रायप्रवीण की चतुराई / रामगोपाल भावुक

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हम हिन्दुस्तानियों में सैर करने की प्रवृति खत्म होती जा रही है। विदेशी लोग सात समन्दर पार करके इस धरती पर मध्यकाल के स्थान देखने आते रहते हैं। हम हैं कि अपने ही देश में आसपास की जगहों को ही नहीं देख पाते। यह बात कक्षा आठ के इतिहास के पीरियेड में जाटव सर ने बड़े जोरदार शब्दों में कही। मुझे यकायक महसूस हुआ दूर जाना जब हो तब होगा, अभी तो हम आसपास के पर्यटन स्थलों पर जाना शुरू करें। मेरी यह बात सभी दोस्तों को जम गई। मैं अगले रविवार को वेदराम, सुरेन्द्र और शंकर के साथ झाँसी के पास मौजूद ओरछा नामक प्राचीन जगह की सैर करने के लिये निकल पड़ा। ओरछा ने कभी एक समय में भारत की राजनीति, साहित्य और कला में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।

घर से निकलते ही मुझे दादी से बचपन में अनेक वार सुनी राय प्रवीण की चतुराई की कहानी याद आने लगी। रामलला के मंदिर में ठीक उसी समय दर्शन करने आई एक नर्तकी को देखकर लगा-वहाँ तो कला की साधिका राय प्रवीण राम-लला के समक्ष नृत्य करने तत्पर खड़ी है। आँखें चौंधिया गईं।

यों भावविभोर होता हुआ मित्रो के साथ राय प्रवीण के महल में पँहुच गया। ... चौकोर आंगन से लगीं बड़ीं-बड़ीं खुली दालानें उसकी कहानी कहने लगीं। उस महल की एक-एक ईंट गवाही देने लगी-यहीं राय प्रवीण के रुनझुन नुपुरों की झनकार झंकृत हुई है।

उस महल की शीतल-छाया देखकर, मन्द-मन्द बहती हवा का स्पर्श पाकर अपनी थकान मिटाने उसके आँगन में पसर गया मैं। उस महल में जमीं रज को मुट्ठी में भरकर माथे से यों लपेटा जैसे कोई भक्त अपने इष्ट की चरण रज अपने माथे से लपेटता है।

मेरे इस पागलपन को देखकर वेदराम ने ठहाका लगाते हुये कहा-"यह अयोध्या नगरी की रज नहीं है, जिसमें राम जी ने बाल क्रीड़ायें की थीं। यह तो एक नाचनेवाली का महल है। युवराज इन्द्रजीत राजकाज से ऊबकर अपनी थकान मिटाने के लिये यहाँ आते थे।"

दूसरे मित्र सुरेन्द्र ने अपनी बात रखी-"राय प्रवीण नृत्य करने वाली थी। एक नृत्य करने वाली में इतनी श्रद्धा, बात कुछ जमीं नहीं!"

मित्रों की ये बातें असहनीय हो कोई।

उत्तर देने, उठकर बैठ गया मैं और सुनाने लगा दादी से सुनी ये कहानी-ओरछा के राजकवि केशवदास की परम प्रिय शिष्या राय प्रवीण अति सुन्दरी युवती थी। उसका मुँह गोल-मटोल मानों स्वयं चन्द्रमा के आकार का दिप-दिप करने लगा हो। घुंघरालीं अलकें और बड़ी-बड़ी कजरारी आँखें ने उसे ऐसी सुन्दरता प्रदान कर दी कि देखने वाला एकटक होके उसे ताकता रहे। सुघड़ बदन की राय प्रवीण के पैरों में, कमर में, हाथ की कलाइयों में और गर्दन की नसों में गजब की लोच थी। जब वह मस्ती में आकर नाचने लगती तो लोग ठगे से रह जाते।

