रिजवान ज़हीर उस्मान की याद / हेमन्त शेष

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जितनी बार मैं उदयपुर गया हूँ कवि नन्द चतुर्वेदी, निर्देशक भानु भारती, लेखक पूनम दैय्या, पीयूष दैया, चित्रकार परमानन्द चोयल, सुरेश शर्मा, शैल चोयल, लक्ष्मीलाल वर्मा, सुभाष मेहता, गोपाल मेहता (गोपजी), डॉ. गिरिजा व्यास, महेंद्र भानावत, डॉ. विश्वम्भर व्यास, खलील तनवीर, कैलाश जोशी, शहीद अजीज़, प्यारचंद साथी और वहां के कई-कई लोगों से भी बराबर मिलता रहा हूँ....पर आर. ज़ैड. उस्मान से मिलने उनके घर कभी जाना नहीं हुआ–‘भूत-महल’ नाम का कोई मोहल्ला या इलाका है, उदयपुर का जहाँ रिजवान ज़हीर उस्मान का मकान था- शायद पुश्तैनी, पर वह रात को बस सोने के लिए ही घर जाते, पूरे दिन-दिन भर और प्रायः हर शाम को आप उन्हें सूचना केंद्र के परिसर में बैठा देख सकते थे. सूचना केंद्र बगीचे में ही रिजवान ज़हीर उस्मान का शरणगाह आरामगाह सब कुछ था- जैसे उनका दूसरा घर हो! बेनागा हर शाम की पसंदीदा मधुशाला भी यही थी....उन्होंने नाटकों के लिखने सुनाने और मंचित किये जाने के लिए एक ऐसी जगह चुनी थी जो शहर के बीचोबीच थी... सब दोस्त वहां जमा होते जिन्हें उस्मान प्रायः हर सप्ताह अपना एक नया नाटक सुना देते क्यों कि उस्मान के लिखने की रफ़्तार हैरतअंगेज़ थी. वह घर-बाहर- बाज़ार- भीड़-भड़क्के शोर-शराबे घाट श्मशान राजदरबार बरात भवन बस स्टेंड रेलवे स्टेशन कहीं भी किसी भी जगह बैठ कर लिख सकते थे!

अनूठी मौलिकता और आधुनिकता के लिहाज़ से हर बार उनका लिखा और मंचित किया काम समझदार लोगों को हैरानी से भरी प्रसन्नता में डाल देता था, कम समझ या रूढ़ रुचि वाले नाट्य-निर्देशक उस्मान की परछाई तक से परहेज़ करते थे! उन्हें अंतिम क्षण तक एक गुप्र अफ़सोस था तो बस इस बात का कि उनके समूचे नाटक-कर्म को हमारे प्रान्त के आलोचकों ने महज 'एब्सर्ड थियटर' ही माना- उनके वैचारिक धरातल पर उतर कर सच्चे मूल्यांकन और गंभीर नाट्य-विश्लेषण की कोई कोशिश कभी की ही नहीं गयी....

इनके पहले प्रकाशित नाटक “नमस्कार! आज शुक्रवार है” से शुरू करूं तो उस्मान के नाटकों की सूची दूर तक जाएगी! मेरा अनुमान ये है कि किसी हिन्दी नाटककार ने आज तक इतनी बड़ी संख्या में अत्याधुनिक संवेदना के नाटक न तो लिखे, न मंचित किये होंगे! सन १९७० से सम्भवतया रिज़वान ज़हीर पूर्णकालिक तौर पर एक नाट्य-लेखक और रंग-निर्देशक बने थे और तब से खुद उस्मान नहीं जानते थे उन्होंने अपने जीवन में कुल कितने नाटक लिखे और उनमें से कितने कहाँ कहाँ किस किस के द्वारा कब कब मंचित हुए क्यों कि वह अक्सर अपने नाटकों की प्रति अपने पास नहीं रखते थे, न अपने किसी नाटक की किसी संस्था या व्यक्ति द्वारा किये गए मंचन की खबर- अपने पचासों बेहतरीन नाटकों की पाण्डुलिपियों की फोटोस्टेट प्रतियाँ कराने लायक पैसे भी उस्मान के पास कभी नहीं रहे क्यों कि वह एक जन्मजात मुफलिस कलाकर्मी थे! अनेक मौकों पर दोस्तों ने उन्हें और उनके परिवार को भूखों मरने से बचाया था या एक दफा असद जैदी जैसे दोस्त ने उनके गिरवी रखे मकान को ‘छुडवाने’ में, अंत में हालत ये हो गयी थी जैसा अशोक आत्रेय ने कहीं लिखा है- “उदयपुर के आधे घरों के दरवाज़े उस्मान के लिए बंद हो गए थे”. कई पक्के पुराने दोस्तों ने उनकी उधार मांगने और कभी पैसा वापस न करने की भयंकर कुख्यात आदत से आजिज़ आ कर उन से मिलना या फोन-संवाद ही बंद कर दिया था। पर मुझे ताज्जुब है हमेशा अभाव और विपन्नता में रहने वाले उस्मान के किसी नाटक में उनका कठिन और दयनीय वैयक्तिक जीवन प्रतिध्वनित नहीं हुआ है– जीवन भर अर्थाभाव के दुर्दिन झेलने वाले उस्मान की अदम्य रचनाशीलता, उनकी जन्मजात निर्धनता से कभी पराजित नहीं हुई- उन्हें अगर धोखा दिया तो उनकी किडनियों ने, जो नियमित तौर पर पी गयी सस्ती दारू से नष्ट हुईं और अंत में उस्मान को खुदा के घर खींच ले गयी- हालाँकि वह नमाज़ अदा करने वह शायद ही कभी मस्जिद गए हों!

मुझे संतोष है कि जो ब्रोशर एक वक़्त मैंने सम्पादित किया उसमें रिजवान ज़हीर उस्मान के मंचित नाटकों की सूची मैं किसी तरह बना पाया- जो राजस्थान में आधुनिक रंगमंच के इतिहास के शोधार्थियों के लिए इस प्रकार है- यकीन मानिए ये सूची मुकम्मल नहीं है, और कई नाटक भी लापरवाह और अपने लिखे के प्रति लगभग वीतरागी उस्मान की कलम से निकले होंगे जिनका आज कोई सुराग ही नहीं-

• अरण्यरोदन

• मुक्ति-मार्ग

• मनुष्य

• नमस्कार! आज शुक्रवार है

• लोमड़ियाँ

• यार तुम पानी क्यों नहीं बेचते?

