। सुनाई दिया, “आपको सुनकर हैरानी तो होगी, मगर मैं आदमी नहीं, उसका मज़ार बोल रहा हूं।”

“मज़ार! किसका मज़ार?” हमारे मुंह से निकला।

उधर सरदारजी कह रहे थे, “देख्या तो। साडे हथ पैंदयां ई भूत पत्थर बन गया। सुन लो गल्लां।”

हमें सुनाई दिया, “ठीक है, मुझे पत्थर कह सकते हो। बना मैं पत्थरों के टुकड़ों से ही हूं। पर एक बेहतरीन और आला इंसान को अपने आगोश में सदियों से छिपाए रहने के कारण मेरे पत्थर भी पिघल गए हैं। ये खुद खंड-खंड होकर भी अखंड इंसानियत पर आंसू बहाया करते हैं। आप समझे! मैं रहीम खानखाना का मज़ार हूं। नई दिल्ली में हुमायूं के मकबरे के पास वीराने में अकेला खड़ा हूं। आप उस दिन अपना मज़मून (लेख) उनकी कब्र पर रख आए थे। खानखाना ने हुक्म दिया है कि मैं आपसे उस बारे में बातें कर लूं।”

हमारी जान में जान आई।

“शुक्रिया! मज़ार साहब!” हमने कहना आरंभ किया “अपने मज़मून के बारे में तो आपको बाद में तकलीफ दूंगा, अगर इज़ाजत हो तो पहले आपकी ख़िदमत में कुछ अर्ज़ करना चाहता हूं।”

आवाज़ मुलायम हुई और हमें सुनाई पड़ा, “जी हां, बड़े शौक और इत्मीनान से पूछिए।”

“बहुत ही शुक्रगुज़ार हूं, मज़ार साहब! मुझे पूछना यह है कि आप कहां से बोल रहे हैं? कैसे बोल रहे हैं? फोन आपके पास आया है या आप खुद फोन पर तशरीफ ले आए हैं? ईंट, चूने और पत्थरों को तो बोलते कभी किसी ने सुना नहीं? आदमी का 'स्पोक्समेन' (प्रवक्ता) तो आदमी ही होता है, पत्थर नहीं होता।” फोन पर पुनः अट्टहास गूंज उठा, मगर इस बार उसमें पहले जैसी विकटता नहीं थी, उपहास का पुट ही अधिक था। सुनाई पड़ा, “अरे मियां, जब दीवारों के कान हो सकते हैं तो मज़ारों के मुंह नहीं हो सकता? मालूम पड़ता है कि तुमने अभी दुनिया को ठीक से देखा-परखा नहीं। आज आदमी पत्थर बन गया है और पत्थर इंसान। ज़माने ने आज आदमी की जुबान बंद कर दी है और पत्थर चहकने लगे हैं। फिर मैं? जनाब, मेरा जिस्म ही चूने-पत्थर का बना है। मेरे अंदर जो इंसानियत की रूह बसी हुई है, उसे आज के इंसान जानकर भी नहीं जान पाएंगे।”

सुनकर हम सन्नाटे में आगए। कुछ कहने ही वाले थे कि उधर से फिर सुनाई दिया, “पत्थर के भी दिल होता है, भाईजान! वह आदमी के कलेजे की तरह नहीं है, बेवफा और खुदगर्ज़! आपने इतना बड़ा मज़मून लिखकर खानखाना की कब्र पर रखा। मैं पूछता हूं कि क्या खानखाना के साथ उनकी ज़िंदगी में या उनके गुज़रने के बाद इंसाफ हुआ? क्या ऐसे शेरेनर, क्या ऐसे नेक इंसान और इतने ऊंचे शायर का यही हश्र होना चाहिए था?”

हमने कहा, “दुरुस्त फरमाते हैं, मज़ार साहब!”

“क्या दुरुस्त फरमाते हैं?” इतने ज़ोर से कहा गया कि हम तो अपने को जैसे-तैसे संभाल गए, मगर एक्सचेंज पर बैठे हुए सरदारजी की चीख निकल गई। सुनाई पड़ा -

“बे महाबीरा, तू फड़ एस चोंगे नूं, मैं ज़रा चा-चू पी आवां।”

उधर मज़ार साहब फरमा रहे थे, “बेवफाई की भी हद होती है। जिस सल्तनत की ख़ातिर रहीम ने खुद को गारत कर दिया उसी ने उसे गद्दार करार दिया। मज़हब के जिन ऊंचे उसूलों पर वह सब कुछ खोकर भी टिका रहा, उसी के ठेकेदारों ने उससे निगाह चुरा ली। शियाओं ने उसे शिया नहीं जाना। सुन्नियों ने उसे सुन्नी नहीं माना। मुसलमान उसे हिंदू कहते रहे और हिंदू उसे मुसलमान। और अदब (साहित्य) की दुनिया वाले तो उनसे भी बढ़कर एहसान-फरामोश निकले। जिसने अपनी सारी दौलत शायरों और कवियों की छोटी-छोटी सतरों पर फूल की तरह बिखेर दी, आज उसका हिन्दी, संस्कृत और फारसी में कहीं कोई नाम लेने वाला है?”

