रावी के कि‍नारे / रश्मि शर्मा

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डलहौजी जाने वाले लोग चम्‍बा ज़रूर जाते हैं। जब हम डलहौजी गए, तो यह सोचकर गए थे कि‍ चंबा भी देख आऍंगे। कई फि‍ल्‍मों में देखा और नाम भी सुना था।

चम्‍बा जाने के दो रास्‍ते हैं। एक खज्‍जि‍यार होते हुए और दूसरा बनीखेत वाला। पहले हमने सोचा था कि‍ खज्‍जि‍यार वाले रास्‍ते से जाऍंगे। एक बार फि‍र से खज्‍जि‍यार के खूबसूरत मैदान में कुछ वक्‍त बि‍ताते हुए। मगर हमें नि‍कलते-नि‍कलते 10 बज गए थे। अगर जाम में फँस गए तो सब गड़बड़ हो जाएगी। तो हमने दूसरा रास्‍ता अपनाया और चल पड़े।

उस दि‍न देखा था तो धौलदार पर्वत पर बर्फ चमक रही थी धूूप में, मगर आज कुहासा था। शायद कल शाम की बारि‍श का असर था। आगे बढ़ने पर सड़क से बाईं तरफ एक मंदि‍र का गुम्‍बद नजर आ रहा था। यह शायद ति‍ब्‍बति‍यों का धर्मस्‍थल होगा। हम सड़क पर आगे बढ़े। अब देवदार के साथ-साथ चीड़ के पेड़ भी नजर आने लगेे। जहां हल्‍की गर्मी हों वहॉं चीड़ ज्‍यादा उगते हैं। सड़क की बाईं तरफ घाटी थी, जहां खूबसूरत सीढ़ीदार खेत और रंग-बि‍रंगे घर मन मोह रहे थे।

रॉक गार्डन आ गया। छोटा-सा ही है और वहां प्राकृति‍क रूप से जलधारा का एक स्रोत नीचे तक आया है, जि‍से बांधकर छोटा स्‍वि‍मि‍ंग पुल की तरह बना दि‍या गया। वहॉं कुछ बच्‍चे तैर रहे थे। हमने थोड़ी देर का ब्रेक लि‍या। सड़क पर गोलगप्‍पा वाला अपना खोमचा लगाए हुए था। कुछ स्‍कूली बच्‍चे खा रहे थे। हमने भी खाया। टेेस्‍ट बि‍ल्‍कुल अमृृतसर वाले गोलगप्‍पे की तरह था। हमारे यहाँ इतना मीठा गोलगप्‍पा नहीं बनता।

उधर सड़क पार एक मंदि‍र था। हम गए अंदर। अच्‍छी जगह थी पर वक्‍त नहीं था हमारे पास। माता का मंदि‍र था। बाहर से प्रणाम कि‍या और नि‍कल पड़े। उधर एक जंगली फूूल ने मुझे बहुत आकर्षित कि‍या। थोड़ी-थोड़ी दूर पर सफेद फूल खि‍ला हुआ था। कुछ-कुछ केवड़े जैसा। मैंने याद रखने को तस्‍वीर ले ली।

आगे बढ़ने पर चमेरा लेक दि‍खा। बहुत खूबसूरत। हरा-हरा पानी, ऊपर नीला आसमान। एक रास्‍ता नीचे की ओर जाता है डैम के लि‍ए, दूसरा ऊपर से चम्‍बा की ओर नि‍कल जाता है। चमेेरा लेक रावी नदी का पानी रोककर बनाया गया है। इसे पर्यटन स्‍थल के रूप में वि‍कसि‍त कि‍या गया है। यहॉं बोटिंग होती है। मगर हम नहीं गए। ऊपर से ही देखा और आगे बढ़ गए। बहुत दूर तक घाटि‍यों में लेक आपके साथ साथ चलती नज़़र आती है। नीचे सर्पीली घाटि‍यॉं, हरा पानी का बांध और ऊपर नीले आसमान में सफेद बादलों का डेरा। मंत्रमुग्‍ध हो जाए काेेई भी। मुझे लगता है कहीं भी घूमने के लि‍ए पर्याप्‍त वक्‍त लेकर जाना चाहि‍ए। जहां मन कहे वहीं रूक जाओ। पर इस जिंदगी में ये मुमकि‍न कहॉं होता है। चमेरा लेक पर बोटिंग न करने का मलाल बच्‍चों को रह ही गया।

