राजर्षि / परिच्छेद 2 / रवीन्द्रनाथ ठाकुर / जयश्री दत्त

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उसके अगले दिन से नींद टूट जाने के बाद, सूर्य उगने पर भी राजा का प्रभात नहीं होता था; उनका प्रभात तभी होता होता था, जब वे दोनों छोटे भाई-बहनों का चेहरा देख लेते थे। वे प्रतिदिन उन लोगों को फूल चुन कर दे देते, तभी स्नान करते थे; दोनों भाई-बहन घाट पर बैठे उनका नहाना देखते रहते। जिस दिन प्रात: ये दो बालक-बालिका नहीं आते, उस दिन मानो उनकी पूजा-अर्चना सम्पूर्ण नहीं होती थी।

हासि और ताता का माँ-बाप कोई नहीं है। केवल एक चाचा है। चाचा का नाम केदारेश्वर है। ये दोनों बालक-बालिका ही उसके जीवन के एकमात्र सुख और संबल हैं।

एक वर्ष व्यतीत हो गया। अब ताता मंदिर बोल पाता है, लेकिन अब भी कढ़ाई बोलने पर बलाई ही बोलता है। वह अधिक बातें नहीं करता। गोमती नदी के किनारे नागकेशर के पेड़ के नीचे उसकी दीदी पैर फैलाए बैठी उसे जो भी कहानी सुनाती, वह उसे ही आँखें फाड़े अवाक होकर सुनता। उस कहानी का कोई सिर-पैर नहीं होता था; फिर भी वह क्या समझता था, वही जाने; कहानी सुन कर उस पेड़ के नीचे, उस सूर्य के प्रकाश में, उस मुक्त हवा में एक छोटे-से बालक के छोटे-से हृदय में कितनी बातें, कितनी छवियाँ उभरती थीं, हमें क्या पता! ताता अन्य किसी बालक के साथ नहीं खेलता था, बस, अपनी दीदी के संग छाया की तरह घूमता था।

आषाढ़ का महीना। सुबह से घनघोर बादल छाए हैं। अभी बारिश नहीं पड़ी है, किन्तु बारिश के आसार दिखाई दे रहे हैं। दूर देश की बारिश के छींटे लिए ठण्डी हवा बह रही है। गोमती नदी के जल और गोमती के आरपार के जंगल पर अँधेरे आसमान की छाया पड़ रही है। कल रात अमावस्या थी, कल भुवनेश्वरी की पूजा हो चुकी है।

यथा समय राजा हासि और ताता का हाथ पकड़े स्नान के लिए आ गए। रक्त-धारा की एक रेखा सफेद पत्थर के घाट की सीढ़ियों से बहते हुए जाकर जल में मिल गई है। कल रात जो एक सौ एक भैंसों की बलि दी गई है, उन्हीं का रक्त है।

रक्त की उस रेखा को देख कर हासि ने अचानक एक तरह से सकुचाते हुए हट कर राजा से पूछा, " पिताजी, यह किसका निशान है?"

राजा बोले, "रक्त का निशान है, बेटी"

उसने कहा, "इतना रक्त क्यों!" बालिका ने एक प्रकार से इतने कातर स्वर में पूछा, 'इतना रक्त क्यों' कि धीरे-धीरे राजा के हृदय में भी यही प्रश्न उठने लगा, 'इतना रक्त क्यों!' वे सहसा सिहर उठे। बहुत दिन से प्रतिवर्ष रक्त की धारा देखते आ रहे हैं, किन्तु एक छोटी बालिका का प्रश्न सुन कर उनके मन में उठने लगा, 'इतना रक्त क्यों!' वे उत्तर देना भूल गए। अन्यमनस्क भाव से स्नान करते-करते इसी प्रश्न पर विचार करने लगे।

हासि जल में आँचल भिगो कर सीढ़ियों पर बैठ कर धीरे-धीरे रक्त की रेखा पोंछने लगी, उसकी देखादेखी छोट-छोटे हाथों से ताता भी वही करने लगा। हासि का आँचल रक्त से लाल हो गया। जब तक राजा का स्नान निबटा, तब तक दोनों भाई-बहन ने मिल कर रक्त के निशान पोंछ डाले।

