राजकुमार हीरानी अदालत में हाजिर हों? / जयप्रकाश चौकसे

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राजकुमार हीरानी अदालत में हाजिर हों?
प्रकाशन तिथि :11 जुलाई 2015


हर शहर कस्बे में सुबह सैर के लिए अलग वय के लोग जाते हैं और उम्रदराज लोग सैर के बाद गपशप करते हैं जो एक तरह से अखबार के पहले अखबार हैं और इसमें ऐसी भी बातें होती हैं, जिन्हें कोई अखबार प्रकाशित करने का साहस आज के दौर में नहीं दिखा सकता। सच तो यह है कि विभिन्न शहरों में सुबह की सैर में की गई बातचीत अगर टेप की जा सके और उसे जनता के 'मन की बात' के तौर पर दिल्ली पहुंचा सकें तो असल अप्रकट भारत अपने बहुआयामी स्वरूप में उजागर हो सकता है और 'मन की बात' एक स्वस्थ वार्तालाप में बदल सकती है।

आज सुबह श्री रमेशचंद्र त्रिवेदी ने कहा कि व्यापमं घोटाले के रास्ते राजकुमार हीरानी की 'मुन्नाभाई एम.बी.बी.एस' ने बताए हैं। व्यापमं और मुन्नाभाई के पूर्व ही शिक्षा को दीमक लगनी शुरू हो गई थी। इंदौर में राजनीति और अर्थशास्त्र विभाग के अध्यक्ष इस विधा के इंदौर में पुरोधा माने गए। यह गौरतलब है कि घपलेबाजी में राजनीति और अर्थशास्त्र के साथ जातिवाद भी शामिल रहा है परंतु व्यापमं के पूर्व यह सब कुटीर उद्योग के रूप में गली-मोहल्ले में छुपे रूप से होता था, लगभग वैसे ही जैसे शहर के टूटे किलों में अवैध शराब की भट्‌टी लगाई जाती रही है। व्यापमं व्यापक पैमाने पर बड़े उद्योग के रूप में विकसित हुआ और उसके व्यापक स्वरूप के कारण ही रहस्य उजागर भी हुए। जब कभी अपराधी न्यायालय में दंडित हुआ है, तब जिसे लूटा गया, दुष्कर्म किया गया उसे संतोष नहीं होता, क्योंकि उसके विनाश की भरपाई नहीं हो सकती। कोई कौमार्य लौटाया नहीं जा सकता, इस तरह के वैधव्य के लिए संसार का सारा सिंदूर भी व्यर्थ हो जाता है वरन् वह खून की तरह भी दिखने लगता है। 'व्यापमं' के कारण जिन मेधावी छात्रों के अवसर समाप्त हुए अब कौन-सी जांच या जांच का स्वांग अथवा कौन-सी संस्था इसकी पूर्ति करेगी! पहले तो क्षति आकलन की कोई विधि नहीं है।

कई दशक पूर्व एक समर्पित एवं ईमानदार प्रोफेसर पर दबाव बनाया गया कि वह एक छात्र के अंक बढ़ा दे। दस वर्ष पश्चात वही छात्र एनेस्थेशिया का डॉक्टर बना और उसी प्रोफेसर के रिश्तेदार की मृत्यु अधिक मात्रा में बेहोशी की दवा देने के कारण शल्य चिकित्सा के पूर्व ही हो गई। इस घटना को पोएटिक जस्टिस के रूप में नहीं देखें और ही वह अनंत गलती करें कि पाप का दंड इस तरह मिलता है। इस तरह की बातें हमारी विचार शक्ति का हरण करती हैं।

अगर राजकुमार हीरानी की 'मुन्नाभाई' से व्यापमं का पथ प्रशस्थ हुआ तो 'लगे रहो मुन्नाभाई' हमें गांधी के आदर्श पर क्यों नहीं लेकर लौटी इस तरह की 'घर वापसी' नहीं होती। अपराध के जन्म के बहुत सदियों बाद सिनेमा का जन्म हुआ परंतु यह संभव है कि फिल्म ने कुटिल दिमाग में इस विचार को सहारा दिया हो। व्यापमं घोटाला हमारी रुग्ण व्यवस्था का लक्षण मात्र है और शिक्षा में आदर्श की मृत्यु जीवन के अन्य क्षेत्रों में नैतिकता के पतन का ही एक हिस्सा है।

कभी हमने अपनी नैतिकता सांस्कृतिक मूल्यों के पतन के कारणों के वैज्ञानिक विवेचन का प्रयास नहीं किया, हमेशा लाक्षणिक इलाज किया और यही ढर्रा सब जगह चला है। हमारे डर हमें अपने दोषों को देखने नहीं देते। हम उन घोड़ों की तरह हैं जिनकी लगाम के साथ एक पट्‌टी लगी होती है, जिसके कारण घोड़े को केवल मार्ग दिखाई देता है और दाएं-बाएं वह नहीं देख पाता। यह शायद इसलिए किया जाता है कि दाएं-बाएं की हरियाली भूखे घोड़े को अलग पथ पर ले जाएं। गरीबी भी औद्योगिक उत्पाद की तरह है। कभीहमने सोचा ही नहीं कि सात हजार वर्ष पुरानी उदात्त संस्कृति के मालिक हम इतने स्वार्थी कैसे हो गए। इस मुद्‌दे की जांच उसी तरह होनी चाहिए जैसी जैनेटिक बीमारियों की होती है। बहरहाल, कहीं ऐसा तो नहीं कि जांच अधिकारी फरमान जारी करें कि राजकुमार हीरानी हाजिर हों?