रामायण: ऐतिहासिकता एवं चरित्र चित्रण / कविता भट्ट

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सभ्यता एवं संस्कृति की संक्रमणकालीन परिस्थितियों को दृष्टिगत रखते हुए हमें भारतीय संस्कृति के आधारस्वरूप कुछ पौराणिक ग्रन्थों की विशेषताओं के पुनः-पुनः प्रस्तुतीकरण, चिंतन-मंथन एवं उन ग्रन्थों में विवेचित नैतिक चरित्रों के अनुकरण की आवश्यकता है। इसी आवश्यकता को दृष्टिगत रखते हुए हम इस अनुच्छेद के माध्यम से दो तथ्यों के प्रतिस्थापन पर ध्यान एकाग्र करेंगे। पहला रामायण की ऐतिहासिकता के सम्बन्ध में भ्रम की स्थिति को दूर करने का प्रयास करेंगे तथा दूसरा रामायण के केन्द्रीय एवं अनुकरणीय चरित्रों के रूप में सीता एवं राम के चरित्र के सबसे विशेष पक्ष का निरपेक्ष प्रस्तुतीकरण।

सर्वप्रथम ऐतिहासिकता की बात करते हैं। ऐतिहासिक तथ्यों को प्रतिस्थापित करते समय सबसे महत्त्वपूर्ण है तर्कों के आधार पर तथ्यों का निरपेक्ष प्रस्तुतीकरण एवं स्वीकृति। धर्म, क्षेत्र, सम्प्रदाय एवं जाति आदि मानवीकृत मापदंडों से विलग रहते हुए किसी भी ग्रन्थ का निरपेक्ष अध्ययन जब किया जाता है; तभी ये तथ्य सत्य अथवा असत्य कहे जा सकते हैं। अन्यथा इन सब प्रत्ययों की संकीर्णता के कारण हम वस्तुस्थिति का तटस्थ प्रस्तुतीकरण तो दूर की बात, उसका यथोचित अध्ययन भी नहीं कर पाते हैं। ऐतिहासिकता के क्रम में हम रामसेतु की बात करेंगे। आधुनिक काल में वैज्ञानिक अनुसंधानों एवं तर्कों के द्वारा तथ्यों की सिद्धि की बात की जाती है। तो यह आश्चर्यजनक लगता है कि एक कालविशेष तक रामसेतु के अस्तित्व पर प्राचीन हिंदू सभ्यता में प्रगाढ़ श्रद्धा रखने वालों के अतिरिक्त अन्य अधिकतर अर्वाचीन सभ्यताएँ प्रश्न चिह्न लगाती रहीं। उसी रामसेतु के अस्तित्व के स्पष्ट प्रमाण सेटेलाइट्स के द्वारा प्रमाणित कर दिए गए। हम सभी जानते हैं कि जिस प्रकार से ग्लोबल वार्मिंग आज हो रही है और निरन्तर पहाड़ों से ग्लेशियर पिघल- पिघलकर समुद्र का जलस्तर बढ़ा रहे हैं; उसी प्रकार से प्राचीन समय से यदि दावा यह किया जाता है कि रामायण काल का यह सेतु अत्यंत प्राचीन है, तो यह सोचना चाहिए कि इतने वर्षों में भी तो निरन्तर बर्फ समुद्र के स्तर को उठाती ही रही होगी। रामायण (रामायण, युद्ध कांड, 6.22.68-72) में स्पष्ट विवेचन है कि यह सेतु सौ योजन लम्बा एवं दस योजन ऊँचा था। यह अनुपात 10 और 1 का था। साथ ही सेतु के निर्माण हेतु लकड़ी एवं पत्थरों को अनियोजित ढंग से समुद्र में नहीं फेंका गया; बल्कि योजनाबद्ध ढंग से सबसे नीचे लकड़ी, फिर बालू, फिर पत्थर की परतों को जमाया गया। नींव के लिए दोनों ओर बड़ी-बड़ी शिलाओं का लीनीयर एलाइनमेंट किया गया, फिर इनके बीच में वृक्षों की बड़ी-बड़ी एवं मोटी लकड़ियों को प्रतिस्थापित किया गया। इस प्रकार सेतु-निर्माण में लगने वाले समय का विवेचन करते हुए लिखा गया है कि यह पाँच दिनों में निर्मित हुआ पहले, दूसरे, तीसरे, चौथे एवं पाँचवें दिन में क्रमश: 14, 20, 21, 22 एवं 23 योजन सेतु-निर्माण का वर्णन मिलता है। यह भी वर्णन मिलता है कि राम जब विजय के उपरान्त अयोध्या लौट रहे थे, तो उन्होंने पुष्पक विमान से सीता को यह सेतु ऊपर से दिखाते हुए कहा कि देखो यह सेतु नल की विशेष प्रतिभा के कारण ही बन पाया और इसी के कारण श्रीलंका पर विजय प्राप्त की जा सकी। राम ने इसे नलसेतु का नाम दिया था। कालक्रम परिवर्तित होते हुए राम के प्रशंसकों और हिन्दू सभ्यता ने इसे रामसेतु तथा सेतुबन्ध रामेश्वरम् आदि नाम दिये। 1803 ईस्वी, ब्रिटिश राज की मद्रास प्रेजिडेंसी अवस्थित सरस्वती महल पुस्तकालय में उपस्थित पाठ्य अध्ययनों के अनुसार इसे श्रीलंका में उपस्थित तत्कालीन प्रारम्भिक इस्लामिक प्रतिनिधियों ने अपने धर्म में वर्णित आदम नाम के प्रथम स्वर्गीय पुरुष के नाम के आधार इस सेतु को आदम पुल कहना प्रारम्भ किया। तत्पश्चात् जब यूरोपियन ने एशिया के भारतीय भूभाग में प्रवेश किया, तो सरलता के कारण आदम का उच्चारण वे एडम के रूप में करने लगे और वे इसे एडम ब्रिज के नाम से पुकारने लगे।