ड्राइवर को कह रखा था कि‍ जहॉं ताल फि‍ल्‍म की शूटिंग हुई थी, वह जगह हमें दि‍खाना। उसने थोड़ी दूर जाने पर सड़क कि‍नारे गाड़ी रोक दी। दूर दि‍खाकर कहा- यहीं हुई थी ताल की शूटि‍ंग। यह एक स्‍कूल कैंपस है और जगह का नाम जुम्‍महार। ठीक इसे बगल से रावी नदी बहती है, जो फि‍ल्‍म में बहुत खूबसूरती से फि‍ल्‍माई गई है। पि‍छले दि‍नों जब मैं खज्‍जि‍यार के जाम में फँसी थी, तो एक महि‍ला से काफी देर तक बात हुई। वो चम्‍बा की थी। उन्‍होंने कहा मुझसे, आओ आपको अपने साथ चंबा ले चलूँ। मैंने कहा, आऊँगी ज़रूर। तब कहा था उन्‍होंने कि‍ हमें वहॉं कुछ खास तो नहीं लगता, मगर आपको वास्‍तव में खूबसूरती देखनी हो तो बारि‍शों में आओ। ताल फि‍ल्‍म की शूटिंग भी बरसात में हुई थी, इसलि‍ए हरि‍याली इतनी उभरकर आई थी। स्‍कूल कैंपस के सामने बहुत बड़ा मैदान है और पीछे पहाड़। मन बॉंध लेते हैं ऐसे दृश्‍य। पर हमें नि‍कलना था और नि‍कल चले आगे।

अब हमें आगे दि‍खी रावी नदी। स्‍वच्‍छ..नि‍र्मल..। रहा नहीं गया। हमलोग रूके कुछ देर के लि‍ए और 'सावधान' के बोर्ड की अवहेलना करते हुए नीचे पानी तक पहुँचे। रावी नदी पर चम्‍बा के पास एनएचपीसी ने बॉंध बनाया है। इसमें कभी भी पानी छोड़ा जा सकता है। इसलि‍ए थोड़ी-थोड़ी दूर पर नीचे न जाने के नि‍र्देश के साथ बोर्ड लगा हुआ है। हम नहीं माने। हालांकि‍ बेपरवाही से नहीं मगर पानी तो छूना ही था। उफ...बर्फ की तरह ठंडा पानी । मैंने और अवि‍ ने खूब मस्‍ती की। बहुत देर रहे, पानी का कल-कल सुनते रहे। चि‍ड़ि‍यों को उड़ते देखा और सफेद पत्‍थरों से टकराकर पानी का रंग और दूधि‍या होते महसूस कि‍या। अवि‍ ने कुछ चि‍कने छोटे सफेद पत्‍थर चुने और पॉकेट में डाल लि‍ये घर ले जाने को। नदी के पश्‍चि‍म में पर्वतों ने मन मोह लि‍या हमारा।

रावी नदी का प्राचीन नाम 'इरावती और परूष्‍णी' है। इरा का अर्थ स्‍वादि‍ष्‍ट पेय होता है। रावी इरावती का ही अपभ्रंश है। यह नदी मध्‍य हि‍मालय की धौलदार श्रृंखला की शाखा बड़ा भंगाल से नि‍कलती है। रावी नदी 'भादल और तांतगि‍रि‍' दो खड्डों से मि‍लकर बनती है। यह नदी चम्‍बा से खेड़ी के पास पंजाब में प्रवेश करती है। यह उन पॉंच नदि‍यों में से एक है जि‍नसे पंजाब (पांच नदि‍यों का प्रदेश) का नाम पड़ा। इसकी लंबाई 720 कि‍लोमीटर है, परंतु हि‍माचल में इसकी लंबाई 158 कि‍लोमीटर है। यह काफी उग्र नदी मानी जाती है। सि‍कंदर महान के साथ आए यूनानी इति‍हासकार ने इसे 'हाइड्रास्‍टर और रहो आदि‍स' नाम दि‍या था। रावी नदी बहती हुई जाकर पाकि‍स्‍तान के चि‍नाब नदी से मि‍ल जाती है। यहां यह नदी चंबा और भरमौर में बहती है।

