रिज पर फौजी / सुशील कुमार फुल्ल

Gadya Kosh से
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आड़ा-तिरछा चलते हुए उसने एक पीस हो गई अपनी टांग को सीधा किया तथा बैसाखियों के सहारे बस से नीचे उत्तर गया। कंधे पर छोटा-सा थैला लटका हुआ था, जिसमें कुछ कपड़े तथा आवश्यक कागज थे। वह दधोल से दोपहर बारह बजे चला था। शिमला पहुँचते -पहुँचते उसे सात बज गए हैं। बस विक्टरी पर ही रुक गई है। मुख्य बस अड्डा यहाँ से कोई दो फलाँग है। कोई भी पाँच-दस मिनट में वहाँ पहुँच जाता है। लेकिन डेढ टाँग के आदमी के लिए ये दुविधाजनक था। खड्ग सिंह ने शिमला की धुँधलाती रोशनियों को निहारा। धुंध की दीवार लटकी हुई थी। वह बहु्त बरसों बाद शिमला आया था। सब कुछ बदला-बदला-सा। मौसम भी। मार्च का महीना और आकाश में गड़गड़। कहीं बारिश आ गई, तो बहुत मुश्किल हो जाएगी लेकिन वह फौजी था.....और फौजी में दृढ़ता एवं धैर्य तो भरपूर होता ही है। कार्ट रोड़ पर ठक-ठक करती बैसाखियाँ अजीब-सा संगीत पैदा कर रही थीं। अजीब-अजीब निगाहों से लोग उसे देख रहे थे, मानो वह शिमला में अजूबा था। दो वर्ष तक अस्पताल में रहने के बाद वह अपने गाँव लौटा था.....सामने तो कोई नहीं बोलता था परंतु पीठ पीछे लोग फुसफुसाते-क्या लकदक करती देह थी! बेचारा लटा हो गया।

उसके कान में आवाज पड़ती तो वह दुखी हो उठता कि सीमा का प्रहरी भी व्यंग्य का भागी बन गया था। अपने साथी सैनिक को बचाने के प्रयास में वह स्वंय पिस गया था। रत्नांबर बड़ा मजाकिया था। लोग कहते हैं, जहाँ न जाए, रवि वहाँ जाए कवि। वह कहता जहाँ न जाए कवि वहाँ जाए इन्फैट्री। बढ़ना, आगे जाना, ठिकानों का पता लगाना और शत्रु पर पहला वार करना।

सीमा पर गोलियों की बौछार हो रही थी। वैसे भी जब से पंजाब एवं जम्मू-कश्मीर में उग्रवाद का शैतान अपनी आँत फैला रहा था, तब से पाक सैनिक ताक में रहते कि कहीं न कहीं कुछ भड़क जाए, तो आग जलती रहे। रत्नांबर से कहा-देखो, पटाखे चल रहे हैं सामने। हम भी फायर करेंगे। और वह आगे बढ़ गया था। अचानक सरसराती एक गोली उसके कंधे में लगी थी। खड्ग सिंह ने उसे गिरते देख लिया। था वह सरकता पड़ता वहाँ पहुँचा था। बहुत देर तक फायरिंग करता रहा....जब सामने से आग बरसनी बंद हुई तो उसने पीठ पर पीड़ित को उठाया तथा वापिस लौट पड़ा।

हाय, मर गया-अचानक उसके मुख से निकला। उसकी एक टाँग लड़खड़ा रही थी। रत्नांबर ने कहा-साले पहले अपने आप को सँभाल। मुझे क्या उठाए जा रहा है।