अब आधुनिक तथ्यों की में सेतु की वर्तमान स्थिति पर आते हैं। कुछ समय पूर्व सेटेलाइट्स द्वारा पृथ्वी के विभिन्न भूभागों के एरियल फोटोग्राफ्स लिये गए। लिये गए एरियल फोटोग्राफ्स में यह सेतु भी स्पष्ट रूप से दिखता है। यह मानवनिर्मित रचना जैसी किसी आकृति के समान इन फोटोग्राफ्स में स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है। ऐसा माना गया कि यह उसी सेतु की आकृति है; जिसका वर्णन भारतीय सभ्यता की आधारस्तम्भ रूपी रामायण में किया गया है। फोटोग्राफ्स बताते हैं कि सेतु प्राचीन अभियंताओं के उत्कृष्ट निर्माण जैसा प्रतीत होता है। इस सम्बन्ध में कुछ तर्क इस प्रकार हैं। यदि आज पुल के आस-पास वाले भारतीय एवं श्रीलंकायी भूमितल समुद्र तल में दो मीटर गहरे डूबे हों और यदि सेतु निर्माण के समय यह जल से एक मीटर ऊपर रहा हो; तो उस सम इन तटों को 3 मीटर या 9 फीट ऊपर होना चाहिए । वर्ल्ड ओस्नोग्राफी रिपोर्ट में प्रयोग किए गए डेटिंग टूल के अनुसार पिछले 7000 वर्ष में बर्फीले ग्लेशियर पिघलने के कारण समुद्र का तल 9 फीट ऊपर उठ गया है। इस हिसाब से यह पुल 7000 वर्ष या 5000 ईसा पूर्व का माना जा सकता है। फोटोग्राफ्स के आधार पर प्रमाणित होता है कि सेतु की लम्बाई 35 किमी एवं ऊँचाई 3.5 किमी है। यह अनुपात भी 10 और 1 का ही हुआ; जैसा कि रामायण में है। इस सेतु की परतों में सबसे नीचे कार्बन पदार्थ दृष्टिगोचर होता है। उल्लेखनीय है कि सेतु में सबसे नीचे मिला यह पदार्थ; सम्भवतः हजारों वर्षां तक लकड़ी के विशेष रूप से सामुद्रिक जल में दबे रहने पर निर्मित हुआ होगा। उसके उपरान्त बालू एवं शिलाओं के अंश विभिन्न परतों के रूप में प्रमाणित होते हैं।

इस प्रकार जो लोग बिना किसी अध्ययन के मात्र किसी लक्ष्य विशेष के लिए रामायण की ऐतिहासिकता पर प्रश्नचिह्न लगाते हैं; उन्हें उपर्युक्त तथ्यों को भी ध्यान में रखना चाहिए; और फिर किसी परिणाम पर पहुँचना चाहिए। उल्लेखनीय यह भी है कि भारतीय आर्कियोलॉजिल सर्वे के क्लॉज 04 में इस सेतु को भारतीय ऐतिहासिक धरोहर कहा गया।

