राजकाज / रणविजय

Gadya Kosh से
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कंट्रोल ऑफिस में हलचल मची हुई थी। पांडे एक साथ दो-तीन फ़ोन सँभाले बैठे थे। ‘जी, जी, जी, सर, सर’ जैसे शब्द ही सुनाई पड़ रहे थे। सबेरे की पहली चाय कप में आधी पड़ी हुई थी। उनको घेरे हुए तीन-चार लोग और खड़े हुए थे। कोई मोबाइल फ़ोन सँभाले हुए था तो कोई पांडे के निर्देशों का इंतज़ार कर रहा था। आख़िर एक फ़ोन रखकर पांडे ने दूसरा फ़ोन फ़ौरन सँभाला।

ये रेलवे का नियंत्रण (कंट्रोल) कक्ष था। लगभग 1500-2000 किलोमीटर तक फैले रेल पथों के एक मण्डल का कंट्रोल रूम, ब्रेन की तरह होता है। मण्डल में चलने वाली सैकड़ों मालगाड़ियाँ, मेल पैसेंजर गाड़ियों में किसको रोकना और बढ़ाना है, इसका निर्देश यहीं से जारी होता है। हर गाड़ी की बिलकुल वास्तविक समय में यहाँ से निगरानी रखी जाती है। स्टेशनों के माध्यम से लाल सिगनल देकर किसी भी गाड़ी को रोक लिया जाता है अथवा हरा देकर जाने दिया जाता है। किसी खराबी अथवा बाह्य कारणों, जैसे- दुर्घटना हो जाना, इंजन ख़राब हो जाना, पटरी चटक जाना इत्यादि जैसी घटनाओं में यहाँ हलचल बढ़ जाया करती थी। गाड़ियों को समयपूर्वक चलाना, रेल की पहली प्राथमिकता थी। रेलवे की छवि में समय पालनता के बनने-बिगड़ने का बड़ा हाथ है। भारत में रेल हमेशा लेट-लपेट ही मानी जाती है। इतना कि उसके नियत समय से वह कितना लेट आयेगी इसके बारे में लोग भली-भाँति जानते रहते हैं।

उधर से आवाज़ आयी।

“क्या डी.आर.एम. साहब का फ़ोन था?”

“जी सर।” पांडे ने आख़िर थोड़ा आराम से होते हुए जवाब दिया।

“क्या हुआ है जंगीपुरा में?” आवाज़ में झुँझलाहट और खीझ थी।

“सर, लगभग 100 लोग, लुगाइयाँ पटरी पर आकर बैठ गये हैं और कह रहे हैं कि जब तक बिजली चालू नहीं हो जाती, हम गाड़ियाँ नहीं चलने देंगे।”

“अच्छा...” लम्बा ठहराव। “गाड़ी कौन-कौन-सी खड़ी हैं और कितनी देर से हैं?”

“साहब, जंगीपुरा में चम्बल एक्सप्रेस 1 घंटे से, महानंदा एक्सप्रेस 43 मिनट से, उसके पीछे रमपुरवापुर में विदर्भ एक्सप्रेस 37 मिनट से तथा बीसलपुर में सियालदह को आधे घंटे से कंट्रोल कर रखा है, सुबह-सुबह सभी मेल गाड़ियों का बंच (एक के पीछे एक) लगा हुआ है और अगर जल्दी ख़त्म नहीं हुआ तो सभी यात्री स्टेशनों पर ऊधम करेंगे।”

अभी कुछ दिनों पहले ऐसा ही हुआ था। गर्मी की वजह से रेल की पटरी थोड़ी बकल हो गयी थी। उस रास्ते की एक्सप्रेस गाड़ियों को छोटे-छोटे स्टेशनों पर रोक दिया गया। पटरी सही करने में तीन घंटे लगे। इन तीन घंटों में यात्रियों ने स्टेशनों पर नारेबाजी, तोड़फोड़ शुरू कर दी थी। उन स्टेशनों पर न कुछ खाने की व्यवस्था थी, न पानी की और ऊपर से गर्मी बहुत ज्यादा। स्टेशन उपकरणों को बचाने में स्टेशन मास्टर की पिटाई हो गयी। ऐसे माहौल में खीझ बढ़ जाना स्वाभाविक था। बीवी को चुप रहने के लिए पहले ही डाँट पड़ चुकी थी। बच्चा जो स्कूल के लिए तैयार हो रहा था, उसको भी डाँट पडी, “रो मत।”

“अच्छा, यह कितने बजे शुरू हुआ? आर.पी.एफ. (रेल सुरक्षा बल) को ख़बर कर दी कि नहीं?”