लेकिन वह चलता रहा और रत्नाबंर को कैंप में लाकर स्वयं लुढ़क गया था वह। बॉर्डर पर उसका अंतिम दिन था। फिर अस्पताल ही उसका घर बन गया था। घुटने में लगी गोली ने कुछ ऐसा कर दिया कि टाँग और जाँघ एक पीस हो गई। शायद अस्थिबंध नष्ट हो गया था। बैसाखियाँ उसके अंग-संग हो ली थीं। घुटने में गोली लगने से इतना बड़ा नुकसान हो सकता है, कोई मानने को तैयार ही नहीं था। और लकदक-लकदक करती देह-अपंग हो गई थी।

सेना की भाषा में उसकी विकलांगता पचास प्रतिशत आँकी गई। मतलब यह कि पैंतीस वर्ष की उम्र में ही एक आधा आदमी रह गया था। वह डॉक्टर से बहस करता रहा परंतु किसी ने उसकी नहीं सुनी। वह कसमसा उठता परंतु बेबसी थी। अपने हाथ-पाँव चलते हों, तो सब ठीक। जरा-सी भी गड़बड़ हो जाए तो सब कुछ बिगड़ जाता है। किसी ने कंपनी में बात चला दी थी-खड्ग सिंह, तुम्हारा नाम शौर्य मेडल के लिए संस्तुत किया जा रहा है। वह खिलखिला उठा था। कुर्बानी दी है, तो कुछ तो पीठ थपथपानी ही चाहिए तभी मनोबल बढ़ता है। भावी पीढ़ियों के लिए आदर्श स्थापित होता है। वह संभावित संस्तुति मात्र से ही प्रसन्न हो गया था। वह आधा आदमी रह गया था। अपने गाँव दधोल लौटा तो सहानुभूति की बौछारें होने लगीं। जो भी आता, कहता-खड्ग सिंह, सैनिक तो पूज्य होते हैं। तुम भरी जवानी में जख्मी होकर आ गए, यह बड़ा जुल्म है। सरकार ने मुआवजा तो दिया ही होगा? ‘‘मुआवजा....पचास प्रतिशत विकलांगता, तो पचास प्रतिशत बीमे की राशि।’’ ‘‘दो-तीन लाख तो मिला ही होगा?’’ कोई कुरेदता। वह आग्नेय आँखों से उन्हें देखता और कहता-हाँ, कुल मिलाकर अड़तीस हजार चार सौ नब्बे रूपए मिले थे......जो घर-बार ठीक करवाने में होम हो गए।....मेरे से ले लो सब वापस......ला दो मेरी टाँग। खड्ग सिंह सोचता, हर गाँव वासी की नजर उसको मिली राशि पर है परंतु कोई नहीं जानता कि घुटने का बेकार हो जाना कितना कष्टप्रद होता है। वह आधा आदमी रह गया था। उसकी बीबी ने भी एक बार तो उसे हिकारत भरी नजर से देखा था भले ही बाद में वह संभल गई थी। पति की पेंशन से ही सब घर-बार चलना था। हाँ, वह इतना जरूरी बोली ....लोग तो कहते थे कि रिटायरमेंट पर बहुत पैसा मिलता है। यहाँ तो बस सत्तर-अस्सी हजार ही बना। ‘‘हूँ। लोग तो बहुत कुछ कहते हैं परंतु जो मिला है, सब तुम्हारे सामने है।’’ उसकी पलकों में आँसू आ गए थे। ‘‘मुरब्बे भी तो मिलते हैं। कोठी वालों के लड़के को मुकेरियाँ में मुरब्बे मिले थे।’’ पत्नी कही खो गई थी। ‘‘हाँ, मिलते हैं लेकिन बड़े-बड़े अफसरों को।’’ ‘‘क्यों?’’ ‘‘क्योंकि वे जोड़-तोड़ जानते है लेकिन सैनिक के हाथ में कुछ भी नहीं होता।’’ ‘‘लेकिन तुम तो कहते थे असल में तो इन्फैंट्री ही सबसे आगे होती है......क्या अफसर उनसे भी आगे चलते हैं?’’ उसने भोलेपन से पूछा था। ‘‘हाँ, नाकारा मैं हुआ और मेजर को शौर्य चक्र मिल गया। मेरा बापू भी बेवकूफ ही था। कहता था-सेना की नौकरी सर्वोत्तम । भर पेट खाना मिलता है। नाम-इनाम मिलता है। राष्ट्र सेवा के लिए यश मिलता है। परलोक सुधरता है।’’ ‘‘अब बस भी करो न!’’ ‘‘मेरा तो इहलोक ही बिगड़ गया। जीते जो.......में आधा मर गया। जब मैं लौट के आया था, तो तुम्हारी आँखें भी तो बदली हुई थीं।’’ ‘‘फौजी शक में जीते हैं। मैंने कहाँ भागना है। तुम्हारे दोनों बच्चे जने हैं।’’

