राज-भोज / शम्भु पी सिंह

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चमरटोली में आज चहल-पहल है। फगुनी राम के छोटे भाई बरसाती राम की इकलौती बेटी सुगरी की शादी दो दिन बाद है। शादी की तैयारी चल रही है। आसपास के पासी और मुसहर टोले की महिलाएँ भी विधि व्यवहार में शामिल हैं। इन टोलों के साथ खान-पान पहले से चलता रहा है।

पहले तो शादी-विवाह हो या मरनी-हरनी, चमरटोली वाले बिना अकबरपुर के शेख साहब और बबुआन टोला के पराक्रम सिंह के आगे हाथ फैलाये कोई आयोजन कर ही नहीं पाता था। लेकिन अब बच्चों के बाहर कमाने से थोड़ी आत्मनिर्भरता आई है। फगुनी के परिवार ने बिना सरकारी मदद के मकान भी बनवा लिया। हाँ मकान के आसपास खुद की कोई जमीन नहीं है, इसलिए शादी-विवाह में समस्या आती है। अधिकांश जमीन पराक्रम सिंह की ही है। इस बार भी पराक्रम सिंह की खाली जमीन पर टेंट लग रहा है। वैसे बाबू साहब ने कभी मना नहीं किया। यह जमीन भी तो एक फसली है। साल में आठ महीना तो खाली ही रहता है। सिर्फ धान की खेती के लिए अगस्त से नवम्बर तक फसल लगी होती है। चमरटोली वालों की बसोवास के अलावे कोई जमीन-जायदाद तो है नहीं, तो शादी-विवाह के आयोजन में इस खाली जमीन का उपयोग किया जाता है। चमरटोली के पश्चिमी भाग स्थित एक बीघा जमीन बेटी की शादी में पराक्रम सिंह ने अकबरपुर के नथुनी यादव को बेच दी। कहते हैं न रस्सी भले ही जल जाए, ऐंठन नहीं जाती। बेटी की शादी में दस गाँव को न्योता दिया था, पैसे की थोड़ी किल्लत हुई तो उस समय नथुनी यादव ने मदद की। चाहते तो शादी के बाद पराक्रम सिंह पैसे वापस कर सकते थे, लेकिन बच्चों के बाहर चले जाने और ढलती उम्र में जमीन-जायदाद की देखरेख करना कठिन लगने लगा। कौन, कब, कौन-सी जमीन कब्जा कर ले। किस-किससे झंझट मोल ले। पराक्रम सिंह का परिवार खानदानी कांग्रेसी है। कांग्रेस की सरकार तक सामाजिक रुतबे में कोई फर्क नहीं पड़ा। लेकिन वह भी बीते जमाने की बात हो गई। बीसवीं सदी के अंतिम दशक में आई सरकार के बाद से ढांचा पूरी तरह बदल गया। अब पहले वाली बात तो नहीं रही, लेकिन एक कहावत है न, सड़लो तेली तो नौ सौ अधेली।

मरे हुए जानवर का खाल निकालना, जूता-चप्पल बनाना चमरटोली वालों की कमाई का मुख्य जरिया था। शेख रमानी साहब के कहने पर एक बार फागुनी कलकत्ता क्या गया, वहीं काम पर लग गया। बाद में छोटे भाई बरसाती के जाने पर वह वापस अपने गाँव आ गया और पास के बाज़ार में जूता-चप्पल के मरम्मत की दुकान खोल खुद के परिवार के भरण-पोषण में लग गया। कलकत्ता में एक चमड़े की फैक्टरी में काम करते हुए बरसाती का सम्बंध नक्सलवादियों से हो गया। इस कारण पास पड़ोस के गाँव वालों की निगाह इसके परिवार पर रहने लगी।

पूरे इलाके में पराक्रम सिंह, शेख रमानी और नथुनी यादव की त्रिमूर्ति का डंका बजता था। शेख रमानी और नथुनी के साथ होने से पराक्रम सिंह की जाती सत्ता फिर से हाथ आ गई थी। गाँव की सड़कों की ठेकेदारी हो, चाहे तालाब की बन्दोबस्ती, मिलना इस तीन में से किसी एक को ही था। किसी एक की गई जमींदारी, समूह की शक्ति के साथ इनके हाथ आ गई। पांच वर्ष पहले की गई बस स्टैंड की बन्दोबस्ती की अवधि समाप्त हो रही थी, सरकार ने अगले पांच वर्षों की बन्दोबस्ती के लिए टेंडर निकाला। तीनों की दबंगता ऐसी कि नथुनी यादव को छोड़ किसी ने टेंडर ही नहीं डाला। जिस दिन टेंडर डाला जाना था, पराक्रम सिंह अपनी लाइसेंसी बन्दूक और अपने पूरे दलबल के साथ समाहरणालय में ही डटे रहे। मजाल क्या कि कुत्ता भी भौंक दे। आसपास के किसी गावं में शादी हो या श्राद्ध इन तीनों को निमंत्रण दिया ही जाता।