• गुलाब के फूल सब के लिए नहीं होते

• मेरा नाम मामा है

• महान सभ्यताओं का पतन बाहरी आक्रमणों से नहीं होता

• आखिरी दिन की तलाश

• इतिहास

• हमारा प्यारा खलनायक

• आखेट-कथा

• आदमी नालायक होता है

• आज बहुत गर्मी है- दोस्त!

• कल्पना-पिशाच

• अलिफ़-लैला

• गुप्त-अध्याय

• पंडित मोटेराम

• मक्कार छोकरों का मनोरंजन

• यहाँ एक जंगल था, श्रीमान!

• मरने वालों का एकांत

• देश की चिंता करने वाले मछलीमार

• मछली का घोंसला

• नाटक-नाटक

• बेक्टीरिया घूमता है

• आपका प्यारा टौमी

• दादा धमाल

• अंधेर-नगरी

• तीन-तिलंगे

• कुड़ी अनार दी

• नृसिंह अवतार

• सुन लड़की, दबे पाँव आते हैं सभी मौसम

• आजादी का एक तमाशा

• राम आ। आम ला।

• पापा! बगुला एक टांग पर क्यों खड़ा है?

• धूल-धूसरित लोग

• अचम्भा-नगर प्रेमकथा-परियोजना

• अलबेला जासूस -नटखट लाश

• अपने अपने महाभारत

• वनदेवी की अमर-कथा

• रावण -वध

• असली चिराग

• वहां जाने से पहले

• कुत्ते की दम

• रहमदिल सौदागर

• मनहूस घर के स्वामी

• अमूर्त

• हमारा-प्यारा-दिन

• जंगल का रोना

• पैरोडी- ८३


ताज्जुब ये भी है इन में से अधिकांश नाटक खुद उस्मान द्वारा निर्देशित और मंचित किये गए। उन्हें नाटक प्रदर्शन के लिए बहुत कम स्पौंसर मिले। उक्त सूची में से कुछेक नाटक यहाँ-वहां प्रकाशित हैं किन्तु अधिकांश अप्रकाशित! उस्मान की बहुतेरी अप्रकाशित कहानियों और कविताओं का भी यही हाल है।

दो दिन, दस और ग्यारह नवम्बर १९९४ को उस्मान ने चालीस दिन के अपने जयपुर में जवाहर कला केंद्र द्वारा संयोजित वर्कशौप के बाद अपना जो सशक्त नाटक मंचित किया उसका शीर्षक था - "अनहोनियाँ"। तब मैं वहीं कार्यरत था और केंद्र की एक प्रमुख नाट्य-गतिविधि थी- 'स्वग्रही-नाट्य प्रस्तुतियों' का प्रदर्शन! लगभग नए और युवा कलाकारों को लेकर तैयार इस नाटक की प्रस्तुति पर इन पंक्तियों के लेखक ने जो ब्रोशर तैयार किया था उसमें से अपनी लिखी संक्षिप्त टिप्पणी आज इतने बरसों बाद साझा कर रहा हूँ- क्या पता किस पाठक- अनुसंधानकर्ता के काम की हो, मेरी वह टिप्पणी:

"रिजवान ज़हीर उस्मान के रचना-कर्म से मेरा परिचय बरसों पुराना है, पर उनके नाटक पर कुछ लिखना पड़े, इस बात का अवसर आज पहली बार ही आया है! मन में थोड़ा संशय भी शायद इसी से है। पर तुरंत उनके नाटक पर कुछ कहना है, इसलिए "अनहोनियाँ" की परिक्रमा, बाहर-ही- बाहर से!

"अनहोनियाँ" का आलेख जब पहली बार रचनाकार से सुना, मुझे लगा, इस नाटक की एक विशेषता तो यही है कि यह नाटकीयता से भरपूर होते हुए भी एक अच्छी लम्बी कविता ही की तरह गंभीर, अर्थबहुल रोचक और विस्तृत है- अपने आलेख या कलेवर में नहीं, अपनी अर्थान्विति में। एक ऐसा नाटक- जो रिजवान ज़हीर उस्मान के पुराने नाट्य-तेवर का हिस्सा होते हुए भी कुछ हद तक अपने रंग-प्रयोजनों में उनके पूर्ववर्ती नाटकों से भिन्न है। ऐसा बिलकुल नहीं कि रिजवान ज़हीर उस्मान के पुराने नाटकों में अनहोनियाँ घटित हुई ही नहीं, पर वे सारी अनहोनियाँ उनके नाटकों में किसी दूसरे एक केन्द्रीय-विचार या कथ्य के लिए एक माध्यम, एक घटना भर थीं। इस नाटक में रिजवान ज़हीर उस्मान ने शायद पहली बार "अनहोनियों" को अनहोनियों की तरह चित्रित किया है, जो 'कथ्य' के बतौर मुझे उनका एक महत्वपूर्ण प्रस्थान लग रहा है।

इस नाटक के बारे में जो दूसरी बात जिस पर उंगली रखना ज़रूरी है वह ये कि "अनहोनियाँ" नाटक का रंगशिल्प ऐसे बहुत सारे सन्दर्भों को ले कर बुना गया है जो आम तौर पर अन्य- कलाओं या विज्ञानों से ताल्लुक रखते हैं। मसलन- मानव-नियति, पुनर्जन्म, मृत्यु जैसी अवधारणाएं दर्शन या परा-मनोविज्ञान से सम्बद्ध रही हैं, पर एक आधुनिक नाटक में इन चीज़ों का क्रियाशील और नाटकीय उपयोग, 'अनहोनियाँ' की अपनी विशेषता है!

सबसे अंतिम पर सब से उल्लेखनीय बात यह भी कि अपने नाट्य-मंतव्य में रिजवान ज़हीर उस्मान की यह रचना वैसी सीधी-सपाट नहीं, जो हिन्दी के इधर के बहुत से नाटकों की संक्रामक-बीमारी है!

एक अच्छी कला सदैव प्रेक्षक को बेहतरीन ढंग से सोचने और अपनी अवरुद्ध रूढ़ रुचियों को बदलने के विनम्र आग्रह के साथ ही प्रस्तुत होती है, रिजवान ज़हीर उस्मान के "अनहोनियाँ" जैसे नाटक ही शायद कभी हमारे लुटे-पिटे सौन्दर्य बोध में बदलाव ला सकेंगे!"

