राजर्षि / परिच्छेद 8 / रवीन्द्रनाथ ठाकुर / जयश्री दत्त

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गोमती नदी का दक्षिणी किनारा एक स्थान पर बहुत ऊँचा है। बारिश की धारा और छोटे-छोटे सोतों ने इस ऊँची भूमि को नाना गुहा-गह्वरों में बाँट दिया है। इसके कुछ दूर बडे-बड़े शाल और गाम्भारी1 वृक्षों ने लगभग अर्ध चंद्राकार रूप में इस भूमि-खण्ड को घेर रखा है, किन्तु इस थोड़ी-सी भूमि पर बीच में एक भी विशाल वृक्ष नहीं है। डूहों पर जगह-जगह छोटे-छोटे शाल के पेड़ बढ़ नहीं पा रहे हैं, टेढ़े मेढे होकर काले पड़ गए हैं। बहुत सारे पत्थर फैले पड़े हैं। एक हाथ दो हाथ चौड़े सैकड़ों छोटे-छोटे सोते टेढ़े मेढे रास्तों से घूमते-घूमते, आपस में मिलते, अलग होते जाकर नदी में समा रहे हैं। यह स्थान अति निर्जन है - यहाँ का आकाश पेड़ों से ढका हुआ नहीं है। यहाँ से गोमती नदी और उसके दूसरे किनारे वाले विलक्षण रंग की फसलों से भरे खेत बहुत दूर तक देखे जा सकते हैं। राजा गोविंदमाणिक्य यहाँ प्रति दिन सुबह घूमने आते हैं, साथ में न कोई मंत्री आता है, न अनुचर। गोमती में मछली पकडने आने वाले मछुआरे कभी-कभी दूर से देखते थे, उनके सौम्य-मूर्ति राजा योगी के समान स्थिर-भाव से आँखें मूँदे बैठे हैं, उनके चेहरे पर प्रभात की ज्योति है अथवा उनके आत्मा की ज्योति, समझ में नहीं आता था। आजकल बारिश के दिनों में रोजाना यहाँ नहीं आ पाते, लेकिन बारिश थमने पर जिस दिन आते हैं, उस दिन छोटे ताता को साथ ले आते हैं।

ताता को और ताता कहने का मन नहीं करता। एकमात्र जिसके मुँह से ताता संबोधन जँचता था, वह तो रही नहीं। पाठकों के लिए ताता शब्द का कोई अर्थ ही नहीं है। किन्तु शाल-वन में सुबह-सुबह जब हासि शैतानी करते हुए शाल के वृक्ष की आड़ में छिप कर अपने सुमधुर तीव्र स्वर में ताता पुकारती थी और उसके उत्तर में पेड़-पेड़ पर दोएल 2 पुकारने लगती थीं, दूर जंगल से प्रतिध्वनि लौट आती थी, तब वही ताता शब्द अर्थ से परिपूर्ण होकर जंगल में व्याप जाता था - तब वही ताता संबोधन एक बालिका के छोटे-से हृदय के अति कोमल स्नेह-नीड़ को छोड़ कर पक्षी के समान स्वर्ग की ओर उड़ जाता था - तब वही एक स्नेहसिक्त मधुर संबोधन प्रभात के समस्त पक्षियों के गान को लूट लेता था - प्रभात की प्रकृति के आनंदमय सौंदर्य के साथ एक छोटी-सी बालिका के आनंदमय हृदय का ऐक्य दर्शाता था। अब वह बालिका नहीं है - बालक है, लेकिन ताता नहीं है। यह बालक संसार के हजारों लोगों के लिए है, हजारों विषयों के लिए है, किन्तु ताता केवलमात्र उस बालिका के लिए ही है। महाराजगोविन्द माणिक्य इस बालक को ध्रुव बुलाते हैं, हम लोग भी वही कह कर पुकारेंगे।

महाराज पहले अकेले गोमती के तट पर आते थे, अब ध्रुव को साथ ले आते हैं। वे उसकी पवित्र सरल मुख-छवि में देवलोक की छटा देख पाते हैं। जब राजा मध्याह्न में संसार के भँवर में प्रवेश करते हैं, तो वृद्ध विज्ञ मंत्री उन्हें घेर कर खड़े हो जाते हैं, उन्हें परामर्श देते हैं। और प्रभात होने पर एक बालक उन्हें संसार के बाहर ले आता है - उसकी दो बड़ी-बड़ी आँखों के सम्मुख विषय की हजारों कुटिलाताएँ कुण्ठित पड़ जाती हैं - बालक का हाथ थाम कर महाराज विश्व-जगत के मध्य अनंत की ओर फैले एक उदार सरल विस्तृत राजपथ पर जाकर खड़े हो जाते हैं; वहाँ अनंत सुनील आकाश के चँदोवे के नीचे विद्यमान विश्व-ब्रह्माण्ड की महासभा दिखाई पडती है; वहाँ भूलोक, भुवर्लोक, स्वर्लोक, सप्तलोक का अस्पष्ट संगीत सुनाई पडता है; वहाँ सरल मार्ग पर सभी कुछ सरल सहज शोभन अनुभव होता है, कवल आगे बढ़ने का उत्साह रहता है, विकट व्याकुलता-चिन्ता, व्याधि-अशांति दूर हो जाती है। महाराज को उसी प्रभात में निर्जन वन में, नदी-तट पर, मुक्त आकाश के नीचे, एक बालक के प्रेम में निमग्न होकर असीम प्रेम-समुद्र का मार्ग दिखाई पडने लगता है।

