राजनीति में प्रवेश / क्यों और किसलिए? / सहजानन्द सरस्वती

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'परिचय' लिखने के बाद, जहाँ तक मुझे याद है, 1916 के अंत या 1917 के शुरू में गाजीपुर जिले के करीमुद्दीनपुर थाने के विश्वंभरपुर ग्राम में चला गया। दो-ढाई वर्ष तक वहीं रह के प्रचार करता था। काम पड़ने पर बाहर जाता। फिर लौट आता। वहाँ के जमींदार लोगों के आग्रह से ही वहाँ ठहरा था। उसी ब्राह्मणत्ववाले आंदोलन के सिलसिले में उन लोगों के गुरु महाराज लोग, जो प्राय: निरक्षर ही थे, उन लोगों से बिगड़ गए थे और असहयोग कर लिया था। धनी लोग तो डरपोक होते ही हैं। कहीं गुरु लोगों के कोप से हमारा नाश न हो जाए यह खतरा उन्हें था। इसलिए निज रक्षार्थ मुझे बहुत आग्रह से रखा। मैंने भी गुरु जी लोगों को अच्छा पाठ पढ़ा दिया। वे लोग भी ठंडे हो गए। मैंने पीछे अनुभव किया कि जितना समय मैंने वहाँ लगाया उतने में तो कई गुना काम हो सकता था। जनसाधारण में कोई भी काम कीजिए तो उसका परिणाम पर्याप्त मात्रा में होता है। काम जल्दी ही होता भी है। स्थायी भी होता है। मगर धनियों के यहाँ तो विपरीत बात है। हुआ भी यही। तीन वर्षों के बाद आखिर वहाँ से हटा। कब तक रहता? पीछे पता चला कि वहाँ का सब किया-कराया मिट्टी में मिल गया और जो कुछ सिखाया था खत्म हो गया।

यह ठीक है कि धनियों के यहाँ रहने से कुछ आरामतलबी आ गई।

माने गाँव में उस विरक्त साधु ने जोकहा था वह मैंने अनुभव किया। पहले तो दिन-रात में एक ही बार भोजन करता था। पर, वहाँ पर दो बार करने लगा। फलत: रोगी भी कुछ हो गया। मुझे डर हो गया कि कहीं पराधीनता न हो जाए। यह भी ख्याल हुआ कि ये लोग पीछे निरादर भी करने लगेंगे, जब मुझे अपने अधीनस्थ देख लेंगे। मैं हवा का रुख देख रहा था। सबसे बड़ी चीज यह थी कि उनके लंबे परिवार में पठन-पाठन का प्राय: अभाव था। हाँ, वंश वृद्धि की ज्यादा चिंता थी जरूर। मैं जीवन-भर पढ़ने-लिखने में मस्त रहनेवाला यह बात बर्दाश्त कैसे करता? पढ़ने की प्रवृत्ति पैदा करने की कोशिश मैंने की। मगर विफल रहा। अंत में इन सब बातों का फल हुआ कि मैं वहाँ से हट आया। मैंने विश्वंभरपुर के पास ही भरौली में बाबू गोकुल राय को बात का बड़ा पक्का और जबां मर्द पाया।

बक्सर के पास गंगा के उत्तर कोटवा नारायणपुर में मैं पहले भी प्राय: जाया करता था। नारायणपुर सदा से संन्यासियों का सेवक रहा है। वहाँ गाँव से बाहर एक कुटिया बनी है। उसमें आ कर कभी-कभी साधुगण ठहरा करते हैं। श्री आदित्य राय बड़े ही संन्यासी-सेवक थे। उनके भाई गंगा राय और उनके परिवार के लोग भी ऐसे ही हैं। गाँव की ही प्राय: यह बात है। इसलिए सन 1918 ई. में वहाँ जो ठहरा और वर्षों पड़ा रहा। वहाँ कुछ पठन-पाठन का भी अच्छा प्रचार है। वेदांत आदि का विचार भी होता रहता है। वहीं रह कर मैंने राजनीतिक बातों की कुछ जानकारी की। समाचार-पत्र पढ़ा करता था। हाँ, पटना के कुछ मित्रों और भक्तों ने आग्रह किया कि आप का अंग्रेजी यों भुला देना ठीक नहीं। यदि कुछ सामाजिक या दूसरे काम करने है तो अंग्रेजी जरूरी है। उनने मुझसे प्रतिज्ञा कराई कि अंग्रेजी के समाचार-पत्र भेजने पर मैं जरूर पढ़ाएगा। इसीलिए वे लोग भेजते थे और मैं पढ़ता था। रौलट कानून संबंधी आंदोलन की बातें मैंने वहीं पढ़ीं और पंजाब-मार्शल लॉ कांड का भी रोमांचकारी वर्णन पढ़ा। उसके बाद कांग्रेस का जो अधिवेशन अमृतसर में हुआ उसकी सारी बातें पढ़ीं। इस प्रकार कि मुझे राजनीतिक मामलों की जानकारी न थी। फिर भी घटनाचक्र के चलते उसका संसर्ग होने लगा।

मुझे खूब याद है कि नारायणपुर में ही हिंदी समाचार-पत्र 'प्रताप' पढ़ता था। उसी में स्वर्गीय लोकमान्य तिलक की मृत्यु का समाचार पढ़ा। पत्र में उनका एक चित्र दे कर एक कोने पर उनकी जन्मतिथि और दूसरे पर मरणतिथि लिखी थी। उनकी संक्षिप्त जीवनी भी लिखी थी। अंत में यह कविता थी।