उसी दिन घर लौट कर हासि को ज्वर चढ़ आया। ताता निकट बैठ कर दोनों छोटी अँगुलियों से दीदी के मूँदे नेत्रों की पलकें खोलने की चेष्टा करते हुए बीच-बीच में पुकार रहा है, "दीदी!" , दीदी चौंक कर तनिक जाग जा रही है। "क्या है ताता," कह कर उसे निकट खींच रही है; उसकी आँखें फिर से नींद से भारी हो रही हैं। ताता बहुत देर तक चुपचाप दीदी के चेहरे की ओर देखता रहता है, कोई बात नहीं कहता। अंत में बहुत देर बाद धीरे-धीरे दीदी के गले से लिपट कर उसके मुँह के पास मुँह ले जाकर आहिस्ता-आहिस्ता बोला, "दीदी, तू उठेगी नहीं?" दीदी ने चौंक कर जागते हुए उसे छाती से चिपटा कर कहा, "उठूँगी क्यों नहीं मेरे धन 1!" किन्तु दीदी में उठने का और सामर्थ्य नहीं है। ताता के छोटे-से हृदय में मानो भारी अंधकार छा गया। ताता की पूरे दिन के खेलकूद के आनंद की आशा एकदम धुँधली पड़ गई। आकाश में घना अँधेरा है, घर के छप्पर पर धीर-धीरे बारिश की आवाज सुनाई पड़ रही है, आँगन का इमली का पेड़ बारिश में भीग रहा है, मार्ग में कोई पथिक नहीं है। केदारेश्वर एक वैद्य को साथ लेकर आया है। वैद्य ने नाड़ी-परीक्षा करके हालत देख कर अच्छा अनुभव नहीं किया।

उसके अगले दिन राजा ने स्नान करने आकर देखा, बालक-बालिका उनकी प्रतीक्षा में मंदिर में नहीं बैठे हैं। सोचा, इस मूसलाधार बारिश में वे नहीं आ पाए होंगे। स्नान-पूजा निबटा कर शिविका पर चढ़ कर वाहकों को केदारेश्वर की झोपड़ी पर चलने की आज्ञा दी। सभी सेवक आश्चर्य में पड़ गए, लेकिन राजा से कुछ नहीं कह पाए।

राजा की शिविका आँगन में पहुँचते ही झोपड़ी में अफरा-तफरी मच गई। उस अफरा- तफरी में सभी रोगी की बीमारी की बात भूल गए। केवल ताता नहीं हिला, वह अचेत दीदी की गोद के पास बैठा दीदी के कपड़े का एक किनारा मुँह में ठूँसे टुकुर-टुकुर देखता रहा।

राजा को झोपड़ी में आता देख ताता ने पूछा, "क्या हुआ है?"

बेचैन-हृदय राजा ने कोई उत्तर नहीं दिया। ताता ने गर्दन झुकाए-झुकाए फिर पूछा, "दीदी को लग गई है?"

चाचा केदारेश्वर ने थोड़ा झुँझलाते हुए उत्तर दिया, "हाँ, लग गई है।"

ताता ने तुरंत दीदी के पास खिसक कर उसका चेहरा उठाने की चेष्टा करते हुए गले से लिपट कर पूछा, "दिदि, तोमार कोथाय नेगेछे?" (दीदी, तुम्हें कहाँ नगी (लगी) है?)

मन का अभिप्राय यही था कि उसी जगह फूँक मार कर, हाथ से सहला कर दीदी का सारा दर्द दूर कर देगा। लेकिन जब दीदी ने कोई उत्तर नहीं दिया, तो उससे और नहीं सहा गया - दोनों छोटे-छोटे होंठ लगातार फूलने लगे, अभिमान में रो उठा। कल से बैठा है, एक भी बात क्यों नहीं! ताता ने क्या किया है, कि उसका ऐसा अनादर हो रहा है! राजा के सामने ताता का ऐसा व्यवहार देख कर केदारेश्वर परेशान हो उठा। वह झुँझलाते हुए ताता का हाथ पकड़ कर दूसरे कमरे में खींच ले गया। इतने पर भी दीदी कुछ नहीं बोली।

राज-वैद्य आकर संदेह प्रकट करके चला गया। राजा शाम को फिर हासि को देखने आए। उस समय लडकी प्रलाप में बक रही थी, "हे माँ, इतना रक्त क्यों!"

राजा ने कहा, "बेटी, मैं इस रक्त-धारा को रोक दूँगा।"

बालिका बोली, "आ भैया ताता, हम दोनों इस रक्त को पोंछ डालें।"

राजा ने कहा, "आओ बेटी, मैं भी पोंछता हूँ।"

संध्या के कुछ बाद ही हासि ने एक बार आँखें खोली थीं। चारों ओर एक बार ताक कर जैसे किसी को खोजा। तब ताता रो-रो कर दूसरे कमरे में सोया पड़ा था। मानो किसी को न देख पाकर हासि ने आँखें मूँद लीं। और आँखें नहीं खोलीं। दो-पहर रात के समय राजा की गोद में हासि की मृत्यु हो गई।

जब हासि को हमेशा के लिए झोपड़ी से ले जाया गया, तब ताता बेखबर सो रहा था। अगर जान पाता, तो शायद वह भी दीदी के साथ-साथ लघु परछाईं के समान चला जाता।