राकेश रोशन: हिटलर से टेडीबियर / जयप्रकाश चौकसे

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
राकेश रोशन: हिटलर से टेडीबियर
प्रकाशन तिथि : 14 सितम्बर 2013


राकेश रोशन के सुपुत्र ऋतिक रोशन ने अपने पिता के जन्मदिन के अवसर पर आयोजित दावत में कहा कि उसके पिता हमेशा निहायत ही संजीदा और सख्त व्यक्ति रहे हैं और उनकी अनुपस्थिति में उनके बेटे उन्हें हिटलर कहा करते थे। उनके मुंह से निकला शब्द घर का कानून होता था। केवल कुछ महीने पूर्व उनकी पुत्री सुनयना सुबह उनके बिस्तर पर जा कूदी और उन्हें गुदगुदाना और लडिय़ाना शुरू किया। इतना साहस पहले कभी किसी ने नहीं दिखाया था। उस सुबह सुनयना छोटी बच्ची की तरह उनके बिस्तर पर बैठ गई। इस सर्वथा नई गतिविधि पर राकेश भी ठहाका लगाकर हंसने लगे। सारी उम्र परिवार में अनुशासन बनाए रखने के लिए उन्होंने जो मुखौटा लगाया था, वह हट गया। गोया कि नारियल का ऊपरी सख्त हिस्सा टूटकर गिर गया और भीतर का मुलायम हिस्सा सामने आ गया। सारे जीवन बनाया हुआ आतंक एक क्षण में टूट गया। उस दिन के बाद से घर का वातावरण बदल गया। यहां तक कि राकेश रोशन अपनी पत्नी को लेकर 'डेट' पर जाने लगे और उनके प्रारंभिक दिनों की मौज-मस्ती लौट आई। राकेश अपने पोतों के साथ भी खेलने लगे और तमाम रिश्तेदारों के साथ भी उनका व्यवहार बदल गया। असली मौज-मस्ती वाला राकेश मुखर हो गया और मुखौटे गिर गए। उस दिन के बाद हिटलर मानो टेडीबियर हो गए।

हमारे रोजमर्रा के जीवन में प्राय: हर घर में किसी न किसी का आतंक रहता है। याद कीजिए ऋषिकेश मुखर्जी की फिल्म 'खूबसूरत', जिसमें पूरे परिवार पर दबदबा है माताजी का और परिवार में एक रिश्तेदार के रूप में खिलंदड़ रेखा आती है और माताजी की गैरहाजिरी में सभी मौज-मस्ती में डूबे रहते हैं। एक दिन माताजी को सब मालूम पड़ जाता है और धीरे-धीरे परदा उठता है कि परिवार में अनुशासन के लिए उन्होंने अपनी सख्त व्यक्ति की छवि गढ़ी थी। आशय स्पष्ट है कि परिवार को एकजुट रखने के लिए किसी तानाशाही व्यक्तित्व की जरूरत होती है। परिवार एक राज्य की तरह है और घर के सिंहासन पर एक सख्त राजा का बैठना जरूरी है।

याद कीजिए, मुंशी प्रेमचंद की कहानी, जिसमें सख्त अनुशासनप्रिय बड़े भैया अपने छोटे भाई को पढ़ाई और अनुशासन का पाठ पढ़ाते हैं और स्वयं परीक्षा में फेल होते रहते हैं। यहां तक कि छोटा भाई उनसे आगे निकल जाता है। एक दिन बड़े भैया पतंग लूटने के लिए दौड़ते हैं और आतंक का मुखौटा गिर जाता है। ज्ञातव्य है कि हिटलर के फोटोग्राफ्स की कतार में गलती से किसी ने चैपलिन की हिटलर के गेट-अप में खिंची तस्वीर लगा दी। जब चार्ली चैपलिन को यह ज्ञात हुआ तो उन्होंने 'डिक्टेटर' नामक फिल्म बनाई। उसमें वे एक काल्पनिक राज्य के हंसोड़ तानाशाह बने। एक दर्शक की प्रतिक्रिया यह थी कि चैपलिन की फिल्म देखने के बाद उसके मन से हिटलर का भय निकल गया। ज्ञातव्य है कि सारा घटनाक्रम उस दौर का है, जब हिटलर मानवता का नाश कर रहा था। आशय स्पष्ट है कि हंसने से भय दूर भाग जाता है।

दरअसल, परिवार में अनुशासन और उत्तरदायित्व की भावना का जन्म हर सदस्य के हृदय के भीतर से जागना चाहिए, उसके लिए आतंक की छवि के किसी बुजुर्ग का घर में होना आवश्यक नहीं है। गोया कि किसी भी दृष्टि से आप सोचें तो सारे सद्गुण और विकास स्वत:स्फूर्त होने चाहिए। लादने से कोई नियम कारगर नहीं होता। यह एक लोकप्रिय भ्रम है कि आतंक आवश्यक है।

सुधार का एकमात्र रास्ता प्रेम ही है। दूसरा सार यह उभरकर आता है कि हर मनुष्य के भीतर बहुत-से मनुष्य रहते हैं। रवीन्द्र जैन द्वारा लिखा एक दोहा है - 'गुण-अवगुण का डर, भय कैसा। जाहिर हो भीतर तू है जैसा।' यह राज कपूर की न बन पाने वाली 'घूंघट के पट खोल' के लिए उन्होंने लिखा था। यह चिंता का विषय है कि आज 52 प्रतिशत युवा तानाशाही चाहते हैं। उन्होंने हिटलर की बर्बरता तो दूर की बात है, आपातकाल भी नहीं देखा। जब तक हिटलर का उदय नहीं होता, तब तक टेडीबियर का मूल्य हम जान नहीं पाएंगे।