वह चुप हो गया था। कुछ बातें ऐसी होती है जो महसूस तो की जाती हैं परंतु कही नहीं जातीं। एक चिंगारी उसके तन-बदन में लगी हुई थी। सोचता-जमाना कितना बदल गया। सेवा कोई करे, मेवा कोई खाए। उसे लगा कि शौर्य मेडल उसके कंधे पर आकर चिपक गया था। वह अचानक खोखली हँसी हँसा।


पहाड़ में हैंडपंप एक नई चीज थी। जल ही अमृत है और अमृत बरसाता हैडपंप देवता है। मुख्यमंत्री के चुनाव-क्षेत्र में था यह अद्भुत जल-देवता। स्वाभाविक था कि विधि-विधान से पूजा की जाए तथा हैंडपंप का उद्घाटन हो।

खड्ग सिंह ने सुना था तो व्यंग्यपूर्व हँस दिया था।

उद्घाटन की संस्कृति उसे सदा ही घिनौनी लगती थी। सेना में ऐसे तंत्र-मंत्र कम ही होते थे। परंतु आम जीवन में ये आडंबर प्रायः होते थे। किसी ने उसे बताया था-उद्घाटन तो बहाना होता है। वास्तव में अखबार की सुर्खियों में बने रहना जरूरी होता है। विकास की बात करो और नए-नए सपने दिखाओ तभी जनता तुम्हें याद रखेगी। ग्राम प्रधान ने कहा था-खड्ग सिंह, यह अच्छा अवसर है। तुम मुख्यमंत्री से मिल लो। वह कोई ने कोई नौकरी दे-दिलवा सकते हैं। ‘‘कैसे मिलूँ? मैं तो उन्हें जानता नहीं।’’ खड्ग सिंह ने कहा था।

‘‘कहो तो दावत तुम्हारे घर पर ही रख दें। लेकिन दो-चार हजार रुपए लग जाएँगे खाने-पिलाने पर। फिर तुम आराम से बात भी कर सकोगे।’’ वह असमंजस में पड़ गया था। फिर घर में सलाह करके बोला-ठीक है शाम का भोजन मेरे ही घर पर रहा।

प्रधान प्रसन्न था। मुफ्त में पैसा मिल जाएगा। नाम तो उसी का होना था।

खड्ग सिंह ने चार हजार रूपया प्रधान को थमा दिया था। कहा था-‘‘आप ही करवा दो सारा प्रबंध। मैं। तो आधा आदमी ठहरा।’’

‘‘आप चिंता न करो।’’ प्रधान ने खीसे में पैसे डालते हुए कहा।

खड्ग सिंह अपने घर में बैठा था....विचारमग्न कि देखो मुख्यमंत्री मितना अच्छा है जो उस अपंग के घर भोजन पर आएगा। उसने अच्छे-अच्छे ताजा फूल इकट्ठे किए तथा एक भारी-भरकम हार बना लिया ताकि वह मुख्यमंत्री का स्वागत कर सके। उसके अड़ोसी-पड़ोसी भी आस-पास ही थे।