पांडे ने तीसरा फ़ोन इंतज़ार करते हुए मातहत को पकड़ाया और बोला- “डी.ओ.एम. साहब से ज़रा बात कर लो, अभी हम सीनियर साहब से बात कर रहे हैं।” फिर आगे जोड़ा-

“साहब, 6.23 बजे से शुरू हुआ, जब आकर चम्बल एक्सप्रेस खड़ी हुई। आदमी तो पहले ही काफ़ी इकट्ठा हो गये थे। स्टेशन मास्टर ने बताया कि बिजली कल सबेरे 10 बजे से नहीं आ रही है। मई की गर्मी तो आप समझ ही सकते हैं। कॉलोनी में 3000 मकान हैं। वहाँ रहने वाले धीरे-धीरे स्टेशन की तरफ़ ही चले आ रहे हैं। बिजली न होने की वजह से लोग ठीक से रात-भर सोये नहीं हैं। अब पानी की भी समस्या हो गयी है। रेलवे पुलिस का हाल तो आप जानते ही हैं, फ़िर भी उनको मैसेज कर दिया गया है। बिना डंडे पड़वाये आदमी लोग हटने वाले नहीं।”

बात काटते हुए साहब ने कहा- “अच्छा, तो वहाँ के तीनों अफसर कर क्या रहे हैं? वे लोग साइट पर हैं कि नहीं?”

पांडे ने हताश आवाज़ में जवाब दिया- “साहब वे लोग वहाँ पर मौजूद हैं। पर कुछ कर नहीं पा रहे हैं। वे बार-बार बता रहे हैं कि कोई कुछ सुनना ही नहीं चाहता। सब कहते हैं कि बिजली वाले साहब को लेकर आओ।”

बाँध के ऊपर तक पहुँच चुके पानी की तरह साहब को ग़ुस्सा आ रहा था। यह बाँध कब टूटे और सैलाब आ जाये कहा नहीं जा सकता। आज सुबह-ही-सुबह तमाशा हो गया था। न खाना, न पीना, दिन ख़राब हो गया। चाय भर पी है। अभी फ्रेश होना बाक़ी है। यह साला शर्मा भी कोई काम तो करता नहीं, हरामजादा। इसकी वजह से परेशानियाँ हम झेलते हैं। रेल में यही कलेश है। 24 घंटे चलती है और 24 घंटे कुछ-न-कुछ अपशकुन होता रहता है। जिसकी वजह से ज़िम्मेदार पदों पर बैठे लोगों की ज़िन्दगी कॉल सेंटर या फायर ब्रिगेड जैसी हो जाती है।

उन्होंने झुँझलाहट भरे स्वर में पूछा-

“डी.आर.एम. साहब ने क्या कहा है?”

पांडे ने डी.आर.एम. का फ़रमान दबे स्वर में दोहरा दिया-

“आपको तुरंत कंट्रोल ऑफिस आने को कहा है तथा आते ही उनसे बात करने को बोला है। रेलवे पुलिस कमांडेन्ट तथा बिजली वाले साहब को बाई रोड, जंगीपुरा जाने के लिए बोला गया है। अब तक वे लोग शायद निकल रहे हों और...”

आगे के बोल जैसे उनके कानों पर गिरे ही नहीं। यूँ लगा जैसे कोई उन्हें जबरन मारपीट के घसीट रहा है। झल्लाये स्वर में सुनाते हुए अपने आप से ही बोले-

“अभी तो साला ड्राइवर भी नहीं आया होगा... इन हरामजादों को भी जितनी सहूलियत दो उतना ही सिर चढ़ जाते हैं... अच्छा मैं आता हूँ, नहीं तो अभी डी.आर.एम. का भी फ़ोन आने लगेगा।”

जंगीपुरा 8.15

जंगीपुरा में जंग जैसी स्थिति उत्पन्न हो गयी थी। रेल की पटरियों पर लगभग 250-300 लोग घूम रहे हैं, बैठे हैं या अपना मंजन, दातून कर रहे हैं। स्टेशन पर छोटा डी.जी. (जनरेटर) सेट होने के कारण पानी की व्यवस्था थी। लगभग 50 लोग आपस में बहस कर रहे हैं तथा बाक़ी लोग अपना कान उसी तरफ़ लगाये हुए हैं। स्पष्ट नहीं हो पा रहा है कि कौन कहना क्या चाहता है? घूम-घूमकर लोग बहस के इर्द-गिर्द तक आते हैं, कुछ देर तक तेज आवाजें सुनते हैं तथा फ़िर उनका कुछ मतलब निकालते हुए किसी को बताने चले जाते हैं। कुछ अधिकारी भी समझाने में लगे हुए हैं। कुछ यात्री कहते हैं कि भाई झगड़ा-टंटा न करो। संयम से काम लो। यात्री कह रहे हैं, “भइया, हमसे क्या झगड़ा है, हमें जाने दो।” जंगीपुरा के लोग भी इस बात को समझते हैं कि उनका यात्रियों से कोई झगड़ा नहीं है, मगर उनको जाने देंगे तो बनी-बनायी बात बिगड़ जायेगी। आज इस हालत तक यह बात पहुँची है कि प्रशासनिक अमला परेशान है। उनकी हर छोटी-बड़ी समस्या सुनने के लिए बड़ा-से-बड़ा अफसर रात तक बैठने को तैयार है। अगर अभी छोड़ दिया तो कुछ न होगा और फ़िर जो रोज़ होता है, वही होने लगेगा। कुछ यात्रियों में जोश भी आ रहा है वे मारपीट कर मामला सुलटा देना चाहते हैं। मगर बुज़ुर्ग लोग समझा देते हैं कि भइया दूसरे का इलाक़ा है, इन्हें इतने ही न समझो जितने दिख रहे हैं, एक गिरेगा तो इन घरों से 100 निकल आयेंगे।

