रहूँगा यहीं / अनंत कुमार सिंह

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झकझोर कर बह रही सुबह की ठण्डी हवा में वह जैसे उड़ा जा रहा था बधार से गाँव की ओर। चलते हुए उसका अंग-अंग मानो थिरक रहा था। बरबस गुनगुनाने लगता। रह-रह कर चारों तरफ नजर दौड़ाता- कोई मिले गाँव-जवार का जिससे मन में फूट रहे लड्डू के मिठास को बाँटे। वैसे बाँटने के लिए तो वह मनों मिठाई बाँटने की योजना बना चुका था मन-ही-मन- गाँव-जवार का कोई आदमी खाली नहीं जाए- गरीबों को भरपेट खिलाया जाए।

भावनाओं की उड़ान में कभी-कभी उसे लगता कि उसे गंभीर हो जाना चाहिए। कुछ क्षण के लिए हो भी जाता गंभीर लेकिन फिर उसे लगता कि कोई शक्ति उसे उकसा रही है- एकदम खुल जाता- बहने लगता हवा से भी तेज। कभी-कभी उसे लगता कि वह गाँव के सिवाने पर जाए और चीख-चीख कर कह दे अपने मन की बात- ‘मेरा बबुआ बहुत बड़ा हाकिम हो गया- चिट्ठी आयी है उसकी- खुद उसके अपने हाथ की लिखी चिट्ठी। आज मैं उसके पास जाऊँगा, भैरव दादा मिले और उसने बिना रुके बयान कर दिया।

लेकिन भैरव दादा और पाँच-दस लोगों को कहने से उसके फूले पेट और सीने की हवा कम थोड़े ही हो रही थी। सीने की चौड़ाई तो कल शाम से ही दुगुणी-तिगुणी बढ़ी लग रही थी। किसी को समाचार सुनाने लगता तो उसका सीना बैलून की तरह फूलता महसूस होता और कद आसमान से भी ऊँचा हो जाता।

यह उसके जीवन की दूसरी महत्वपूर्ण खुशी है। पहली खुशी बबुआ की नौकरी लगने पर हुई थी- रोवाँ-रोवाँ जुड़ा गया था। बबुआ को ‘ज्वाइन’ कराने गया था वह। कोई ऐरू-गैरू की नहीं, सहोदर भाई की बात थी और फिर नौकरी भी दरबान चपरासी की नहीं, साहब की नौकरी मिली थी। यहाँ तो लोग दरबान-चपरासी की नौकरी में ही फूले नहीं समाते। तो वह गया था और लौटा तो राजा हरिश्चंद्र और दानवीर कर्ण बनकर। कोई भी मिलने आता, वह गद-गद हो जाता- कई रूपों में अपनी खुशी बाँटने लगता।

और यह दूसरी खुशी का दौर है- नौकरी में तरक्की का- बड़ा साहब बनने का। इसमें रात-भर सो नहीं सका वह। बस, बबुआ... बबुआ की कोठी...बबुआ की तरक्की...बड़ा हाकिम। गाँव-जवार का जहाँ कोई आदमी नहीं पहुँचा, वहाँ बबुआ पहुँच गया। रात भर पत्नी से बतियाता रहा...हँसता रहा...हँसाते रहा...हँसते-हँसते लोट-पोट होते रहा...पत्नी भी उसकी हाँ-में-हाँ मिलाती रही।

आज जो वह जरूर जाएगा बबुआ के पास। पत्नी से बातें हो ही गई हैं। बबुआ तो उसे देखते ही फूले नहीं समाएगा, फूलकर तुंबा हो जाएगा।

वह सोचता है- बैल की तरह कमाना काम आ गया। लेकिन केवल उसके कमाने से बबुआ साहेब बना है? खूब मन लगाकर पढ़ा तब न हुआ वैसा। परिश्रम का फल मीठा होता है- मीठा फल घोर तपस्या से ही प्राप्त होता है।

कूदते-फाँदते धूम मचाते वह बधार से घर आया और वहीं पहुँच गया, जहाँ पत्नी बैठकर काम कर रही थी। गया तो पत्नी के काम करने नहीं दिया। बस वही बात- बबुआ की बात...वहाँ जाने की बात...कपड़ा...बैग...।

‘‘जाइए तो जरा ठीक से जाइए ‘लुर-लक्षण’ बना के जाइए। बड़ा भाई हैं आप, इसका भी ख्याल रखिए’’, पत्नी समझा रही थी।

‘‘हम गाँव-देहात में रहते हैं तो उसका मतलब यह नहीं कि हम बुड़बक हैं। देहात और शहर में अब अंतर क्या रह गया है?’’

‘‘मैं कहाँ कह रही हूँ...?’’ पत्नी बोलते-बोलते बीच में ही चुप हो गई और मुसाफिर सिंह की तरफ देखने लगी। मंजर से लदे आम के पेड़ की तरह उसका चेहरा चमक-दमक रहा था। और पत्नी की सोच पर मुसाफिर सिंह को हँसी आ रही थी।

...ठीक से जाइए...ठीक-बेठीक क्या...क्या वह ससुराल जा रहा है? भाई के यहाँ जा रहा है...भाई के यहाँ। उसके यहाँ तो वह बिस्टी पहनकर भी जाएगा तो लाज नहीं लगेगी। बबुआ बड़ा साहब बन जाए चाहे कलक्टर डिप्टी बन जाए उसके लिए तो बस, भाई है न जिसे उसने गोद में खिलाया है और उठा-पटक भी की है। स्कूल में नाक भी पोंछी है और उसके काॅलेज में जाने पर धोबी के यहाँ से इस्तिरी किया हुआ कपड़ा भी लाकर दिया है। कुछ भेद है बबुआ में और उसमें? भाई है...खून है...उसके कलेजे का टुकड़ा है। उसकी तरक्की हो, उसको कोठी-बँगला मिले और वह न जाए देखने? उसका मन कचोटेगा नहीं? बबुआ का मन जितना कचोटेगा उससे कम पीड़ा उसे भी नहीं होगी।

