रास्तों पर भटकते हुए / मृणाल पांडे

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एक

सुनते हैं कि शुरू में कुछ नहीं होता। न हम, न हमारे। बस अन्तरिक्ष में कहीं एक बहुत बड़ा मातृपिण्ड होता है, धधकता हुआ। फिर उसके कुछ अंश टूटते हैं और उल्काएँ बनकर मातृभूमि से दूर जा छिटकते हैं। ज्यादातर अंश तो टूटने के साथ राख बनकर गायब हो जाते हैं। पर कुछ टुकड़े जाने कैसे बचे रहते हैं। युगों तक लगातार यूँ ही अपनी कक्षा में अकेले भटकते-घूमते कभी एक टुकड़ा आखिरकार झख मारकर स्वयं में सम्पूर्ण ग्रह बन जाता है।

ग्रहों की सतह पर अपने मातृपिण्ड से टूटने के निशान कभी पुराते नहीं। सिर्फ इतना होता है, कि समय बीतने के साथ उनके ऊपर और आजू-बाजू नई चमड़ी आ जाती है और फिर हम निशान पर अनेकों छोटी-मोटी नई बस्तियाँ उग जाती हैं, जिन्हें लिए- दिए अपनी जननी से फिरण्ट यह नई दुनिया अपनी कक्षा में तेजी से घूमने लगती है। पुरानी चोट के निशान दिखाई तो नहीं देते। पर वे बने रहते हैं पिण्ड की सतह पर, बस्तियों के नीचे, हँसी-मजाक के उस पार। यूँ ही बनी थी हमारी पृथ्वी ऐसे ही बने हैं हम में से कुछ लोग। और ऐसे ही कभी बनी होगी वह बस्ती भी : जमनापारी दिल्ली के फ्लैटों की आज जहाँ मैं रहती हूँ। किरानी-बाबू-डॉक्टर-टीचर-इन्जीनियर-लेखक- पत्रकार जिस किसी की यहाँ पर रिहाइश है, उनके कन्धे, कन्धों पर टिके धन्धे, और उन सब धन्धों को चलाने वाले दिमाग लगभग एक ही तरह की अक्षांस और देशान्तर रेखाओं तले टिकटिकाते हैं।

यह दुनिया दिल्ली, उत्तर प्रदेश और हरियाणा के क्लर्कों, दलालों और पुलिसवालों के एक विराट कोऑपरेटिव को लिए-दिए चलती है, जो इस पर खुद-ब-खुद उग आई है। सरकारी बहियों के हिसाब से मेरा इलाका उत्तर प्रदेश की जद में आता है। उत्तरप्रदेश यानी यू.पी. और यू.पी. यानी यू.पी. हर जायज-नाजायज काम यहाँ स्वतः होता नहीं, सही पैठ बना के करवाया जाता है।

‘‘यू.पी. यानी यू पे !’’ मेरे मित्र, भूतपूर्व सम्पादक ने अपने मोटे चश्मे के पीछे मोतियाबिन्दी आँखें झपकाते हुए मुझसे कहा। बेचारे चिद्दू तमिल ब्राह्मण थे, और ब्राह्मण विरोधी द्रविड़ राजनीति के उल्का आघात से मातृपिण्ड से टूट कर, वे दिल्ली छिटक आए थे। एक जमाने में, जब प्रधानमन्त्री की काबीना के अधिकतर मन्त्री और प्रेस सलाहकार-सब दाक्षिणात्य ब्राह्मण हुआ करते थे, उनकी राजधानी के प्रेस में तूती बोलती थी ! हर महत्त्वपूर्ण प्रेस कांफ्रेन्स में प्रधानमन्त्री से सबसे महत्त्वपूर्ण सवाल वे ही पूछते थे, और कहा यह भी जाता था कि ये सवाल-जवाब वे प्रधानमन्त्री कार्यालय के अपने मित्र प्रेस सलाहकार के साथ पहले ही तै कर चुके होते थे। बहरहाल अब ब्राह्मणहन्ता आँधी ने उत्तर को भी ग्रस लिया था, और काबीना भी सर्वण र्विरोधी तत्त्वों की मुट्ठी में थी। लिहाजा एक नखदन्तहीन सिंह जैसे वे भी इस जमनापारी बस्ती के अपने भवन में अकेले लेटे-लेटे अपने स्तम्भ लेखन की मार्फत गरजा करते थे। इधर सुना था कि गर्जन-तर्जन की अभ्यस्त उनकी पत्नी दिवंगत हो चुकी थीं। बेटे-बहुएँ तो हरे कार्ड की नाव में बैठकर पहले ही अमरीका सिधार चुके थे। चलो, पहले मेरे घर चलो, फिर बात करेंगे।’’ वे सदयता से बोले। और, घर ले जाकर उन्होंने ही मुझे जीवित रहने के लिए ठीक से इस दुनिया का कायदा-कानून सिखाया।

