राष्ट्रीय स्मृतियां और सिनेमा / जयप्रकाश चौकसे

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राष्ट्रीय स्मृतियां और सिनेमा
प्रकाशन तिथि : 05 मार्च 2013


इस वर्ष ऑस्कर में श्रेष्ठ फिल्म घोषित 'अरगो' सत्य घटना पर आधारित है। तेहरान में अमेरिकी दूतावास पर आतंकवादियों ने १९७९ में कब्जा कर लिया, परंतु 6 अमेरिकी राजनयिक नकली फिल्म शूटिंग के स्वांग द्वारा बचा लिए गए और कनाडा के राजदूत ने इस बचाव में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति जिमी कार्टर ने कहा था कि इस साहसी कारनामे के असली नायक कनाडा के राजदूत केन टेलर थे, परंतु फिल्मकार बेन एफ्लेक ने केन टेलर की भूमिका को महत्वहीन कर दिया और फिल्म का नायक सीआईए के अफसर को बनाकर पेश किया। अनेक लोगों का ख्याल है कि श्रेष्ठ फिल्म पुरस्कार के लिए 'लिंकन' को चुना जाना चाहिए था। वह अत्यंत विश्वसनीय फिल्म है। यह गौरतलब है कि अमेरिकी इतिहास के महान नेता लिंकन के जीवन पर बनी विश्वसनीय एवं कलात्मक फिल्म को अनदेखा करके एक काल्पनिक फिल्म को नवाजा गया। 'अरगो' अमेरिकी साहस की मिथ को गरिमा प्रदान करती है और 'लिंकन' अमेरिका के गहरे घाव की याद ताजा कराती है। शायद अमेरिकी साहस के भ्रम को बनाए रखने के लिए ही उस सत्य घटना के असली नायक कनाडा के राजदूत केन टेलर को मामूली सहायक भूमिका में प्रस्तुत किया गया। देशप्रेम बॉक्स ऑफिस का आजमाया नुस्खा है। यहां तक कि छद्म देशप्रेम की फिल्में भी सफल रही हैं।

मनुष्य अपनी स्मृति में सुविधानुसार फेरबदल करता है और देश भी अपनी स्मृतियों को सुविधानुसार सजाते, संजोते हैं। इतिहास के नाम पर गरिमापूर्ण स्मृतियां रची जाती हैं। 'महानता' भी चतुराई से गढ़ी जाती है। मनुष्य की कल्पनाशीलता तथ्यों के गिर्द आवरण बना देती है। फिल्मकार भी अपनी सुविधा और व्यक्तिगत रुचि के अनुरूप तथ्य का काल्पनिक विवरण प्रस्तुत करता है। यह कहना ठीक नहीं होगा कि अमेरिका के दर्शक को कनाडाई नायक के प्रति क्या श्रद्धा हो सकती है, क्योंकि पर्ल एस. बक की 'गुडअर्थ' चीन के किसान परिवार की कहानी है, परंतु अमेरिका में पसंद की गई थी। वी. शांताराम की 'डॉ. कोटनीस की अमर कहानी' सत्य घटना पर आधारित थी और चीन तथा भारत दोनों देशों में सराही गई। सिनेमा सरहदों के पार जाता है।

इस वर्ष विदेशी भाषा की श्रेष्ठ फिल्म का इनाम 'अमोर' फिल्म को मिला। इस फिल्म में एक पति अपनी कैंसर पीडि़त पत्नी की तीमारदारी करता है। उस पर कोई आर्थिक दबाव नहीं है। अगर एक मध्यम वर्ग के नौकरीपेशा व्यक्ति को तीमारदारी का लंबा अरसा काटना पड़े तो कैंसर से ज्यादा भयावह बीमारी गरीबी ही मरीज और सेवक दोनों को मार देती है। इस फिल्म में कैंसर पीडि़त स्त्री की विवाहित बेटी अपनी मां की खिदमत करना चाहती है, परंतु उसके पिता उसे अपनी गृहस्थी संभालने को कहते हैं। यह पति अपनी मृतप्राय पत्नी को मार देता है, क्योंकि वह उसे तिल तिलकर मरता नहीं देखना चाहता। यह कार्य घृणा या जवाबदारी से भागना नहीं है, परंतु इसे यूथेनेसिया या इच्छामृत्यु नहीं कह सकते, क्योंकि उसमें असहनीय वेदना सहने वाले की इच्छा से उसे मृत्यु दी जाती है और इसे कुछ चुनिंदा देशों में ही कानूनी मान्यता प्राप्त है।

