राष्ट्रीय शिक्षा-II / गणेशशंकर विद्यार्थी

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8 अप्रैल से 15 अप्रैल तक देश के कितने ही स्‍थानों में राष्‍ट्रीय शिक्षा का सप्‍ताह मनाया जायेगा। इन उत्‍सवों का मतलब यह होगा कि लोग राष्‍ट्रीय शिक्षा की बात को अच्‍छी तरह समझें। जिस प्रकार शासन और स्‍वशासन में अंतर है, उसी प्रकार शिक्षा और राष्‍ट्रीय शिक्षा में भी अंतर है। शिक्षा द्वारा अक्षरों से परिचय हो जाता है, परंतु राष्‍ट्रीय शिक्षा के बिना बालकों को भावी अच्‍छे नागरिक बनने के लिये पूर्ण मानसिक और शारीरिक विकास का मौका नहीं मिल सकता। इस विकास के बिना हमारा देश बहुत पिछड़ा हुआ है। अपने देश के शिक्षित समुदाय की निकृष्‍ट अवस्‍था, उसका नीचा लक्ष्‍य, उसमें उमंग की कमी, उसके शारीरिक ह्रास और मानसिक पतन का अवलोकन करके आज से बहुत पहले ही देश के समझदार लोगों का ध्‍यान इस प्रश्‍न की ओर उठना आवश्‍यक था। वैसे, शिक्षा-प्रचार की दृष्टि से भी, हमें बहुत पहले चेत जाना चाहिये था। 16 करोड़ पुरुषों में से केवल एक करोड़ 70 लाख साक्षर हैं और 15 करोड़ स्त्रियों में से तो केवल 16 लाख ही साक्षरा कही जा सकती हैं। जिस समय हम देखते हैं कि यूरोप और अमेरिका के देशों में पढ़े-लिखे आदमियों की संख्‍या 100 में 90 से ऊपर तक पहुँच गयी है, अमेरिका के हब्‍शी तक, जो आज से 40-50 वर्ष पूर्व बिल्‍कुल गुलामी में दिन काटते थे, 70 फीसदी पढ़े-लिखे हैं, यूरोप के सबसे पिछड़े देश रूस तक में पढ़े-लिखे आदमियों की संख्‍या 20 फी सैकड़ा से अधिक है, उसी समय अपने देश के केवल 6 प्रति सैकड़ा आदमियों का अक्षरों का जानना हमें असह्रा होना चाहिये था। अमेरिका में 12 रु. स्विट्जरलैंड में 10 रु., इंग्‍लैंड में साढ़े सात रु. और रूस तक में 1 रुपया प्रति आदमी पर शिक्षा के लिये खर्च होता हुआ देख हमारा ध्‍यान बहुत पहले इस बात पर जाना चाहिये था कि यदि भारतवर्ष में केवल एक आना प्रति मनुष्‍य पर शिक्षा के लिये खर्च किया जाता है, तो क्‍या हम शिक्षा के काम के कुछ अंशों को अपने हाथ में लेकर शिक्षा-प्रचार के दायरे को और नहीं बढ़ा सकते! अस्‍वाभाविक ढंग से विदेशी भाषा के पठन-पाठन से देश के बच्‍चों के शारीरिक विकास को नष्‍ट होते हुए देखकर भी यह बात पूरे बल के साथ हमारे सामने कभी न आयी कि अब वर्तमान शिक्षा का यह क्रूर अत्‍याचार रोकना चाहिये। दुर्बल देहों से अपना अस्तित्‍व भी स्थिर रखना असंभव हो जाता है, फिर, जिस पर कठिन जीवन संग्राम का मुकाबला है! आजकल की शिक्षाप्रणाली से ढले हुए बाबुओं को देखकर कौन कह सकता है कि यह राष्‍ट्रीय बल के ह्रास का निश्चित लक्षण नहीं है। दुर्बल देहों के समान दुर्बल ध्‍येयों से भी जाति का अध:पात अनिवार्य हो जाता है। धार्मिक शिक्षा स्‍कूलों में बिल्‍कुल नहीं दी जाती है और जहाँ-कहीं दी भी जाती है, जैसे कि ईसाई स्‍कूलों में, तो हमारे हिंदू-मुसलमानों के बच्‍चों को परधर्म की