सोचते-सोचते एकाएक उसने पत्नी की तरफ देखा। पत्नी रसोई के काम में लगी थी।

‘‘तुम कुछ भी कहो, मालती की माई, मैं तो वहाँ जाऊँगा जरूर।’’, उसने टोका।

‘‘मैं कह रही हूँ कि आप नहीं जाइए। जाइए, जरूर जाइए...जाना ही चाहिए...मैं तो सिरिफ इतना कह रही थी कि जरा भेष सँवार कर जाइए और सभी के सामने उटपटाँग नहीं बोलिए... बस, मैंने इतना ही तो कहा था और आप क्या से क्या बोलने लगे। आज तो घोंघा का मुँह खुला है। दूसरे को मौका ही नहीं है बोलने का।’’

‘‘अरे जितना बोलना है, बोलो। कोई रोक रुकावट है क्या? वैसे तुम जो बोलना चाह रही हो, वह मैं समझ रहा हूँ। साहब के भाई जैसा बोलने- बतियाने, पहनने- ओढ़ने के लिए ही कह रही हो न?’’

‘‘यह भी समझाने की बात है?’’

‘‘तो इतना सुन लो कि मैं सूट-बूट नहीं पहन सकता। सेंट-पाउडर लगाकर चेहरे की रँगाई-पुताई भी हमसे पार नहीं लगेगी और जहाँ तक बोलने-बतिआने की बात है...तो मैं अनपढ़ हूँ क्या? मैट्रिक पास हूँ...और फिर धोती-कुरता में मैं बुरा लगता हूँ क्या? कम दाम का कपड़ा पहनने से आदमी छोटा नहीं हो जाता।’’

‘‘जो पहनते हैं उस पर सब कोई हंसता है। खुद आईना देखते तो पता चलता। एकदम गँवार जैसा...देहाती जैसा...टी.वी. दिखला रहा था...’’

‘‘टी.वी...टी.वी...हर बात में टी.वी...हवा-पानी हो जैसे। इसका नाम सुनते ही मेरा दिमाग खराब होने लगता है। टी.वी.-सिनेमा तो गैरत में गिरा रहा है सभी को। इस गाँव में बारह लोगों के घर में टी.वी हुआ है और बारहो करम हो गया। लड़का-लड़की सब बिगड़ गये। माई-बाप की छाती पर चढ़ के सब गोंड़ का नाच कर रहे हैं...’’

‘‘ओ हो...हाय राम। गरगट हो गया बोलना। बरबरी समा गया है इनको। ठीक है भोंमा लेकर कहते फिरिए कि टी.वी. देखना पाप है’’, तमतमा गई पत्नी। और वह पत्नी को चुपचाप देखने लगा।

ओह! समय का प्रभाव है यह! वह क्या कहे मालती की माई को। वह भी तो गाँव वालों की देखा-देखी कर रही है। नए-तो-नए अधवैस सुभान अल्लाह। अब उसकी उम्र के लोग भी बाहर से आकर बच्चों और परिवार के साथ या फिर चौपाल पर बैठना पसंद नहीं करते...सभी की पसंद टी.वी. का लचकदार नाच ही है।

‘‘देखो मालती की माई! जो चीज गलत है, उसको मैं गलत ही कहूँगा’’, कुछ देर बाद उसने कहा।

‘‘आप जरंत है- जलते हैं। आपकी तरह सोचने वाला आदमी ही सौ बरस पीछे वाली बात ढोता है’’, जवाब में पत्नी ने धमाका किया। ‘‘मैं जरंत हूँ? जलता हूँ?...जलन जैसी बात होती तो तुम वैसा करती महारानी जी! फरक देख लो कल और आज में...अपने आपको देखो- ‘बूढ़ी घोड़ी लाल लगाम’...पैंतालीस बरस की हो गई हो अब...और इधर पाँच बरस से टीवी में देख उसकी नकल करके लिपिस्टिक लगाती हो...लेवेन्डर, पाउडर, क्रीम लगाती हो...मैं तो नाम भी नहीं जानता...क्या-क्या लगाती हो? मैं मना करता हूँ? कुछ टीका-टिप्पणी करता हूँ?’’

‘‘वही सब माथा पर चढ़कर बोल रहा है न! आँख लग रही है। मैं पाउडर क्रीम को चूल्हा में झोंक दूँगी...भीखइन जैसा भेष बनाकर रहूँगी। मैं असल बाप की बेटी...’’, कहते-कहते सिसकने लगी पत्नी।

‘‘यह लो...अब और हुआ...तुम रोने लगी? मैं तुमको कह रहा था? मैं तो गाँव के लक्षण पर झंख रहा था। तुम भी तो कभी-कभी कहती हो ऐसा...मैं तो तुम्हारे बारे में मजाक कर रहा था और तुम बुरा मान गई। मजाक मैं तुमसे नहीं करूँगा तो और किससे करूँगा...बोलो।’’

पत्नी का सिसकना कम नहीं हुआ और वह वहाँ से उठकर दूसरे कमरे में चली गई...और तब मुसाफिर सिंह खिसियाआ हुआ-सा पत्नी को जाते हुए देखता रहा। अब उसे अहसास हुआ कि उसने कुछ ज्यादा ही कह दिया है।