फगुनी राम ने भी दस दिन पहले ही शादी की जानकारी तीनों को दे दी थी। आने का आग्रह भी किया था। लेकिन उसे भी पता था कि आने को भले ही आ जाएँ, खाना तो नहीं ही खाएंगे। लेकिन किसी समारोह में इन तीनों की उपस्थिति ही सम्मान की बात मानी जाती। फगुनी को उम्मीद थी कि तीन पुश्तों से शेख साहब और बाबू साहब की सेवा कर रहे हैं, वर-वधु को आशीर्वाद देने आएंगे जरूर। बरसाती को लेकर जरूर सशंकित रहता कि उनलोगों के सामने कुछ उल्टा-सीधा न बोल दे। चौक चौराहे पर भी बरसाती को लेकर नुक्ताचीनी होती रहती। चमरटोली के अन्य लोगों की अपेक्षा उसका व्यवहार थोड़ा भिन्न था। पराक्रम सिंह ने कई बार चेतावनी भी दी थी कि यदि किसी तरह की नक्सलवादी घटना इस इलाके में घटी या नक्सलवादियों को पनाह मिली तो बरसाती की खैर नहीं।

बस्ती में हंसी खुशी का माहौल था। महिलाएँ गीत गा रही थी। फगुनी राम बढ़ते उम्र के कारण बहुत भागदौड़ तो नहीं कर पा रहा था, लेकिन पूरे आयोजन पर उसकी नजर थी। किस-किस को खाने का निमंत्रण भेजा जाना है, छोटे भाई और बेटे से पूरी जानकारी ले रहा था। सामने से नथुनी यादव के बेटे जुलुम यादव को देख फगुनी ने आवाज लगाई-

"रे बरसाती जुलुम आबि रहलो छै, एक कुर्सी भेजवाय दीहें तॅ।" बरसाती ने सुना या नहीं, लेकिन टोले के ही एक बच्चे ने कुर्सी ला दी। पास आये जुलुम को फगुनी ने बैठने का इशारा किया।

"कि हो चच्चा, सुनलियो भतीजी के ब्याह छौ।" कुर्सी पर बैठते ही जुलुम यादव ने कहा।

"हाँ बेटा! बरसाती के बेटी सुगरी के ब्याह छै।"

"तब केकरा-केकरा न्यौता देलें छहो खाय लेली?" जुलुम ने अपनी जिज्ञासा प्रकट की।

"कहलें तॅ छिएय बगल के दोनों बस्ती वाला कॅ। पासी, दुसाध, आरू मुसहर टोला। बबुआन टोला से बाबू पराक्रम मालिक कॅ आरू अकबरपुर से तोरो बाबू आरु शेख साहब कॅ।" पास खड़े बरसाती राम ने अपने मन की बात कह दी।

"बाबू साहब आयतो बरसाती, तोरा यहाँ खाय लेली?" जुलुम ने बरसाती की आंखों को पढ़ने का प्रयास किया।

"कहिने नै अयते। हम्मे तॅ सब के घोर जाय छिएय कि नै। मरनी-हरणी सब में गेलो छिएय बाबू साहब कॅ यहाँ। तॅ हमारा बेटी कॅ आशीर्वाद दै लेली हुन्हीं नै अयते?" बरसाती का अधिकांश समय कलकत्ता में बीता है इसलिए गाँव की सामाजिक व्यवस्थाओं से अनभिज्ञ था।

"हमरा तॅ उम्मीद कम छौ। वैसें बात करि कॅ देखें। बात करै में कि नुकसान छै।" जुलुम को उम्मीद नहीं थी कि बरसाती के कहने पर पराक्रम सिंह चमर टोली में खाने आएंगे।

"अरे बाबू साहब व्यस्त रहैत हथिन। कहलें तॅ छेवे करिए न। अरे खाय लेली नै, समय मिलतै तॅ बेटी कॅ आशीर्वाद दै लेली अयवे करथिन।" फगुनी ने थोड़ा बीच का रास्ता अख्तियार किया। "लेकिन चच्चा वू तॅ ठीक छै। हम्मे सब कि गलती करलें छियै। हमरा सब कॅ कल को भोज नै खिलयभो कि। खाली पास वाला दुनो टोला के खिलावै के विचार छौं। पासी, दुसाध आरू मुसहर के अलावा हमरा सब के कोनो वेल्युए नै छै कि।" जुलुम शिकायत कर रहा था।

"अरे बेटा तोरा सब घोर से कहियो खाना-पीना के रिश्ता नै न रहलै। हम्मे सब तॅ अछूत छलियै, आइयो छिये। हं ई कहिं कि आवे सरकार के तरफ से कानून सब बनी गेलए, तॅ आवे वइसन अत्याचार नै होय छै। आवो न तूहूँ, सब तॅ आपने छहो न। कोनो न्यौता-पिहानी के जरूरत छै कि। आवो कल तॅ दाल-भात के गोतियारी भोज छै। ई भोज तॅ तोयं सब खैभो नै।"

"अइसन कैसे चच्चा। दाल-भात के भोज में कि गुरेज छै। नै जादे तॅ संगमपुर, अकबरपुर आरु बबुआन टोला से बीस गो लड़का-फरका तॅ होइये नॅ जेतै। सब जात-भाय आबि जैथों तॅ अच्छे नॅ रहतै चच्चा। नै तॅ घरे पीछू एक्के गो कॅ बोलाभो। संगमपुर आरू अकबरपुर में ई बात कॅ चर्चा पुरकस छौ चच्चा कि चमरटोली में केकरो न्योता जाय या नै, तोहरा कॅ तॅ सभै कोय मानै छौ न। दोनों गाँव के कोनो अइसन भोज-भात नै होलो होतै जेकरा में तोरा छोड़ी देलो गेलो होतौ। ई हम्मे नै सभ्भे बोलय छौ चच्चा। इहे लेके हम्मे कहै छियो।" सबके बहाने जुलुम ने अपने मन की बात रख दी।