गुरु केशवदास के चरणों में बैठकर वह कविता लिखना सीख रही थी। वह जितनी सुन्दर थी उतनी ही कलावन्त और उम्दा कवयित्री। ओरछा के राजदरवार में दिन के समय राजकवि केशवदास के साथ राय प्रवीण की चमत्कारी कवितायें होतीं तो सांझ ढ़ले राय प्रवीण का मनोरम नृत्य होता।

... बात उन दिनों की है, जब राय प्रवीण की खूबसूरती की चर्चा बादशाह अकबर के कानों में पड़ी। उसने तुरंत हरकारा भेजकर ओरछा नरेश को हुकम भेजा कि वे सात दिन के भीतर राय प्रवीण की डोली आगरा बादशाह अकबर के राज दरवार में भिजवा दें या फिर मुगलिया फौज के हमले के लिये तैयार रहें।

ओरछा नरेश महाराज मधुकर शाह ने एक नर्तकी के लिये अकबर जैसे शक्ति-शाली बादशाह से अचानक युद्ध मोल लेना उचित नहीं समझा। वे उसे अकबर के दरबार में भेजने को तत्पर हो गये। जब यह बात राय प्रवीण के कानों में पड़ी तो उसने युवराज इन्द्रजीत से निवेदन किया-

"युवराज आप यह क्या कर रहे हैं? राय प्रवीण जन्म-जन्मान्तर से आपकी दासी है और रहेगी। स्वामी मुझे इतना दण्ड न दीजिए।"

ओरछा के महाराज रतन शाह के भाई इन्द्रजीत सिंह ने राय प्रवीण की यह बात सुनकर अपनी विवशता बतलाते हुये कहा-"प्रवीण, वैसे इन हाथों में अकबर से लड़ने के लिए तलवार उठनी चाहिए थी, लेकिन महाराज का आदेश है कि एक नर्तकी के लिए बादशाह से युद्ध मोल नहीं लिया जा सकता।"

यह सुनकर जोश में आते हुए राय प्रवीण बोली-"युवराज, बड़े महाराज भूल रहे हैं। यह साधारण नर्तकी नहीं बल्कि युवराज की कलाप्रेमी प्रेमिका भी है। यह नर्तकी शब्द आज मेरे हृदय को विदीर्ण कर रहा है। नियति ने मुझे नर्तकी न बनाया होता तो...वफादार पत्नी होती।"

यह सुनकर युवराज इन्द्रजीत सिंह राय प्रवीण को सान्त्वना देते हुए बोले-"तुम्हारी वफादारी ही तो सोच का विषय है।"

यह सुनकर राय प्रवीण बोली-"युवराज इसे सोच का विषय न बनाएँ। ओरछेश इस नाचीज नर्तकी की रक्षा नहीं करना चाहते तो न सही। राय प्रवीण अपनी रक्षा स्वयं करेगी।"

यह सुनकर इन्द्रजीत झट से बोल पड़े-"रक्षा स्वयं करेगी! मुझे तो कोई रास्ता ही नहीं सूझ रहा है। तुम्हें नहीं मालूम मैंने महाराज से क्या नहीं कहा? पर वे भी क्या करते, अधिकांश मंत्री उनके विरुद्ध हो गये हैं।"

"आप नहीं जानते युवराज, उनके मंत्रियों में कुछ बादशाह के चाटुकार हैं। वे राय प्रवीण को नीचे गिराना चाहते हैं। इसी में उनका सुख है।"

यह सुनकर अपनी बेवसी प्रकट करते हुए इन्द्रजीत बोले-"प्रवीण अब तुम्हीं बताओ हम करें? हाय! अपनी प्रिया को बचा भी नहीं पा रहा हूँ। अब अकेली मेरी तलवार और दूसरी और हिन्दुस्तान का एकछत्र बादशाह।"