इस सेतु की सिद्धि से यह तथ्य तो प्रमाणित हो जाता है कि रामायण कोई मिथक या कथा मात्र नहीं, बल्कि प्राचीन भारतीय सभ्यता का साहित्यिक प्रस्तुतीकरण है। यदि कुछ किंवदंतियों को छोड़ दिया जाए, तो ऐसा नहीं कहा जा सकता कि विज्ञान के आविष्कारों का उस युग में अस्तित्व नहीं रहा होगा; क्योंकि हो सकता है; उस समय सभ्यता तकनीकीय उत्कृष्टता के चरम पर रही हो तथा यदि उस युग में सिविल इंजिनीयरिंग का इतना उत्कृष्ट उदाहरण रामसेतु के रूप में प्राप्त होता है, तो फिर पुष्पक विमान आदि भी सम्भव हैं। हम सभी जानते हैं कि विभिन्न प्राकृतिक आपदाओं या त्रासदियों के कारण सभ्यताओं का ह्रास होता रहा है। यह सम्भव है कि वैज्ञानिक आविष्कारों के चरम पर अवस्थित तत्कालीन सभ्यता का किसी कारणवश ह्रास हो गया हो। तदुपरान्त प्रारम्भिक अल्पविकसित अवस्था से पुनः सभ्यता के पुनरुत्थान को गति प्रदान की गई हो। इसलिए रामायणकालीन सभ्यता के वैज्ञानिक आविष्कार भी सत्य ही होंगे; चूँकि जिस प्रकार आज से पाँच सौ वर्ष पूर्व हम सोच भी नहीं सकते थे कि एरोप्लेन्स और हेलीकॉप्टर्स के द्वारा मानव हवा में उड़ सकता है या भारत में बैठे-बैठे अमेरिका में रहने वाले अपने आत्मीय जनों से तत्क्षण बात कर सकता है; उसी प्रकार हो सकता है; अभी हमारा रामायणकालीन रहस्यों को सुलझाना सम्भव न हो; किन्तु भविष्यकालीन आविष्कारों के रूप में सम्भवतः उस प्रकार के आविष्कार भी सम्मिलित हों; जो रामायण के साहित्यिक तथ्यों को व्यवहार के धरातल पर सत्य सिद्ध कर सकें।

यदि रामायण के वैज्ञानिक आविष्कारों को सत्य माना जाए, तो यह अत्यंत सुखद किंतु आश्चर्यजनक है कि वैज्ञानिक दृष्टि से चरम पर होने के परिणामस्वरूप भी भारतीय सभ्यता में नैतिकता का पतन नहीं हुआ था; अपितु भारतीय सभ्यता में रामायणकालीन चरित्रों के बारे में पढकर लगता है कि उनका चरित्र इतना प्रेरणाप्रद था कि आधुनिक काल में अनेक चरित्रों से हमें सीख लेने की आवश्यकता है।

विषय एवं लेख की सीमाओं को ध्यान में रखते हुए, अब हम इसके मुख्य चरित्रों पर आते हैं। पहले चरित्र जो स्वयं श्रीराम हैं। उनके चरित्र का वह पक्ष जहाँ पर वे धोबी के कहने पर राजा होते हुए भी अपने व्यक्तिगत हितों को स्वाहा करके अपनी पत्नी का त्याग कर देते हैं। यह एक उत्कृष्ट उदाहरण है- एक राजा के बलिदान का। यह बलिदान इसलिए अद्वितीय उदाहरण है राजतन्त्र और प्रजातन्त्र के मिश्रण का। आज के युग में जब नेताओं को हर पंचवर्षीय के उपरान्त वोट लेने जाना पड़ता है; तब भी उनको जनता के किसी भी व्यक्ति की बात से कोई भी प्रभाव नहीं पड़ता; किन्तु रामचन्द्र जी कितने उत्कृष्ट चरित्र के राजा रहे होंगे; जबकि उन्हें तो धोबी से वोट लेने नहीं जाना था और राजा सर्वोच्च एवं सर्वेसर्वा होता था। इस प्रकार उन्होंने राजतन्त्र के होते हुए भी ‘जनता के द्वारा, जनता का एवं जनता के लिए‘ जैसे आदर्श को स्थापित किया; जबकि यह लोकतन्त्र में होना चाहिए; लेकिन यह होता नहीं है। यह केवल कागजों तक ही सीमित रहता है। इस प्रकार यह एक उत्कृष्ट उदाहरण है- राजतन्त्र के होते हुए भी प्रजातन्त्र के आधुनिक मापदण्डों को अपनाने के कारण रामायणकालीन सभ्यता के उत्कृष्ट नैतिक मापदण्ड एवं उदाहरणों का। इस प्रकार रामचन्द्र जी के व्यक्तिगत जीवन पर प्रायः कुतर्की लोग यह कहकर आक्रामक हो जाते हैं कि उन्होंने अपनी स्त्री को त्याग दिया। इसका उत्तर यह है कि उनकी स्त्री, सामान्य स्त्री नहीं थी, वह पटरानी थी और राम भी सामान्य व्यक्ति नहीं, एक राजा थे तो राजा एवं पटरानी को जनता के हितों के लिए हमेशा अपने हितों की बलि देनी पड़ती है। दूसरी बात यह कि रामचन्द्र जी ने भी तो कोई दूसरी स्त्री नहीं अपनाई; इसलिए वे किसी भी प्रकार से निन्दनीय नहीं हैं। दूसरी बात कि सीता को यदि वे नहीं त्यागते और सामान्य व्यक्ति के समान महल में ही रहने देते तो फिर कुतर्की लोग यह कहकर निन्दा करते कि अमुक राजा स्त्री लोलुप थे। अपनी स्त्री को महत्त्व देते हुए प्रजा की बात को दबा दिया। प्रजा की इच्छाओं का दमन कर दिया। आधुनिक दार्शनिक जिस तथ्य को अब कह रहे है कि अधिकतर लोगों का सुख ही साध्य होना चाहिए रामचन्द्र जी ने यह उस समय में चरितार्थ कर दिखाया। उन्होंने सार्वजनिक सुख के लिए व्यक्तिगत सुख को त्याग दिया। इस प्रकार यह राजतन्त्र के होते हुए भी श्रेष्ठ प्रजातन्त्र का उत्कृष्ट चारित्रिक उदाहरण है और रामचन्द्र जी की आलोचना करने के स्थान पर आधुनिक राजनीतिज्ञों को इससे सीख लेने की आवश्यकता है।