8.45 बजे, जंगीपुरा स्टेशन, वेटिंग हाल

लगभग 50 पुलिस तथा 50 और लोग हाल में खचाखच भरे हुए हैं। जिनमें से 10 अफसर हैं। वरिष्ठ बिजली इंजीनियर, शर्मा, उनके सहायक इंजीनियर श्रीवास्तव, रेलवे पुलिस बल के कमांडेंट तथा अन्य मातहत। लोग चिल्ला रहे हैं और कुछ लोग कह रहे हैं शांत हो जाइये। आपकी ही बात सुनने तथा समस्या का हल दूर करने इतनी दूर से आये हैं। कुछ लोग दबे सुरों में, मक्कार, भ्रष्ट, चोर तथा इसी तरह के अर्थवाले शब्दों से गालियाँ दे रहे हैं। उधर चम्बल तथा महानंदा एक्सप्रेस की लाइन क्लीयर एनाउंस हो रहा है। सभी यात्रियों से अनुरोध किया जा रहा है कि वे गाड़ियों में बैठ जायें, क्योंकि गाड़ियाँ चलनेवाली हैं। किसी की बात किसी को समझ में नहीं आ रही है। कोई 2 महीने पहले की आश्वासन की याद दिला रहा है, तो कोई 25 लाख रुपये के ठेके की याद दिला रहा है। लोगों का रोष और जोश केवल कुछ पुलिसवालों के कारण बहुत मुखर नहीं हो पा रहा है। पसीने में नहायी हुई पब्लिक को देखने से अहसास हो जाता है कि रात में नींद पूरी नहीं हुई है इसलिए आँखें सूजकर लाल-लाल हो रही हैं। कुछ लोग कुसिर्यों के ऊपर चढ़ गये हैं तथा वहाँ से देखकर अंदाजा लगाना चाह रहे हैं कि बात क्या हो रही है। पुलिसवाले खींच-खींचकर नीचे उतारते हैं मगर लोग फ़िर चढ़ जाते हैं। पुलिस भी जानती है कि संयम ही सबसे कारगर हथियार है। क्योंकि पुलिस का मनोवैज्ञानिक भय तो काम आयेगा परंतु यदि पब्लिक अपने पर आ गयी तो पत्थर मार-मारकर सबको गिरा देगी।

12.17 बजे, भारत सरकार, मध्य रेलवे को आलोकित करता हुआ कत्थे रंग का एक पुराना-सा ट्रक आकर कॉलोनी के पास खड़ा हुआ। त्रिपाठी, जे.ई. के साथ लगभग 20 लोग वहाँ मौजूद हैं। सहायक इंजीनियर श्रीवास्तव और त्रिपाठी बार-बार चिल्लाकर हिदायतें दे रहे हैं। एक बड़ा-सा ट्रांसफार्मर जिसके सिलेटी रंग पर महीनों का रिसा हुआ गंदा तेल जमा हुआ है। उसके चारों तरफ़ निकले हुए डैने उसको उपग्रह सरीखा लुक देते हैं। उसे धीरे-धीरे उतारकर प्लेटफॉर्म पर रखने की कोशिश की जा रही है। उसमें छोटे-छोटे लोहे के पहिये भी नीचे लगे हैं परंतु वज़न ज़्यादा होने की वजह से वे पहिये रेलिंग पर ही चल पाते हैं, सींमेट पर नहीं। काम करने वाले कर्मचारियों की भाव-भंगिमा से प्रतीत हो रहा है कि इन्हें 12 बजे की मई की धूप में काम करने के लिए नौकरी पर नहीं रखा गया है। त्रिपाठी और श्रीवास्तव उनका शोषण कर जल्दी-जल्दी हाथ चलाने को कह रहे हैं।