'मुद्दतें काट दीं असीरी में, था जवानी का रंग पीरी में।

अब कहाँ मुल्क का फिदाई हाय! मौत उस मौत को न आई हाय।'

उनकी मौत तो 1919 के 31 जुलाई को आधी रात के बाद हुई।1 अगस्त को खिलाफत कॉन्फ्रेंस की तरफ से असहयोग दिवस मनाया जाने को था।गाँधी जी उसके पक्ष में थे। मालवीय जी आदि उसका विरोध करते थे। वे कहते थे कि बिना कांग्रेस के निर्णय के हमें कुछ नहीं करना चाहिए, मुल्क की वही सबसे बड़ी संस्था है। लेकिन गाँधी जी का कहना था कि कांग्रेस को तो हमीं लोग बनाने-बिगाड़नेवाले हैं। हमीं तो उसकी राय जैसी चाहेंगे बनाएँगे। फिर आज उसके लिए रुकें क्यों? हालाँकि, यही गाँधी जी अब ठीक उलटी बात कहते फिरते हैं। अब तो मालवीय जी से भी आगे चले गए हैं।

लाला लाजपत राय की अध्यक्षता में कांग्रेस का विशेष अधिवेशन सन 1920 के सितंबर में कलकत्ते में हुआ था। उसका पूरा विवरण भी मैंने पढ़ा था।गाँधी जी के विरोध में श्री विपिनचंद्रपाल, देशबंधु और लाला जी भी थे। यह बात उसी से जानी थी। फिर भी गाँधी जी ने असहयोग का प्रस्ताव वहाँ पास ही करा लिया।

हाँ, एक बात और हुई जो छूटती है। सन 1916 ई. की बात है। समस्तीपुर में एक सज्जन ने कहा कि कांग्रेस में तिलक और सर फिरोज मेहता के दल में समझौता हो गया। फलत: अब लखनऊ में जो कांग्रेस होगी वह संयुक्त (united) होगी। संयुक्त प्रांत में संयुक्त कांग्रेस ठीक ही है। लखनऊ में होने को थी। इसीलिए किसी ने लखनऊ (Luck now) इस अंग्रेजी शब्द के दो टुकड़े कर के सौभाग्य की सूचना बताई। मुझे खूब याद है कि उस कांग्रेस के प्रेसिडेंट श्री मजुमदार ने जो भाषण दिया था उसे मैंने अच्छी तरह पढ़ा था। अंग्रेजी सरकार की भूलों का प्रकरण (chapter of mistakes) शीर्षक के नीचे उन्होंने बताया था कि समय-समय पर परिस्थिति से विवश हो जो विश्वविद्यालय कलकत्ता, बंबई आदि में सरकार ने खोले वह उसकी एकेबाद दीगरे, भूलें थीं। क्योंकि उन्हीं के करते लोगों की आँखें खुलीं और अब आजादी की माँग पेश करने लगे हैं।

इस प्रकार सन 1919 और 1920 में मैं राजनीतिक बातों एवं देश में होनेवाली तन्मूलक घटनाओं का संकलन मानस पटल पर करने लगा था। यों तो 1914 और 1918 के बीच जो यूरोपीय महासमर हुआ था उसके भी समाचार पढ़ता ही था। पटना से हिंदी के पाटलिपुत्र और अंग्रेजी के दैनिक 'एक्सप्रेस' (Express) समाचार-पत्र मैं ध्यान दे कर उन्हीं दिनों पढ़ने लगा था। यह ठीक हैं कि प्रवेश तो राजनीति में न था। फिर भी ये घटनाएँ मेरे दिल पर असर डालती ही रहीं। मालूम होता था कि अनजान में ही मैं धीरे-धीरे उस ओर खिंचा जा रहा हूँ।

इस प्रकार सन 1920 के अंत होने के साथ ही मेरे जीवन-संघर्ष का मध्य-भाग भी पूरा हो चला। हालाँकि मुझे इसका पता न था। उसी साल के दिसंबर में उसका उत्तर भाग शुरू होनेवाला था। कोई अपरिचित शक्ति मुझे उस ओर खींच रही थी इसका पता मुझे क्या था? मेरे जैसा धार्मिक और कट्टर सनातनी आदमी, जिसकी रगों में खान-पान में छुआछूत कूट-कूट भरा था और जो आज भी एक प्रकार से मौजूद ही है। दिन-रात की हाय-हाय में पड़ेगा, यह कौन सोच सकता था? किसने सोचा था कि भूलती हुई अंग्रेजी को सँभालने के बहाने भेजे गए अखबार मुझे राजनीति में ला पटकेंगे? लेकिन भीतर से जो उसमें चाव पैदा हो गया था और अनायास ही ऐसा लगता था कि गाँधी जी की असहयोग की बात ही ठीक है, उसका परिणाम दूसरा होना था भी नहीं। मुल्क के एक छोर से दूसरे तक असंतोष की लहर दौड़ पड़ी और लोगों को हिंदू मुसलिम आदि सभी धर्मवालों को और सभी जाति-पाँतिवालों को भी बेताब कर दे! फिर भी मैं अछूता रह जाऊँ यह सचमुच असंभव−सी बात थी। फलत: मैं खिंच ही तो गया।