'अमोर' से जुड़ा मुद्दा यह है कि दर्शक को 'कातिल' पति से सहानुभूति है और अगर इस कहानी में पति कैंसरग्रस्त होता और पत्नी यही कार्य करती तो शायद दर्शकों को उससे सहानुभूति नहीं होती। गोयाकि यूथेनेसिया अर्थात इच्छामृत्यु में भी दर्शक की अवचेतना में स्थापित लिंग-भेद काम करता है। भारत में तो इस तरह की घटना सावित्री की कथा के विपरीत चली जाती है और आख्यानों के रेशों से बुना अवचेतन हिल जाता।

उसे कुलटा, निर्मम, पतिहंता घोषित कर दिया जाता। गौरतलब बात यह है कि स्त्रियों के प्रति दोषपूर्ण विचार प्रणाली पर भारत का एकाधिकार नहीं है। यह वैश्विक व्याधि है और समयातीत भी है। हर वर्ष आठ मार्च को महिला दिवस पर छाती कूटने की रस्म भी निभाई जाएगी। पुरुष अपनी कमतरी को स्वीकार कर ले, यह संभव ही नहीं है और स्त्री विमरश इसी कड़वे यथार्थ से जुड़ा है।

इसमें कोई संदेह नहीं है कि ऑस्कर में गुणवत्ता ही प्राय: पुरस्कृत हुई है, परंतु राष्ट्रीय अवचेतन में स्थापित पूर्वग्रह से वह भी मुक्त नहीं है। यह भी देखा गया है कि अमेरिका ने जिन राष्ट्रों के साथ अन्याय किया, उनकी फिल्मों को भी पश्चातापस्वरूप ऑस्कर ने नवाजा है। इस तरह ऑस्कर अमेरिका के अवचेतन के उजले स्वरूप में भी सामने आया है। यह कोई कम बात नहीं है कि एक फिल्म पुरस्कार अपने देश के अवचेतन का प्रतिनिधि बन जाए। ऑस्कर समारोह में कई बार साहसी वक्तव्य दिए गए हैं। मार्लन ब्रेंडो ने रेड इंडियंस के पक्ष में दलील प्रस्तुत की थी। मार्लन ब्रेंडो ने बिहार आकर भी एक वृत्तचित्र की शूटिंग की है। अनेक प्रसिद्ध सितारे समय-समय पर मानवीय करुणा के प्रति समर्पित रहे हैं।

दरअसल, कोई भी राष्ट्र पूरी तटस्थता से अपनी स्मृतियां नहीं संजो पाता। व्यक्तियों की तरह उसके पूर्वग्रह, पसंद और नापसंद भी उसके अवचेतन में समाए रहते हैं। तर्क और सत्य के खिलाफ प्रखर भावना की लहरें सभी जगह बहती हैं और लोकप्रियता सत्य के विपक्ष में खड़ी हो जाती है। मसलन चीन के हाथों हमें पराजय झेलनी पड़ी, जिसके लिए सेना से ज्यादा जवाबदारी राजनीति की है।

'मित्र राष्ट्र' एक मिथ है और इसी आदर्श में हम बह गए। उन दिनों कवि प्रदीप का गीत 'याद करो कुर्बानी' अत्यंत लोकप्रिय हुआ, क्योंकि वह हमारे मनोविज्ञान के अहंकार को तुष्टि देता है। हमारी सेना को भागना पड़ा था, परंतु गीत में हमारे एक-एक योद्धा ने दस-दस को मारा था। कई बार काव्य साहित्य के मानदंड पर नहीं तौला जाता। लोकप्रियता का रसायन अलग ढंग से काम करता है। क्या 'लिंकन' बनाम 'आरगो' और चीन से हार तथा दिल्ली महिला त्रासदी और आमोर कहीं एक से विचार के दो स्वरूप तो नहीं?