कुछ देर तो वह हतप्रभ-सा वैसे ही बैठा रहा और फिर झट से उठा और उस कमरे की ओर बढ़ने लगा, जिसमें पत्नी गई थी। पत्नी अब तकिये में मुँह छिपाकर रोने लगी थी।

‘‘ए मालती की माई! तुम बुरा मान गयी क्या?...सचमुच बुरा मान गई! मैं तो तुमसे मजाक कर रहा था। सुनो चुप हो जाओ- इस शुभ की घड़ी में अपशकुन जैसी बात न करो। जो कपड़ा तुमको पसंद है, वह मेरे बैग में रख दो- आज शाम की गाड़ी से मैं जाऊँगा...।’’

‘‘जाइए चाहे उफ्फर पड़िए...यहाँ मतलब नहीं है।’’

‘‘देखो, मालती की माई! गुस्सा न करो। तुम ऐसा करोगी न, तो मैं नहीं जाऊँगा। लेकिन भाई की बात है- वैसे भाई की बात जिसे मैंने बाल-बच्चों से ज्यादा किया है। ललक है उसको बड़े साहब के रूप में देखने की। तुम नहीं कहोगी तो- तो नहीं जाऊँगा, और क्या?’’

‘‘मैं कौन होती हूँ, मना करने वाली? काहे को कलंक लगाते हैं। रोज यही ओटते रहिएगा कि तुमने जाने नहीं दिया- गाँव-जवार में यही बात फैलेगी कि मेहरारू ने रोक दिया...’’, सिसकना कम हुआ पत्नी का, लेकिन जुबान में कड़वाहट आने लगी।

‘‘मालती की माई! मैं कोई भी काम अपने मन से करता हूँ, बताओ? हम तुम दो ही तो प्राणी हैं। एक बेटी थी उसको ब्याहकर हँसी- खुशी से भिजवा ही दिया। अब हम दोनों के अलावा कौन है, जिससे हम राय लेंगे?’’

‘‘मेरे मन से कब करते हैं आप?’’

‘‘सब दिन...सब काम। बोलो- गलत बोल रहा हूँ?’’

‘‘हाँ, सरासर गलत। हमारे नैहर जाने में तो आपको कमर में दरद हो जाता है। कटनी, पीटनी, रोपनी, बुआई, खाद-पटवन, निकवन कुछ-न-कुछ जरूरी काम आ ही जाता है या फिर जर-बुखार-जड़ैया सब लग जाता है। तीज-त्योहार में भी जाते हैं आप?’’

‘‘ऐसा कैसे कहती हो? आसमानी सुलतानी को छोड़कर मैं कभी बात उठाता हूँ?’’

‘‘हूँ...तीन महीने से रट रही हूँ नैहर जाने को- बेटी के यहाँ जाने को...चले गए?’’

‘‘अब ही तो फुरसत में आया हूँ। बबुआ के यहाँ से लौटकर चला जाऊँगा...’’

‘‘हूँ-हूँ चला जाऊँगा?...कोई जरूरी नहीं है वहाँ जाना। जाइए बबुआ के यहाँ। देखिए उनका ‘सरग।’ अपनी देह की जन्मी बेटी के यहाँ जाने की- उसको कुछ देने की चिंता रहती है? इतनी संपत्ति रहते बेटी को लंगा के यहाँ बैठा दिये। उसको कुछ देते तो सवारथ होता।’’

‘‘वाह...वाह...वाह। लंगे के यहाँ बैठा दिया? कुछ देता नहीं? अरे कुलच्छनी बेटी को तो अपना हिस्सा पर बीस बीघा जमीन है। लंगा है? और देने की बात करती हो? दामाद की नौकरी लगाने में बीस हजार रुपया किसने दिया था? भूल गयी?’’

‘‘हूँ-हूँ...बहुत याद है बीस हजार...और अपने बबुआ को फल-फूल लगाने के लिए बगीचा वाला दस बीघा जमीन दिया, वह कभी याद नहीं होता? भरे हुए को भर रहे हैं- कौन-सी कमी है- बबुआ को?’’

‘‘बबुआ भाई है, उसका तो हक-हिस्सा है।’’

‘‘हक-हिस्सा-बाप दादे की जमीन में है न। वह तो पाँच बीघा भी कम था। सब जमीन तो आपके पसीने से पैदा हुई है...हिस्सा से बहुत ज्यादा तो आप पहले ही दे चुके...अब क्या बचा है?’’

‘‘मैंने कहा न, तुम एकदम जरंत हो, जलती हो बबुआ से...उसको देखना नहीं चाहती।’’

‘‘और बबुआ तो आपको माथा पर बैठाए है? आप ही का नाम लेकर सोते-जागते हैं- खेत में हाड़ तोड़ते समय आपका पैर दबाने आते हैं...खेती के लिए खाद पटवन का इंतजाम करते हैं...और बबुआ की मेम साहब तो आपको गोदी में लेकर पुचकारती है- है न?’’

‘‘चुप रहो...जबान संभाल कर बोलो...नहीं तो ठीक नहीं होगा’’, गला फाड़कर कहा उसने।

‘‘लग गयी न? सच बात ऐसे ही लगती है।’’

‘‘क्या है सच बात?’’