"ठीके छौ बेटा। अभी त कुछो नै बिगड़ल छै। भेज दै छियै हकारो कल कॅ। आबो सभै! इकरा से बढ़िया बात तॅ कोनो नै होतय। बेटी कॅ ब्याह में सभै कॅ हाथ जुठाबे कॅ चाही। रे! त्रिलोकी! भेज दहीं पास कॅ बबुआन टोला आरु अकबरपुर कॅ न्योता। घरे पीछू एक आदमी।" फगुनी ने बरसाती के बेटे त्रिलोकी राम को आवाज दी। त्रिलोकी के साथ उसका पिता बरसाती भी आ गया।

"चच्चा ईगो बात आरू। तकलीफ नै मानहियो।" जुलुम कहने में थोड़ा सकुचा रहा था।

"हाँ तॅ बोल दॅ न। कथि कहे कॅ चाहै छैं तोयं।" बरसाती जानने को उत्सुक था।

"चच्चा बात ई छौ कि ।" जुलुम की बात कहीं अटक गई।

"हाँ तॅ बोल न बाबू। इकरा में सकुचावे कॅ कौन बात छै। मन में कुछो रखी कॅ बात नै करै कॅ चाही। हम सब कॅ तॅ बापे-दादा से सभै कुछ सुनै कॅ आदत छै। तू सकुचावो नै।" फगुनी को जुलुम की बातों से किन्तु-परन्तु का एहसास हो रहा था।

"बात ई छै चच्चा कि हम सब भोज तोहरा दरवज्जा पर नै खैभौं। खाय कॅ व्यवस्था कोनो दोसर जगह करै लेली परथों।" जुलुम एक सांस में अपनी बात कह गया।

"क्यों करें हम ऐसा। मेरी बेटी की शादी है। भोज मुझे करनी है, तो हम दूसरे के दरवाजे पर क्यों करें भला। एक तो बिन बुलाए मेहमान की तरह आए हो और रौब झाड़ रहे हो कि मुझे भोज में किसे बुलाना है, किसे नहीं और भोज किसी दूसरे के दरवाजे पर करें। ये दादागिरी है क्या।" बरसाती की भृकुटि तन गई।

"ऐ बरसतिया जुबान संभाल कर बात करो। चच्चा बोल रहा हूँ। इससे भाव बढ़ गया क्या? टेंट किसके जमीन में लग रहा है, पता है न। कुछ बरस कलकत्ता में क्या रह लिया है, अंग्रेजी बतिया रहा है हमसे। हिन्दी झाड़ रहा है। हम पर रौब दिखा रहे हो। अभी का अभी ये टेंट उखाड़ कर फेंक दूंगा और कुछ नहीं कर पाओगे। दिखाता हूँ मैं अभी।" पैर पटकते हुए जुलुम लग रहे शामियाने की ओर बढ़ा।

"ये जमीन आपकी नहीं है। बाबू साहब की है। उनसे मैंने पूछ लिया है।" जुलुम यादव को रोकने बरसाती राम भी बढ़ा।

"बाबू जुलुम! ऐसा जुलम मत कर बेटा। अरे तुम मुझे चाचा कहते हो तो आज तेरी बहन की शादी है न रे। चल बेटा! तुम जो कहोगे मैं करूँगा। शांत हो जा बेटा।" फगुनी राम जुलुम का कभी हाथ जोड़ता, कभी हाथ उसके पैर की तरफ बढ़ता।

"रे त्रिलोकी! ले जा ई पागल अपने बाप को। ई सब किया धरा बेकार कर देगा। बरसाती मैं कह रहा हूँ तुम घर के अंदर जाओ" फगुनी ने भतीजा त्रिलोकी को आवाज लगाई।

"चल बाबू तोयं यहाँ से चल।" त्रिलोकी बरसाती राम का हाथ पकड़ खींचते हुए घर के अंदर ले गया। फगुनी राम अनुनय-विनय कर जुलुम को कुर्सी पर बैठाया। बस्ती के सभी लोग जुट गए। जितने मुंह उतनी बातें। कोई बरसाती को भला-बुरा कह रहा था, तो कोई जुलुम को। महिलाएँ आपस में खुसुर-पुसुर में लगी थीं। "बेटी कॅ ब्याह छै, बात थोड़े बर्दाश्ते करि लेतै तॅ छोट नै न होय जेतै। ई जादव आरू रजपूत सबसे टंटा करला सें कि मिलतै।" कोई जुलुम को ही कोस रही होती।

"ई तॅ जबर्दस्तीये न छै कि हमरो मोन नहिहों छै, तॅ हमरा खिलावे पड़तै। जबरदस्तीये कॅ बात न होलय। अरे केकरो जों औकात नै छै तॅ बलजोबरी भोज करवइतै कि? ई तॅ अंधेरे नगरी न छै। कमजोरे जानी कॅ न सतावै छै।"