हम क्या जवाब देते? सिर झुकाए सुनते रहे। मज़ार साहब कहे जा रहे थे, “मैं पूछता हूं जनाब, क्या नाम है आपका, जो भी हो, क्या एक छप्पय पर छत्तीस लाख देने वाला कोई माई का लाल दुनिया की किसी भाषा के इतिहास में कहीं पैदा हुआ है? कोई शायर कहीं से आए और लाख रुपया सिर्फ अपनी आंखों से देखना चाहे

तो उसे न सिर्फ दिखाकर, बल्कि ज़बर्दस्ती भेंट कर देने वाला कोई दाता कहीं सुना है?”

हमारे मुंह से निकला,” नहीं।”

“तो फिर उसका आज यह हाल कि इतिहास के जर्क खाए वर्कों के अलावा न अदब की दुनिया में उसकी कोई चर्चा है और न खोज-ख़बर! न रिसालों में उस पर मज़मून छपते हैं और न यूनिवर्सिटियों में उस पर कोई रिसर्च ही होती है। उसकी अंतिम यादगार, यानी मैं भी धीरे-धीरे दम तोड़ रहा हूं। मेरे टुकडों को उखाड़कर चोरों ने अपने घर बना लिए। कल तक डाकू-लूटेरे मेरे आस-पास डेरे डाले रहते थे। अब ज़रा घास-फूस लग जाने से अलबत्ता कुछ शौकीन-मिज़ाज इश्क फरमाने यहां गाहे-बगाहे ज़रूर आ जाते हैं। खानखाना का दिल तो दुनिया से पहले ही टूट गया था, अब तो उन्हें और भी दुनियादारों से नफरत होगई है। आपका मज़मून पड़ा हुआ है। उसे वापस ले जाइए। खानखाना को उसमें कोई दिलचस्पी नहीं। उन्हें न तारीफ़ की तमन्ना है और न पब्लिसिटी की तवक्को! वह इन सब चीजों से ऊपर हैं। उन्होंने कहलवाया है......”

“क्या कहलवाया है?” हमने ज़रा उतावली से पूछा।

“कहलवाया है,” मज़ार साहब बताने लगे,” मज़मून के लिखने वाले से कहना कि साहित्य और राजनीति दोनों रकाबों में पैर रखना ठीक नहीं। अगर आदमी समर्थ हो तो दो औरतों से तो शादी करके एक घड़ी सुख से रह भी सकता है, मगर साहित्य और राजनीति से एक साथ शादी करके न कोई कभी सुखी रहा है और न रह सकता है। एक म्यान में दो तलवारें रह सकती हैं, मगर ये दोनों सौतें नहीं रह सकतीं। आजकल के हिन्दी और उर्दू के लेखक जो दोहरा खेल खेल रहे हैं, वह बड़ा ख़तरनाक है। इससे लोक भी बिगड़ता है और परलोक भी। साहित्यकार का राज्याश्रय से क्या ताल्लुक? राजनीति कभी साहित्य को आश्रय नहीं देती, स्वयं के लिए साहित्य के पट की ओट लेती है और काम निकलने के बाद उसी को जला देती है-

जेहि अंचल दीपक दुर्‌यो, हन्यौ सो ताही गात।

'रहिमन' असमय के परे, मित्र शत्रु ह्‌वै जात ॥

मज़ार साहब कहते गए, “खानखाना से इस बारे में मेरी अकसर बातें होती रहती हैं। उनका कहना है कि राजनीति तो बेर के वृक्ष के समान है और साहित्य केले के पत्तों के समान। इन दोनों का साथ भला कभी हुआ है?