"रहने दीजिए युवराज, काश! इस नर्तकी को ओरछा की तलवार का सहारा मिल गया होता तो ये नर्तकी, नर्तकी नहीं कही जाती। प्रिया के रूप में जानी जाती और वक्त आता तो मैं ऐसा जौहर दिखाती कि लोग युगों-युगों तक उसे प्रिया के रूप में पूजते। लेकिन अब यह प्रिया अकबर के दरबार में जा रही है, यदि अपनी इज्जत बचाकर लौटी तो सेवा में फिर उपस्थित होगी, अन्यथा ।"

"बस-बस प्रवीण मुझसे अब और अधिक नहीं सहा जा रहा है। बुद्धि कुण्ठित हो रही है। महाराज से एक बार और मिलकर तो देखता हूँ, वे क्या कहते हैं?" यह कहकर वे राय प्रवीण के महल से नीचे उतर गए।

राय प्रवीण सोचने लगी-चले गए। कितना अगाध प्यार करते हैं मुझसे! इतना प्यार तो अपनी रानी से भी न करते होंगे। बड़े महाराज तो राम के भजन में लीन हो गए हैं। समझ नहीं आता, क्या भजन में लीन होने से दायित्वों में उदासीनता आ जाती है। राम का भजन तो कर्तव्यबोध कराता है। कुछ भी हो उनके लिये राज्य का अस्तित्व एक नर्तकी से अधिक तो है ही, लेकिन मैंने मन, कर्म और वचन से किसी को चाहा है तो युवराज इन्द्रजीत को।

आज के परिवेश में नर्तकी का कार्य कला की साधना से हटकर स्वार्थ पूर्ति के लिए समर्पित होता जा रहा है। लेकिन अन्दर का कलाकर विद्रोह कर रहा है। कह रहा है प्रवीण तुझे इस तरह नहीं सोचना चाहिए। इस शरीर के बादशाह टुकड़े-टुकड़े कर डाले लेकिन वह उसकी स्वार्थ पूर्ति में सहायक नहीं बनेगी, कोई उपाय खोजेगी।

बादशाह सोचता होगा, मैं उसके यहाँ पहुँचकर खुश हो जाऊँगी। किन्तु मैं अपनी कला के समक्ष हिन्दुस्तान के एकछत्र बादशाह को भी नाचीज समझती हूँ। उसे इस देश की कला, संगीत तथा नारियों की शक्ति का बोध कराना ही पड़ेगा।

जिस देश में कलाकार और उसकी कला का सम्मान होगा, उस देश का अस्तित्व भी रहेगा। यहॉँ तो राजनीति इतनी हावी हो गई है कि एक सच्चे कला के साधक का कोई अस्तित्व नहीं।

यदि यह बात न होती तो बादशाह के दरबार में पेश करने को मुझे ये उद्यत न होते।

कहाँ यह ओरछा का राज्य और कहाँ बादशाह अकबर! जो हिन्दुस्तान का एक छत्र बादशाह है। यदि मैंने अपने सुख के लिये, इस कलाकार को अकबर की स्वार्थ पूर्ति के लिए अर्पित कर दिया तो हिन्दुस्तान की धरती से कलाकार और उसकी कला का अस्तित्व हमेशा-हमेशा के लिये मिट जायेगा। मैं कलाकार का अस्तित्व विलीन नहीं होने दूँगी।

इसी समय उसे किसी के ऊपर आने की आहट मिली। वे प्रवीण की सहेली नर्तकियाँ थीं। उन सबने प्रवीण का उतरा हुआ चेहरा देखा तो उसे खुश करने के लिए एक बोली-"क्या हुआ हमारी महारानी को, ऐसा उदास चेहरा तो आज तक कभी नहीं दिखा।"

दूसरी बोली-' निश्चय ही कोई बात है, अभी-अभी युवराज आए थे। उन्हीं से कुछ वार्तालाप हुआ है। "

राय प्रवीण बोली-"तुम लोगों को न हया है न शरम, कुछ भी बकना शुरू कर देती हो।"