गोविन्दमाणिक्य ध्रुव को गोदी में बैठाए ध्रुवोपाख्यान सुना रहे हैं; वह कोई बहुत कुछ समझ पा रहा है, ऐसा नहीं है, लेकिन राजा की इच्छा है कि वे आधे-अधूरे स्वर में ध्रुव के मुँह से उसी ध्रुवोपाख्यान को पुन: सुनें।

कथा सुन कर ध्रुव बोला, "मैं जंगल में जाऊँगा।"

राजा बोले, "जंगल में क्या करने जाएगा?"

ध्रुव बोला, "हयि3 को देखने जाऊँगा।"

राजा बोले, "हम लोग तो जंगल में आए हैं, हरि को देखने ही आए हैं।"

ध्रुव - हयि कहाँ हैं?

राजा- यहीं हैं।

ध्रुव ने कहा, "दीदी कहाँ है?

कहते हुए उठ खड़ा होकर पीछे ताक कर देखा - उसे लगा, मानो दीदी पहले की तरह पीछे से अचानक उसकी आँखें बंद करने आ रही है। किसी को भी न पाकर गर्दन झुकाए आँखें उठा कर पूछा, "दीदी कहाँ है?"

राजा बोले, "हरि ने तुम्हारी दीदी को बुला लिया है।"

ध्रुव ने कहा, "हयि कहाँ है?"

राजा ने कहा, "उन्हें पुकारो बेटा। तुम्हें वही जो श्लोक सिखाया था, उसी का पाठ करो।"

ध्रुव हिल-हिल कर बोलने लगा -

हरि तुम्हें पुकारता - बालक एकाकी,
अँधेरे अरण्य में दौड़ रहा रे।
घने तिमिर में नयन-नीर में
पथ खोजे नहीं मिल रहा रे।
लगता सदा क्या करूँ क्या करूँ,
आएगी कब काल-विभावरी,
उसी भय में डूब पुकारता 'हरि हरि' -
हरि बिन कोई नहीं रे।
नयन-नीर नहीं होगा विफल,
कहते सब तुम्हें भक्तवत्सल,
समझ रहा उसी आशा को संबल -
उसी आशा में जीवित हूँ रे।
जागते अँधियारे में तुम्हारे चक्षु-तारे,
होते नहीं भक्त तुम्हारे कभी दिशाहारा,
ध्रुव तुम्हें देखता, तुम हो ध्रुव तारा -
और किसकी ओर देखूँ रे।

'र' को, 'ल' को, 'ड' को, 'द' को उल्टा-पुल्टा करके, आधी बातें मुँह में रोक कर, आधी बातों का उच्चारण करके, डोल-डोल कर सुधामय कंठ से ध्रुव ने इस श्लोक का पाठ कर दिया। सुन कर राजा का हृदय आनंद में निमग्न हो गया, प्रभात दुगुना मधुर हो उठा, चतुर्दिक नदी कानन तरु लता हँसने लगे। उन्हें कनक-सुधा-सिक्त नील गगन में किसकी अनुपम सुन्दर सहास मुख-छवि दिखाई पड़ी! जैसे ध्रुव उनकी गोद में बैठा है - उसी प्रकार किसी ने उन्हें भी बाहुपाश में गोद में खींच लिया है। वे अपने को, अपने चतुर्दिक के सभी को, विश्व-चराचर को किसी की गोद में देखने लगे। उनके आनंद और प्रेम ने सूर्य की किरणों के समान दशों दिशाओं में विकीर्ण होकर आकाश को भर दिया।

ऐसे समय अचानक सशत्र जयसिंह गुहा मार्ग से राजा के सम्मुख आ पहुँचा।

राजा ने उसकी ओर दोनों हाथ बढ़ा दिए; कहा, "आओ जयसिंह, आओ।"

उस समय राजा बालक के साथ बालक बन गए थे, उनकी राज-मर्यादा कहाँ थी?