हुआ यूँ, कि मेरी बिजली का कनेक्शन यकायक काट दिया गया था और सही पैठ के अभाव में किसी भी तरह बहाल नहीं हो पा रहा था। तभी एक दिन बिजली प्राधिकरण के दफ्तर की एक लम्बी कतार में खड़े-खड़े चिदम्बरम् उर्फ चिद्दू दिखाई पड़ गए थे। ‘‘यहां कैसे ?’’ उन्होंने अपनी कमजोर नजर से अपने खास अन्दाज में धूरते हुए पूछा।

‘‘बिजली का कनेक्शन जुड़वाने’’, मैंने बताया। फिर मैंने यह भी बताया कि पिछले कई दिनों से मैं इस दफ्तर की कतारों में खड़ी होती और खाली हाथ वापस लौटती रही थी-‘‘कभी सही दिन नहीं होता। कभी सही दिन पर सही कमरे का पता नहीं चलता। और कभी सही दिन पर सही कमरा मिल भी गया तो सही आदमी वहाँ मौजूद नहीं होता,’’ मैंने रुआँसे सुर में कहा। ‘‘सही आदमी कोई ब्रह्मपिशाच जैसी अदृश्य ताकत नहीं होता। सही आदमी के माने सही बिल्डिंग के कमरे में सही वक्त पर घुसकर वहाँ सही आदमी का पता लगाना और यह काम अपने बूते न मैं कर सकता हूँ, न तुम ! एक अनुभवी डॉक्टर की तरह उन्होंने सफेद बालों से भरापूरा अपना सिर हिलाया। यहाँ ऐसे काम नहीं होगा। कोआपरेटिव में कोऑपरेशन लेना होगा तुम्हें। कल मेरे घर आ जाना, अपना गणेशन तुम्हारे साथ भेज दूँगा। जैसा वो कहेगा, वैसे ही करना, और आदत के मुताबिक बहुत सवाल जवाब मत करना, समझीं !’’ उनकी आँखों में हँसी जैसा कुछ झममलाया-‘दिस इज यू. पी.एण्ड इन यू.पी., यू पे।’’

अगले दिन अपना गणेशन झक्क खादी के कपड़ों पर खादी ग्रामोद्योग की सदरी डाँटे चिद्दू की निराभरण, विधुर बैठक में मेरी प्रतीक्षा कर रहा था। उसने क्षण भर में मेरा आकलन कर लिया। ‘मैडम घबराने को नहीं। गणेशन इज हियर योर सर्विस’’, वह हँसा। तड़ित छवि से उसके नकील दांत चमके, फिर विलुप्त हुए। ‘‘बस मीटर और इन्सपेक्शन के लिए कंसिडरेशन मनी खर्चा करना होगा। मैं आपको एकदम सही बन्दे के पास ले के चलेंगा। थोड़ा ‘स्पीड मनी’ लगेंगा। कंसिडर द वर्क डन।’’

‘‘और तम आगे कुछ मत पूछना। कि कैसे या क्यूँ ? कोऑपरेटिव का मामला है। वहाँ जैसा गणेशन कहे वैसा करना।’ हमारे घर से निकलते हुए चिद्दू ने टीप जड़ी। काम हो गया। कोऑपरेटिव के चक्रव्यूह में पैठकर अपने गणेशन ने सही भवन के सभी कमरे में सही आदमी को कूत कर उसकी खिड़की के बाहर मंडराते एक बन्दे से कुछ बात की। ‘‘पाँच-सौ’’-उसने फिर मुझसे कहा। मैंने चुपचाप एक गाँधी छाप नोट बढ़ा दिया। दलाल ने बिना कुछ कहे गणेशन से पैसा ले लिया फिर मुस्कुराया। उसकी मुस्कुराहट में वैसा महीन आह्लाद था जैसा रसिक प्रेमी की आँखों में वार वनिता की गली में घुसते समय छलकता है। ‘‘कांसिडर द वर्क डन’’ उसने भी कहा।