"ठीक बात छै। इकरा सब के शादी आरू श्राद्ध में हमरा सब कॅ तॅ कोय नै पूछै छै। तब्बे तॅ हम अछूत होय जाय छिएय। आय कैसें पंडित भे गेलियै।" भीड़ में से ही किसी ने अपनी भड़ांस निकाली। "हम्मे तोरा सब के हाथ जोड़ै छिहों। तोयं सब ब्याह के विधि विधान में लगो। ई बाप बेटा कॅ बीच कॅ बात छिकै। तोयं सब इकरा में आंच नै दहो। हम्मे दोनों ई सब छोटो-छोटो बात कॅ सुलझाय लेवै।" फगुनी का इशारा भीड़ की ओर था। फगुनी के आग्रह का असर भी हुआ, धीरे-धीरे सभी घिसकने लगे।

"बोल जुलुम। कहाँ कहै छहिं भोज करै लेली। वहीं हम सब सरंजाम करवाय दै छियो।" फगुनी जुलुम के सामने सरेंडर कर चुका था।

"रहै दहो आवे, इतना बात सुनि कॅ एक पेट खाय लेली के अय्थों। जों ई सब बात बबुआन टोला तक पहुँची जैथों न, तॅ समझो आय बबाले होथों। बेटी के ब्याहो नै करे पारभो। हम्मे तॅ मजाके-मजाक में भोज-भात कॅ बात करि देलिहों। आवे पहिलो बात तॅ छै नै। भगवान दू पैसा देलें छौं, तॅ खुली के खर्च करो। इतना धूमधाम से बेटी के ब्याह करि रहलो छहो, तॅ भोजो-भात वइसने करो कि लोगें याद रखे। लेकिन ई जे तोर भाय बरसतिया, अपना आपके जादे काबिल समझै छहों न, ओकरा समझाय दहो, ग्वार आरू राजपूत के फेर में नै परे। नै तॅ चूरी के रखी देभों, छो महीना जेल तॅ, जेले सही। आवे हम्मे जाय छिहों।" जुलुम यादव उठकर खड़ा हो गया।

"अरे नै बेटा। देखें सच्चाई ई छै कि हम्मू चाहै छलियै कि बबुआन टोला आरू अकबरपुर कॅ कुछ लोगों कॅ कल को हकारो भेजवाय दियै, फेरु सोचलिए कि कलको भोज गोतिया फरीक कॅ होय छै, जेतना सॅ कि बाल दाढ़ी बनावै कॅ रेवाज छै, उतने तक न कल को भोज छै। ई भोज भी दाल-भात कॅ कच्ची भोज छिकै। सब अयबो नै करतै। इहे लेकि हकारो नै देल्वेलिये। ब्याह कॅ दिन तॅ पूरी बुनिया के पक्की भोज होय छै, लेकिन बेटा ओकर औकात हमरा नै छौ। वू दिन कोय तरह सें बाराती लेली मांस भात कॅ इंतजाम करी देवै। लेकिन तोयं तॅ हमरो मुंह के बात छीनी लेलेन्ह बेटा। इहो अच्छे बात छै न कि दस आदमी हमरो बेटी के ब्याह में भोज खैतै। हम्मे हकारो दिलवाय दै छिहों एक-एक आदमी कॅ। आवो तोयं सब कल शाम। हमरा लेली तॅ ई गर्व के बात छै। जहाँ कहभे, हम वहीं सब सरंजाम करवाय दै छिहों।"

फगुनी राम के पास कोई दूसरा चारा नहीं था। पूरी जिंदगी ही खप गई थी, इन्हीं बाबुआनो और शेख की ड्योढ़ी के आसपास। उनलोगों के पीछे-पीछे यादव, कोयरी और कुर्मियों ने भी आँख तरेरी। फगुनी राम ने कभी ऐसे मामलों को इज्जत प्रतिष्ठा से नहीं जोड़ा। वह तो मानता था कि ये सब पूर्व जन्म की कमाई है। जिसको जहाँ आना था, अपने कर्मों के हिसाब से आया है। चुकता तो करना ही पड़ेगा। वह चाहे जितना धनवान हो जाय, चलेगी तो इन्हीं बाबुआनो, शेखों और यादवों की। शायद बहुत कुछ सोचने को था भी नहीं। अतीत से वापस जुलुम ने ला दिया। "ठीके छै चच्चा तॅ ठाकुर साहब के यहाँ ही करवाय दहो सब इंतजाम। वैसे शेख साहब के यहाँ भी कोय दिक्कत नै होथिओं, लेकिन वहाँ भी कुछ लोग नै जैथों खाय लेली। तॅ सबसे अच्छा बाबुए साहब के दरवज्जा होथों। केकरो कोय दिक्कत नै।" जुलुम ने जानबूझकर कर ऐसे व्यक्ति का नाम लिया कि न की कोई गुंजाइश ही नहीं थी।

"ठीके छै बेटा हम्मे सभ्भे सरंजाम करवाय दै छिहों, बाबू साहब के दरवज्जा पर। बाकि वहांकरो व्यवस्था तोयं सब देखी लिहो। कोय शिकायत नै होय कॅ चाही। कल को भैयारी भोज करवाइये देना छै। इहो अच्छे होतै। परसु तॅ बराती आरू कुटुम्बे के खान-पान होतै।"