तीसरी बोली-"अरी, सुन्दरता के सौ नखरे।"

इस बात ने तो राय प्रवीण को झकझोर दिया-कल तक जब सुन्दरता की चर्चा होती तो घमण्ड जागता था। इसी सुन्दरता की ऐसी धूम मची कि खबर हिन्दुस्तान के बादशाह तक पहुँच गई। आज वही सुन्दरता अभिषाप लग रही है।

उसे सोचती देखकर चौथी बोली-"देखा फिर कुछ सोचने लगी। जरूर कोई बात है।"

तभी सबसे छोटी नर्तकी को मजाक सूझा, बोली-"आज्ञा हो तो देव को बुला लाऊँ!"

राय प्रवीण सभी की बातें सुन रही थी। वे उसे खुश करने का प्रयास कर रही थीं। पर वह कुछ और ही सोचे जा रही थी।

इसी समय नीचे से दासी दौड़ी-दौड़ी आई, बोली-महाकवि केशव पधार रहे हैं। " यह सुनकर सभी नर्तकियाँ वहाँ से हट गईं।

राय प्रवीण ने कवि केशव के चरण छूकर उनका अभिवादन किया। बदले में उन्होंने उसे आशीर्वाद दिया-"यशस्वनी भव।"

राय प्रवीण बोली-"गुरुदेव आप इधर, मुझे सूचना भेज देते, मैं स्वयं सेवा में उपस्थित हो जाती।"

वे बोले, "प्रवीण जब से मैंने यह बुरी खबर सुनी है, मेरा मन पश्चाताप की आग में झुलस रहा है। श्रीराम के जीवन की कथा को आधार मानकर मैंने रामचन्द्रिका तो पूरी करली है। ... किन्तु इसके अतिरिक्त साहित्य में जो शृंगार के बीज बोये हैं, यह सब उसी का प्रतिफल है। अभी-अभी राजसभा से लौट रहा हूँ। आज वहाँ चर्चा का विषय तुम हीं थीं। महाराज ने मुझे भी सलाह करने के लिए बुलाया था। मैंने तुम्हें भेजने का विरोध किया पर सारे मंत्री हार मान बैठे हैं।"

"पर पता नहीं गुरुदेव, मेरा मन क्यों जीत रहा है! आत्मा अन्दर से कुछ अलग कह रही है।"

यह सुनकर वे बोले-"प्रवीण आत्मविश्वास सबसे बड़ी शक्ति है। इसके सहारे तो बड़ी से बड़ी कठिनाई भी हल की जा सकती है।"

यह सुनकर राय प्रवीण बोली-"आत्मविश्वास तो गुरुदेव, आत्म-बलिदान से उत्पन्न होता है। जो लोग मृत्यु से डरते हैं, वे ही संसार से हारते हैं। गुरुदेव, मेरी मान-मर्यादा के लिए न सही, लोग कला की मान-प्रतिष्ठा के लिए तो तलवार उठाते, अब आप ही कोई उपाय सुझाइए।"

"प्रवीण तुम एक नर्तकी ही नहीं, अपितु कवयित्री भी हो। ह्र्रदय में जो उपाय सूझ रहा हो, उसी के सहारे कला की प्रतिष्ठा गिरने से बचा सकती हो।"

"गुरुदेव अब तो एक ही उपाय सूझ रहा है, मैं बादशाह से कोई ऐसी चुभती हुई बात कहूँ जो उसको चुभे, चुभन कसमसाये और मेरा सर धड़ से अलग कर दे। मैं इस नई पद्धति से जौहर करना चाहती हूँ।"

"विजयी भव प्रवीण, विजयी भव।"

गुरुदेव का आशीर्वाद अन्यथा नहीं जा सकता।

"जाओ प्रवीण तुम्हारा पथ कल्याणमय हो।" राय प्रवीण ने पुनः उनके चरण-स्पर्श किये। वे श्रीराम-श्रीराम कहते हुए वहाँ से चले गये।