‘‘जानकर भी अनजान बनते हैं न...पता कैसे चलेगा? सच यही है कि बबुआ बहुत चालाक हैं- पहचान में नहीं आते। बबुआ सब कुछ हड़पना चाहते हैं। और बबुआ की मेम साहब नटीन है नटीन...सब कुछ लूट भी रही है यहाँ से और शान भी है। साहब हैं और चावल, दाल, आलू, प्याज, चना, गेहूँ यहीं से ढोया जा रहा है। यह सब तो आपकी आत्मा को ठंडा करता है। और फिर नटीन जब मटकती हुई चाय का एक प्याला दे देती है न तो आप तर जाते हैं। और हमारे हाथ की? हमारे हाथ की रबड़ी...मलाई भी तीखी लगती है। मेरा टी.वी. देखना आपको अखरता है- झनकने लगते हैं आप, आफत आ जाती है, और उस नटीन के टीवी ओढ़ना-बिछौना है- मुँह नहीं खोलवाइए ज्यादा...बबुआ बबुनी का पूरा हाल सुनकर तो कोई भी थूकेगा। मैं कितनी भी नीच क्यों न हो जाऊँ, उस नटीन से अच्छी ही रहूँगी।’’, बोलते-बोलते हाँफने लगी पत्नी और मुसाफिर सिंह का दम घुटता हुआ-सा लगने लगा।

‘अच्छा-अच्छा...तुम ही सीता सावित्री हो- रहो तुम ही टाँग पसारकर...किसी का अधिकार नहीं है इस घर में- संपत्ति में- मेरा भी नहीं। आज से मेरा खाना-पीना बंद। मैं मजदूरी करके खाऊँगा, कड़ककर बोलते हुए मुसाफिर सिंह पैर पटकते कमरे से बाहर निकल गया और दूसरे कमरे की खाट पर आँधी में गिरते दीवार की तरह ढह गया।

देर तक वह छत पर नजर गड़ाये रहा। बदन से पसीना आ रहा था और बेचैनी महसूस हो रही थी। कोई उपाय नहीं सूझ रहा था मन की शांति का- वैसे बबुआ के यहाँ जाना तो तय था।

एकाएक उसकी नजर कमरे की दीवार पर टँगी माई की तस्वीर पर गयी। और लगा कि अकबका देनेवाली उमस के बीच ठंडी फुहार से वह भीगने लगा हो।

माई की तस्वीर के पास उसे सुकून मिलता है, शांति मिलती है और वह फूट-फूट कर रोता भी है। अभी भी वैसा ही हुआ। तस्वीर देखते-ही-देखते वह नन्हें बच्चे की तरह कलपने लगा- बरबस माई की याद आने लगी। इन स्थितियों में तो माई का न होना उसे अखरने लगता है। बड़ी जीवट की औरत थी माई। बाबूजी के मौत के बाद जब समाज के सामने उसे पगड़ी दी गयी थी फूट-फूट कर रोने लगा था वह। और माई ढाँढ़स बँधा रही थी- ‘‘मर्द इस तरह नहीं रोते। तुम तो पहले अपनी एक बेटी के बाप थे और अब बबुआ के बाप का करतब भी निभाना है तुम्हें प्यार बाँटना है। आँसू, पोंछ लो, उठो बेटा और आगे की सोचो।’’

जब-जब वह विचलित हुआ, माई ने उसे थाम लिया और आज भी माई-माई की यादें उमड़-घुमड़ रही हैं- फर्ज याद आ रहे हैं।

एक झटके से वह सोचता कहीं पत्नी ठीक ही तो नहीं कह रही है? लेकिन उसका मन इसे स्वीकार करने के लिए न जाने क्यों कभी तैयार नहीं होता। हो सकता है उसकी पत्नी समझदार नहीं है, इसलिए ऐसा सोचती है। बबुआ से जलती है- बबुआ की मेमसाहब से कुढ़ती है। उनका नाम आते ही खिच्-खिच् शुरू कर देती है- औरतों का तो जन्मजात स्वभाव है यह।

आज अगर माई होती तो देखते-ही-देखते उसे सामान्य कर देती। अपनी कोरवारी सफेद साड़ी की खूँट से आँसू पोंछती। झुकी कमर के बावजूद लोटा लिए घिड़सिर के पास जाती। मिट्टी के घड़े से पानी उड़ेलकर भर लोटा ठंडा पानी उसे पीने को देती। और फिर गरम-गरम बेसन का हलवा गोइठे की आँच वाली। वाह! कितना स्वादिष्ट क्या बनाएगी मालती की माई या फिर बबुआ की मेमसाहब। बबुआ की मेमसाहब तो चूल्हा-चौका जानती भी नहीं। नौकर-चाकर, पिउन-चपरासी मायके में भी थे, बबुआ के बँगले में भी हैं। मालती की माई को भी अब गोइठे पर बनाने में आँखें जलती हैं- स्टोव पर बनाती है वह और अब तो गैसे के चूल्हे के लिए जिद कर रही है। जो टीवी में देखा- पूरा होना चाहिए। उसकी सब फरमाइश पूरी कर दी जाए तो यह घर-घर न रहकर अजायबघर हो जाए और संपत्ति स्वाहा।

माई होती तो घर में कम-से-कम यह नहीं होता। और अभी की स्थिति में तो वह मालती की माई और मुझे समझाती... मरदाना-मेहरारू में झगड़ा नहीं होना चाहिए बेटा।

‘‘माई ई तो एकदम करकशा है- वह जरूर कहता।’’

‘‘नहीं वह करकशा नहीं है, समझ का फेर है। और फेर करकशा को गऊ बनाने की अकल मरद में ही होनी चाहिए बेटा’’- माई बात को सहज बनाती।

‘‘सुनिए...सुनिए...’’ जोर से पुकार रही थी मालती की माई। एकाएक उसकी तन्द्रा टूटी। चौंककर उसने अपनी पत्नी की तरफ देखा- एकाएक गुस्सा और बढ़ गया- विषाद छा गया। उसने पत्नी की तरफ से नजरें फेर लीं- बोला कुछ नहीं, लेकिन पत्नी अभी भी आवाज दे रही थी। एकाएक पत्नी ने जोर से झकझोरा और चीख पड़ी- ‘‘सुन क्यों नहीं रहे हैं?’’