तो हमलोग इरावती के तट पर पानी में कि‍ल्‍लोल करते रहे काफी देर तक। यात्रा की थकान मि‍ट गई। मुझे पहाड़ बेहद पसंद है मगर सर चकराता है सर्पीली राहों में, सो लगातार चलना पसंद नहीं। अब रावी नदी ने हमारी थकाान हर ली तो हम फि‍र से प्रफुल्‍लि‍त होकर चम्‍बा की ओर चल दि‍ए। बस पहुँचने ही वाले थे और हमें अहसास हो रहा था कि‍ यहां काफी गर्मी है , मगर रास्‍ता बहुत ही खूबसूरत है। आपका सारा वक्‍त चीड़, देवदार, रावी और पहाड़ के ढलवॉं रंग-बि‍रंगे घर देखने में नि‍कल जाएगा और आप पाऍंगे कि‍ आप शहर में प्रवेश कर रहे हैं।

अब हम मंदि‍रों की नगरी चम्‍बा में थे। रावी नदी के कि‍नारे 996 मीटर की ऊँचाई पर स्‍थि‍त है चम्‍बा पहाड़ी। ड्राइवर ने गाड़ी पार्क की और हमें रास्‍ता बता दि‍या कि‍ उधर जाना है। हम दोपहर में पहुँचे थे। बहुत तीखी धूप थी। जल्‍दी-जल्‍दी चलते हुए एक पार्क के पास पहुंचे। पूछने पर पता लगा वही पास में भूरी सि‍ंह संग्रहालय है। इस संग्रहालय की स्‍थापना 1908 में राजा भूरी के नाम से की गई थी। 1914 में राजा भूरी सि‍ंह को पहले वि‍श्‍वयुद्ध में अंग्रेजो की सहायता करने के लि‍ए 'नाइटहुड' की उपाधि‍ से अलंकृत कि‍या गया था। चूंकि‍ सोमवार को संग्रहालय बंद रहता है इसलि‍ए हम मंगलवार आए थे, ताकि‍ चंबा का इति‍हास और अच्‍छे से जान सके। मगर हमारा संयोग, उस दि‍न कि‍सी महापुरुष की जयंती थी, जि‍स कारण बंद था संग्रहालय।

अब हमारी जानकारी में एक लक्ष्‍मीनारायण मंदि‍र, चौगान और कुछ मंदि‍रों को छोड़ कुछ बचता नहींं था। हमारे पास वक्‍त भी ज्‍यादा नहीं था और धूप इतनी लग रही थी कि‍ लगा सड़क पर पैदल तो कतई नहीं चल पाऍंगे। तो जल्‍दी-जल्‍दी मंदि‍र का रास्‍ता पूछकर जाने लगे। हम एक सब्‍जी मंडी से होकर गुजरे। ऊॅची चढ़ाई के बाद आता है मंदि‍र। दोनों तरफ दुकानें बनी हुई थी। मंदि‍र पहुँच गए तो सबसे पहले हमलोग कुछ देर के लि‍ए बैठ गए।

चम्‍बा का इति‍हास बहुत पुराना है। माना जाता है कि‍ इसकी स्‍थापना 550 ईस्‍वी में मेरू बर्मन ने की थी। उसने ब्रह्रमपुरा जो अब भरमौर के नाम से जाना जाता है, उसे अपनी राजधानी बनाई थी। चम्‍बा रियासत भी पश्चिमी हिमालय क्षेत्र के अन्तर्गत आने वाली पहाड़ी रियासतों में से एक रही है। सम्बन्धित राजवंश के शासकों को सूर्यवंशी माना जाता है तथा यह धारणा भी ऐतिहासिक सत्यता के काफी नजदीक स्वीकार की जाती है कि इस राजवंश के लोगों का सम्बन्ध मूलरूप में अयोध्या से रहा है।

चम्बा राजवंश के संस्थापक स्वीकार किए जाने वाले राजा मरू का शासनकाल लघु अवधि का था क्योंकि, राज्य की स्थापना करने के कुछ अन्तराल के बाद ही उसके द्वारा शासन का भार अपने पुत्र को सौंप दिया गया और वह अपने मूल स्थान कल्पा अथवा कल्प लौटकर एक बार फिर साधु बन गया।