जयसिंह ने राजा को भूमिष्ठ होकर प्रणाम किया। तब कहा, "महाराज, एक निवेदन है।"

राजा ने कहा, "क्या है, बोलो।"

जयसिंह - "माँ आपसे अप्रसन्न हो गई हैं।"

राजा - "क्यों, मैंने उन्हें असंतुष्ट करने वाला कौन-सा काम किया है? "

जयसिंह - "बलि बंद करके महाराज ने देवी की पूजा में बाधा खड़ी की है।"

राजा बोले, "क्यों जयसिंह, हिंसा की यह लालसा क्यों! तुम माँ की गोद में संतान का रक्त बहा कर माँ को प्रसन्न करना चाहते हो? "

जयसिंह धीरे-धीरे राजा के पैरों के निकट बैठ गया। ध्रुव उसकी तलवार लेकर खेलने लगा।

जयसिंह ने कहा, "क्यों महाराज, शास्त्र में तो बलि-दान की व्यवस्था है।"

राजा ने कहा, "शास्त्र के सच्चे विधान का कौन पालन करता है। सभी अपने स्वभाव के वशीभूत शास्त्र की व्याख्या करते रहते हैं। जिस समय सभी लोग देवी के सामने बलि के कीचड भरे रक्त को सर्वांग पर लपेट कर उत्कट चीत्कार करते हुए भीषण उल्लास के साथ प्रांगण में नाचते रहते हैं, क्या वे उस समय माँ की पूजा करते हैं अथवा उनके हृदय में हिंसा की जो राक्षसी है, उस राक्षसी की पूजा करते हैं! हिंसा के सम्मुख बलि चढाना शास्त्र का विधान नहीं है, बल्कि हिंसा की ही बलि चढाना शास्त्र का विधान है।"

जयसिंह बहुत देर तक चुपचाप रहा। कल रात से उसके मन भी ऐसी ही अनेक बातें हलचल मचा रही थीं।

अंत में बोला, "मैंने माँ के अपने मुँह से सुना है - इस विषय में और कोई संशय नहीं हो सकता। उन्होंने स्वयं कहा है, वे महाराज का रक्त चाहती हैं।"

कह कर सुबह की मंदिर वाली घटना राजा को सुनाई।

राजा हँस कर बोले, "यह माँ का आदेश नहीं है, यह रघुपति का आदेश है। रघुपति ने ही ओट से तुम्हारी बात का उत्तर दिया था।"

राजा के मुँह से यह बात सुन कर जयसिंह एकदम से चौंक उठा। इसी तरह का संशय एक बार उसके मन में भी आश्चर्य के रूप में उठा था, किन्तु फिर विद्युत के समान अन्तर्हित हो गया था। उसी संदेह पर राजा की बात से फिर आघात लगा।

जयसिंह अत्यंत कातर होकर बोल उठा, "नहीं महाराज, मुझे एक के बाद एक संशय से संशयांतर में मत ले जाइए - मुझे किनारे से ठेल कर समुद्र में मत गिराइए - आपकी बातों से मेरे चारों ओर का अंधकार केवल गहराता जा रहा है। मेरा जो विश्वास था, जो भक्ति थी, वही रहे - उसके बदले यह कुहासा मुझे नहीं चाहिए। आदेश माँ का हो अथवा गुरु का, वह एक ही बात है - मैं पालन करूँगा।" कहते हुए तेजी से उठ कर अपनी तलवार निकाल ली - सूर्य की किरणों में तलवार विद्युत के समान चकमक करने लगी। यह देख कर ध्रुव चीख कर रोने लगा, अपने छोटे-छोटे दोनों हाथों से राजा को लपेट कर उन्हें प्राणपण से ढक लिया - राजा ने जयसिंह की ओर ध्यान न देकर ध्रुव को छाती से चिपका लिया।

जयसिंह ने तलवार दूर फेंक दी। ध्रुव की पीठ पर हाथ फेरते हुए बोला, "कोई भय नहीं वत्स, कोई भय नहीं। मैं यह चला, तुम इसी महान आश्रय में रहो, इसी विशाल वक्ष में शोभा पाओ - तुम्हें कोई अलग नहीं करेगा।"

कहते हुए राजा को प्रणाम करके प्रस्थान को तैयार हो गया।

सहसा फिर से क्या सोच कर लौट कर बोला, "महाराज सावधान कर रहा हूँ, आपके भाई नक्षत्रराय ने आपके विनाश की मंत्रणा की है। उनतीसवीं आषाढ़ चतुर्दशी को देव-पूजा की रात आप सावधान रहिए।"

राजा ने हँस कर कहा, "नक्षत्र किसी भी तरह मेरा वध नहीं कर पाएगा, वह मुझे प्यार करता है।"

जयसिंह विदा हो गया।

राजा ने ध्रुव की ओर भक्ति-भाव से देखते हुए कहा, "आज तुम्हीं ने धरती की रक्तपात से रक्षा की है, इसी उद्देश्य के लिए तुम्हारी दीदी तुम्हें छोड़ गई है।"

कह कर ध्रुव के आँसुओं से भीगे दोनों कपोल पोंछ दिए।

ध्रुव ने गंभीर मुँह बना कर पूछा, "दीदी कहाँ है?"

उसी समय बादलों ने आकर सूर्य को ढक लिया, नदी पर काली छाया फैल गई। दूर जंगल का किनारा भी मेघों के समान काला हो उठा। बारिश के आसार देख कर राजा महल लौट आए।

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1- गाम्भारी : विभिन्न समान बनाने में काम आने वाले वृक्ष, जैसे- शीशम-सागौन आदि ।

2- गोएल : गाने वाली छोटी चिड़िया, रोबिन ।

3- हयि : हरि