उस्मान अपने नाटक के बारे में ब्रोशर में कुछ भी लिखने को तैयार न थे, पर जब उन्हें ये बतलाया गया कि ब्रोशर का एक पन्ना 'लेखकीय-निर्देशकीय वक्तव्य' के लिए खाली छोड़ा गया है; तब उस्मान ने उस पन्ने पर उसका संक्षिप्त कथानक कुछ यों लिखा-

"....तीन दोस्त थे। घर-बार छोड़ कर दुनिया बदलने चले। रास्ते में मिला एक स्वतंत्रता सेनानी। उसने बताया कि यह यात्रा कठिन है और अन्धकार से भरपूर है। एक दिन एक घटना घटी जिससे बचने के लिए उन्होंने देवता के यहाँ शरण ली। एक दोस्त ने उसकी बिल्ली को पीटा और बदले में मिला उसे- मृत्युदंड! मरे हुए दोस्त के अंतिम-संस्कार पर देवता ने बचे हुए दो दोस्तों के सामने रखीं कुछ नयी शर्तें- दुनिया बदलने को चले दोस्त, किस तरह एक एक कर नियति का शिकार हो जाएंगे, यह उन्हें नहीं मालूम था। ...

कथा-सार अधूरा है। कुछ हिस्सा मंच पर खुलेगा। यह एक सीधी सी कहानी है। इसलिए पूरी कथा नहीं बताऊंगा। पूरी कथा बता देता और लगता है नाटक अधूरा है तब क्या उत्तर देता दर्शक को? नाट्यप्रेमी, दर्शक और बुद्धिजीवी भी हों, तो अधिक दायित्व का निर्वाह करना पड़ता है! ....नाट्य-लेखन और निर्देशन के दौरान प्रतीकों और बिम्बों का आना-जाना लगा रहा। विख्यात कथाकार मित्र अशोक आत्रेय ने नाटक पढ़ कर सुझाया- कि 'मंच-सज्जा किसी भी मिथकीय प्रभाव से मुक्त लगे, और समीपवर्ती भी रहे...। 'इस तरह मंच-कल्पना को साधारण होना ही था। वेशभूषा को भी, यही नहीं रूप-सज्जा भी, बस सादगी के साथ।"

“जयपुर सदैव मेरे लिए नया रहा है। मैं भी यहाँ इस नगर के लिए नया ही हूँ। मेरे साहित्यकार- बुद्धिजीवी, रंगकर्मी मित्रों के सुझाव, मार्गदर्शन मेरे लिए सुखद अनुभव है। गो कि मेरे कुछ अति-उत्साही मित्र, मेरे नाटकों को" एब्सर्ड-नाटक' के रूप में ही स्वीकार करने का अनुराग रखते हैं! चिंतन के श्रम से बचना भी एक कला है! ...."

" यह प्रस्तुति जयपुर के तमाम रंग-दर्शकों की ओर से बाढ़ थाने के सोइमा गाँव की चालीस वर्षीया हरिजन महिला- चमेली महतो को समर्पित है जिसे 'डायन' बताया गया, पीटा गया, गर्म सलाखों से दागा गया और नंगा कर के पूरे गाँव में घुमाया गया। शायद इस अमानवीय कृत्य से हुई वेदना तक, हमारी संवेदना पहुँच सके!...."

उस्मान ने इस ब्रोशर में इस नाटक पर बाकी जो कुछ लिखा वह वक्तव्य भी दिलचस्प है, किन्तु उस से पहले इस नाट्य प्रस्तुति के बिलकुल नए अभिनेताओं का विवरण दे दूं - मंच पर थे- बिलावड़ी : बेबी शेफाली भाटिया/ व्यक्ति-1/2/3/ :क्रमशः: अनुकल्प गोस्वामी, अभिषेक गोस्वामी/ राजकुमार खत्री/ ठिगना आदमी : राजेंद्र कुमार शर्मा/ प्याऊ वाला: कुलदीप शर्मा/ देवता: दिलीप भट्ट/ स्वागतकर्ता: विकास रावत/ कुतिया झमकू: तनूजा मखीजा/ छठी इन्द्रिय: मास्टर अमित शर्मा कामना: मनीषा सुरोलिया/ विलाप करती स्त्री: रेनू सिंह/ बन्दर: दीपक पारीक/ बिल्लियाँ: 8 छोटे 2 बच्चे.....

समय के उस पुराने पुल के नीचे से बहुत सा पानी बह गया।

ये कलाकार अब कहाँ हैं किस हालत में, कौन जानता है? आगे चल कर इन में से कुछ बहुत मकबूल भी हुए, पर कुछ गुमनामी के अँधेरे में नि:शब्द खो गए- ठीक उस रिजवान ज़हीर उस्मान की तरह ही......जिन्होंने इन बाल/किशोर कलाकारों को कभी मंच दिया था....

आखिर क्यों उस्मान जैसी प्रतिभा को को सही वक़्त पर सही समीक्षक नहीं मिले? ये एक प्रश्न भी है और एक तरह की शिकायत भी।

ये बात हमारे सांस्कृतिक परिदृश्य की विपन्नता की उतनी सूचक नहीं, जितनी हमारी इस बेईमान समीक्षकीय आदत की, जो अपने समय की हर अग्रगामी आधुनिकता, नवाचार और साहसिकता के प्रति सदा एक ईर्श्यमिश्रित संदेह-भाव रखती आयी है और प्रयोग के प्रति घोर अनुत्सुक भाव से हर बार कुछ मूर्खता भरे सवालिया भाव अपने बदरंग चेहरे पर ले आती है।

उस्मान सही अर्थों में एक आधुनिक/उत्तर-आधुनिक रंगकर्मी थे, जिनकी नाट्य-दृष्टि अगर आधुनिक साहित्य, खास तौर पर कविताओं से प्रेरणा लेती थी तो बहुधा उसका विसर्जन राजनीति के ज्वलंत सवालों से टकराहट में भी होता था। उस्मान राजनैतिक मंतव्यों के नाट्य शिल्पी थे और उनका पक्ष स्पष्ट– कि नाटक महज़ मनोरंजन की विधा नहीं, उसका एक सन्देश भी है, मानव संवेदना के परिष्कार के पक्ष में एक साफ़ सुथरा उद्देश्य भी।

मनुष्य की नियति और अवस्थिति की वह बड़े गहरी समझ वाले निर्देशक और लेखक थे। विडम्बना, असमानता, हिंसा, हत्या, शोषण, लालच, वासना, ईर्ष्या, पूंजीवाद, संहार, युद्ध उनके लिए सिर्फ शब्द नहीं थे- इन सब के नाट्य-प्रतीक उस्मान ने अपने नाटकों में इतनी भिन्नता से रचे कि देख कर ताज्जुब में पड़ जाना होता है। इतिहास, परंपरा और संस्कृति पर उनकी स्वयं की एक अंतर्दृष्टि थी और एक अल्पसंख्यक होते हुए भी उनका सम्पूर्ण लेखन हर तरह की सीमित साम्प्रदायिकता, ओछे धार्मिक-वैमनस्य और सामजिक-प्रतिहिंसा के कीटाणुओं से पूरी तरह मुक्त था।