यह कहकर मैं आगे की बात याद करने के लिये कहानी कहने से कुछ क्षणों के लिये रुका।

यह देखकर मित्र शंकर झट से बोला-"काश! राय प्रवीण से ही हम कुछ सीख पाते। मित्र, इतिहास से हम कुछ नहीं सीख पाये। ...और हाँ...तुम कहानी कहने में नखरे क्यों दिखा रहे हो। इस वक्त तो तुम दादी से सुनी कहानी पूरी करो।"

उनकी बात सुनकर मैंने पुनः तनकर बैठते हुये कहा-' मित्रो, यहाँ से बात अकबर के दरबार की है-अकबर के सामने प्रहरी ने सलाम किया और बोला-"हुजूरेआला, ओरछा से बेगम साहिबा हाजिर हुई हैं। अपना नाम राय प्रवीण बतलाती हैं।"

राय प्रवीण का नाम सुनकर अकबर सोचने लगा-"ओरछा की खूबसूरत नर्तकी, जिसकी महक ओरछा से आगरे तक आ गई। वह जन्नत की किसी परी से कम न होगी।" यह सोचकर बोला-"उसे रानी-महल में पहुँचा दो।"

प्रहरी आदेश पाकर चला गया। अकबर अपने रानी-महल की तरफ चल दिया। सोचने लगा-"काश ओरछा से जंग करने जाना पड़ता। जंग शब्द मन में आते ही अकबर की मुट्ठी भिच गई। नर्तकी की वजह से जंग, इस तुरुप से ओरछा की पहचान हो गई। ओरछेश ने अपनी अधीनता यों अख्तियार कर ली।"

दोहरे लाभ की खुशी में चेहरे पर मुस्कराहट फैल गई। भीतर के कमरे में खड़ी राय प्रवीण आरपार दिखते परदे के पीछे दिखी। बादशाह को देखकर रायप्रवीण ने शाही अदब के साथ यह सोचकर सलाम किया-' बुंदेली आन के लिए तथा कला की प्रतिष्ठा के लिए अपने आपको मिटा दे, बस यही समय है। "

उसे चुपचाप खड़ी देखकर बादशाह बेताब हो गया, बोला-"बेगम बनाकर रखूंगा। हजारों दासियाँ खिदमत में होंगीं। आगे-पीछे गुलामों की फौज होगी। हीरे-जवाहरात से लदी होगी और भी कोई तमन्ना हो तो कहो?"

मुझे खूब याद है, यह सुनकर मैंने दादी से पूछा था-"इतने बड़े बादशाह की यह बात सुनकर तो राय प्रवीण ने उसके यहाँ रहना स्वीकार कर लिया होगा।"

"नहीं मेरे बच्चे उसे कला की मर्यादा ज्ञात थी। वह अपनी बात कहने के लिये कोयल की कुहुक-सी बोली-" सुना है, हुजूरेआला काव्य के गहरे जानकार हैं। "

"हमने भी सुना है कि तुम एक कलाबन्त और कवयित्री हो।"

"हुजूर की खिदमत में एक दोहा पेश करना चाहती हूँ!"

"हम कद्र करेंगे प्रवीण, फरमाइये।"

यह सुनकर राय प्रवीण ने अदब के साथ यह दोहा अपने सुरीले स्वर में गाकर सुनाया-

" विनती राय प्रवीण की सुनियो शाह सुजान।

जूठी पतरी भखत हैं बारी वायस स्वान।

दोहा सुनकर एकदम से सन्नाटा छा गया। अकबर सहित सभी की नजरें जमीन पर जा चिपकीं। जूठी पातर चाटने वालों में बारी, कौआ और कुत्ता के बहाने रायप्रवीण ने एक खाली जगह छोड़ दी थी।