कभी मान-मनव्वल का माहौल बन जाता है तो कभी डाँट-फटकार का। गैरों की झंझटों से बेपरवाह और मजबूरी, जबरदस्ती की मूर्ति बने कर्मचारी इस काम को निपटाने से कोई सरोकार नहीं रख रहे थे। उनको शर्मा की धौंस दी जा रही है, नौकरी से बर्खास्तगी की घुड़की दी जा रही है। बीच-बीच में चिरौरी-विनती भी हो रही है कि यार कितनी परेशानी हो रही है कॉलोनी वालों को, बिना बिजली पानी के इस गर्मी में कैसे रहेंगे, यार जल्दी काम ख़त्म कर लो। सरकारी नौकर का नखरा दामाद से कम नहीं होता है। ट्रांसफार्मर इसी सिलसिले में अनलोड हो चुका है।

श्रीवास्तव सावधान करने के अंदाज़ में बोले-

“जल्दी से एल.टी. (कम वोल्टेज) साइड से चार्ज कर टेस्ट कर लो, क्या पता मुहम्मदपुर से खोलकर यहाँ लाने में कोई बात हो गयी हो।” वह नहीं चाहते थे कि फ़िर कोई समस्या आ जाये।

जे.ई. त्रिपाठी ने श्रीवास्तव को लगभग नजरअंदाज करते हुए निर्देश दिया-

“कुछ नहीं, जल्दी-जल्दी कनेक्ट करो, चेक करने की ज़रूरत नहीं है, क्योंकि ऐसा तो अक्सर होता ही रहता है... साहब को आइडिया नहीं है।” त्रिपाठी इस विभाग का पुराना घाघ सुपरवाइजर था। काफ़ी मेहनत के बाद टेस्ट चार्ज किया गया और ठीक होने पर 1.35 बजे पर बिजली चालू हो गयी। पसीने से लथपथ और जोश से भरे हुए श्रीवास्तव तथा त्रिपाठी दोनों ने फ़ोन लगाकर शर्मा को यह ख़ुशखबरी सुनायी। शर्मा ने तुरंत डी.आर.एम. को फ़ोन पर सूचना देना आवश्यक समझा।

“सर, लगभग 15 मिनट हो गये सप्लाई चालू हुए, अभी सब ठीक है।”

“अच्छा, पर ये सब कैसे हुआ? यूनियन के लोग कहते हैं कि आपका जे.ई. त्रिपाठी एकदम निकम्मा है, वह कोई काम नहीं करता है, बिजली का एक भी काम कॉलोनी में नहीं होता है, जबकि तुम तो 5-7 लाख रुपये का हर महीने केवल सामान ही ख़रीद रहे हो और ढेर सारा सामान सेंट्रल स्टोर डिपो से भी उठा रहे हो, फ़िर ऐसी शिकायत क्यों है?”

“सर, जी सर...” शर्माजी का गला साथ न दे सका।

“लोगों ने यह भी बताया है कि अभी 3 साल पहले यहाँ नया ट्रांसफार्मर रखा गया था। सभी स्विचगियर भी नए लगे थे, फ़िर इतने रक्षा उपकरणों के बाद भी ट्रांसफार्मर कैसे जल गया? इसकी इन्क्वायरी कराकर मुझे इसकी रिपोर्ट दीजिये। जिम्मेदारी फिक्स करके कर्मचारी को दंडित करिये।”

“जी... सर, जी सर, जी... ” जैसे शब्दों के साथ शर्माजी घिघियाते रहे। फ़ोन कट चुका था पर शर्माजी अभी सहज नहीं हो पाये थे। सरकारी रिवाज़ यही है रिपोर्ट दीजिए, दण्डित कीजिए। रिपोर्ट पर फ़िर एक एक्जीक्यूटिव समरी रिपोर्ट बनाइए, फ़िर एक एक्शन टेकन रिपोर्ट, फ़िर एक लाभ-हानि विश्लेषण रिपोर्ट, ऑडिट रिपोर्ट न जाने क्या-क्या। रिपोर्टें ख़त्म नहीं होतीं। आदमी दण्डित भी नहीं हो पाता।

त्रिपाठी और श्रीवास्तव शाम तक सब-स्टेशन में बैठकर काग़ज़ों, रजिस्टरों को टटोलते रहे। पचासों पन्ने फोटोकॉपी कराये गये। दस कर्मचारियों के मन-माफिक बयान लिये गये। इसके बाद कम्प्यूटर पर बैठकर दस पन्नों की एक रिपोर्ट बनायी गयी। इस कार्य में पूरे दो दिन ख़र्च हुए। इन दो दिनों में इस काम के अलावा और कुछ भी किया नहीं जा सका था। इस पुनीत कार्य में शर्मा का रोल चाणक्य की तरह रहा जो अपने कार्यालय से बैठे-बैठे मार्गदर्शन देते रहे। समय-समय पर डाँट पिलाते रहे। शर्मा हँसमुख स्वभाव के गोल-मटोल व्यक्ति थे। आप से बात कर रहे हों तो माहौल में अपने आप मिठास घुल जाये। दस पन्नों की रिपोर्ट को 100 संलग्न दस्तावेजों के साथ एक बहुत ही सुंदर फाइल में लगाकर डी.आर.एम. को रिझाने के लिए तैयार कर लिया गया।