फगुनी राम के पास जुलुम की बातों को मानने के अलावा कोई चारा नहीं था, लेकिन बात ही बात में परसों के भोज को सीमित भी कर दिया। सलाह भी ले तो किससे। कोई ऐसा पैरोकार भी नजर नहीं आ रहा था, जिसके पास जाकर वह ऐसी बातों पर सलाह-मशविरा कर सकता है। बस्ती में कोई ऐसा पढ़ा-लिखा है भी नहीं। जो है भी वह आज का लड़का है। नया खून है कोई बात लग गयी तो बात बहुत बढ़ जा सकती है। इसलिए बेहतर है कि अपने दरवाजे न सही बबुआन का दरवाजा भी बुरा नहीं है। ज्यादा से ज्यादा तीस से चालीस लोग होंगे। दो बार में सभी लोग खा लेंगे। बड़ा-सा दलान है और दलान के सामने भी खाली जमीन।

"कि चाचा तब हम जइहों न। कलको न्योता भेजवाय दिहो।" जुलुम ने जाने की इजाजत मांगी।

"ठीक बेटा। तोयं जा।" जुलुम तो चला गया लेकिन जाते ही बरसाती अपने भाई से उलझ गया।

"आखिर तोयं कहिने मानलहो ओकर बात। हमरो भोज छिकै, हम्मे केकरा खिलयबै, कहाँ खिलयबै, ई हम्मे न जानिबे।" भाई को फगुनी का निर्णय पच नहीं रहा था।

"अरे! जो तोयं सब आपनो-आपनो काम करें। तोयं समझथैं नै छैं। कल्हे बाज़ार में ई बात के खुसुर-पुसुर होलो छै। अड़ोस-पड़ोस गावं के दस गो लड़का सब जमा होलो रहै। सभ्भे मिली के इकरा भेजलें रहौ। बात बढ़ाईला से कोनो फायदा होतै कि। तोरा घोर से सड़क पर जायके तॅ रस्ते नै छौ, आरू अयलो छैं पिंगिल पढ़ै लेली। जो न तोयं सब आपनो काम करें। यहाँ खाय या वहाँ, कि फर्क छै, हम्मे चमार छिकियै, हमरा यहाँ कौन बबुआन आरो शेख आयतो खाय लेली, पूछी के जरा देखें न।" फगुनी राम को अपनी सामाजिक हैसियत मालूम थी। उसने अपने अनुभव से इस मसले को सुलझाया। दूसरे दिन की भोज की व्यवस्था से पहले ही फगुनी राम अपने दो बेटों के साथ पराक्रम सिंह से मिलने चला गया। दोनों बेटों एतवारी राम और शंकर राम ने पराक्रम सिंह का पैर छूकर आशीर्वाद लिया। जबतक फगुनी दुआ सलाम करता, पराक्रम सिंह दहाड़ उठे।

"का रे फगुनिया आजकल चर्बी चढ़ गया है क्या। सुनते हैं कि तुम राजपूत को अपने दरवाजे पर खाने का न्योता दे रहे थे। एतना हमारा दिन घट गया है रे कि अब हम चमर-भोज खाने जाएंगे या तुमको कुछ ज्यादा पैसा हो गया है, तो बोलो एक्के केस में सब निकल जाएगा। बेहूदा कहींका। तनियों पानी नै रहा कि। सभ्भे घोरिये कर पी गए हो।"

"राम! राम! मालिक! के कहलकै ई सब बात। मालिक! अपने से हमरो कि तुलना। कहाँ राजा भोज, आरू कहाँ भोजवा तेली। हम्मे सपनोह में सोचे पारवै मालिक। नै नै, ई सब झूठ।" हाथ जोड़े फगुनी पराक्रम सिंह के सामने बैठ गया।

"हाँ हमको नथुनी का बेटा कहने आया था कि तुम्हारी यही योजना है। अरे! आजतक राजपूत की दस पीढ़ी तुम्हारे दरवाजे हाथ धोया है, जो आज हमारे टोले का बच्चा तेरे घर खाना खाने जाएगा। डोम-चमार के यहाँ खाना खाने जैसा दिन नहीं घटा है।" पराक्रम सिंह के दहाड़ के सामने फगुनी की बोलती बंद थी।

"नै मालिक जुलुम बाबू कॅ तॅ हम्मे कल कहिये देलियै कि भोज के सरंजाम हम बाबुए साहब कॅ यहाँ करवाय दै छिएय।"

"देखो फगुनी! भोज नहीं करना है तो मत करो। कोई जबरदस्ती नहीं है। लेकिन तुम्हारे घर बबुआन टोला से कोई नहीं जाएगा। फगुनी यह बात भी मेरी समझ में नहीं आई कि शादी तुम्हारे घर पर है फिर ये भोज मेरे यहाँ क्यों रख रहे हो? अपने लोगों को खिलाओ। जिससे तुम्हारा खाना-पीना चलता है। nखामख्वाह तुम अपना बजट बढ़ा रहे हो।"

"मालिक बात ई छै कि गावं-जबार के जुवक सबके इच्छा छै कि सब गावं टोला वाला कॅ भी ई बार बोलैलो जाए। आबे हमरा घोर में ओतना जगह तॅ नै छै, सौ-पचास आदमी कॅ खिलावै कॅ व्यवस्था हुए पारे। तॅ सबके विचार भेलै कि अपने दरवज्जा पर रखलो जाय।" फगुनी राम के छोटे बेटे शंकर राम ने सफाई में अपनी बात रखी।

"क्यों फगुनी! मैंने कह ही दिया था कि मेरे खेत में सारी व्यवस्था कर लो। चमरटोली से सटी हुई है मेरी जमीन। जगह की कमी जैसी कोई बात तो है नहीं।" पराक्रम सिंह फगुनी से मुखातिब थे।