920 ईस्वी में इस वंश के शासक राजा शैल वर्मन (प्रचलित नाम साहिल वर्मन) ने रावी घाटी के निचले हिस्सों पर विजय प्राप्त की तथा विजय के उपरांत उसने ब्रह्मपुर के स्थान पर चम्पा अथवा चम्बा को नयी राजधानी बनाया। शैल वर्मन के सत्तारूढ़ होने की लघु अवधि के बाद ब्रह्मपुर राज्य में 84 योगियों द्वारा भ्रमण करने की जानकारी उपलब्ध होती है। यहां बने मंदि‍र को चौरासी के नाम से जाना जाता है। कि‍वंदन्ती है कि इन योगियों की राजा द्वारा पर्याप्त सेवा की गई, जिससे प्रसन्न हो कर इन्होंने राजा को दस पुत्र प्राप्त होने का आशीर्वाद दिया। समय बीतने के साथ राजा के दस पुत्र तथा एक पुत्री हुई जिस का नाम चम्पावती रखा गया। एक अन्य धारणा के अनुसार इसी चम्पावती के नाम पर चम्पा अथवा चम्बा का नामकरण हुआ है।

अपने शासनकाल में शैल वर्मन अपने विजय अभियानों में व्यस्त रहा तथा उसने निचली रावी घाटी के अधिकांश छोटे राणाओं को अपना आधिपत्य स्वीकार करवाया। ऐसा माना जाता है कि सम्बन्धित अभियान की अवधि में उसकी पत्नी और पुत्री चम्पावती भी उसके साथ व्यस्त रहती थीं। इसी अभियान के दौरान राजा की पुत्री चम्पावती को चम्बा का कुछ क्षेत्र इतना अच्छा लगा कि उसने अपने पिता से इस क्षेत्र में अपनी राजधानी स्थापित करने का अनुरोध किया। जो स्थान राजा की पुत्री को पसन्द आया था उसमें से अधिकांश क्षेत्र कुछ ब्राह्मणों के अधिकार क्षेत्र में था जिसके कारण शैल वर्मन तत्काल इस क्षेत्र पर कब्जा करने की स्थिति में नहीं था। अन्त में यह निर्णय हो गया कि सम्बन्धित भूमि राजपरिवार को प्रदान कर दिए जाने के बदले नगर में होने वाले हर विवाह के अवसर पर सम्बन्धित ब्राह्मण परिवार को उनकी भूमि के मालिकाना अधिकारों को मानते हुए आठ चकली यानी की चम्बा रियासत की मुद्रा के आठ सिक्के प्रदान किए जाऍंगे। यह समझौता हो जाने के उपरान्त शैल वर्मन ने ब्रह्मपुर की जगह चम्बा में नई राजधानी की स्थापना की।

शैल वर्मन के बाद उसका पुत्र युगाकर वर्मन गद्दी पर बैठा। ऐसा माना जाता है कि युगाकर वर्मन द्वारा चम्बा में गौरी शंकर मंदिर की स्थापना की गई थी जो कि वहां के लक्ष्मी मन्दिर नारायण परिसर में स्थित है। बाद में भी इस वंश का शाासन चलता रहा। अनेक सदियों तक चम्बा राज्य कश्मीर का आधिपत्य स्वीकार करता रहा है तथा ऐसा माना जाता है कि 12वीं शताब्दी के करीब चम्बा राज्य पुनः स्वायत्‍त हो गया। प्रमाण मि‍लता है कि‍ 1804 में अमर सि‍ंह थापा ने चम्‍बा पर कब्‍जा कर लि‍या था। 1863 में मेजर ब्‍लेयर चम्‍बा का पहला शासक बना और 8 मार्च 1948 को चम्‍बा के आखि‍री राजा लक्ष्‍मण सि‍ंह ने चम्‍बा के भारत वि‍लय की घोषणा की थी। 15 अप्रैल 1948 को चंबा हि‍माचल प्रदेश के चार जि‍लों में से एक जि‍ला बना।