दूसरा चरित्र स्त्री चरित्र हैं- सीताजी। सीता के जीवन का सबसे प्रभावी पक्ष है- जब उन्हें गर्भवती होते हुए भी जंगल में छोड़ दिया। आज हम महिला सशक्तीकरण की बात प्रबल ढंग से करते हैं। सीताजी ने इस तथ्य को चरितार्थ किया कि एक महिला स्वयं ही सशक्त होती है। उसे केवल अपनी शक्ति को एकाग्र और व्यवहारगत धरातल पर अवतरित करने की आवश्यकता होती है। आधुनिक काल में महिलाओं की अपेक्षा होती है कि गर्भावस्था एवं प्रसव के समय उन्हें विशेष सुविधाएँ चाहिए; किन्तु सीताजी ने ऐसी स्थिति में भी एक विकट परिस्थिति एवं चुनौती को स्वीकार करते हुए अपने शिशुओं को जन्म भी दिया तथा उनका उत्कृष्ट पालन-पोषण भी किया। यही नहीं उन्होंने अपने बालकों को बिना राजसी ठाठ-बाट के भी इस योग्य बनाया कि वे रामचन्द्र जी की ही सेना को पराजित करने वाले योद्धाओं के रूप में प्रतिष्ठापित हो गए।

उपर्युक्त चरित्र प्रेरणा देते हैं कि व्यक्तिगत एवं सामाजिक जीवन के आदर्श क्या होने चाहिए। यों तो ऐतिहासिक रूप से रामायण साहित्य को प्रमाणित करने वाला उदाहरण सेतुबन्ध रामेश्वरम् के रूप में हम दे ही चुके हैं; किन्तु यदि ऐतिहासिकता को एक ओर भी रख दिया जाए, तब भी नैतिकता तो हमेशा समाज के उत्थान हेतु प्रासंगिक रहेगी ही। इसलिए समस्त विवादों और आलोचनाओं को छोड़कर रामायण के आदर्श चरित्रों के सद्व्यवहार को अपनाकर चारित्रिक उत्थान हेतु प्रयास करने चाहिए। व्यक्ति समाज की इकाई है और व्यक्ति का उत्थान होगा तब ही समाज का उत्थान होगा। इसलिए आलोचनात्मक एवं निन्दक स्वभाव त्यागकर स्वयं के व्यवहार परिष्करण पर केन्द्रित होना चाहिए। आदतें, व्यवहार का निर्माण करती हैं; और व्यवहार चरित्र का; इस प्रकार सामान्य जीवन में नैतिक कर्मों का चयन करते हुए उत्कृष्ट क्रिया-कलाप के द्वारा व्यक्ति को आदर्श चरित्र का निर्माण करना चाहिए। समस्त आलोचनाओं और निन्दाओं का परित्याग करके रामायण का अध्ययन, चिंतन, मनन इसलिए करना चाहिए कि वैज्ञानिक आविष्कारों के इस युग में भी हम पतन के नहीं; अपितु चारित्रिक उत्थान के पथ पर अग्रसर हों। -0-

सन्दर्भ- हरिगन्धा मासिक -अप्रैल -2016 - पृष्ठ-106[[1]]