नाटक बनाने सोचने लिखने और मंच पर लाने की उनकी एक खास 'स्टाइल' थी, और उनकी शैली की नक़ल लगभग असंभव। उनके नाट्य-प्रयोग और उनके नाटकों के अनेकानेक दृश्यबंध ही नहीं, पात्र और उनके नाम तक उस्मान के अपने निहायत मौलिक हस्ताक्षरों की अप्रतिमता का इज़हार करते जान पड़ते हैं। तोता, कोरस, आद, हक्का, पैसे वाली पार्टी, लेबर, ईगो, योद्धा, दादाजान, मामा, ........आदि उस्मान के पात्रों में शुमार हैं। हर पात्र की अपनी अंतर्कथा और चरित्र है- हर पात्र नाटक में ज़रूरी पात्र है और कथानक में उसकी अपनी जगह अप्रतिम।

मुझे याद है इस सम्पादक ने "कला-प्रयोजन" में समय-समय पर उस्मान के शायद दो-तीन सम्पूर्ण नाटक, लेख, कुछेक कहानियां और रचना-प्रक्रिया या नाटक की कला पर लेखकीय-वक्तव्य प्रकाशित किये थे। "अनहोनियाँ" भी "कला-प्रयोजन" में पहली बार छपा, और नाटक "इतिहास" भी। उस्मान का सम्पूर्ण रंगमंच यथास्थितिवाद से ऊबे और असंतुष्ट सर्जनात्मक ऊर्जा से भरे मन का नाट्य-कर्म है और एक नवाचारी आदमी का अस्वीकृति में उठा हाथ!

"इतिहास" नाटक अपने नाट्य-प्रयोजन में एक जटिल रचना है- इसके प्रमुख पात्र दो हैं- ईगो और लेबर। नाटक में ईगो के गुलाम 'लेबर' की एक विधवा प्रेमिका भी है, ईगो के दिवंगत दादा हैं, एक अत्यंत विशालकाय लम्बा सांप और 'कोरस' आदि भी इस के दूसरे जीवंत पात्र हैं ....पूरे नाटक में ईगो का संश्लिष्ट चरित्र, उसकी झख, उसका मनोविज्ञान, अतीत के प्रति उसका डरपोक नजरिया, वर्तमान के प्रति उसकी हिंसक मनोवृत्ति, उसके अंतर्द्वंद्व, उसकी वासना, उसका शोषक-रूप, सब समकालीन हिंदी-नाटक के ठहरे हुए ताल में "ईगो" जैसे फेंका गया पत्थर था!

मुझे याद है- "इतिहास" नाटक का मंचन भी जवाहर कला केंद्र, जयपुर में ही पहली बार हुआ था और वह नाटक भी उस्मान की अनूठी नाट्य-शैली का एक प्रतिनिधि प्रदर्शन था। पर विडंबना देखें कि पेशेवर संस्थानों, सड़ियल- सांस्कृतिक संस्थाओं, नवधनाढ्य लोगों, प्रचार के लिए किसी भी सीमा तक चली जाती कुछ बेतरह महत्वाकांक्षी औरतों से, हर सप्ताह रिश्वत के मोटे-मोटे लिफाफे उदरस्थ करने वाले हमारे 'ईमानदार' अखबारनवीसियों ने इस प्रदर्शन का भी कोई खास नोटिस ही नहीं लिया! (कुछ साल पहले तक दैनिक अखबारों के सांस्कृतिक संवाददाताओं की न्योछावर दारू या कोई बड़ी सी पार्टी हुआ करती थी, अब आज अगर आप कोई खबर अपने कामकाज की छपवाना चाहें तो अंगूर की बेटी का आकर्षण बिलकुल अपर्याप्त है- एडवांस में 'महात्मा गाँधी' का दर्शन पाए बिना कुछ 'बड़े' अखबारों के तथाकथित सम्वाददातानुमा समीक्षकों के कान पर जूँ तक नहीं रेंगती! निकृष्ट समीक्षकों की खाल गेंडे और मगरमच्छ दोनों की खालों से भी ज्यादा अभेद्य हुआ करती है!) जिस जयपुर-रंगमंच की समझ और संवेदनशीलता को ले कर हमारे कुछ स्वनामधन्य स्थानीय नाट्यकर्मी व्यर्थ का दंभ भरा करते हैं, उस्मान की जयपुर के उसी मंच पर ये पहली उपेक्षा नहीं थी....

सुरेश गोस्वामी जो जयपुर रंगमंच के एक सुपरिचित नाम हैं, ने मेरी एक पोस्ट पर टिप्पणी करते लिखा है- "मेरा यह मानना है कि उस्मान जैसी विलक्षण सोच वाले लेखक निर्देशक रंगकर्मी बिरले ही होते हैं। अधिकांश रंगकर्मी और समीक्षक एक बंधे बँधाए प्रारूप में ही रंगे बसे हैं। उस्मान का नज़रिया विद्रोह को प्रदर्शित करता था, उस प्रारूप से, और इसीलिए उसको, उसकी सोच को समझना बहुत कठिन था। सुविधाभोगी और आम ढर्रे में बंधे लोगों की स्वीकार्यता इसीलिए नहीं थी, उस्मान के मामले में। यही कारण लगा मुझे उसे सही वक़्त पर सही समीक्षक न मिलने के पीछे। शायद अधिकांश समीक्षकों को भी उसकी अनूठी और बेढब चाल समझने में कठिनाई हुई होगी। हैं। उस्मान का नज़रिया विद्रोह को प्रदर्शित करता था, उस प्रारूप से, और इसीलिए उसको, उसकी सोच को समझना बहुत कठिन था। सुविधाभोगी और आम ढर्रे में बंधे लोगों की स्वीकार्यता इसीलिए नहीं थी, उस्मान के मामले में। यही कारण लगा मुझे उसे सही वक़्त पर सही समीक्षक न मिलने के पीछे। शायद अधिकांश समीक्षकों को भी उसकी अनूठी और बेढब चाल समझने में कठिनाई हुई होगी।"

सुरेश जी का कहना कई और अनुषंग बातों पर विचार करने का अवकाश खोलता है। क्या एक सर्जनात्मक लेखक को "एक बंधे बँधाए प्रारूप में ही रंगे बसे अधिकांश रंगकर्मीगण और समीक्षकों" की अभिरुचि के आगे अपनी प्रतिभा का पल्ला झाड़ कर उनके स्तर पर कुछ और नीचे की पायदान पर उतर आना चाहिए या बिना अपनी कला को नीचे गिराए ऐसा रचना चाहिए जो भले उसकी "अनूठी और बेढब चाल" हो, पर हो कुछ नया, अपूर्वमेय, मौलिक, पूर्वतः अनदेखा या अनसुना?