यह तो हुई इति‍हास की जानकारी। मगर हमने इतना वक्‍त नहीं रखा था कि‍ सब जगह घूम पाते। भरमौर जाने की इच्‍छा बलवती हो गई, मगर अगली बार कहकर खुद को समझाया हमने। तो हम थे मंदि‍र के प्रांगण में। शि‍खर शैली के बने मंदि‍र में खूबसूरत नक्‍काशी की गई थी। सामने लक्ष्‍मीनारायण की प्रति‍मा थी और पुजारी ने हमें प्रसाद दि‍या। लक्ष्मीनारायण मंदिर समूह का प्रमुख लक्ष्मीनाथ मंदिर आकार में सबसे बड़ा है, जिसकी उंचाई 65 फुट है। इस मंदिर के गर्भगृह में सफेद संगमरमर की विष्णु की प्रतिमा है। इस प्रतिमा के चार मुख है, जो क्रमश वासुदेव, वरहा, नरसिंह व कपिल के हैं। मूर्ति के सामने के दो हाथों में शंख व कमल है, जबकि पीछे के हाथ चक्कर पुरुष व गदा देवी के सिर पर स्थित है। विष्णु के चरणों के मध्य भूदेवी की प्रतिमा है। यह प्रतिमा कश्मीर शैली में निर्मित है। ऐसा प्रतीत होता है कि राजा साहिल वर्मन ने इन मंदिरों के निर्माण हेतु कश्मीर से कुशल शिल्पों को बुलाया था। धूप में जमीन बहुत गरम हो गई थी। जलते पॉंवों के साथ पूरा परि‍सर घूमे हम।

कहा जाता है कि‍ सबसे पहले यह मंदि‍र चम्‍बा के चौगान में स्‍ि‍थत था, परंतु बाद में इसे राजमहल (जो वर्तमान में चम्बा जिले का राजकीय महाविद्यालय है) के साथ स्‍थापि‍त कर दि‍या गया। मंदि‍र पारंपरि‍क वास्‍तुकारी और मूर्तिकला का उत्‍कृष्‍ट उदाहरण है। मंदि‍र का ढॉंचा मंडप के समान है। इस मंदि‍र समूह में महाकाली, हनुमान और नंदीगण के मंदि‍रों के साथ-साथ वि‍ष्‍णु व शि‍व के तीन-तीन मंदि‍र है।

मंदि‍र से नि‍कले तो ढलान से उतरते हुए तुरंत नीचे बाजार की ओर आए। मैंने सुन रखा था कि‍ चंबा के रूमाल और चप्‍पल काफी प्रसि‍द्ध हैं। लगा, देख तो लूँ कैसे होते हैं। कुछ दुकानों में पूछा तो सबने इंकार कि‍या। तब एक छाेटा सा दुकान दि‍खा जहां उसके नाम के साथ लि‍खा था कि‍ यहां चम्‍बा का रूमाल मि‍लता है। वाकई वहॉं हमें रूमाल मि‍ला, मगर एक दो पीस ही उपलब्‍ध थे उनके पास। दुुकानदार ने बताया कि‍ आजकल बहुत कम बनतेे हैंं रूमाल। यह कला भी खो न जाए। रूमाल की खासि‍यत है कि‍ इसमें दोनों ओर से कढ़ाई की जाती है। इस रूमाल को बनाने में दस दि‍न से 2 महीने तक लगता है। जैसा आकार और डि‍जाइन उतनी ही कीमत। इसे लगाने के लि‍ए खास तौर पर लकड़ी का फ्रेम आता है जो चारों ओर घूमता रहता है। इसका नाम रूमाल है मगर वास्‍तव में यह कढ़ाई के द्वारा पेंटि‍ंग की जाती है। फ्रेम लेकर आना तो संभव नहीं था, इसलि‍ए मैंने नि‍शानी के तौर पर खरीद लि‍या साथ ही पि‍ताजी के लि‍ए एक चम्‍बा की टोपी।

वहाँ चंबा चम्‍बा भी बनती हैं। चम्‍बा की चि‍त्रकला का जन्‍म राजा उदय सि‍ंह के समय 18वीं शताब्‍दी में हुआ था। जब हम वहां से नि‍कले तो बस स्‍टैंड के पीछे नजर पड़ी एक दुकान पर। वहॉं गई, तो उन्‍होंने कई रूमाल दि‍खाए। वाकई गजब की कढ़ाई थी। शि‍व परि‍वार, गद्दा-गादि‍न, राजा-रानी। मगर बहुत महँगे थे यहां रूमाल। जो मुझे पसंद आए, वो छह हजार से आठ हजार के थे। मैंने तस्‍वीर ली और दुकानदार को धन्‍यवाद कह नि‍कल आई, क्‍योंकि‍ पहले ही एक रूमाल खरीद लि‍या था। अब तलाश थी चम्‍बा के चप्‍पल की। यहॉं भी कई दुकानें देखनी पड़ींं, तब जाकर मि‍ला। खूबसूरत काम होता है चप्‍पलों पर। चमड़े की बनी होती हैं और सस्‍ती भी हैं। मगर लगता है अब ये चीजें लुप्‍तप्राय हो जाऍंगी अगर इस पर ध्‍यान नहीं दि‍या गया तो।