‘‘तुम? तुम? तुम क्या करने आयी हो?’’ तमतमाये हुए उसने झोंक में कहा-

‘‘बबुआ आये हैं।’’

‘‘बबुआ? बबुआ?...कहाँ है बबुआ?’’ सोच का दबाव और गुस्सा उड़न छू हो गया। वह खरखराकर उठा। सामने नजर गई। बबुआ मुस्करा रहे थे।

आगे बढ़कर बबुआ ने उसके पैर छुए। गद-गद हो गया वह। क्या बोले- क्या बतिआये...क्या करे...कैसे करे...कुछ समझ में नहीं आ रहा था। लग रहा था नेह से नहला दे बबुआ को, अपना कलेजा निकालकर हाथ पर रख दे। अपने आगोश में भर ले बबुआ को। घंटों देखता रहे उसी को...आँखें तृप्त कर ले- हृदय जुड़ा जाए।

‘‘बैठो बबुआ! खड़े क्यों हो? तुम एकाएक...मैं तो आज शाम की गाड़ी से तुम्हारे पास जा रहा था...बहुत अच्छा हुआ, तुम आ गए... बड़ी खुशी हुई। अब हमारा जीवन सफल हो गया बबुआ...सब अरमान पूरे हो गए।’’

‘‘हाँ भैया, जैसे ही प्रमोशन की सूचना मिली, मन बेचैन हो उठा। खुशी मिली लेकिन वह अधूरी लग रही थी। लग रहा था कुछ छूट रहा है...और फिर मैं बेतहाशा चला आ रहा हूँ अपने राम जैसे भाई और सीता जैसी भाभी के चरण छूने के लिए। लेकिन भैया, ठहरूँगा नहीं- शाम की गाड़ी से मैं चला जाऊँगा।’’

‘‘ऐं’’, चिहुँक गया मुसाफिर सिंह।

‘‘हाँ भैया।’’

‘‘अरे नहीं...ऐसा काहे बबुआ? अभी तो भर नजर देखा भी नहीं और फिर तुम गाँव भी नहीं घूमे...खेती-बारी...खैर, छोड़ो खेती-बारी। कम-से-कम गाँव के लोगों से तो मिल लो। और फिर तुमसे बात करने को मेरा मन तरस रहा है।’’ छिछिआये हुए भिखमंगे की तरह जो सामने भोजन देखते ही टूट पड़ना चाह रहा हो कुछ ऐसा ही भाव था मुसाफिर सिंह का।

‘‘नहीं भैया। अब जिम्मेवारी और ज्यादा बढ़ गई है न। और देख ही रहे हैं दंगा-फसाद, ला-ऑर्डर सँभालना होता है।’’

‘‘अरे बबुआ! इ जात-धरम का झगड़ा ऐसे ही चलता रहेगा क्या?’’

‘‘अब तो और बढ़ रहा है भैया। कोई जगह सुरक्षित नहीं है। यहाँ आप सुरक्षित हैं क्या?...और इसी चिंता में घुला रहता हूँ। झगड़ा दूसरी जगह भी होता है, किसी गाँव में तो मेरा ध्यान यहीं चला आता है- मेरे भैया कैसे रह रहे होंगे- यहाँ तो सब ठीक है। यहाँ की चिंता काहे करते हो बबुआ।’’

‘‘यहाँ?...यहाँ तो जाति-जाति में झगड़ा हो सकता है...अगड़ा-पिछड़ा में झगड़ा हो सकता है...हिंदू-मुसलमान में झगड़ा हो सकता है। मुझे तो डर बना रहता है। इस बार इसीलिए आया हूँ कि सबको लेता चलूँ अपने साथ।’’

‘‘सबको लेते चलोगे? मुझे भी?...तब फिर खेती-बारी का क्या होगा?’’, हँसने लगा मुसाफिर सिंह।

‘‘भैया! खेती-बारी इज्जत-प्रतिष्ठा से बड़ी नहीं होती- जान से बड़ी नहीं होती। खेती के मोह में फँसना खतरनाक होगा...यहाँ की मोह, ममता त्याग देने में ही भलाई है...सबको चलना ही अच्छा होगा।’’ बोलते हुए बबुआ ने भाभी की तरफ देखा। पता नहीं क्यों वह झेंप-सा गया। फिर संभलते हुए बोला - ‘‘भाभी एक गिलास पानी लाइए न।’’

भाभी पानी लाने गयी और बबुआ पसीना पोंछने लगे। लगा कि बबुआ बेचैन-से हो गये हों।

‘‘भैया अब यहाँ रहना बाघ की माँद में सिर छिपाने जैसा है। जब तक लोग खेती करने दे रहे हैं- गनीमत ही समझिए’’, भाभी के जाते ही बबुआ ने कहा।

‘‘ऐसी कुछ बात नहीं है बबुआ...खैर! तुम आज थके हुए आए हो, ठहर जाओ। इत्मीनान से बातें होंगी।’’

‘‘ठहरने का प्रोग्राम तो नहीं था भैया। नेहा परेशान होगी। फिर भी आप कहते हैं तो...भोर की पहली गाड़ी से हम लोग साथ चलें।’’

असमंजस के भाव के साथ बबुआ का चेहरा देखने लगा मुसाफिर सिंह। रात घिर आयी थी। बबुआ ने शाम की गाड़ी छोड़ दी। वे लोग खाना खा चुके थे और बबुआ की भाभी दूसरे कमरे में सोने चली गई थी।