कहु 'रहिम' कैसे निबहि केर-बेर कौ संग।

वो डोलत रस आपने, इनके फाटत अंग॥

एक बार साहित्यकार अगर राजनीति के घेरे में आगया तो उसे जीते-जी मरा ही समझिए। साहित्यकार सदैव से निर्बल रहा है और राजनीति हमेशा से सबल। खानखाना ने इसी पर एक दोहा कहा है,

कैसे निबहैं निबल जन, करि सबलन सौं बैर।

अंत में बेचारे शायर यानी लेखक की हालत मछली जैसी हो जाती है। वह तड़फड़ा-तड़फड़ाकर प्राण छोड़ता है-

खरच बढ्यौ, उद्यम घट्यौ, नृपति कठिन मन कीन।

कहु 'रहिमन' कैसें जिए, थोरे जल की मीन॥

इसीलिए खानखाना का कहना है कि राजनीति पहले तो साहित्यकार का पूरा रस निचोड़ लेती है और जब दीन होकर वह अपने जीवन के लिए बाद में अरज करता है तो उसकी गरज को नहीं सुनती :

अरज-गरज मानें नहीं, 'रहिमन' ये जन चारि ।

रिनिया, राजा, मंगता, काम-आतुरी नारि ॥

हमने पूछा, “तब क्या करना चाहिए?”

“खानखाना तो अपने अनुभव से इस फैसले पर पहुंचे हैं कि या तो आदमी राजनीति का हो जाए या साहित्य का ही। वह अद्वैतवादी हैं। दुनिया उन्हें नहीं जंचती। उन्होंने फरमाया है :

एकै साधे सब सधै, सब साधे सब जाय।

'रहिमन' मूलहि सींचबो, फूलहिं-फलहिं अघाय॥

और यह मूल साहित्य है, राजनीति नहीं। साहित्य के मूल को ठीक से सींचने पर राजनीति की डाली में भी सुंदर फूल उग सकते हैं, लेकिन राजनीति के फूल को सींचने से तो समूचा पेड़ ही सूख जाता है।”

“लेकिन मज़ार साहब, आजकल खाली साहित्य से किसी का पेट भरता है? अब रहीम जैसे गुण-ग्राहक और दाता तो रहे नहीं, साहित्यकारों को पेट भरने के लिए इधर-उधर हाथ मारने पड़ते हैं। सामर्थ्य बटोरनी ही पड़ती है। पुरुषार्थ बताना ही पड़ता है।”

टेलीफोन पर हंसी की आवाज़ फिर सुनाई दी। मज़ार साहब कह रहे थे, “पुरुषार्थ! आदमी का पुरुषार्थ!! मियां, उससे क्या होता है। आपने रहीम का यह दोहा नहीं सुना?

जो पुरषारथ के लिए, संपति मिलत 'रहीम'।

पेट लागि वैराट घर, तपत रसोई भीम॥

हमने टोका, “मगर मज़ार साहब, उपदेशों से किसी की भूख नहीं मिटती। साहित्यकार भी दुनिया का आदमी है। उसकी ज़िदगी में भी कुछ चाह होती है और चाह की राह आप जानते हैं, राजनीति की तिजोरी में ही बंद है।”

मज़ार साहब ने उत्तर दिया, “मगर खानखाना आपकी बात से सहमत नहीं हो सकते। उन्होंने तो एक दिन मुझसे कहा था-

चाह गई, चिंता घटी, मनुआ बेपरवाह।

जिनकों कछू ना चाहिए, वे शाहन के शाह॥”

“शुक्रिया, मज़ार साहब! रहीमजी ने कोई और भी संदेशा दिया है क्या?” हमने पूछा।

“हां, दिया है।” जवाब मिला- “उन्होंने कहा, उस मज़मून को साया न करें। रहीम और रहिमन एक ही हैं। रहिमन न मेरी बीवी का नाम था और न चहेती का। दोहा, बरवै, सोरठा, पद सब मेरे ही लिखे हुए हैं, गंग वगैरह के नहीं। इस तरह के लेख छपने से ख़ामखां ग़लतफहमी बढ़ेगी। और ....”

“और क्या, मज़ार साहब?”

“और यह कि आज तक खानखाना ने अपने पास आने वाले किसी लेखक को खाली हाथ नहीं जाने दिया। आपके लिए भी उन्होंने कुछ देने को कहा है।” “क्या?” हमने उत्सुकता से पूछा!

हमें फोन पर सुनाई पड़ा, “कल रात को बारह बजे आप खानखाना के मज़ार पर आइए। दाहिने हाथ वाले दरवाजे की बाईं ओर वाले सहन में आपको एक हांडी मिलेगी। उसे उठा लेना और बिना पीछे की ओर देखे चुपचाप लेकर चले जाना। रास्ते में उसे खोलना नहीं। घर आने पर आपको अपनी उजरत मिल जाएगी।” इससे पहले कि हम कुछ जवाब दें, टेलीफोन एक्सचेंज पर हांडी का नाम सुनते ही हड़बड़ी मच गई। एक कह रहा था कि हांडी मेरी है और दूसरा कह रहा था कि मैं उसे लेने जाऊंगा। शायद सरदारजी और महाबीरा में कहा-सुनी ही नहीं, हाथापाई भी होने लगी थी और इसी झगड़े में हमारा फोन कट गया।