शर्मा, डी.आर.एम. के चेम्बर में 10.30 पर इजाज़त लेकर अंदर पहुँचे। बिलकुल नतमस्तक एवं एक खिंची-खिंची मुस्कान के साथ अंदर पहुँचकर उन्होंने साहब का मूड भाँपने की कोशिश की। पर साहब के निर्विकार चेहरे को देखकर कुछ अनुमान न कर सके, सिवाय इसके कि उनको देखकर, उन्हें कोई प्रसन्नता नहीं हुई। घंटी बजाकर किन्हीं दो आदमियों को उन्होंने फ़ौरन आने का आदेश दे दिया। फ़िर कुछ काग़ज़ों, फाइलों में व्यस्त हो गये। इसी दौरान उनके मोबाइल तथा इंटरकॉम पर 3 बार फ़ोन आये, जिनके जवाब उन्होंने ज्यादातर लगभग चिढ़ते हुए बड़े संक्षिप्त में दिये। कमरे में लगे स्प्लिट एसी से एयर कटिंग की हल्की आवाज़ सुनाई पड़ रही थी। इतनी देर में उन्होंने लगभग डी.आर.एम. के पीछे दीवार पर लगी सभी चीजों को कई बार बहुत बारीकी से देख लिया। दो व्यक्तियों ने डायरी-कलम हाथ में लिये हुए अंदर प्रवेश किया। अभिवादन कर एक किनारे खड़े हो गये। साहब ने एक की तरफ़ मुँह करके बोला-

“तुम्हें कल एक पोजीशन बनाने को कहा था और बताया था कि आज महाप्रबंधक महोदय को 10 बजे उनकी मेज पर चाहिए, पर तुम क्यों नहीं बनाकर दिये?”

नवयुवक डरने के स्वरों में बोला- “सर, उसमें पूरे महीने की एक-एक यात्री गाड़ियों की आय तथा आइटमवाइज कोयला, गेहूँ, तेल इत्यादि की लोडिंग की पोजीशन चाहिए थी, जो इतनी जल्दी इकट्ठा नहीं हो सकी, पर मैं उसको 11.30 बजे तक ज़रूर कर लूँगा। सर 11.30 पर आपको दिखाकर फैक्स कर दूँगा।”

डी.आर.एम. का ग़ुस्सा थोड़ा शांत हुआ। पहले के रवाना होते ही दूसरे से मुख़ातिब हो बोले-

“महाप्रबंधक को आज सबेरे की घटना को देखते हुए शंका है कि ट्रेन ड्राइवर 12 घंटे से ज़्यादा ड्यूटी कर रहे हैं, इसलिए वे दुर्घटना उन्मुख हो गये हैं, तुम ऐसा करो कि परिचालन से पिछले महीने की प्रत्येक दिन के हिसाब से ड्राइवर की ड्यूटी निकालो तथा जहाँ-जहाँ 12 घंटे से ज़्यादा आ जाए उन्हें चिह्नित कर मेरे सामने लाओ। लगभग 600 ड्राइवर हैं यहाँ हमारे पास, उम्मीद है तीन घंटे में बना लोगे।”

“जी सर!” कहकर वह आदमी दुःखी मन से भारी क़दमों के साथ वापस हुआ। इतनी बातों से यह स्पष्ट हो गया कि डी.आर.एम. का मूड अच्छा नहीं है और सम्भवतः उनको भी जी.एम. (महाप्रबंधक) से कड़वी दवाई मिली है। तो अब शायद वैसी ही दवाई शर्मा को भी दी जायेगी। परपीड़ा में भी अनंत सुख है।