देर तक दोनों भाई बतिआते रहे थे और अब उनमें से एक ने चादर तान ली थी और दूसरे की आँखों से नींद कोसों दूर थी। वैसे चादर के भीतर बबुआ का आलम बेचैनी का ही था। नेहा की भिन्न मुद्राएँ और हिदायत बार-बार याद आ रही थीं। उसके द्वारा अपने तर्कों के साथ उसे समझाना, सिखाना और ताना देना उलझन और बेचैनी पैदा कर रहे थे...‘‘भैया जान भी दे सकते हैं...हूँ!...जो जान दे सकता है वह अपनी जमीन नहीं दे सकता था? बाकी की जमीन क्या अपनी बेटी को नहीं दे देंगे? फिर पछताना ही पड़ेगा। फार्म लेने का सपना पूरा नहीं होगा

कभी...इस बार खाली हाथ नहीं लौट जाइएगा’’...घर से निकलते समय नेहा ने चेताया था।

भैया ने कभी मना तो नहीं किया था। हिस्से के मुताबिक तो ढाई बीघा जमीन ही मिलती और भैया ने पहले ही दस बीघा लिख दिया है उसके नाम।

लेकिन अब भैया भाभी की बातों में रहने लगे हैं- व्यावहारिक हो गए हैं...इतना कैसे बदल गये भैया?...बबुआ सोच रहा था और भैया की नजर में सो रहा था।

गली में कुत्ते जोर-जोर से भूँक रहे थे। एकाएक वह सिहर-सा गया कहीं कोई चोर तो नहीं घुस आया। आज तक तो ऐसा नहीं हुआ। उसके यहाँ तो क्या, आस-पड़ोस में भी कभी कोई चोरी नहीं हुई। फिर ये सिहरन- ये डर- वह उठा। कमरे में चारों तरफ देखा। कमरे का दरवाजा खोला- आँगन में आया। दूसरे कमरे को देखा- सब कुछ सामान्य था। कहीं कुछ तो नहीं...फिर ये कुत्ते?...उसके पोर-पोर में एक डर समाता हुआ महसूस हुआ। यह कैसा डर है...आज तक तो वह कभी नहीं डरा। पानी का लोटा उसने खाली किया और आहिस्ते से बिस्तर पर आ गया। बबुआ शायद सो रहे थे...

सोने के पहले बबुआ ने कहा था- ‘‘जमीन बेच दीजिए...खतरे बढ़ गये हैं...शहर चलिए’’...

‘‘ऐसी बात नहीं है बबुआ।’’, उसने जवाब दिया था। ‘‘कोई फर्क है अगड़ा-पिछड़ा में? हिंदू-मुसलमान में?...यह तो सपने में भी सोचने की बात नहीं है।’’

‘‘आप बहुत भोले हैं भैया’’- बबुआ ने जैसे सच को नकारने की कोशिश की थी। कभी भी नीयत बदल जाएगी लोगों की, सब कुछ हड़प लेंगे...इसलिए जमीन’’...

मुसाफिर सिंह अँधेरे में टकटकी लगाये छत को देख रहा था। उसका सिर भारी हो गया था। टनों बोझ से दब गया हो जैसे। उसने बबुआ की तरफ बहुत गौर से देखा...बबुआ जो उसकी गोद में खेलने वाला बच्चा था...बबुआ जो उसके साथ लड़ने-झगड़ने वाला दोस्त था...बबुआ की पढ़ाई के लिए वह हाड़ तोड़ता रहा...मजदूरी की...दूसरों की जमीन में बँटैया किया...बाप दादे की संपत्ति ही कितनी थी...मात्र पाँच बीघा जमीन और यह मकान...पच्चीस बीघा तो उसने अपनी मेहनत से बनाया है...बबुआ...बबुआ की उदासी उसने कभी बर्दाश्त नहीं की। बबुआ भी तो उस पर जान छिड़कता रहा है। उसके प्रति, गाँव के प्रति और अपनी जमीन के प्रति उसका मोह भुलाया नहीं जा सकता है। पढ़ते समय भी जब शहर से गाँव आता तो एक-एक क्यारी की मेड़ से गुजरता- हर फसल को बारीकी से देखता। टहलते हुए अगर किसी की बकरी, भेड़ या भैंस-गाय को फसल खाते देख लेता तो मवेशी वाले पर आँखें लाल कर देता। गाँव आता तो पूरी तरह चिपक जाता खेतों से, यहाँ के लोगों से...और अब गाँव के लोग बेगाने हो गये? गाँव जेल हो गया...काला पानी?

वैसे नौकरी में आने के बाद खासकर शादी के बाद तो गाँव उसे काटने को दौड़ने लगा है। गाँव कष्टकर लगता है...दुःखों की खान। टी.वी., वी.सी.आर., कूलर...बीसियों मशीनें सज-धज गयी हैं बंगले में। गाँव उजाड़ लगता है अब...क्या करें वह भी? पत्नी गाँव में रहना चाहे तब तो। वह तो शहर की रहने वाली है...बड़े बाप की बेटी है। बबुआ हाकिम नहीं होता तो वे लोग थूकने भी नहीं आते उसके दरवाजे पर। लेकिन क्या वह बुलाने गया था? आये तो बबुआ के गुण से और चुटा-माटा की तरह लिपट गये लोग सिर पर मोर बाँध कर ही छोड़ा। कोई अहसान नहीं किया आकर बुलंद इमारत में सेंध ही लगाया है। जोड़ा-पाड़ी का परिवार होता तो उसकी लड़की घर सँभालती, बड़ी गोतनी के साथ मेल-व्यवहार रखती...उसकी इज्जत करती। लेकिन वह तो बड़ी गोतनी को नौकरानी समझती है। पलँग पर टाँग पसारकर बैठी रहेगी और फरमाइश करती रहेगी। राम-लक्ष्मण की जोड़ी तो नहीं टूट सकती, लेकिन सीता-उर्मिला का प्रेम तो भूल से भी देखने को नहीं मिलता इस घर में- एकदम पूरब-पश्चिम के होने का प्रभाव है। बबुआ को उसी ने सिखाया-पढ़ाया है। खुद बबुआ में दया है, प्रेम है, उसके प्रति गहरी श्रद्धा है। लेकिन रोज-रोज की बात से उस पर प्रभाव पड़ा है।