उस्मान के लिखे नाटक न दर्शक को 'आतंकित' न मुदित करने की नीयत से लिखे गए, न नाट्य-समीक्षक को रिझाने के लिए उसकी रुचियों और संभावित शाबाशियों को ध्यान में रख कर! रिजवान ज़हीर उस्मान अपने सोच की अपनी ही स्वयंभू दुनिया रचने वाले एक ऐसे स्वायत्त्त-चित्त रचनाकार थे, जिनके लेखन पर किसी दर्शक या आलोचक की प्रकटतः दूर-दूर तक कोई छाया न थी, वह इस अर्थ में एक ऐसे लेखक थे- जिनका न कोई पूर्वज था, और न वारिस है!

अगर विट और विचार, कल्पना फेंटेसी और यथार्थ, तनाव और हास्य, पात्रों की प्रत्युत्पन्नमति और परेशानी, अनौपचारिक भाषा और जीवन के प्रश्न, कवितात्मक ढंग से नए-नये कथानकों में पूरी मौलिकता से गूंथ दिए जाएं कि इनमें से कोई चीज़’ अलग-थलग’ या ‘इन्कौग्रुएंट’ दिखलाई न पड़े तो रिजवान ज़हीर उस्मान के नाटक बनेंगे।

पर ये कहना भी एक हद दर्जे का सरलीकरण होगा।

पात्रों, बिम्बों और प्रतीकों की जटिल संरचना को समेटती रिजवान ज़हीर उस्मान की कला अपनी संश्लिष्टता में अपने नाट्य-मंतव्यों में कुछ और आगे जाती है। अगली कुछ पोस्ट्स मे मैं इस आधुनिक नाट्य-शिल्पी की रचनाओं के बहाने उनके नाट्य-मंतव्यों की अप्रतिमता के बारे में लिखूंगा!

नाटक गद्य की विधा है, किन्तु उसके चाक्षुष-सौन्दर्य को, नाट्य-शब्दों में छिपे 'दृश्यों' को, उस्मान ने अपने लगभग पूरे लेखन में आधुनिक कविता-भाषा का कुछ ऐसा बाना पहनाया, जिसका भारतीय नाटक-लेखन में कोई समानांतर उदाहरण नहीं!

उस्मान का गद्य, नाटकीय, बेढब और विचित्र, किन्तु मौलिक और प्रभावशाली है- उस में मनुष्य-समाज के गंभीरतर सच बड़े सीधे-सरल, पर 'थियेट्रिकल', कलात्मक और सुझावात्मक तरीके से उठाये गए हैं....

राजस्थान साहित्य अकादमी के अर्थ-अनुदान से प्रकाशित उस्मान के तीन नाटकों की किताब 'कल्पना-पिशाच' (१९९१) की भूमिका में उस्मान के गद्य-लेखन का एक 'रेंडम सेम्पल:

"कहानी, कविता,नाटक, लिखते पच्चीस साल गुज़र गए। इन पच्चीस सालों में मैंने अपने आप को और अपने अभागे देश को टूटते, बिखरते, रोते, दंगों में मरते, आतंकवाद, भ्रष्टाचार और राजनीति की अश्लील-भंगिमाएं दर्शाते सेंकडों बार देखा! सेंकड़ों बंदरों के पास उस्तरे थे, और नेकियों की दुआ करने वाला यह उपमहाद्वीप सो रहा था! यहाँ का भाईचारा नष्ट हो रहा था। यहाँ की महान संस्कृति का विलाप करने वालों का धैर्य ख़त्म हो चुका था। हिंसा के माध्यम से स्वर्ग को भोगने वाले चरित्र नित नए मुखौटे लगा कर मसीहा बने घूम रहे थे। नाटक कहानी कविता में झुंझलाहट ने प्रवेश कर लिया था। घोर असहिष्णुता के कीटाणु हवाओं में विष घोल रहे थे। समझदार लोग भयभीत थे, बोलचाल की संस्कृति मौन होती जा रही थी। मौन का पतझड़ था। आपसी विश्वास को पाला मार गया था। विचार अपाहिज हो रहे थे। अविश्वास का अन्धकार बढ़ रहा था। पाठकों ने साहित्य से मुंह फेर लिया था। साहित्य ने यथार्थ के साथ दगाबाजी करना शुरू कर दिया था। ज़मीन के भाव आकाश को छू रहे थे। लोग अपनी ही धरती से निर्वासित हो कर यूं भटक रहे थे जैसे भूकंप ने उनकी बस्ती को उजाड़ डाला हो। चिड़िया घोंसले से बड़ी हो गई थी। धान की मंडियों और कंट्रोल की दुकानों पर ताले लटक रहे थे। किरोसिन के लिए कतार लगाये मासूम बच्चे थे और जंगल काटने का काम चालू था। रिश्तों में दरार आ गयी थी। माँ, बेटों से खिन्न थी। पिता अस्तित्वहीन होता जा रहा था। बहनें, भाइयों की तरफ आशा भरी नज़रों से देख रहीं थीं। भाई, दहेज़ के लिए दूसरों की बहनों को जला रहे थे। सभी लोग क्रांति के इंतज़ार में थे। किसान बारिश का इंतज़ार कर रहा था। मासूम जुबानें कुरआन पढ़ रहीं थीं। दरख़्त ठूंठ में बदल रहा था। चिड़िया उदास थी। यह एक ही दिन का कारनामा नहीं था। देश ने लोगों को खूब समय दिया। खेल-भावना छोड़ कर आदमी ने शरीर को फौलाद का बनाना चाहा। कम भत्ते और दूध के अभाव में पहलवान बीड़ियाँ पीने लगे। ......."