अब बारी शर्मा की थी। साहब ने उनकी तरफ़ देखा तो उन्होंने तपाक से फाइल को साहब के सामने रख दिया। डी.आर.एम. ने ग़ौर किया, कुछ याद आता नहीं दिखा कि ये कब की वारदात की जाँच रिपोर्ट है। फाइल अंदर खोलकर देखा तब घटना की याद आ गयी। दरअसल हजारों किलोमीटर के मंडल में दिन-भर में ही कई घटनाएँ हो जाती थीं। पिछले दिन की घटना एक-दो दिन बाद बासी हो जाती है। डी.आर.एम. ने सरसरी निगाह से पूरी कथा पढ़ डाला। पढ़कर समझ में आया कि पिछले दो साल से बरसात जंगीपुरा में मेहरबान नहीं रही, जिसके कारण गर्मी बहुत ज़्यादा बढ़ गयी है। इसी बीच रेलवे के कार्य विस्तार के कारण कुछ नए मकान भी कॉलोनी में बने हैं तथा पुराने मकानों में रहने वाले लोगों की संख्या बढ़ गयी है। उपर्युक्त कारणों से बिजली का वास्तविक लोड बहुत बढ़ गया है। जिसके चलते बिजली के सुरक्षा उपकरण जलकर ख़राब हो गये। पिछले साल से इन उपकरणों की ख़रीद प्रस्ताव लगातार बनाये जा रहे हैं, परंतु प्रस्ताव स्वीकृति नहीं किये जा रहे। हमेशा धन अभाव का बहाना बनाया जाता है और केवल ज़रूरी काम बोलकर दूसरे काम ही स्वीकृत किये गये। इस कारण इनकी बदली सम्भव नहीं हो सकी है। इन्हीं परिस्थितियों में 12 मई की दोपहर में 1000 के.वी.ए. का ट्रांसफार्मर जल गया। इसमें किसी कर्मचारी का दोष नहीं है। संलग्न प्रपत्रों में ये साफ़ झलकता है कि विगत वर्षों में बिजली की खपत तथा लोड काफ़ी ज़्यादा बढ़ गया है। कर्मचारियों के बयान भी इस तरफ़ इशारा करते हैं, एक ही ट्रांसफार्मर होने से ओवर लोड होकर ट्रांसफार्मर जल गया है। रिपोर्ट के अंत में हमेशा एक विश लिस्ट होती है जिसको रिपोर्ट लिखने वाला अपने लिए ही लिखता है और उसको संस्तुतियों की संज्ञा दी जाती है। इस रिपोर्ट की संस्तुतियों में लिखा है कि लगभग 10 लाख रुपये के ख़र्च से तुरंत-तुरंत एक ट्रांसफार्मर नया खरीदकर यहाँ लगाया जाये। (क्योंकि मुहम्मदपुर का ट्रांसफार्मर भी तो वापस भेजना है, नहीं तो ऐसी समस्या वहाँ भी आ सकती है) इसके साथ ही अत्याधुनिक सुरक्षा उपकरणों की व्यवस्था की जाये जिससे कि ट्रांसफार्मर कभी जल न सके। इसके अलावा लगभग 30 लाख रुपये के ख़र्च से भविष्य के लिए एक नया सब-स्टेशन कॉलोनी में बनवाने की व्यवस्था की जाये। इतना सब पढ़ते-पढ़ते ही किसी महत्त्वपूर्ण व्यक्ति का फ़ोन हाटलाइन पर आया। तपाक से फ़ोन उठाकर डी.आर.एम. साहब ने कहा-

“यस सर!”

“...”

रिपोर्ट पढ़ते समय जो त्यौरियाँ चढ़ी हुई थीं, अचानक से ढीली हो गयीं, क्योंकि यह फ़ोन मुंबई मुख्यालय से था और दूसरी तरफ़ मध्य रेल के महाप्रबंधक थे।

“जी सर, जी, जी सर... अभी करता हूँ। जी... सर... सर-सर। थैंक्यू सर...”

उन्होंने फ़ोन रख दिया। फ़िर शर्मा को देखते हुए बोले-

“मेरे पास टाइम नहीं है यह रिपोर्ट पढ़ने के लिए, इसे आप छोड़ जाइये... तुरंत वाला काम तो मेरा अप्रूवल लेकर शुरू कर दीजिये तथा तीस लाख वाला प्रस्ताव, एस्टीमेट बनाकर दिखाइयेगा। मैं नहीं चाहता हूँ कि इस तरह की कोई घटना दुबारा घटे। कल महाप्रबंधक महोदय ने मुझे बहुत फटकार लगायी है।” वैसे भी शर्मा को डी.आर.एम. पसंद नहीं करते थे।

व्यस्तता तमाम मुद्दों की महत्ता भी कम कर देती है। बयूरोक्रेसी में आने वाले फ़रमान की तुरंत फ़रमाबरदारी तथा पिछले निर्देशों की अनदेखी करने का रिवाज़ है। यहाँ बॉस के छोटे-छोटे हुक्मों की पूर्ति में बड़े-बड़े काम दब जाते हैं। वैसा ही आज भी हुआ।

शर्मा अंदर से प्रसन्न परंतु प्रकट में ग़म्भीर मुद्रा ओढ़कर डी.आर.एम. चेम्बर से बाहर आये। अपने चेम्बर में पहुँचकर उन्होंने श्रीवास्तव, सहायक बिजली इंजीनियर को बुलाया। श्रीवास्तव के आने के बाद ग़म्भीरतम मुद्रा धारण कर उसे थोड़ी देर घूरते रहे। श्रीवास्तव वैसे तो पुराना घाघ था पर क्योंकि शर्मा डी.आर.एम. के पास से आ रहे थे, इसलिए उनके तीखे घूरने से असहज हुआ जा रहा था। साँस की गति अपने-आप तेज हो गयी थी। जैसे-जैसे समय बढ़ रहा था उसे भय-मिश्रित बेचैनी होने लगी। हाथों-पैरों की अगुलियाँ अपनी-अपनी जगह से हिलने लगीं। कुछ देर बाद शर्मा दूसरी तरफ़ मुँह करके बोले-