हम वापस गाड़ी में थे। ड्राइवर ने कहा कुछ खास नहीं अब देखने को। मुझे महसूस होता है कि‍ कई बार हम इस चक्‍कर में कुछ जरूरी चीजें भी मि‍स कर जाते हैं। उसने चौगान दि‍खाया जहां प्रति‍वर्ष मि‍ंजर मेले का आयोजन होता है। एक सप्‍ताह तक चलता है मेला और स्‍थानीय नि‍वासी रंग-बि‍रंगे परि‍धान धारण कर आते हैं। यह एक खुला घास का मैदान था जि‍समें बच्‍चे खेल रहे थे।

हमारे पास वक्‍त बहुत कम था, मगर मुझे चामुंडा मंदि‍र जाना था। लक्ष्‍मीनारायण मंदि‍र के पुजारी ने मुझसे कहा था कि‍ वो मंदि‍र देख कर जाना। तो मैंने कहा कि‍ बस देख लेंगे चलो अभी है आधा घंटा हमारे पास। ड्राइवर मान गया। मंदि‍र पहाड़ की चोटी पर है। जैसे-जैसे हम चढ़ने लगे चम्‍बा की खूबसूरती देख मंत्रमुग्‍ध होने लगे। ढलानदार छतों वाले मकान, शि‍खर शैली के मंदि‍र, पीछे पर्वत, नीचे बहती रावी नदी। बहुत ही खूबसूरत लगा चम्‍बा हमें। हम मंदि‍र पहुँचे। जनश्रुति‍ के अनुसार यह मंदि‍र राजा साहि‍ल वर्मन द्वारा चंबा शहर बसाने से पहले से मौजूद था। मगर मूल मंदि‍र के नष्‍ट होने पर फि‍र से इसका नि‍र्माण कि‍या गया। स्‍लेट पत्‍थरों से आच्‍छादि‍त पि‍रामि‍डनुमा छत है। मंदि‍र के दरवाजों के ऊपर, स्‍तंभ और छतों पर खूबसूरत नक्‍काशी है। यह काष्‍ठकला का एक उत्‍कृष्‍ट उदाहरण है। यहां कई घंटि‍यां लगी हुई थीं। एक अभि‍लेख उत्‍कीर्ण है कि‍ पंडि‍त वि‍द्याणर ने 2 अप्रैल 1762 को 27 सेर वजन और 27 रुपये मूल्‍य की इस घंटी को दान कि‍या था। मंदिर के पीछे शिव का एक छोटा मंदिर है। भारतीय पुरातत्‍व विभाग मंदिर की देखभाल करता है। चामुंडा मंदि‍र में बैशाख माह में मेला लगता है। इस समय बैरावली चंडी माता अपनी बहन चामुंडा से मि‍लने आती हैं। यहां उँचाई से चम्‍बा शहर को देखना अपने मन में एक ऐसी छवि‍ अंकि‍त करना हैै, जि‍से हम कभी भूल नहीं सकते। स्‍लेट नि‍र्मित छत, रंग बि‍रंगे घर, कल-कल बहती रावी और पहाड़ पर बसा चम्‍बा। बस अद्भुत।

मौसम सुहाना हो चुका था हल्‍की बूँदा-बॉंदी के बाद। अब हम वापस उसी रास्‍ते नि‍कल लि‍ए रावी के कि‍नारे-कि‍नारे। चीड़ के जंगलों में आग लगी हुई थी। कुछ दि‍न पहले का उत्‍तराखंड और हि‍माचल के जंगलों का दावानल याद आ गया। खूबसूरत पहाड़, पर्वत, नदी और सहृदय पहाड़ी लोगों को देखते-देखते हम अपनी मंजि‍ल पठानकोट पहुँच गए। वहॉं ट्रेन लेट थी। घंटा भर इंतजार करना पड़ा फि‍र रात के सफर के बाद दि‍ल्‍ली और शाम को वापस अपने घर, रॉंची। भीग रही थी धरती, मौसम भी ठण्‍डा था। दि‍ल्‍ली की गर्मी का नामोनि‍शान नहीं। पहाड़ की खूबसूरत यादों के साथ अब हम अपने घर में थे। -०-