"दोसर बात ई छै मालिक कि सभ्भे लोग हमरा दरवज्जा पर खाय लेली जैवे नै करतै। पहिने तॅ खाली पासी टोला आरू मुसहरी टोला वाला सॅ न्योता-पिहानी चलै रहै। अबकी हमरा सब कॅ मोन होलय कि आसपास कॅ बस्ती कॅ कुछ खास लोगों कॅ भी न्योतलो जाय। बबुआन टोला, अकबरपुर, संगमपुर गाँव सॅ दस बारह घोर कॅ। कल नथुनी जी कॅ लड़कवा जुलुम गेलो रहै चमरटोली। ओकरे सलाह छलै कि बाबू साहब कॅ यहाँ भोज रखला सें सभ्भे लोग ऐयतै।" एतवारी राम ने छोटे भाई और पिता की हाँ में हाँ मिलाया।

"पता नहीं क्या-क्या सोचते रहते हो तुमलोग। अरे! तुम्हारा जिससे चलता है, उसे न्योता दो, जिसको जाने का मन होगा जाएगा। जो न जाना चाहे न जाए। तुम्हें क्या। कल तुम भी मत जाना उसके यहाँ।"

"हमरा टेढो होला से काम नै होतय मालिक। हम्मे सब दसदुवारी छिकियै। हम्मे तॅ जें बोलावै छै सबके यहाँ जाय छियै। सभ्भे हमरा यहाँ नै न अयते। आबे मालिक सब सरंजाम भे गेलो छै। इहे दरवाजा पर हुए दहो भोज। एक शाम कॅ तॅ बात छै। ई दोनों बेटा सब सरंजाम करि देतै। लड़का सब मिली कॅ खाना बनाय लेतै" कहते हुए फगुनी राम ने हाथ जोड़ विनती की।

"ठीक है यहीं कर लो। मुझे कोई प्रॉब्लम नहीं।" पराक्रम सिंह ने सहमति दे दी। दूसरे दिन के भोज के लिए सारी व्यवस्था पराक्रम सिंह के घर करवा दी गई। इसमें मुख्य भूमिका फगुनी राम के दोनों बेटों ने निभाई। चमरटोली से बाहर के पचास से अधिक लोगों को निमंत्रण दिया गया था। बाबू साहब के यहाँ सभी आ गए। किसी को कोई समस्या नहीं हुई। भोज के समय फगुनी, फगुनी के दोनों बेटे और बरसाती राम का बेटा त्रिलोकी राम भी लगा रहा। जुलुम यादव भी आमंत्रित लोगों को खिलाने में मदद कर रहा था। भोज हंसी-खुशी के माहौल में सम्पन्न हो गया। लेकिन बरसाती राम भोज में शरीक नहीं हुआ।

दूसरे दिन बारात आई। बारातियों की संख्या पचास के करीब थी। महिलाएँ मंगल गीत गा रही थीं। बस्ती के बूढ़े हों या बच्चे सभी अपने-अपने तरीके से बारातियों के स्वागत में लगे थे। संख्या थोड़ी कम की संभावना ही थी, तो फगुनी राम ने बारातियों के लिए एक छोटे पाठे के मांस की व्यवस्था कर दी थी। इतने छोटे पाठे के मांस से बारातियों में भी पूरा होना संभव नहीं था। लेकिन बांटने में हाथ थोड़ा टाइट रखे तो किसी तरह बात बन सकती थी। बारातियों को खिलाने के बाद मांस के बचने की संभावना थी नहीं, इसलिए बाकी कोर-कुटुम्ब और घर वालों के लिए निरामिष भोजन की व्यवस्था की गई थी। अभी तो दूल्हे के परिछन की विधि चल रही थी। बाराती शामियाने में बिछाई गई दरी पर बैठे थे। चारों ओर से साराती के लोग घेरे हुए था। गाँव वालो से बारातियों की जान पहचान हो रही थी। पानी-चाय के बाद नाश्ते की बारी थी। दूल्हे के शादी के मंडप में जाने के बाद बारातियों के खाने का कार्यक्रम था। फगुनी राम शामियाने के बाहर एक ईंट की आधी-अधूरी दीवाल पर हमउम्र अपनी ही बिरादरी के दो लोगों के साथ बातचीत में मशगूल था। तभी त्रिलोकी राम दौड़ते हुए आया।

"बड़का बाबू। अकबरपुर गाँव केरो जुलुम यादव के साथे दस गो जुवक अयलो छौं।" सूचना देकर वह चला गया।

"आवे कथि लेली अयलो छै ई सब। आबै छियो।" कहकर फगुनी राम उठ खड़ा हुआ। उधर से जुलुम यादव अपने साथियों के साथ आ रहा था।

"राम! राम! चच्चा। बराती त कम्मे छौं। आय तॅ बराती लेली खस्सी कटलो होतै।" फगुनी को सामने से आते देख जुलुम यादव ने दुआ सलाम किया।

"हों एगो छलै पांच सेर के, काटी देलयै। इतना में तॅ एक-दू कुटिया करि के बराती सब के होय जेतै।" फगुनी ने दबे स्वर में बाराती के खाने के तैयारी की बात बता दी।

"ठाकुर साहब, हमरो बाबू आरू शेख साहब भी आबि रहलो छहौं। ईहे बताबै लेली हम्मे सब अयलो छिहौं।" जुलुम ने एक कुटिल मुस्कान बिखेरी। साथ आए बाकी लड़कों ने भी आपस में कानाफूसी शुरू की।

