राजकपूर की फिजूलखर्ची / जयप्रकाश चौकसे

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राजकपूर की फिजूलखर्ची
प्रकाशन तिथि :14 दिसम्बर 2007


सृजन करने वाले के चलने-फिरने, खाने-पीने का कोई अर्थ नहीं होता। उसके लीन हो जाने और डूबजाने से ही उसे मुक्ति और सार्थकता मिलती है।

आज राजकपूर का 83वां जन्मदिन है। उनके समकालीन देवआनंद और दिलीपकुमार आज भी सक्रिय हैं और उम्र में उनसे बरस दो बरस बड़े भी हैं। अपनी फिल्मों को भव्यतर बनाने की तरह राजकपूर अपनी उम्र के मामले में भी फिजूलखर्च रहे। स्वयं को बचाकर चलना उन्होंने कभी जाना ही नहीं। डूबकर दरिया के पार जाने का अंदाज उनके काम में भी था और जीवन में भी। आग के दरिया से ऐसे ही गुजरते हैं। इश्क से सराबोर जीवन में और क्या हो सकता था। दास्तान-ए-राजकपूर अजीब सी रही, कहां से शुरू हुई और खत्म होने का नाम ही नहीं लेती। फिल्म जिस निगेटिव पर बनती है, वह ज्वलनशील सेल्युलाइड है परंतु उस पर रचे अफसाने मरते नहीं क्योंकि दरअसल वे दर्शक के मन में गढ़े गए हैं। परदे पर स्टील के बने प्रोजेक्टर से दिखाई गई फिल्में दरअसल दर्शक के मन में ही गढ़ी जाती हैं और वहीं सदा कायम भी रहती हैं। सिनेमाघर में छाए हुए अंधेरे का दर्शक का मन की अंधेरी गुफा से गहरा रिश्ता है। परदे पर प्रस्तुत उजास तो महज बहाना है। तर्कोतर यह खेला विचित्र है।

गुजरात के एक बालक ने ‘बूट पॉलिश’ देखकर भीख मांगना छोड़ दिया। आज उसके नाती-पोते शिक्षित और सफल लोग हैं और उन्हें गुमां भी नहीं कि उनकी कुंडली के योग एक फिल्म ने बदले हैं। दर्शक का कोई अनुभव जब वह परदे पर अभिनीत होते देखता है तो उसकी आत्मा के तार झंकृत हो उठते हैं। यादों से फिल्में बनती हैं और दर्शक के दिल में यादों की तरह बस जाती हैं। धर्म हो या सृजन कार्य, सब कुछ आपके डूब जाने की क्षमता पर निर्भर करता है। यह लीन हो जाना ही सार्थकता है। राजकपूर के पास डूब जाने की अद्भुत क्षमता थी। यह उनकी भावना की तीव्रता ही है जिसके कारण ‘संगम’ जैसी घोर अतार्किक फिल्म भी अपनी सिनेमाई लहर के कारण सफल रही। यह कैसे यकीन कर सकते हैं कि उस नायक को हिंदी पढ़ना नहीं आती, जो बाद में एयरफोर्स में चुना गया। अगर गोपाल के नाम राधा का लिखा प्रेमपत्र सुंदर पढ़ लेता तो कहानी दूसरी रील में समाप्त हो जाती।

वर्ष 1982 में राजकपूर सामंतवादी पृष्ठभूमि पर एक युवा विधवा की प्रेम कहानी बनाते हैं और एक्शन फिल्मों के शिखर दौर में फिल्म सफल रहती है। उस दौर में बूढ़े राजकपूर ने ऐसी हिम्मत दिखाई कि बरबस आपको हेमिंग्वे के ‘ओल्डमैन एंड द सी’ की याद आ जाती है। तूफान का अंदेशा है और बूढ़ा मछलीमार अपने काम पर चल पड़ा।

निर्माणाधीन पेंटिंग देखकर आपको उसके प्रभाव का अनुमान नहीं होता, क्योंकि ‘मास्टर’ ने अभी दो-तीन स्ट्रोक्स और लगाना है। ‘राम तेरी गंगा मैली’ बन चुकी थी कि राजकपूर ने तीन दृश्य जोड़े- एक में नायक का ससुर कलकत्ता से बनारस जाते हुए पूछता है कि वह उसके लिए क्या लाए तो नायक कहता है कि बनारस से गंगा लाइए। वह सचमुच ले आया और हकीकत मालूम होते ही मौसा को बोला कि कलकत्ता से गंगा को बनारस वापस कर दें। मौसा ने कहा कि गंगा उल्टी नहीं बहती। इस राजकपूर स्पर्श के लिए अपनी संस्कृति में आकंठ डूबना होता है। सृजन करने वाले के चलने-फिरने, खाने-पीने का कोई अर्थ नहीं होता। उसके लीन हो जाने और डूब जाने से ही उसे मुक्ति और सार्थकता मिलती है।

किनारे पर बैठकर नदी में कंकड़ फेंकने से कुछ नहीं होता। प्रतीकात्मक चुल्लू भर पानी माथे पर लगाने से कुछ नहीं होता। इस डूब जाने के लिए ही राजकपूर ने खुद को बेतहाशा खर्च किया। आप अतिरिक्त असबाब लेकर डूब कैसे सकते हैं। आप कोई भी काम करें, उसमें पूरी तरह डूबकर करें- राजकपूर के जीवन से हमें यही प्रेरणा मिलती है।