बातें सीखनी पड़ती हैं। ऐसी अवस्‍था में बालक के कोमल और ग्राही मन को दो भिन्‍न शिक्षाओं का सामना करना पड़ता है। बालक के सामने विदेशी आदर्श उसके हृदय पर अप्राकृतिक प्रभाव डालता है। फल यह होता है कि बालक आदर्शहीन रह जाता है। अशोक और अकबर केवल ऐतिहासिक व्‍यक्तियों के नाते से उसे बताये जाते हैं, किंतु क्‍लाइव और डलहौजी अंग्रेज देशभक्‍त तथा हिंदुस्तान को जीतने वाले वीर और राजनीतिज्ञों के आदर्श स्‍वरूप हमारे बालकों की स्‍मृति पर लादे जाते हैं। ऐतिहासिक सत्‍यताओं को तोड़-मरोड़ कर हिंदुस्तानियों की हीनता के चित्र खींचे जाते हैं और अंग्रेजी बड़प्‍पन की धूम मचायी जाती है। विद्यार्थी को हिंदुस्तान का भविष्‍य अंधकारमय दीखता है और उसकी छाया विद्यार्थी के दिव्‍य भविष्‍य पर अपना बुरा प्रभाव डाले बिना नहीं रहती। आदर्शहीन देश कभी भी उन्‍नति नहीं कर सकता।

हमारे देश में ऊपर लिखे हुए अभावों को दूर करने के प्रयत्‍नस्‍वरूप कुछ संस्‍थाएँ खुली हैं सही, किंतु वे पुराने ढंग की तथा साधनहीन होने के कारण आजकल की आवश्‍यकताओं को पूर्ण करने में असफल-सी दीखती हैं। पूर्व और पश्चिम की सर्वश्रेष्‍ठ आधुनिक प्रणालियों का उपयोग करने से ही हमारा कार्य हो सकेगा। कुछ लोग इस राष्‍ट्रीय शिक्षा के आंदोलन की सफलता पर शंका करते हैं और उदाहरण देते हैं, विशेषकर कुछ वर्ष पहले के बंगाल वाले, शिक्षा संबंधी उद्योग का। वे यह भी कहते हैं कि सरकारी मंजूरी के बिना सफलता असंभव है, क्‍योंकि राष्‍ट्रीय शिक्षालयों से शिक्षित मनुष्‍यों को सरकारी नौकरियाँ नहीं मिलेंगी, अतएव लोग अपने बच्‍चों को वहाँ पढ़ाना स्‍वीकार नहीं करेंगे। ये दोनों बातें आज असत्‍य हो रही हैं। देश की वह हालत नहीं रही, जो बंगाल के आंदोलन के समय थी। राष्‍ट्रीयता का भाव बढ़ रहा है। जनता अपनापन प्राप्‍त करने के लिये अधिक उत्‍सुक है। फिर कालेजों से निकले हुए पाँच फीसदी भी सरकारी नौकरियों में नहीं जाते। व्‍यापार तथा व्‍यवसाय की ओर युवकों की प्रकृति बढ़ती जाती है और देश के व्‍यापारियों तथा अन्‍य गैर सरकारी स्‍वतंत्र संस्‍थाओं ने राष्‍ट्रीय विद्यालयों के शिक्षाप्राप्‍त युवकों को नौकरियाँ देना स्‍वीकार किया है। ठीक शिक्षा प्रणाली अभी निश्चित नहीं हुई है, किंतु यह प्रकट है कि वहाँ से केवल क्‍लर्क उत्‍पन्‍न नहीं होंगे। देश में सच्‍चे देशभक्‍त, उद्यमी तथा स्‍वावलंबी प्रजा की वृद्धि करने का लक्ष्‍य स्थिर हो चुका है। यह उद्देश्‍य-निश्‍चय कुछ आज का नहीं है, किंतु 1906 में कलकत्‍ते तथा 1916 में लखनऊ में कांग्रेस ने राष्‍ट्रीय शिक्षा पर प्रस्‍ताव पास किया था। उस राष्‍ट्रीय महासभा के प्रस्‍ताव को केवल प्रस्‍ताव रूप में ही रहने देना राष्‍ट्रीय कलंक है, अगर उसके अनुसार कार्य न करना हमारा धर्म है। राष्‍ट्रीय शिक्षा का आंदोलन आरंभ हो गया है। इसमें देश के प्रत्‍येक स्‍त्री-पुरुष को देशहित तथा स्‍वहित के नाम पर अवश्‍य योग देना चाहिये।