"अरे! ठाकुर साहब आबि रहलो छै। बड़ भाग हमरो।" फगुनी दौड़कर दरवाजे की ओर भागा। लंबी धोती के एक छोर को हाथ में संभाले ठाकुर पराक्रम सिंह अपने दोनों मित्रो से गप्प करते हुए फगुनी राम के घर की ओर ही आ रहे थे। फगुनी राम दौड़ते हुए पास गया।

"हुजूर आप। हमरो दरवज्जा पे। शेख साहब और नथुनी भाय तहूँ। हमरो त भागे जगी गेलै। कत्ते भगवंती छै सुगरी। इतना बड़ो-बड़ो आदमी सब आशीर्वाद दै लेली अयलो छै। अरे त्रिलोकी! दहीं कुर्सी लानी के रे। बाप रे! हम्मे त कभी सोचलैन्ह नै रहिये कि आयखनी हिन्ही सब हमरा यहाँ आयते।" कहते हुए आगे-आगे फगुनी और पीछे से ठाकुर के साथ दस से अधिक अमचे-चमचों का काफिला। सभी दरवाजे पर आ चुके थे। तबतक त्रिलोकी ने कुछ कुर्सियाँ लगा दी। कंधे पर रखे गमछे से फगुनी ने अपने हाथों कुर्सी को साफ किया।

"सब ठीक-ठाक है न फगुनी! कोई दिक्कत तो नहीं। रमानी साहब और नथुनी दोनों ने इच्छा जाहिर की कि आज तुम्हारे भतीजी की शादी में हमसबों को शरीक होना चाहिए। तो चले आये आशीष देने।"

"बड़ी मेहरबानी हुजूर। अपने पैर के धूल हमरा दरवज्जा पर परलै, इकरा से अच्छा आरो कौन बात होतै। कि स्वागत करियै आपने सबके। हम सब तॅ अछूत छियै। कुछो खाइयो लेली कइसे कहियै।" फगुनी हाथ जोड़े अनुनय कर रहा था।

"अरे खाना पीना क्या है। तुम्हारी भतीजी की शादी थी तो देखो सब आ गए। कोई दिक्कत हो तो बताना। बेटी की शादी ठीक से सम्पन्न होनी चाहिए।"

"हाँ फगुनी तुम मेरे पुराने मुलाजिम हो। दुःख सुख में हमेशा हमारे साथ रहे हो। ऐसे मौके बार-बार नहीं आते। बढ़िया से सब सम्पन्न करो।" शेख रमानी ने भी अपनी ओर से आश्वस्त किया।

"जी मालिक आप सबों का आशीर्वाद बेटी को मिल गया, यही हमारे लिए बहुत भाग्य की बात है।"

"तब फगुनी! हमलोगों को एक कप चाय पिलवा दो, एक और शादी में जाना है।" नथुनी यादव ने अपनी इच्छा जाहिर की।

"जी मालिक। अरे त्रिलोकी। दस कप चाय लेलें आवें।" फगुनी ने त्रिलोकी को आवाज दी।

"सुनो न चच्चा, हिनहें आबो।" जुलुम फगुनी का हाथ पकड़ दरवाजे से आंगन खींच ले गया।

"सुनो चच्चा। ई मौका फेरु नै अय्थों। अपना दरवज्जा पर मांस भात आय ख़िलाइहे दहो सब के।" जुलुम ने चाल चली।

"पागल छहिं कि। उन्हीं हमरा दरवज्जा पर खाइतै थोरे। बाप रे! अइसन बात हम नै कहे पारवै" फगुनी के लिए ऐसा सोचना भी पाप था। तबतक चाय आ गई। तीनों दोस्त चाय पीते हुए ग्रामीण समस्याओं पर बात कर रहे थे।

"अगर हम तैयार करवाय देभौं तब तॅ कोई प्रॉब्लम नै न छै।" जुलुम फगुनी की आंखों में झांकने लगा। फगुनी बोला तो कुछ नहीं, केवल हाँ में सर हिलाया। फगुनी की सहमति पा जुलुम बाहर आया। शेख रमानी से कान में कुछ बुदबुदाया।

"फागुनी चच्चा कॅ मोन मांस-भात ख़िलाबै कॅ छै।" इशारा फागुनी राम की ओर था।

"अरे नहीं फागुनी! अभी तो ग्यारह बज गया। हमलोगों को एक और शादी में जाना है। हाँ! बच्चा सब खाए तो खिला दो।" फागुनी के पास आकर शेख रमानी ने जुलुम और उसके साथ आए लड़कों को इंगित कर कहा। पराक्रम सिंह को उठते देख रमानी और नथुनी भी चलने को बढ़ गए।

"ठीके छै" फगुनी ने शेख को अपनी सहमति दे दी। ड्राइवर ने गाड़ी स्टार्ट की। तीनों चले गए। लेकिन जुलुम के साथ आए लड़के रुक गए।