रिजवान ज़हीर उस्मान के नाटकों में प्रायः उपस्थित हिंसा और ‘अमानवीयता’ के बारे में हमारे कुछ समीक्षकों (जैसे स्व. मदनमोहन माथुर) आदि ने किसी आलेख में कुछ ‘आलोचनात्मक’ तेवर से उस्मान के नाट्य-जगत में आई ‘हिंसा’ पर कभी सवाल उठाया था।

जितना संभव हुआ है, मैंने भी उस्मान को पढ़ा है और उसके कुछ प्रदर्शनों को देखा है।

ये बात बिलकुल सही है कि उस्मान के कई नाटकों में खून-खराबे, वध, हिंसा, हत्या, आदि के दृश्य हैं और हत्या के उपकरण- चाकू, गदा, खंजर, कुल्हाडी, हंटर, तलवार, बंदूक, तोप, हेंडग्रेनेड, रिवॉल्वर, टाइम बम कार्बाइन, एके-47, पिस्तौलें, बम आदि भी और प्राचीन भारतीय ‘नाट्यशास्त्र’ रंगमंच पर ऐसी विकृत-अवस्थाओं का प्रदर्शन खास तौर पर वध-चित्रण को ‘त्याज्य’ ही मानता आया है।

किन्तु भरत मुनि का अपेक्षाकृत संयत संतुलित सौमनस्य भरा तत्कालीन समाज और आज का हमारा समाज क्या हर तरह से भिन्न नहीं है? भरत मुनि के नाट्यशास्त्र के इतने सालों बाद क्या आधुनिक-जीवन के यथार्थ को व्यक्त करने के लिए हिंसा भी आज नए थियेटर में कोई अछूत-सन्दर्भ रह सकता है?

क्या आज के समाज के रंगमंच पर वास्तविक जीवन में हिंसा के कई स्पष्ट और प्रछन्न रूप हमें रोज़-रोज़ तांडव करते नहीं दिख रहे? क्या समकालीन जीवन-शैली की स्वार्थपरकता, आपाधापी, गला-काट प्रतियोगिता, टांग-खिंचाई, ओछी-प्रतिस्पर्धा, आदि हमें दिखलाई नहीं दे रही?

अगर आज का हमारा समाज हिंसक, घोर लालची, स्वार्थी, और असहिष्णु है, तो उस्मान के नाटकों में की गयी ‘हिंसा’ भी जायज़ है- यहाँ तक कि उसका अतिरेक भी, जो बार-बार हमारे सामने नए सौन्दर्यशास्त्रीय मानक गढ़ने की अनिवार्यता की मांग करता है। हम आज अपने आसपास युद्धों में झोंके जा रहे हजारों लाखों मनुष्यों का संहार प्रत्यक्ष देख रहे हैं और हर दिन हत्या की घिनौनी वारदातों का गवाह बन रहे हैं तब नाट्य-प्रतीक के बतौर मंच पर पात्रों के बीच हत्या के चित्रण में कौन सी अनैतिक या अस्वाभाविक बात इस ‘अहिंसक’ नाटककार ने कर दी?

हिंसा इनके यहाँ किसी स्थिति या तनाव या व्यक्ति के रूप में किसी प्रवृत्ति के समूल खात्मे का प्रतीक है और आदमी की मूल आदिम-वृत्ति का स्मरण भी। यह कुछ ऐसा संकेत भी हो सकता है कि हम भले ही अपने आपको कितना भी सभ्य और सुसंकृत मानें, मूलतः आज भी हम अंतरात्मा और अंतर-मन से औरंग-उटांग ही हैं। हिंसा का जंगलीपन यहाँ चरित्रों के बीच हर तरह की 'प्रतिस्पर्धा' को जड़ से ख़त्म कर देने का माध्यम है। हत्या अगर मनुष्य और मनुष्य के बीच प्रतिकार का तरीका है या वह किसी भी किस्म का बदला या प्रतिशोध है तो पात्र की सहनशक्ति की आखिरी सीमा का संकेत भी। मुहावरे के अर्थ में ये बांसुरी को ख़त्म करने के लिए बांस को ही रास्ते से हटा देने की जुगत है। हिंसा उनके यहाँ एक सशक्त प्रतीक था- ज़ुल्म, त्रासदी और अत्याचार का सदा उपस्थित एक बिम्ब!

उस्मान के नाटकों का समाज कीड़ों की तरह किलबिलाते हुए राजनैतिक-ठगों, मक्कार और चोर-उचक्के राजनेताओं, किसी भी जुगत से सत्ता हथियाने वाले और उस से अनंत-काल तक चिपके रहने की कला के उस्ताद जनप्रतिनिधियों का समाज है- उसमें बेवजह पिटते हुए मजलूमों का अनसुना अरण्य-रोदन है तो दूसरी तरफ एक उदास औरत की अनसुनी चीख भी, एक मासूम बचपन की सिसकियाँ हैं तो एक सीधे सच्चे बेक़सूर निरीह आदिवासी पर हो रहे लोमहर्षक ज़ुल्मों का ब्यौरा भी....उस्मान हमारे समाज के इसी भयानक बदसूरत चेहरे की कुरूपता को बार बार हर बार नए प्रतीकों और बिम्बों के साथ चित्रित करते नाटककार थे। उनके कई नाटक शोषण, गैर-बराबरी, सामाजिक-भेदभाव और विषमता पर प्रहार करते हैं।

उस्मान की कल्पनाशीलता के स्रोत– बहुतेरे हैं, अखबार, टेलीवीज़न, पत्रिकाएँ, कवितायेँ, कहानियां, आसपास के लोग और उनका जीवन। पुराना पढ़ा लिखा अगड़म बगड़म उस्मान के निकट सब काम का है- चाहे वो वेताल पच्चीसी हो या हातिमताई या अलिफ़-लैला पंचतंत्र, रामायण, महाभारत, कथा सरित्सागर, या किस्सा तोता मैना ....एक बातचीत में उस्मान ने कहा था- खास तौर पर किशोरावस्था में वह घटिया जासूसी उपन्यास-लेखकों विनोद-हमीद सीरीज़ के लेखक ओमप्रकाश शर्मा, वेदप्रकाश कम्बोज, इब्ने सफी, विमल -सीरीज के सुरेन्द्र मोहन पाठक, डाकुओं के जीवन-चरित के लेखक मनमोहन कुमार 'तमन्ना' और रामकुमार भ्रमर और अच्छे जासूसी लेखक बाबू हरिकृष्ण जौहर देवकीनंदन खत्री कानन डायल, अगाथा क्रिस्टी, पैरी मैसन आदि का छपा एक-एक शब्द पढ़ चुके थे।

