राज कपूर: सृजन प्रक्रिया / अनाम

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पृथ्वी थियेटर में शो के बाद पृथ्वी राजकपूर के कमरे में दिग्गजों की महफिल लगती थी। राजकपूर एक कोने में बैठकर विद्वानों की बातें सुना करते थे। सभा के अन्त में पृथ्वीराज सारी बातें अत्यन्त सरल शब्दों में प्रस्तुत करते थे और उनकी इस योग्यता का राजकपूर पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। राजकपूर ने बहुत गौर से देखा कि किस प्रकार उनके पिता अपनी मनपसन्द थीम पर लेखकों से नाटकों की पटकथा लिखवाते थे।... सबके जाने के बाद साफ सफाई कराके राजकपूर ऑपेरा हाउस से माटूंगा की ओर पैदल रवाना होते थे।... उतनी रात बस या ट्रेन मिलने का सवाल नहीं था। और टैक्सी के लिए पैसे नहीं होते थे। अत: सारे वार्तालाप की जुगाली करते हुए राजकपूर अलसभोर में घर पहुंचते थे।’’ निश्चित रूप से राजकपूर की सृजन प्रक्रिया के आधार की तलाश यहीं से हो सकती है। लेकिन इस आधार तक पहुंच पाना सामान्य फिल्म समीक्षकों के लिए कतई संभव नहीं हो सकता था। आम तौर पर सफलता के साथ सितारों का आभामण्डल इतना बड़ा और इतना आलोकित हो जाता है कि उसे भेद पाना सहज ही संभव नहीं हो पाता। फिल्म अध्येता जयप्रकाश चौंकसे अपनी पुस्तक ‘राजकपूर सृजन प्रक्रिया’ में यदि उसे भेद पाते हैं तो यह राजकपूर के साथ उनके लम्बे सानिध्य और सिनेमा के प्रति उनकी गहन दृष्टि को प्रदर्शित करता है। आश्चर्य नहीं कि बेहतरीन सौंदर्यबोध के साथ प्रकाशित ‘राजकपूर सृजन प्रक्रिया’ में राजकपूर की आत्मीय दुनिया की झलक ही नहीं मिलती, उनकी विराट सफलता के पीछे उनके संघर्ष को भी करीब से जानने समझने का अवसर मिलता है।

गौर तलब है कि राजकपूर ने 22 वर्ष की उम्र में जब ‘आग’ के निर्माण का बीड़ा उठाया था तो उनकी पीठ पर सूरज बड़जात्या, अदित्य चोपड़ा और करण जौहर की तरह अपने पिता का हाथ नहीं था। पृथ्वी राजकपूर इसपर यकीन ही नहीं करते थे। उन्हें शायद आभास था कि हिन्दी सिनेमा को यदि खरा सोना देना है तो उसे आग में तपाना ही पड़ेगा। ‘आग’ की परिकल्पना को साकार करने के लिए राजकपूर को खून पसीने ही नहीं जलाने पड़े, अपनी पत्नी के जेवर तक बेचने पड़े। चौकसे लिखते हैं, शादी के छ: महीने बाद पत्नी से गहने मांगना हिम्मत का काम था, और पत्नी के गहने दे देना और भी हिम्मत का।

