रामचरितमानस में पर्यावरण-संरक्षण / लालचंद गुप्त 'मंगल'

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परि़+आङ्+वृञ (वरणे) +ल्युट् (अन) = ' पर्यावरण का अर्थ है-चारों ओर से आच्छादित करने वाला; जिससे हम आवृत्त है; जो हमारे चारों ओर विद्यमान है। पर्यावरण को पंचतत्त्व / पंचभूत (धरती, जल, तेज, वायु आकाश) द्वारा निर्मित प्राकृतिक जगत् भी कह सकते हैं। यह दुनिया, यह पर्यावरण, यह प्रकृति अन्योन्याश्रित एवं अविभाज्य अंग की तरह कार्य करती है। पर्यावरण का यह स्वरूप, संतुलित आकार-प्रकार हमारे अस्तित्व और विकास के लिए आवश्यक ही नहीं। अनिवार्य भी है। ध्यान रहे, जब इस पर्यावरण में असंतुलन उत्पन्न हो जाता है अथवा कर दिया जाता है, तो यह प्रदूषण का रूप धारण करके मानव-जीवन के लिए अनिष्टकारी हो उठता है। आज समूचा विश्व पर्यावरण-प्रदूषण की विभीषिका को भोगने के लिए अभिशप्त है, क्योंकि प्राकृतिक संसाधनों के अविवेकपूर्ण दोहन एवं दुरुपयोग से पर्यावरण-प्रदूषण एवं प्राकृतिक असंतुलन की स्थिति उत्पन्न हो गई है। प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध दोहन, ग्लोबल वार्मिंग, ओज़ोन परत की क्षीणता तथा परमाणु हथियारों का प्रतिस्पर्धात्मक निर्माण एवं दुरुपयोग आदि इस पर्यावरण-प्रदूषण के मुख्य कारक है।

यहीं यह बताना भी उचित रहेगा कि अतीतकालीन भारत में भी नारायणास्त्रों, पाशुपतास्त्रों और ब्रह्मास्त्रों आदि का प्रयोग होता रहा है, लेकिन, आज के हथियारों के सामने, इन्हें बाल-पतंग के समान माना गया है—फलस्वरूप उस काल में पर्यावरण-प्रदूषण की कोई गंभीर समस्या कभी दिखाई नहीं पड़ी।

स्मरण रहे विश्व-राजनेता चिन्ता करें, न करे, संवेदनशील साहित्यकार तो चिन्ता करता ही है। यही कारण है कि संसार में उपलब्ध प्राचीनतम ग्रन्थ 'ऋग्वेद' में भी शुद्ध पर्यावरण और उसके संरक्षण की मनोरम झाँकियाँ देखने को मिलती हैं। वस्तुतः, भारतीय वाङ्मय में, अनादिकाल से ही, प्रकृति की अर्चना-आराधना की अनवरत भावधारा बहती रही है। 'सुजलाम्, सुफलाम्, शस्यश्यामलाम्' वाली पृथ्वी से हमारे साहित्यकारों के आत्मीय सम्बन्ध रहे हैं। इस दृष्टि से गोस्वामी तुलसीदास का योगदान भी अप्रतिम माना जाएगा।

तुलसीदास ने मानव को शरीर और मन का संघात मानते हुए उसकी शारीरिक शुचिता और स्वास्थ्य पर उतना ही बल दिया है, जितना मानसिक पवित्रता और आचरण की मर्यादा पर। उन्होंने मानव-शरीर को सब जीवधारियों के शरीर से उत्कृष्ट माना है। काकभुशुण्डि के आश्रम में, सत्संग-लाभ के दिनों, गरुड़ ने उनसे जो सात प्रश्न पूछे थे, उनमें से पहला यही था कि संसार में सबसे दुर्लभ शरीर किसका है? उत्तर में काकभुशुण्डि ने मानव-काया को सर्वोत्कृष्ट बताते हुए उसे, सभी चराचर प्राणियों के लिए स्पृहणीय बताया था; क्योंकि यह मानव-काया ही है, जो मंगलकारी ज्ञान, वैराग्य और भक्ति प्रदान करने वाली है तथा नरक, स्वर्ग और मोक्ष की सीढ़ी है-