‘परकीया से प्रेम, और बलात्कार द्वारा अपनी ताकत का इजहार, इन दोनों का ही एक मिला-जुला रूप है हमारे जमाने में दलाल और अफसर पुलिस की तिकड़ी के बीच का सहकारी व्यापार चिद्दू ने कभी अपने उस चर्चित खट्टे-तीखे स्तम्भ में लिखा था जो उन्हें जिन्दा रखने का एक बहाना था। अन्तिम बहाना। और यह बहाना भी इस शीर्ण देह को बहुत देर तक नहीं बचा पाएगा यह उस दिन मुझे उन्हें देखते हुए लगा था। बाद को चिद्दू की मृत्यु के बाद इस पूरे नाटकीय व्यापार की बाबत सोचते हुए अब मुझे लगता है कि अपना गणेशन और उसके दोस्त दलाल, हर नई बस्ती में चिद्दू और मेरे जैसों के लिए एक दाई की अहमियत रखते हैं। हमारे पुराने आदर्शवाद से हमारी गर्भनाल काट कर हमें उसने मुक्त कर दिया था। उल्टे लटके चिमगादड़ों की तरह एक नई दुनिया, एक नई जीवन शैली अपनाने के लिए। और, इस जीवन शैली की हर नई डगर पर हर बार एक अन्य नई दाई से गणेशन ही मुझे मिलवाता था। जल संस्थान, जलमल-व्ययन संस्थान, टेलीफून निगम, रेलवे स्टेशन, बैंक, सार्वजनिक निर्माण विभाग, जहाँ कहीं रोड़ी-रेता-गारे-सीमेन्ट की नई दुनिया लाल डोरा गाँवों की जमीन से जुड़ती थी, वहाँ-वहाँ बाबू, दलाल, पुलिस की कोई न कोई दाई- तिकड़ी जचगी कराने के लिए मौजूद रहती थी। अपने आपमें इन सबकी शक्लें शायद कतई विस्मरणीय होतीं, लेकिन मैंने पाया कि एक अदद चपरासी एक सरकारी मोहर, एक हीटर एक खडंग-बडंग कूलर और मेज से जुड़कर वे अचानक बिजली केलट्टू की तरह दिपदिपा उठते थे। मुझे यह भी पता चला, कि मैं ही नहीं, इलाके के दूकानदार दूध डिपो का बाबू, स्कूल बस का ड्राइवर यहाँ तक कि कुत्तागाड़ी की तरह बच्चों और बस्तों की लदान लादने वाले रिक्शों के चालक भी जो यहाँ कभी, न कभी, कहीं न कहीं से टूट कर आए थे, इस रहस्यमयी दुनिया के उसूलों से खूब परिचित थे।

जब पुरानी चोट के निशान ढँकने को तमाम बस्तियाँ यहाँ बस रही थीं, तब से यहाँ जो बसे वे और जिन्होंने उन्हें बसाया, सभी आज अंकल कहलाते हैं। नई दुनिया, नई रिश्ते। ऐसे बनते हैं कोऑपरेटिव ! ऐसे बसते हैं लोग-बाग। उनकी नींद में ही कभी-कभार पितर आकर उन्हें याद दिला जाते हैं, तर्पण करने की, पितृदाय की। पर तर्पण करने को न पास में जलस्रोत है, न पीपल के वृक्ष न ही पिण्ड चुगने को कौवे !

‘‘ऊपर स्वर्गलोक में चित्रगुप्त जो है ना, उसने भी हमारे लोगों को माफी कर दिया है, उस पाप से !’’ गणेशन कहता है। ‘‘वो भी समझ गया है बस्ती का कायदा, दिल्ली का कायदा। यहाँ कोई किसी का नहीं। भगवान का भी नहीं, पितरों का भी नहीं।’’

बस्ती का एक कायदा और है। वह यह, कि यहाँ सारी सीढ़ियाँ किसी छोटे रास्ते से, छोटा रास्ता राजपथ से, और तमाम छोटे-छोटे नाले आखिर में एक बड़ी धारा में जा मिलेंगे। यहाँ के हर बाशिन्दे के पास जीने को हर रोज कई-कई जिन्दगियाँ होती हैं जिन्हें अलग- अलग तरह से निबाहना होता है। एक घर से डबलरोटी की दूकान के पास तक फैली गृहस्थी की जिन्दगी है, दूसरी फलों-छोले कुल्चों के ठेले के पास से गुजरते हुए निरीह राहगीर की, तीसरी पीसीओ बूथ से बस स्टॉप तक आते-जाते चिड़चिड़े ग्राहक की। फिर दफ्तर की बैल जैसी जिन्दगी तो है ही। शाम को इस आवत-जावत से बनी वे तमाम दुनियाएँ, थकी-थकाई एक ही बिन्दु पर वापस जा गिरती हैं। और इन सबको पीने वाला वह महोदधि कालोनी कहलाता है। यूँ जगर-मगर बिजली के लट्टुओं से जलती-बुझती ऐसी किसी कालोनी पर कोई नजर डाले, तो यह पूरा तन्त्र उसके परतदार भेद कतई जाहिर नहीं होंगे।

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