तभी तो बबुआ न जाने क्या-क्या कहता रहा रात भर। लेकिन कहाँ त्याग सका! मोह है तभी न कह रहा था...शहर चलिए भैया... क्यों अकेले खटते रहते हैं...हाड़ तोड़ते हैं।...दो प्राणी हैं, हमारे साथ आराम से रहिए। नेहा है, नौकर-चाकर हैं, पिउन-चपरासी हैं, सुख-चैन से रहिए।’’...मोह से ही न कह रहा था ऐसा!

ठीक है उसको मोह है भैया के खटने से...लेकिन भैया अपाहिज की तरह बैठकर पलँग नहीं तोड़ सकता। अब तो जिंदगी गुजार दी। देह-भुजा क्या रोगी की तरह पाड़ कर रखने के लिए है? नहीं...नहीं।

‘‘नेहा रंगीन टी.वी. ले आई है...चलिए न भाभी मन लगेगा। मैं तो इसी बार सादा वाला टीवी ला रहा था भाभी आपके लिए। लेकिन हड़बड़ी में भूल गया और फिर यह भी सोचने लगा कि दोनों को तो लेते ही आऊँगा।

खाना खाते समय भाभी से कह रहा था बबुआ और वह अपनी समझ से उत्तर भी दे रहा था...हूँ-हूँ...टी.वी.? भौजाई सादे टीवी को पड़ोस में देख लेती है चुपके से...उसका प्रभाव तो वह देख रहा है...गाँव का लक्षण देख ही रहा है- बेटी पतोहू तो बिगड़ गये गाँव-घर के...न लाज, न डर। भला वह भी देखने की चीज है, वह भी बाल-बच्चों के साथ? आँखें मुँद जाती हैं खुद-ब-खुद। पता नहीं कैसे लोग देखते हैं मजा ले-लेकर...ऐसा कहने पर हँस रहा था बबुआ और ऊपर से कहने लगा था...अब घर में धुलाई करने की मशीन आ गई है भैया...गैस-चूल्हा तो पहले से ही था...ठंडा...दही और लस्सी-कुल्फी जमाने के लिए फ्रिज है, कूलर है...कार भी आने वाली है...शहर से डरते हैं आप? शहर नरक नहीं स्वर्ग है। गाँव में तो गर्मी से पसीजते रहिए। बरसात में चूती छप्पर से बचने के लिए घर की खाट खिसकाते रहिए या फिर कादो-कीच में हेलकर हिंड़ते रहिये...और जाड़े में!...बाप रे! कितना भी उपाय कीजिए कँपकपाते ही रहना है- कभी देह का सुख नहीं। और फिर अब...अब तो खतरे बढ़ गये हैं- जात-पात, धरम-ईमान के झगड़े हैं। जीवन संकट में पड़ जाएगा...शहर चलिए...शहर चलिए...सीधा समझकर आपकी संपत्ति को लोग हड़प लेंगे...आप भी तबाह होंगे...मेरा भी चैन छिन जाएगा...।’’

‘‘नहीं बबुआ। यहाँ सभी के बीच मेल-मोहब्बत है- उस तरह का अंदेशा मन में लाना ही नहीं है। और फिर किसको पता नहीं कि मेरा छोटा भाई बड़ा हाकिम बन गया है।’’, उसने तर्क किया था।

‘‘आप बदलती हुई दुनिया को नहीं देख रहे हैं...काम बिगड़ने पर आपको भी अफसोस होगा। वैसे इस पर मेरा भी ध्यान नहीं था। मैं भी तो आपका भाई हूँ...आपकी ही तरह का निश्छल, निष्कपट...वह तो नेहा ने इशारा किया कि भैया के सीधपन में सब प्रॉपर्टी डूब जाएगी...सुनकर मैं भी चौंका। नेहा की बात सच लगी। भैया! अगर भाभी अभी जाने को तैयार न भी हों तब भी आप चलिए। दिमाग स्थिर करके सोच लीजिए। शहर के वकील, मजिस्ट्रेट को बुलाकर बात करवा दूँगा...हम लोग सब समझ लेंगे...यहाँ का खेत-मकान बेचना ठीक रहेगा या मेरे नाम करना ठीक रहेगा...जिसमें सुरक्षा होगी वही काम किया जाएगा...बबुआ की बात सुनकर उसे लगा था जैसे माथे पर ही शक्तिशाली बम फटा हो एकदम सन्न रह गया था वह।

वैसे बबुआ उसके बाद भी कह रहा था...भाभी को यह सब नहीं कहिएगा। उनको बहकाने वाले ढेर लोग हैं। औरत जात का दिमाग कमजोर होता है...कनपातर होती हैं...बहकावे में आ जाती हैं...और क्या- क्या बोलता रहा था बबुआ, वह सुन भी नहीं सका था। वैसे पहले से ही वह गौर करता आ रहा था कि बबुआ खेती-बारी...जमीन-जायजाद की बात भौजाई के सामने नहीं कर रहा था। भौजाई के सामने आते ही उसका चेहरा उतर जा रहा था। भौजाई के हाथ से नाश्ता लेते समय तो उसके हाथ काँप गये थे और नाश्ते की थाली नीचे गिर गयी थी। चेहरे पर पसीना चुहचुहा गया था...चेहरे की रौनक गायब हो गयी थी...वह हड़बड़ा-सा गया था।