उद्घाटन हो गया हैडपंप का भोजन बन रहा था। टाट वगैरह लगाए जा चुके थे। मुख्यमंत्री तथा उनके साथी किसी भी समय भोजन के लिए आ सकते थे। गाँव में मुख्यमंत्री आया हो, तो स्वाभाविक है हर आदमी अपनी हाजरी लगवाना चाहता है। पता नही कब जरूरत पड़ जाए।

प्रार्थियों, मिलनार्थियों का तांता लगा हुआ था। विश्राम गृह से निकलने में उन्हें दिक्कत हो रही थी। वह खड्ग सिंह के घर ही जाकर बैठ जाएँगे तो लोग कैसे मिलेंगे। वोट की राजनीति प्रथम वरीयता होती है। लटा फौजी......जो चल-फिर भी नहीं सकता, वह क्या मदद करेगा। फिर उन्होंने प्रधान को बुलाकर कहा-‘‘बलानंद, यदि भोजन का सारा प्रबंध यहीं हो जाता तो ज्यादा सुविधाजनक रहता।

‘‘सर, सारा आयोजन खड्ग सिंह का है। वह नाराज हो जाएगा।’’

‘‘नहीं, नाराज क्यों होगा। मैं अभी तुम्हारे साथ चलूँगा और उसे यहीं ले आऊँगा। तुम इतने साल से प्रधान हो, क्या इतनी छोटी-सी बात भी नहीं संभाल सकते।’’ कह कर वह मुस्करा दिए।

खड्ग सिंह को हलचल से पता चला कि मुख्यमंत्री उसके घर पहुँचने ही वाले है। वह हार लेकर तैयार हो गया।

खड्ग सिंह ने मुख्यमंत्री के गले में हार डाल दिया। फोटोग्राफर से उन्होंने पहले ही कह रखा था कि फौजी की फोटो जरूर लें। मुख्यमंत्री तो उसका दुख-सुख पूछने गए थे न। हालचाल पूछ लेने पर उन्होंने फौजी से कहा-तुम्हारे पवित्र घर में मेरी हाजिरी लग गई है। यदि एतराज न हो तो भोजन विश्राम गृह में ही क्यों न कर लें। फौजी अवाक्! प्रधान ने कहा-‘‘भोजन बन तो गया ही है। अब परोसना भर है। परोस वहीं देते हैं। क्यों खड्ग सिंह?’’ ‘‘सर, यदि यहीं खा लेते, तो मेरा आँगन पवित्र हो जाता। लेकिन जो सुविधाजनक लगे।’’

‘‘खड्ग सिंह, तुम अपनी बात तो कर लो। वहाँ तो लोग घेरे रखेंगे इन्हें।’’ फिर प्रधान ने ही कहा-‘‘सर, यह दरवेश आदमी है। साथी को बचाते हुए खुद अपंग हो गया। उम्र पैंतीस वर्ष है। दो बच्चे हैं। बीवी है। पेंशन नाम-मात्र की है। कोई नौकरी का जुगाड़ हो जाए तो ठीक रहेगा।’’

‘‘हाँ, हाँ, क्यों नहीं। पूर्व सैनिक के लिए तो सरकार के दरवाजे खुल हैं। मैं शिमला जाकर देखूँगा खड्ग सिंह ! मेरा पत्र आने पर शिमला आना। सब ठीक हो जाएगा।’’ फिर प्रधान से कहा-‘‘मेरा पत्र आने पर शिमला आना। सब ठीक हो जाएगा।’’ फिर प्रधान से कहा-‘‘मेरे सचिव को नोट करवा दो।’’


चार हजार रूपया होम हो गया। खाना फिर भी उसके घर पर नहीं हुआ। बना-बनाया भोजन उठवा कर ये विश्राम गृह में ले गए। टाट बिछ गए। सब लोग मुख्यमंत्री के संग मजे से भोजन कर रहे थे। परंतु खड्ग सिंह के मुँह में कौर ही नहीं जा रहा था।