चौकसे रेखांकित करते हैं कि राजकपूर के लिए प्रत्येक फिल्म युद्ध और प्रेम की तरह थी। और उन्होंने एक योद्धा की तरह काम भी किया। जितनी मुसिबतें ‘आग’ में आई थी, उतनी ही मुसीबत ‘बॉबी में भी आई। चौकसे राजकपूर के प्रेम और युद्ध की इस गाथा को इक्कीस शीर्षकों के अन्तर्गत व्याख्यायित करने की कोशिश करते हैं। जिसमें उनके संगीत, तकनीक, कथानक के साथ उनके समकालीन सामाजिक ऐतिहासिक राजनैतिक संदर्भों को और सबसे बढ़कर राजकपूर के व्यक्तित्व को काफी आत्मीयता से वे समझने की कोशिश करते हैं पुस्तक में ‘आवारा’ और ‘जागते रहो’ पर खास चर्चा भी मिलती है। निश्चित रूप से विचारक राजकपूर की ये दोनों प्रतिनिधि फिल्में रहीं हैं। अपने सक्रिय 41 वर्षों में राजकपूर ने साढ़े अठारह फिल्में बनायी, चौकसे ‘हीना’ को उनकी आधी फिल्म मानते हैं। क्योंकि गीत संगीत के साथ उसकी पटकथा के चार संस्करण भी उन्होंने तैयार कर लिए थे। फिल्म के प्रति राजकपूर की जिजिविसा का अन्दाजा इसी से लगाया जा सकता है कि अपने आखिरी दिनों तक वे सक्रिय थे। ‘अजन्ता’, ‘घुंघट के पट खोल’, ‘परमवीर चक्र’, ‘रिश्वत’, ‘मैं और मेरा दोस्त’ तथा ‘जोकर भाग-2’ की पटकथायें अमूमन तैयार थीं जिनपर फिल्में नहीं बन सकीं। राजकपूर की फिल्मों के निर्माण में प्रेरणा के चार बिन्दू को चौकसे रेखांकित करते हैं, प्रेम करने की असिमित शक्ति, प्रेम में असफल होने पर रोने का साहस तथा अदम्य महात्वाकांक्षा। अपने पिता पर अगाध श्रद्धा और जनजात संस्कार। राजकपूर अपने पिता का इतना आदर करते थे कि उनके सामने कभी सिगरेट और शराब का सेवन नहीं किया। हर फिल्म के प्रारम्भ में इश्वर से आर्शिवाद लेने के बाद वे पिता का आर्शिवाद लेते रहे। और आर. के. के प्रतीक चिन्ह के पहले पृथ्वी राज के पुजा का दृश्य परदे पर आता रहा। राजकपूर के यही पारीवारिक संस्कार थे जो उनके तमाम चर्चित अचर्चित प्रेम प्रसंगों के बावजूद उनके परिवार को जीवन पर्यन्त एक अटूट रिश्ते में बांधे रख सका। रिश्तों के प्रति राजकपूर का सम्मान इसी से समझा जा सकता है कि जो कामकाजी रिश्ते उन्होंने बनाये उसका भी जीवन भर निर्वाह किया। चाहे वे राधू करमाकर हों या ख्वाजा अहमद अब्बास, शैलेन्द्र, शंकर जयकिशन या मुकेश। सिनेमा में ही नहीं व्यक्तिगत जीवन में भी वे एक दूसरे के पूरक रहे। चौकसे लिखते हैं राजकपूर ने कभी भी अपनी आत्मा को वातानूकुलित कमरे में कैद नहीं किया। छोटे-मोटे सड़क छाप भोजन के ठियों पर नियमित रूप से उन्होंने आम आदमी से अपना सम्पर्क कभी टूटने नहीं दिया। अपने ड्राइवर, खानसामा और स्टूडियो के साधारण कर्मचारियों से वे रोजमर्रा की बात महेशा करते थे। चौकसे उनके व्यक्तित्व की जमीन तलाशते हुए पृथ्वी थियेटर के नाटकों तक पहुंचते हैं। वे लिखते हैं, वही उनकी सच्ची पाठशाला थी। पृथ्वी में मंचित नाटक सकुन्तला, आहूति, पठान, दीवार, सबसे लोकप्रिय थे। इन्हें सभी नाटकों में धार्मिक सौहाद्र, मानवीय करूणा, प्रेम और देश भक्ति की भावनायें समान रूप से मौजूद थी और सोदेश्यता के साथ भरपूर मनोरंजन था। राजकपूर का व्यक्तित्व और फिल्में सबसे अधिक इन्हीं से प्रभावित रहीं हैं।

राजकपूर के फिल्मों की सोदेश्यता बार-बार उन्हें साम्यवादी मानने को बाध्य करती रही। खासकर ‘जागते रहो’, ‘आवारा’, ‘बूट पॉलिस’ और ‘श्री 420’ जैसी फिल्मों ने तो साम्यवादी देशों में भी राजकपूर को एक विशिष्ट पहचान दी। जय प्रकाश चौकसे काफी बारिकी से इसे विश्लेषित करते हुए इस निष्कर्ष पर पहुचते हैं कि राजकपूर के लिए पहली और अन्यतम चीज थी सिनेमा-और सिनेमा के इस महान प्रेमी के लिए राजनीतिक विचार धारा बहुत महत्वपूर्ण नहीं थी। वास्तव में राजकपूर सिनेमा में मानवीय मूल्यों के पक्षधर थे। फिल्म समालोचक हेमचन्द्र पठारे को रेखांकित करते हुए चौकसे स्थापित करते हैं कि राजकपूर मात्र शो मैन नहीं थे। जिस निर्माता की फिल्मों में सिर्फ भव्यता हो उन्हें शो मैन कहा जाता है। राजकपूर की फिल्मों में आम आदमी के दुख-दर्द की बात है। राजकपूर की फिल्मों में केन्द्रिय विचार बहुत महान होता था। और उन्होंने कभी तकनीक या भव्यता को अपनी कथा पर हावी होने नहीं दिया। इसी लिए शो मैन कहकर हम राजकपूर के निर्देशन क्षमता का मूल्य कम आंकते हैं।

राजकपूर वास्तव में भविष्य दृष्टा थे। उनकी फिल्मों को, पात्रों को, दृश्यों को एक-एक कर याद करने की कोशिश करें तो सहज ही जय प्रकाश चौकसे के शब्दों में कहें तो इस निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है कि उनकी व्यक्तिगत पीडा विराट सामाजिक स्वरूप लेकर प्रार्थना बनी और परदे पर छा गई। इसी लिए राजकपूर का आम भारतीय आदमी से सीधा संवाद बना रहा। यह कोर्इ आश्चर्य नहीं कि आसानी से रूस में रूसी और इटली में इटालियन समझलिए जाने वाला खुबशुरत व्यक्तित्व ‘तीसरी कसम’ के हीरामन को भी उतनी ही सहजता से साकार कर देता है। क्या यह सिर्फ अभिनय हो सकता है?

‘राजकपूर सृजन प्रक्रिया’ में बार-बार एहसास होता है कि राजकपूर के बहाने जय प्रकाश चौकसे हिन्दी सिनेमा के बदलते स्वभाव और नजरिए को आईना दिखाने की कोशिश कर रहे हैं। यही है जो इस पुस्तक को थोड़ा और ज्यादा महत्वपूर्ण बनाती है। राजकपूर की जीवन को टटोलते हुए यह पुस्तक हिन्दी सिनेमा के एक पूरे काल खण्ड को, या कहें सबसे गौरवशाली काल खण्ड को मिशाल के रूप में सामने रख हमें आत्म अवलोकन को अवसर देती है।