उनके नाटकों में जासूसी उपन्यासों की सी घटना-प्रधानता, उन में आयी हैरतअंगेज़ वाकयों की आकस्मिकता और हत्याओं आदि के प्रसंग सब किशोरावस्था में चाटे गए घटिया उपन्यासों की अचेतन देन हैं, जिसका कलात्मक रूपांतरण उस्मान ने आधुनिक भाषा-शैली में अपने मंच के लिए किया।

उस्मान ने किसी स्कूल कॉलेज में कही कभी कोई औपचारिक शिक्षा ली हो पता नहीं... पर वह चर्चित किताबें, जुगाड़ कर ज़रूर पढ़ लेते थे।

बिना मदरसे क़ी सूरत देखे भी वह आज के नब्बे-फी-सदी नाटककारों से बेहतर नाट्य-लेखक थे। उस्मान ने कुछ बड़े और पुरस्कृत हिन्दी नाटककारों की पिटी पिटाई तर्ज़ पर कभी परम्परागत कथानकों और चरित्रों के नाट्य रूपांतरण का जुगाड़ नहीं किया, न कभी अपने नाटक को महाभारत आदि के पुरातन-प्रतीकों पर खड़ा किया, वह बिलकुल आज और अभी की कथावस्तु और पात्रों के लेखक-निर्देशक थे। उनका समूचा नाट्यकर्म एक अग्रगामी आधुनिक संचेतना से लैस है।


अपने लेखन और अपने आप के बारे में उस्मान ने जयपुर रंगमंच की प्रतिभाशाली अभिनेत्री सालेहा गाज़ी से एक बातचीत में कहा था-

"मेरी पैदाइश 12 अगस्त 1948 को खानपुरा मंदसौर में हुई। कुछ समय बाद हम उदयपुर आ गये। वहीं मेरे माता-पिता और हम सात भाई तीन बहनों का परिवार बस गया। घर के पास ही एक स्कूल में हम पढ़ने-लिखने जाने लगे। ये तकरीबन 50 बरस पुरानी बात है, बचपन में एक बार में बहुत बीमार पड़ा। अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा। इलाज के लिए मुझे वहां कई दिन रहना पड़ा। उस दौरान वक्त गुजारने के लिए नर्स ने मुझे कुछ किताबें दीं। जल्दी ही मैंने सारी किताबें पढ़ लीं। नर्स ने कागज-कलम देकर कहा, अब और किताबें मेरे पास नहीं हैं, तुम एक काम करो – जो पढ़ा है, उसे लिखो। मैंने कलम उठायी और कहानी में ढाल दिया। वो कहानी उस वक्त की मशहूर बाल पत्रिका पराग में छपी। लिखने के प्रति झुकाव का वो पहला बीज था। फिर सिलसिला चल निकला, जो आज तक जारी है।

पिता (मेरे वालिद साहब) ट्रकों के जरिये माल ढुलाई का काम करते थे। बड़ा होने पर मैं भी उनके साथ इस काम में लग गया। इस सिलसिले में बंगलौर, मुंबई, सूरत, बड़ौदा हिंदुस्तान भर में कई जगह गया, लेकिन दिल हमेशा कागज-कलम में ही अटका रहा। वक्त के साथ मेरा लिखना जारी रहा। जिंदगी को देखा, सोचा, समझा… कहानी, कविताओं, अफसानों में ढाला। धीरे-धीरे रुझान नाटकों की ओर ज्यादा हुआ। लेखन के 48 साल के सफर में करीब 75-80 नाटक लिखे, जिनके 100 से भी ज्यादा शो हुए। मैंने काम बतौर अभिनेता ही किया, लेकिन कुछ समय के लिए उदयपुर की सेवा मंदिर संस्था में कार्यक्रम अघिकारी रहा। उस दौरान गांव-गांव जाकर बहुत से नाटक किये।

मेरे नाटक जीवन की त्रासदी, शोषण, बिखराव को रेखांकित करते हैं, साथ ही कुछ नाटक राजनीतिक परिदृश्य के इर्द-गिर्द भी घूमते हैं। जब नाटक को जिंदगी का फलसफा और मकसद समझा वो दौर बड़ा सादा था, उस वक्त आज के दौर की तरह ऊंची उड़ान नहीं थी। आर्ट के सबब बहैसियत फनकार शुरू किया था।

नाटक और नाटक के मकसद का सवाल एक मुश्किल सवाल है, जिसका मुनासिब सा जवाब नामुमकिन है। यूं तो संस्कृत साहित्य में नाटक को पंचम वेद कहा गया है, इतिहास, ज्ञान शिल्प, कला, अभिनय व कथा इसमें सब कुछ है, इसीलिए नाटक वांगमय है। मुझे भी लगता है नाटक जज्बातों की पेशकश है। जिसमें खयालात, परेशानियां, पैगाम, सोज व दिल बहलाव… सारे पहलू मौजूद हैं। मेरे अंतर्मन में भी विभाजन होता है, जहां चिंतन है। ये हमारा बनाया निजाम है, यहां बहुत कुछ होता है, जो कचोटता है। अलगाव, बिखराव वाली जिंदगी, उसका दर्द और उसमें खोया इंसान ये सब भीतर तक हिला देता है। शायद इस वजह से ही नाटक करता हूं।

आमतौर पर जिंदगी की तल्खियां ही लील जाती हैं भीतर के इंसान को। मैं भीतर झांकना, रमना व अंदर की खामोशी को जुबां देना चाहता था। इसलिए 'रंगश्रमिक' बना। इसके लिए ताउम्र ईमानदार रहा। हालांकि ये भी एक बीमारी है, इससे कई कई बार आर्थिक मौत मरा, पत्नी की तरह आर्थिक विपन्नता भी सहचरी रही। इसी सांचे में ढल चुका हूं, पकी हंडिया की तरह आकार ले चुका हूं। अब वापसी मुमकिन नहीं।

कुछ सालों पहले की बात है, दोनों आंखों में हेमरेज होने पर दिखना बंद हो गया था। अंधेपन में टूटा नहीं, क्योंकि आस-पास का सब कुछ मन की आंखों से दिखता था, उस दौरान एक लघु नाटक लिखा अमूर्त। ऑपरेशन के बाद रोशनी लौट आयी है आंखों में और फिर रम गया हूं नाटकों में।