"तब चच्चा हिनखा सब के खाना खिलाय दहो।" जुलुम ने फागुनी से कहा।

"हाँ हाँ बैठ तोयं सब, खाना लगवाय दै छियो।" फगुनी ने एतवारी को इशारा किया। जुलुम के इशारे पर त्रिलोकी और शंकर राम ने जमीन पर पुआल की बनी पाती को दीवाल के किनारे फैला दिया। जुलुम के साथ आए लड़के बैठ गए। खाने वालों की संख्या बीस से अधिक हो गई। बारात के लिए तैयार भोजन को जुलुम के साथ आए लड़कों ने चट कर दिया। सभी युवक खाना खाने के बाद चले गए। तबतक रात के बारह बज चुका था। बारातियों को खिलाने के लिए कुछ भी नहीं था। फगुनी राम एक कोने में सर पकड़ कर बैठ गया। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि बारात पार्टी को क्या कहेगा। खिलाने के लिए तो कुछ बचा ही नहीं। अपने पिता की स्थिति देख उसके दोनों बेटे पास आए।

"बाबू आप चिंता न करें, बारातियों को खिलाने के लिए कुछ इंतजाम करते हैं। अभी तो शादी की रश्म चल रही है। जल्दीबाजी में भात, दाल तो बन ही सकता है। घर वालों का खाना तो बना ही है, उसी में कुछ सब्जी बढ़ा देते हैं।" एतवारी राम कभी अपने पिता को तो कभी बारात की ओर देख रहा था। "देखा न आपने। कल इन हरामजादों के लिए हम अछूत थे। आज कैसे सवर्ण हो गए। आपने ही इनलोगों को सर चढ़ा लिया है। मैं तो इन्हें देखना भी नहीं चाहता। साला हरामखोर आया ही था, हमें बेइज्जत कराने। अब क्या करेंगें। क्या खिलाएंगे हम बारातियों को।" बरसाती अपने भाई पर ही आग बबूला हो रहा था।

"चाचा आप चिंता न करें। देखते हैं कुछ न कुछ व्यवस्था हो जाएगी। आप धीरज से काम लें। हमारे घर शादी है। जो होना था हो चुका।" शंकर राम बरसाती को समझा रहा था।

"चलें हम्मे बराती वाला सब से माफी मांगी लै छियै।" फगुनी राम उठ खड़ा हुआ और शामियाने की ओर बढ़ा।

"भैया! ये ठीक नहीं होगा। क्या कहेगा लड़का का बाप कि समाज में ये हैसियत है हमारी। लोग हमें बेइज्जत करके चले जाते हैं और हम देखते रह जाते हैं।" बरसाती राम को बड़े भाई का निर्णय हजम नहीं हो रहा था।

"वू सब विदेश सें नै अयलो छै। सभ्भे के पता छै कि हमरो कत्ते मान छै समाज में। सभ्भे सतेलहैं छै, सभ्भे दिन। एकरा में अचरज कि छै।" कहते हुए फगुनी राम शामियाने की ओर बढ़ने लगा।

"रुकिए आप। आप मत जाइए। मैं बेटी का बाप हूँ। मैं जा कर माफी मांग लेता हूँ।" कहते हुए बरसाती आगे शामियाने की ओर बढ़ गया। बारातियों के सामने हाथ जोड़ खड़ा हो गया। पीछे-पीछे फगुनी के साथ एतवारी, शंकर और त्रिलोकी भी चल पड़ा। "आपसबों को खिलाने के लिए अभी तैयार भोजन में कुछ भी नहीं है। इसका मुझे अफसोस है, पास के गाँव के कुछ युवक आपका भोजन खा गए। मांस-भात की व्यवस्था थी। लेकिन मुझे खुशी भी है कि उन सालों की हैकड़ी आज निकल गई। आज के बाद किसी दूसरे के दरवाजे पर हमारे समाज के लोगों को बेटी की शादी में भोज का इंतजाम नहीं करना होगा। जो कुछ हुआ वह आपके सामने ही हुआ। आपका भोजन चांडाल चट कर गया।" बरसाती सर झुकाए खड़ा रहा।

"घर वालों के लिए बना खाना तो अभी है ही। उसमें कुछ और तैयार कर देते हैं। अगर थोड़ा समय दें।" फागुनी के बेटे शंकर राम ने निवेदन किया।

"कोय बात नै छै। अपने घरो वाला लेली जे बनलो छै, ओकरेंह में सब भैयारी बांटी-चुटी कॅ खाय लेबै, चिंता कॅ कोनो बात नै छै। हम्मे तॅ आबे अपने के कुटुंब होय गेलियै। हम्मे आपनो समाज कॅ ई मजबूरी समझै छियै। अभी तॅ रात के बारह बजलो छै। दाल-भात से बढ़िया कौन भोजन।" बरसाती का समधी भीखन राम ने फगुनी राम का हाथ पकड़ लिया। समधी की दरियादिली देख फागुनी राम की आंखों से झर-झर आंसू बहने लगा। लेकिन पास खड़े सभी का चेहरा खिल उठा। फागुनी और बरसाती राम के बेटे के साथ टोला के सभी युवक बने खाने में कुछ अतिरिक्त सब्जी बनाने में जुट गए। एक बजते-बजते खाना बन चुका। बारातियों को खाने पर आमंत्रित किया गया। जमीन पर बिछे पुआल की पाती पर बैठ बारातियों ने हंसी-खुशी के माहौल में भोजन का आनंद लिया। तबतक शादी सम्पन्न हो चुकी थी। अब मंगलगीत की जगह महिलाएँ बारातियों को गलियों से सरावोर कर रही थी। ठहाके का दौर चल रहा था। चमरभोज राजभोज में तब्दील हो गया।