“तुम्हारे नीचे लोगों की मक्कारी की वजह से मुझे क्या-क्या सुनना पड़ता है। डी.आर.एम. साहब मुझ पर बरस रहे थे। उन्होंने 15 मिनट तक मुझे फटकारा कि श्रीवास्तव और त्रिपाठी ठीक से काम नहीं कर रहे हैं। इनसे जवाब तलब करें। रेलवे का जितना नुक़सान हुआ है उनसे पूछो कि किसके वेतन से इसकी रिकवरी की जाये, नहीं तो इन्हीं लोगों के वेतन से रिकवरी करो।”

श्रीवास्तव का मुँह बिलकुल छोटा हो गया। उसको अजीब-अजीब से हालात दिखाई देने लगे। शर्मा की बातें भी अब कम सुनाई पड़ने लगीं। ऐसा लगा जैसे कान के ऊपर कोई ढोल पीट रहा हो। तबादले की तस्वीरें मँडराने लगीं। शर्माजी ने जो स्पीड पकड़ ली थी उसे अब छोड़ना नहीं चाह रहे थे। आगे बोले-

“डी.आर.एम. ने महाप्रबंधक (जीएम) से भी शिकायत की है। बिजली वालों का काम अच्छा नहीं है, नहीं तो इतनी विकराल समस्या जो खड़ी हुई थी वह कभी नहीं होती। ज़रा सोचो अगर यात्रियों ने स्टेशन पर तोड़-फोड़ की होती अथवा आग लगा देते तो? मुझको कुछ-न-कुछ तो करना पड़ेगा, नहीं तो मेरी नौकरी खा जाओगे तुम लोग।...” प्रभाव देखने के लिए थोड़ा रुके।

“तुम ऐसा करो कल सबेरे जंगीपुरा पहुँचो, मैं कुछ काम अरेंज करवाता हूँ।” यह कहते हुए शर्मा ने मोबाइल फ़ोन निकालकर किसी का नम्बर तलाशा तथा डायल कर कान से लगा लिया।

श्रीवास्तव से चला नहीं जा रहा था। वे किसी तरीके से अपने चेम्बर में आये तथा आकर धम्म से अपनी कुर्सी पर गिर गये। उनके चेम्बर में घुसते ही एक क्लर्क ने उनका चेहरा देखा तो चिंतामिश्रित स्वर में पूछा- “क्या हुआ, साहब?” इसका जवाब श्रीवास्तव ने थोड़ी देर बाद दिया।

“कुछ नहीं, थोड़ी देर बाद आइयेगा।”

क्लर्क ने कुछ सोचा फ़िर चला गया। श्रीवास्तव ने मोबाइल पर त्रिपाठी को फ़ोन किया, बड़े क्रोधित हो, उन्होंने डाँटना शुरू किया-

“तुम कोई काम ठीक से करते नहीं हो, तुम्हारा स्टाफ पर कंट्रोल नहीं है, तुम्हारी वजह से बड़े-बड़े फेल्योर होते हैं और इस सबके लिए सुनना मुझे पड़ता है, यदि ऐसे ही चलता रहा तो... त्रिपाठी तुम्हारा बहुत बुरा होगा।” मुश्किल से उन्होंने गालियाँ ज़ब्त कीं।

त्रिपाठी अवाक्, समझ नहीं पा रहा है कि साहब को आज हो क्या गया। आज तलक तो दाँतकाटी रोटी जैसा अफसर-सबार्डिनेट दोस्ताना सम्बन्ध था।

शर्मा ने नमस्कार की औपचारिकता के बाद बोलना शुरू किया-

“अरे कहाँ हो? आजकल दिखाई नहीं देते, क्या काम-वाम छोड़ दिया है। मैं आपके लिए काम निकाल रहा हूँ और आपके बहुत दिनों से दर्शन ही नहीं हुए।”

उधर से ठेकेदार बिछा जा रहा था। पुराने रिश्ते का सिम रिचार्ज हो गया। शर्मा फ़िर मुद्दे की बात पर आये-

“भाई, जंगीपुरा में एक ट्रांसफार्मर जल गया है 1000 के.वी.ए. का, स्विचगियर भी सब जल गये हैं, अभी तो मुहम्मदपुर का ट्रांसफार्मर ला के रखा है, पर वहाँ भी दिक्कत हो सकती है। आप एक नया ट्रांसफार्मर 3-4 दिन में जंगीपुरा में लगाने की व्यवस्था करो तथा स्विचगियर्स का काम कल से ही लगाओ। श्रीवास्तव तथा त्रिपाठी तुम्हें मिलेंगे, वहाँ।” कहकर थोड़ी देर चुप रहे। फ़िर थोड़ा मंद स्वर में आगे बोले- “कहीं और ठेका तो नहीं चल रहा है, कर लोगे ना? अच्छा, अच्छा ये बताओ लगभग कुल कॉस्ट कितना बैठेगा?”