नाटक अन्याय का विरोधी है और इसमें जिदंगी की सच्चाई व्यक्त होती है। नाटक हिंसा, घृणा, उत्पात के वातावरण में प्रेम का संदेश है। इसने अपनी भूमिका के साथ कभी अन्याय नहीं किया है। नाटक में इतना दम है कि यह समाज को बदल सकता है बशर्ते इसे समाज तक सही रूप में संप्रेषित किया जाए। जब तक दर्शक नाटक देखेंगे नहीं, तो उसका प्रभाव कैसे पडेगा। अपने नाटकों की संरचना पर चर्चा में वे कहते हैं कि उनके नाटक किसी गंभीर समस्या को लेकर आते हैं। ये कॉमेडी नहीं हैं। उनमें केवल इतनी ही कॉमेडी है कि दर्शक मुस्करा सकें। प्राचीन नाटकों की तरह वहां सूत्रधार या विदूषक नहीं है। उनके चरित्रों में ही इतनी शक्ति है कि वे नाटक की कथा को आगे बढ़ा सकें और दर्शक तक नाटक का संदेश पहुंचा सकें।

बंगाल, तमिलनाडु में नाटक मंडली के विकास व रंगमंच के लिए सरकार से आर्थिक सहयोग मिलता है। राजस्थान में रंगमंच को जिंदा रखने के लिए संघर्ष करना होता है। रंगमंच में आर्थिक संकट है, यह आगे भी रहेगा। मुझे मेरे सभी नाटक प्रिय हैं। दर्शकों ने मेरे हर नाटक का तालियों से स्वागत किया है, लेकिन मैं मंचित होने के दूसरे दिन ही उस नाटक को भूल गया और नये विषय की तलाश में लग गया। मैं कहीं ठिठका नहीं, इसीलिए मेरे नाटकों और मुझ में अभी भी ताजगी है। मेरे नाटकों के दर्शक भी कमाल के हैं। उन्हें मेरे नये नाटकों का इंतजार रहता है। कहीं रास्ते में मिल जाते हैं तो कहते हैं – क्या दादा भाई, अब कौन सी हलचल लेकर आ रहे हैं? जब जब ऎसा सुनता हूं तो मुझे उनका प्यार देखकर सुकून मिलता है।

जिंदगी नाटकघर है और हम सब की डोर ऊपर उस नीली छतरी वाले के हाथों में। ...."


खलील तनवीर के संस्मरणों में उस्मान-


रिजवान जहीर उस्मान के दोनों गुर्दे खराब हो गए थे, वह डायलेसिस पर थे, ऐसी तकलीफदेह बीमारी का उन्होंने साहस के साथ सामना किया, आखिर 03 नवम्बर, 2012 को उनका देहान्त हो गया। 04 नवम्बर को उनके जनाजे में चार-पांच रंगकर्मी थे, हिन्दी और उर्दू के साहित्यकारों ने बडी बेरुखी दिखलाई।

ये लगभग 1965 ई. के आसपास की बात है। उस्मान के मित्र हफीजुल्ईमान ने मुझसे कहा था कि उस्मान कहानी लिखने लगे हैं और आपसे मिलना चाहते हैं। उस्मान से मुलाकात हुई, मालूम हुआ कि इलाहाबाद से प्रकाशित होने वाली पत्रिका ‘कहानीकार’ में उस्मान ने अपनी कुछ कहानियां भेजीं, लेकिन सम्पादक बलवन्त सिंह ने उनकी कहानियां प्रकाशित नहीं कीं, वह बहुत निराश हुए।

मैंने उन्हें आबिद अदीब से मिलवाया जो राजस्थान साहित्य अकादमी में उर्दू सेक्शन के इन्चार्ज थे। आदिब अदीब ने उनकी कहानियां ‘माजी का सेनेटेरियम’ और ‘बैल्जयम ग्लास’, ‘मधुमती’ वर्ष 1967 के अंकों में छपवाई। उसके बाद उस्मान में आत्मविश्वास आया, फिर उनकी कहानियां विभिन्न पत्रिकाओं में छपने लगीं।

1967 ई. में देवेन्द्र सत्यार्थी उदयपुर आए। वह अक्टूबर व नवम्बर में उदयपुर रहे। देवेन्द्र सत्यार्थी पंजाबी, उर्दू और हिन्दी के कहानीकार थे। उस्मान और ‘मशकूर जावेद’ ने सत्यार्थी जी से कहानी विधा के बारे में बहुत सीखा।

उस्मान ने अपनी स्कूली शिक्षा पर ध्यान नहीं दिया, उनका अधिक समय, ‘इब्ने सफ़ी’, ‘कृश्नचन्दर’ और मंटो की कहानियां’ और नॉवेल पढने में गुजरता था। इसलिए उस्मान की भाषा में बडी कसावट और चुस्ती पाई जाती है।

उस्मान के पिता का नाम रमजान और मां का नाम ज़ैनब था, इसलिए वह अपने नाम के साथ आर.जेड. लिखते थे। जब अज्ञेय ने अपनी पत्रिका 'नया प्रतीक' में उनकी कहानी स्वीकृत करते हुए लिखा कि हम कहानीकार का पूरा नाम प्रकाशित करते हैं, तो उस्मान ने अपना नाम आर.जेड. उस्मान से रिजवान जहीर उस्मान रख लिया और बाद में वह इसी नाम से पहचाने गये। लगभग 1970 ई. के आसपास अशोक आत्रेय सेवा मंदिर उदयपुर में आ गए। इसके बाद रिजवान जहीर उस्मान नाटक लिखने और नाटकों का निर्देशन करने लगे। धीरे-धीरे उनका ध्यान ‘कहानी लेखन’ से हटता गया। उनका पहला नाट्य संकलन ‘नमस्कार, आज शुक्रवार है' और दूसरा कल्पना पिशाच’ 1991 ई. में प्रकाशित हुआ।

रिजवान जहीर उस्मान अपनी आसपास की दुनिया और उसकी समस्याओं पर गहरी नजर रखते थे। उन्होंने ‘कल्पना पिशाच’ की भूमिका में देश के हालात पर चिंता करते हुए लिखा था, ‘‘नारी शोषक सत्ता में आ गए, न्यायाधीश राजनीति में कूद पडे। महात्मा गांधी झुठलाए जाने लगे, नेहरु निरर्थकता के प्रतीक माने जाने लगे....।’’

उस्मान एक निडर और बेबाक कलाकार थे। उनके मित्र उन्हें ‘फाइटर’ कहते थे। निदा फाजली के शब्दों में ‘मैं आप लड़ लिया उस से बड़ा मजा आया।’’ वह अक्सर लोगों से लड़-भिड़ जाते थे।

अब उनके मित्रों की जिम्मेदारी है कि उनकी कहानियों का संग्रह प्रकाशित करने में रुचि लें ताकि राजस्थान के कहानीकारों में उनका क्या स्थान है, ये उजागर हो सके।