नर तन सम नहि कवनिउ देही। जीव चराचर जाचत तेही॥

नरक स्वर्ग अपवर्ग निसेनी। ज्ञान विराग भगति सुभ देनी॥ —रामचरितमानस, 7 / 120 (ख)

तुलसी के अनुसार, जो लोग इस शरीर का दुरुपयोग करते हैं, वे पारसमणि को गँवाकर काँच के टुकड़े ही प्राप्त करते हैं—

काँच किरच बदले तें लेही। कर ते डारि परसमनि देहीं॥ -रामचरितमानस, 7 / 120 (ख)

शारीरिक स्वास्थ्य की चरम परिणति मानसिक संतुलन में होती है। अंगरेज़ी की भी एक प्रसिद्ध कहावत है–'sound mind in a sound body' यह तथ्य भी सर्वज्ञात ही है कि मनुष्य का समग्र व्यवहार मन द्वारा ही निर्धारित और संचालित होता है। तुलसी के अनुसार, जब परिवेश की विकृति मन को विकृत-कलुषित कर देती है, तो मनुष्य के वचन और कर्म में भी विकृति आ जाती है-

वचन विकास, करतबउ खुआर, मनु विगत-विचार, कलिमल को निधानु है।

-कवितावाली, 7 / 64

वास्तव में, वैचारिक विकृति ही समस्त विकृतियों की जड़ है। काम, क्रोध, मोह, मद आदि मनोरोगों से मानसिक विकृतियाँ उत्पन्न होती है, जो सारे भ्रष्टाचारों की जड़ है। कहना न होगा कि कलियुग में इनका प्राबल्य है-

साँची कहौ, कलिकाल कराल! मैं ढारो-बिगारो तिहारो कहा है।

काम को, कोह को, लोभ को मोह को मोहि सों आनि प्रपंच रहा है॥

-कवितावली, 7 / 101

लोभ मोह काम कोह कलिमल घेरे है। -कवितावली। 7 / 174

इस प्रकार, विचार और आचार के विकृति विस्तार को देखकर तुलसी ने कलयुग को मलयुग तक कह डाला है-

नाम-ओट अब लगि बच्यो, मलयुग जग जेरो। -विनयपत्रिका, 146 / 4

तुलसीदास ने मानसिक और शारीरिक विकृतियों में परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध माना है। मानसिक विकृति से बुद्धि-बल का तो क्षय होता ही है, शारीरिक तेजस्विता भी क्षरित हो जाती है।

इमि कुपथ पग देत खगेसा। रहन तेज तन बुधि बल लेसा॥ -रामचरितमानस, 3 / 27

तुलसी का व्यक्तित्व मांगलिक तत्त्वों से विनिर्मित है, इसलिए वे अमंगलकारी तत्त्वों के सहज विरोधी है। फलस्वरूप रामचरितमानस के प्रथम श्लोक में ही उन्होंने वर्णों, अर्थों रसों, छन्दों और मंगलों की सृष्टि करने वाली वाणी और विनायक की स्तुति करके अपना जीवन-दर्शन स्पष्ट कर दिया है—

वर्णानामर्थ संधानां रसानां छन्दसामपि।

मंगलानां च कर्त्तारौ वन्दे वाणीविनायकौ॥-रामचरितमानस, 1 / 1

तुलसी के राम मंगल के भवन और अमंगल का परिहार करने वाले हैं— मंगल भवन अमंगल हारी। द्रवउ सो दसरथ अजिर बिहारी॥ -रामचरितमानस 1 / 111 (2)

इसीलिए तुलसीदास-

होइहहि रामचरन अनुरागी कलिमल रहित सुमंगल भागी॥ -रामचरितमानस, 1 / 14 (6)

इन राम के राज्य में निवास करने वाले लोगों की शारीरिक, मानसिक और आचारिक स्थिति का वर्णन तुलसीदास ने इस प्रकार किया है-

बरनाश्रम निज-निज धरम निरत बेद पथ लोग। चलहिं सदा पावहि सुखहि नहिं भय सोक न रोग॥ —रामचरितमानस, 7 / 20

दैहिक दैविक भौतिक तापा। राम राज नहिं काहुहि व्यापा॥ -रामचरितमानस, 7 / 20 (1)

अल्प मृत्यु नहिं कवनिउ पीरा। सब सुन्दर सब विरुज सरीरा॥ -रामचरितमानस 7 / 20 (3)