बैसाखियों की टक-टक से अचानक लोगों का ध्यान भंग हो जाता। तेज रफ्तार गाड़ियाँ शँ करके निकल रही थी। बादल धरधरा रहे थे....और खड्ग सिंह और तेज-तेज चलने लगा। बस अड्डे पर पहुँचकर उसने किसी से पूछा-‘‘भाई साहब, यह कैटरपिल्लर हॉस्टल किस तरफ है?’’ ‘‘क्यों, किसी विधायक से मिलना है?’’ ‘‘जी, मुख्यमंत्री से मिलना है।’’

‘‘मुख्यमंत्री कैटरपिल्लर हॉस्टल में नहीं रहते। ये तो दूर अलग कोठी में रहते है, वोट-ओवर में।’’ ‘‘वहाँ जाने के लिए कौन-सा रास्ता है?’’ ‘‘जाना तो कैटरपिल्लर होकर ही पड़ेगा। लेकिन रात में......।’’ अजनबी ने पूछा। ‘‘कोई एक वर्ष पहले उन्होंने कहा था......मैं तुम्हें शिमला बुलाऊँगा।’’ कुछ बेचैनी से फौजी की आँखें घूमने लगीं। ‘‘तो कोई चिठ्ठी है?’’

‘‘लेकिन चिठ्ठी तो मुझे मिली नहीं। एक साल निकल गया। जानते हो मुख्यमंत्री मेरे घर भोजन पर आए थे, पचास-साठ लोगों के साथ। वहीं इन्होंने वायदा किया था, लेकिन चिठ्ठी नहीं आई, तो मैंने सोचा मैं खुद ही जा जाऊँ। मुख्यमंत्री तो बहुत व्यस्त होता है न!’’ वह भोलेपन से बोले जा रहा था।

आस-पास एकत्रित हो गए लोगों में खुसुर-फुसुर हो रही थी। उसे इतना भर ही सुनाई दिया-बेचारा, राजनेताओं पर विश्वास करता है। जब लोग वहाँ से छँट गए तो एक सज्जन व्यक्ति ने उसे कहा-कैटरपिल्लर हॉस्टल में यदि कोई विधायक परिचित है तो बस पकड़कर वहाँ चले आओ। रात उसी के पास ठहरो। उसी के साथ मुख्यमंत्री से मिलो।

‘‘सैनिक विश्राम गृह नहीं है यहाँ?’’ सैनिक ने पूछा। ‘‘है, लेकिन यहाँ से पाँच किलोमीटर..........और एक किलोमीटर पैदल भी चलना पड़ेगा।’’ ‘‘हूँ।’’ कहकर फौजी वहीं बैठ गया। सोचने लगा कि क्या वह रात भर बस अड्डे पर नहीं काट सकता। जम्मू-कश्मीर के बॉर्डर पर तो बीसियों बार वे रात-रात भर लेटे रहते थे। फिर उसने सोचा-या फिर लिफ्ट से माल रोड़ पहुँच जाऊँ.....कैटरपिल्लर में पता नहीं विधायक मिले या न मिले....फिर उसका तो चुनाव क्षेत्र भी अलग है....मुख्यमंत्री से कल मिलना ही उचित होगा। आधा आदमी वहाँ बैठे-बैठे ऊँघने लगा। धीमी-धीमी बारिश हो रही थी। हवा में ठंडक तैरने लगी थी।

अगली प्रातः उसने अखबारों में पढ़ा कि पूरा मंत्रीमंडल तथा सभी असंतुष्ट विधायक अचानक कहीं चले गए थे....शायद आज्ञातवास में.........या हाई कमान के सामने अपने दावे पेश करने के लिए। खड्ग सिंह को लगा वह रिज पर सिर के बल खड़ा था-अपनी डेढ़ टाँग को ऊपर किए.......बैसाखियों से आकाश को थामता हुआ।