राष्ट्रीय नदी मे उत्सव, किनारों पर कचरा / जयप्रकाश चौकसे

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राष्ट्रीय नदी मे उत्सव, किनारों पर कचरा
प्रकाशन तिथि : 16 नवम्बर 2012


दीपावली के अवसर पर पूरे देश में कितने हजार करोड़ का माल बिका, इसका आकलन संभव नहीं है। अगर आंकड़े उपलब्ध हो जाएं तो उन्हें देखकर यह लगेगा कि भारत अत्यंत धनाढ्य देश है। लेकिन अकल्पनीय बिक्री के इस दीये के नीचे सामाजिक अंधकार को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। ऐसा भी कोई मानदंड नहीं है कि उत्सव पर महसूस होने वाले आनंद का अनुमान लगाया जा सके, क्योंकि जो वर्ग कुछ नहीं खरीद पाया, वह भी प्रसन्न था। अनेक लोग ताउम्र मुफलिसी का जश्न मनाते रहते हैं। भारत के लोगों को इस कला में महारत हासिल है।

देश में मौजूद संपदा और इधर-उधर फैली गरीबी एक जटिल विरोधाभास है। कहीं किसान आत्महत्या कर रहे हैं तो कहीं विकास करते नगरों की सरहद की जमीन बेचकर करोड़पति हो रहे हैं। इस गरीब देश में कम से कम सौ ऐसे नगर हैं, जहां सरहदी जमीन के दाम बीस करोड़ रुपए एकड़ हैं और कम से कम आधा दर्जन महानगर ऐसे हैं, जहां बीस हजार रुपए प्रति वर्गफुट के हिसाब से फ्लैट बिकते हैं। इस गरीब देश में दीपावली के अगले दिन देश के हजारों सिनेमाघरों के बाहर हाउसफुल के बोर्ड लगे थे और दोनों नई फिल्मों की दो दिनों की समूची आय संभवत: साठ करोड़ से अधिक होगी, परंतु इन शाइनिंग आंकड़ों से एक खुशहाल फिल्म उद्योग की कल्पना करना गलत होगा और यह सोचना भी ठीक नहीं होगा कि ये आंकड़े सिनेमाई गुणवत्ता का प्रतीक हैं। ये लोकप्रिय लहरें हैं, सितारों की ऊर्जा से प्रवाहित लहरें हैं। साठ करोड़ के टिकट खरीदने वालों ने कितने का पॉपकॉर्न खाया होगा?

भारत एक केलिडियोस्कोप है, जिसमें रंगीन कांच के टुकड़े विविध आकृतियां बनाते हैं। भारत को माइक्रोस्कोप से देखने पर जो चित्र उभरता है, वह उसकी हकीकत नहीं है। दरअसल भारत का अफसाना उसकी हकीकत पर भारी पड़ता है। क्या बाजार की बिक्री हकीकत है, क्या बॉक्स ऑफिस के आंकड़े पूरा सत्य हैं? क्या इस देश का उत्सवी आनंद की लहर में डूबना उसकी बेशर्मी है या सत्य से पलायन की प्रवृत्ति या उसकी रहस्यमय शक्ति? विरोधाभास और विसंगतियों के इस पूरे खेल को तर्क से देखने को उत्साहित नहीं किया जाता, वरन धर्म की हानि के नाम पर वर्जित कर दिया जाता है। आशावादी लोग दार्शनिक अंदाज में कहते हैं कि अजब-गजब भारत को दिमाग से नहीं, दिल से समझने का प्रयास करो। दिल को समझ और दिमाग को नासमझ घोषित किया जा चुका है। यह राष्ट्रीय सुविधा भी है। तर्क तो कहता है कि देश के हालात के लिए सभी राजनीतिक दलों के साथ अवाम भी शामिल है। राष्ट्रीय चरित्र देश का मेरुदंड होता है, जिसमें प्रवाहित सांस्कृतिक ऊर्जा सुषुम्ना नाड़ी द्वारा चेतना का विकास करती है। हम उसे खो चुके हैं, हमारा मेरुदंड च्युइंगम से बना हुआ प्रतीत होता है।

समस्याओं के सतही इलाज से हम खुश होते रहे हैं और भीतर मवाद इक_ा हो गया है। आम आदमी स्वयं अपनी स्वतंत्र विचार शैली विकसित करके ही इसका उपचार कर सकता है। आज राष्ट्रीय नैराश्य के घटाटोप में भी आशा की क्षीण किरण नजर आती है और इसका प्रमाण है कि दीपावली के उत्सव पर सभी जगह आनंद की लहर प्रवाहित थी और जो आनंद मना सकते हैं, वे तांडव भी कर सकते हैं। यह देश मरा नहीं है, बस केवल सभी लोग इसे 'मेरा' कहें। अभी तो इसे गैर का समझकर हम इसके प्रति निर्मम हैं।

राष्ट्रीय नदी में उत्सव आनंद की बाढ़ रचता है और बाढ़ के गुजरने के बाद किनारों पर कचरा जमा हो जाता है, कुछ वृक्ष और टहनियां दिखाई पड़ती हैं। उत्सव मनाने के जोश के बीच जब इस देश के भीतर उत्सवोपरांत किनारों पर जमा कचरा ठिकाने लगाने का बोध जाग जाएगा, तब उत्सव संपूर्ण होगा। सड़क पर फोड़े हुए पटाखों का कचरा साफ करने के समान ही जरूरी है, आंगन में लगे वृक्षों और पौधों पर पानी डालकर पत्तों पर जमी बारूद को धोना, मिट्टी को बुहारना। सिनेमाघरों में शो समाप्त होने पर कचरा साफ करने के बाद ही अगले शो के दर्शकों को भीतर आने देते हैं। सफल और असफल दोनों फिल्मों में शो के बाद कचरा होता है और कचरे के प्रमाण से भी फिल्म का आकलन किया जा सकता है। उत्सव भी मेहमान की तरह देवतुल्य होता है। उसकी राजी-खुशी विदाई भी भारतीय संस्कार है। बहरहाल उत्सव के समय पूरा देश ही जलसाघर-सा नजर आता है। क्या सामान्य दिनों में भी हम उत्सव के आनंद को अक्षुण्ण रख पाते हैं?