बादशाह के मुँह से निकला-"वाह काश! खूबसूरती का दीदार कर पाता! लेकिन अब नहीं, आह! अब तो बुंदेली आन रायप्रवीण वापस जाएगी। रायप्रवीण...मुझसे जो गुस्ताखी हुई है, उसके लिए माफी चाहता हूँ। वक्त पर आगाह न किया होता तो आने वाली औलाद क्या कहती? एक बादशाह ओरछा की एक नर्तकी पर फिदा हो गया। जन्नत की इस खूबसूरत परी को उसकी वफादारी के लिए सलाम।"

बादशाह के सलाम के उत्तर में रायप्रवीण ने उसके बदले सोच के लिए अदब के साथ झुककर कहा-"सलाम।"

अब बादशाह ने अपने खजान्ची की ओर मुड़कर कहा-"शाही खजाने से इनकी खिदमत में दस हजार असर्फियाँ देदीं जावें।" यह कहकर बादशाह वहाँ से चला गया था।

यों रायप्रवीण अपनी चतुराई से ओरछा की मर्यादा और कला की इज्जत बचाने में सफल रही।

आगरा से चलकर राय प्रवीण का डोला मुगलिया सैनिकों की सुरक्षा में आठवे दिन जब ओरछा के चाहर दीवारी के मुख्य गणेश द्वार पर पहुँचा। वहाँ तैनात बुन्देली सैनिक घबरा उठे। उन दिनों मुगल फौज का डर सारे भारत में फैला हुआ था। मुगल सिपाही की वर्दी देखते ही छोटे-मोटे महाराजे थर्रा उठते थे।

महाराज मधुकरशाह को यह खबर लगी तो उनकी सिटटी-पिटटी गुम हो गई। उधर मुगल सैनिक पूरे रोब-रुतवे के साथ प्रवेश द्वार से होकर ओरछा के राजमहल के पीछे बने राय प्रवीण के महल तक जा पहुँचे।

राय प्रवीण डोली से उतरी और मुगल सैनिकों को विश्राम करने का आदेश देतीं हुई अपने महल में चली गई।

इधर राजमहल में तमाम दरवारी आ जुटे थे और राय प्रवीण की वापसी को लेकर अटकलों का बाज़ार गर्म था। कोइ कुछ कह रहा था तो कोई कुछ। अचानक मुगल हरकारा महल के दरवाजे पर हाजिर हुआ। प्रहरी ने सूचना दी तो महाराज रतनशाह ने आनन-फानन में संदेश वाहक को अपने सामने बुलवा लिया।

महाराज के एक मंत्री ने हरकारे के हाथ से शाही फरमान लेकर सबको सुनाना शुरू कर दिया-

ओरछा नरेश को अकबर का सलाम पहुँचे। तुम्हारा नजराना और ओरछा की कलावन्त नारी राय प्रवीण से घड़ीभर को बातचीत करने की मोहलत मिली। इसके लिये आपको शुक्रिया।

मैं पूरे अदब के साथ बुन्देल खण्ड की इस कला साधिका कवयित्री को आपके पास बाइज्जत वापस भेज रहा हूँ। मेरी ओर से इनका ध्यान रखें। ये बुन्देलों का गौरव हैं। इनके गुरु को मेरा सलाम कहें।

जलालुदीन अकबर

शाही हरकारे को विश्राम गृह में भेज दिया गया। राजनर्तकी राय प्रवीण के सम्मान में, राजकीय सम्मान समारोह आयोजित करने के लिये मंत्री परिषद विचार करने लगी।

मैंने इतना कहकर अपना किस्सा खत्म किया तो पाया कि मेरे सभी मित्र भाव-विभोर होकर मेरी ही तरह उस महल के जर्रा-जर्रा को ताकने लगे हैं। मानों अभी-अभी किसी कोने से राय प्रवीण प्रगट होगी और हमें अपना आशीर्वाद देगी। घर लौटते समय हम सब बहुत गम्भीर थे।