इसका कारण क्या है? इसका कारण है। यहाँ विद्यमान स्वच्छ-स्वस्थ परिवेश, निर्मल-उज्ज्वल वातावरण और गुणकारी सुखकारी पर्यावरण उदाहरण स्वरूप, तुलसी साहित्य में प्राकृतिक शक्तियों, पर्वतों, वनों वृक्षों, आश्रमों, जलाशयों और तीर्थों आदि के प्रति गहन आत्मीयता और पूजा भावना के दर्शन होते हैं। गंगा, यमुना, सरयू आदि नदियों, चित्रकूट पर्वत प्रयागराज तीर्थ काशी और अयोध्या आदि नगरीय तीर्थों की स्तुतियाँ गाई गई हैं। दैहिक, दैविक, भौतिक ताप हरने वाली देवनदी गंगा को तो जगन्माता तक कहा गया है-

तो बिनु जगदम्ब गंग, कलिजुग का करित? -विनयपत्रिका। 19 (3)

वस्तुतः, प्राकृतिक जीवन की यह सकारात्मक योजना मानस में यत्र-तत्र सर्वत्र उपलब्ध है। यहाँ कंद, मूल, फल का सेवन तो होता ही है, यथावसर दूध, दही, शहद और अंकुरित अन्न आदि भी प्रयोग में लाए जाते हैं। तुलसी के राम जहाँ भी विश्राम करते हैं, वहाँ पर्णकुटी का निर्माण अवश्य करते हैं और कुशा तथा कोमल पत्तियों की सौंधरी (शय्या बिछाते हैं। उनके मार्ग में पढ़ने वाला शायद ही कोई ऐसा जलाशय, नदी या सरोवर हो, जिसमें उन्होंने सीता-लक्ष्मण सहित, स्नान न किया हो। राम-लक्ष्मण द्वारा वटवृक्ष के दूध से जटाएँ बनाने का उल्लेख भी मिलता है-

सकल सौच करि राम नहावा। सुचि सुजान बट छीर मगावा॥ अनुज सहित सिर जटा बनाए। देखि सुमंत्र नयन जल छाए॥ -रामचरितमानस, 2 / 93 (2)

सीता को, राम के साथ, प्राकृतिक परिवेश कितना पारिवारिक और आत्मीय लगता है, उसका भव्य चित्रण मानस में उपलब्ध है, देखिए-

परनकुटी प्रिय प्रियतम संगा। प्रिय पिरवार कुरंग विहंगा॥

सास ससुर सम मुनितय मुनिवर। असनु अमिय सम कद मूल फर॥

नाथ साथ सौंधरी सुहाई। मयन सयन सय सम सुखदाई॥ -रामचरितमानस, 2 / 139 (3)

स्पष्ट है कि तुलसी ने सारे जग को सीता-राममय मानकर ही मानस की रचना की है 'सिय राममय सब जग जानी' वाले संसार में किसी भी प्रकार की विकृति की कल्पना नहीं की जा सकती। ऐसे जगत् में तो विकृति नहीं, संस्कृति ही बसती है। तुलसी का रामकाव्य इसका ज्वलंत प्रमाण है।

अन्त में, यह अवश्य कहना चाहूँगा कि प्रकृति और पर्यावरण की तन-मन-धन से पूजा-अर्चना करने वाला मेरा यह देश आज दुर्भाग्य से, पर्यावरण प्रदूषण की भयावह परिस्थितियों से घिरा हुआ है। हम भूल चुके हैं कि पंचभूतों के संतुलित चक्र से ही यह ब्रह्माण्ड संचालित है और जितने दिनों तक यह पृथ्वी बचेगी उतने दिनों तक ही हम और हमारी भावी पीढ़ियाँ बचेंगी। जब तक मन रूपी हाथी, विषय-रूपी दावानल में जलता रहेगा, तब तक जन-कल्याण संभव नहीं है। इसलिए वाह्य एवं आंतरिक पर्यावरण की सुरक्षा, सात्विकता, महत्ता और उपयोगिता को जानने-समझने के लिए रामचरितमानस रूपी सरोवर में गोते लगाना ही श्रेयस्कर रहेगा— मनकरि, विषय-अनल बन जरई।

होइ सुखी जौं एहि सर परई॥ -रामचरितमानस, 1 / 34 (4) -0-