थोड़ी देर शांत रहकर उधर से आवाज़ आयी- “लगभग 6 लाख रुपये या 6.5 लाख, एक्जैक्ट मैं आपको कल रेट लेकर बता दूँगा।”

“अच्छा ठीक है, कल मुझे तीन कोटेशन दे दो और रेट को 9.8 लाख रुपये रख लो। समझ गये ना? ... हाँ, ठीक से समझ गये, मगर काम मुझे जल्दी चाहिए। ...डी.आर.एम. तथा जीएम का बड़ा प्रेशर है। एक सप्ताह से ज़्यादा का समय नहीं है।” थोड़ी और इधर-उधर की गप्पों के बाद शर्मा ने फ़ोन बंद किया। उनके चेहरे पर अब चमक लौट आयी थी तथा मन प्रफुल्लित प्रकट हो रहा था। होंठ गोल कर हल्की-हल्की सीटी बजाने लगे। घंटी बजाकर उन्होंने सिंह को बुलाने का आदेश दिया और बैठकर इंटरनेट पर चित्र-विचित्र देखने लगे। सिंह के आने पर थोड़ा सतर्क हुए।

लैपटॉप को बंद किया और बोले-

“जंगीपुरा की स्थितियों का विवरण देते हुए, घटना का उल्लेख करते हुए तथा जाँच रिपोर्ट को संलग्न करके एक प्रस्ताव बनाओ कि वहाँ तुरंत एक नया 1000 के.वी.ए. का ट्रांसफार्मर सुरक्षा उपकरणों सहित चाहिए, जिसकी लागत लगभग 9.9 लाख रुपये होगी। इसके अलावा भविष्य के लिए एक नया सब-स्टेशन चाहिए। सब स्टेशन का भी इस्टीमेट बना लो। 35 लाख रुपये से कम का इस्टीमेट नहीं बनाना है और शाम तक ये सब बना लो क्योंकि अभी लोहा गरम है, तुरंत ही डी.आर.एम. से इसका अनुमोदन करा लेता हूँ। नहीं तो अगर 5-6 दिन निकल गये तो अँग्रेजी पढ़ने लगेंगे।”

साहब का इशारा सिंह ने पूरा समझ लिया। फ़िर भी मुस्कराते हुए बोला-

“साहब, वहाँ आवश्यकता तो है नहीं, 1000 के.वी.ए. सब-स्टेशन अभी 3-4 साल पहले अपग्रेड हुआ तथा आधुनिकीकरण हुआ, त्रिपाठी लोगों का मेंटीनेंस बहुत ख़राब है, वहाँ तो कोई कुछ काम...”

शर्माजी ने खीझकर बीच में ही वाक्य काट दिया-

“अरे ठीक है यार, ऐसे ही देश, समाज चलता है। कहीं भी व्यवस्था आदर्श नहीं है और फ़िर अगर सब ठीक चलने लगेगा तो मेरी-तुम्हारी ज़रूरत क्या है। ट्रांसफार्मर फुँकेगा नहीं तो दूसरा कैसे लगेगा? बनाने वाली कम्पनियों में तो ताला लग जायेगा। मज़दूर बेरोजगार मारे जायेंगे। फ़िर सरकारी नौकरी कौन करेगा। कहाँ से इस नौकरी में जिस पर हम-तुम बैठे हैं, उस पर क़ाबिल तथा जानकार लोग आयेंगे। देश की अर्थव्यवस्था की यही माँग है। यूँ ही नहीं अर्थव्यवस्था 8-9 प्रतिशत की दर से हर साल बढ़ रही है... कुछ समझ में आया कि नहीं? जाकर जल्दी से प्रस्ताव बनाकर लाओ।”

सिंह को लगा कि जंगीपुरा के एक ट्रांसफार्मर के तार इतनी दूर-दूर तक जुड़े हैं, यह बात पहले नहीं समझ में आयी और किसी साहब ने आज तक समझायी भी नहीं। फ़िर भी बात में काफ़ी दम लगता है। सच ही है, अर्थव्यवस्था 8-9 प्रतिशत से बढ़ रही है। ट्रांसफार्मर भी इसी दर से जल रहे हैं। देश तरक्क़ी कर रहा है। यह सोचकर वह अपने काम में जुट गया।