‘‘भाभी मैं जा रहा हूँ...’’ अकबकाकर कहा था बबुआ ने।’’

‘‘ऐसा कैसे होगा बबुआजी...पक्षी की तरह आये और उड़ गये। ठहरिए अभी।’’, भौजाई के इतना बोलने पर वह सामान्य हुआ था।

और अभी...रात के अंतिम पहर में जब सारी दुनिया सो रही होगी, कुत्ते-सियार भी थककर झपकी ले रहे होंगे और बबुआ को एक ही धुन है...गाँव छोड़ दीजिए...जमीन बेच दीजिए या फिर मेरे नाम कर दीजिए।

अंत में बबुआ ने कहा था...‘‘भैया आप मेरी बात नहीं मानिएगा तो पछताना पड़ेगा। मैं आपको पागलपन नहीं करने दूँगा। आपको मेरी बात माननी होगी। आपकी बेवकूफी...हद हो गई अब।’’ सहज बनने की कोशिश करते हुए अपनापन की चाशनी के साथ बोला था बबुआ, लेकिन पता नहीं क्यों एकाएक उसे लगा था कि बबुआ का गोरा और सुंदर चेहरा अलकतरे (तारकोल) की तरह काला और भयावह होता जा रहा है...उस पर साहिल के काँटों जैसे नुकीले झाड़ उगने लगे हैं और देखते-ही-देखते चील की तरह डैने फैलाये उसकी ओर झपट्टा मारने के लिए बढ़ रहे हैं...और ऐसे में उसने महसूस किया था कि उसके शरीर से चिनगारियाँ निकलने लगी हैं...तमतमा-सा गया था वह, लेकिन इस स्थिति में भी अपने आपको जब्त करने की कोशिश करने लगा था।

‘‘अब सो भी जाओ बबुआ’’, बस इतना ही कह सका था वह, लेकिन इतने से ही बबुआ को घोर आश्चर्य हुआ था। भैया की बेचैनी और उथल-पुथल छिपी नहीं रही थी। भोले-भाले...नादान से दीखने वाले और हरदम मुस्कराने वाले भैया...खासकर बबुआ के सामने बिछ जाने वाले भैया के ललाट पर कई सिलवटें पड़ गई थीं और समुद्र की तरह शांत उनके चेहरे पर जैसे तूफान-सा आ गया था और ऐसे में बिना विलंब किए बबुआ ने चादर तान ली थी।

और वह अभी भी बातों की गुत्थियों में उलझा था। पत्नी तो बेवकूफ समझती ही है- अनपढ़ देहाती समझती है...बबुआ भी? सीधा होने का मतलब- निष्कपट और निश्छल होने का मतलब बेवकूफ और बेजान होना नहीं होता...

‘‘भैया जागिए...तैयार हो जाइए...’’ काफी मद्धिम-सी आवाज से भैया को जगा रहा था बबुआ। रोज बेफिक्र खर्राटे मारने वाला मुसाफिर सिंह आज सोया ही कब था! फिर भी वह हड़बड़ाकर उठा। भोर हो गयी थी। सूरज की सुनहरी किरणें खिड़की से दबे पाँव कमरे में प्रवेश कर रही थीं। उसकी नजर बबुआ के अधीर लेकिन लजाए हुए चेहरे पर टिक गई।

‘‘भैया! आपकी जो इच्छा है, वही कीजिए। मैंने कभी आपकी इच्छा के विरुद्ध कुछ किया है क्या? लेकिन अभी मेरे साथ चलिए’’, बबुआ घिघिआनी अंदाज में बोल रहा था और मुसाफिर सिंह खाट पर चुपचाप बैठा था और शून्य में जैसे कुछ ढूँढ़ रहा था।

‘‘नेहा को बहुत चोट पहुँचेगी, भैया। वह आपका इन्तज़ार कर रही होगी। बच्चे इंतजार कर रहे होंगे...और फिर क्या रह गया है यहाँ जो अपना हो...हर क्षण खतरे की तलवार गर्दन को छूती है...मैं आधे मन से ही कहीं रहूँगा, मन नहीं लगेगा...चलिए भैया...मेरे साथ आप चलिए...शहर का नया जीवन...आपका इंतजार कर रहा है।’’

‘‘रहने दो बबुआ...इस गाँव से...इस माटी से अलग कोई सुख है क्या?...होगा भी तो वह हमारी कल्पना से परे है...और अगर कोई दुःख भी हो तो वह हमारे जीवन की उतरती दोपहरी में अपनी जमीन के कण-कण से अलग होने की पीड़ा से अधिक नहीं होगा मेरे लिए। मर भी जाऊँ तो इसी माटी में मिल जाना चाहूँगा...इस धरती के अंकुरों से फूटूँगा...धान की बालों में महकूँगा...मैं लोगों को कंधा दूँगा...लोग मुझे कंधा देंगे’’...बोलते-बोलते मुसाफिर सिंह जैसे काँप रहा था और आँखों का समुंदर उफान पर था।

‘‘तुम जाओ बबुआ...जाओ...चले जाओ...कहीं गाड़ी छूट न जाए’’, मुसाफिर ने बबुआ से कहा और खुद बाँहों से आँसुओं को पोंछते हुए तेजी से घर से बाहर निकल गया।