रीतिकाल: मिथक और उन से परे / मैनेजर पांडेय

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मध्यकाल जिसे कहते हैं उसको दो संदर्भों में देखना चाहिए। साहित्य के इतिहास का काल विभाजन प्रायः समाज के इतिहास के काल विभाजन के आधार पर ही होता है। इसमें कभी-कभी विडंबनापूर्ण स्थितियाँ भी होती हैं। जो स्वाभाविक है उसकी चर्चा बाद में और जो विडंबना है उसकी चर्चा पहले। हिंदी साहित्य में एक काल आदिकाल है। आदिकाल कहने से समाज के इतिहास के प्रसंग में ऐसा अर्थ निकलता है कि जैसे यह तब का काल होगा जब हम लोग यानी भारत का समाज जंगलों में रहता होगा। ऐसा नहीं है। यहाँ आदिकाल शुद्ध साहित्य से जुड़ा हुआ आदिकाल है। लेकिन हिंदी साहित्य का जो मध्यकाल है वह भारतीय समाज का भी मध्यकाल है। मतलब, मध्यकाल जो हिंदी साहित्य का है उसके दो हिस्से हैं। पहला हिस्सा भक्तिकाल का है और दूसरा हिस्सा रीतिकाल का है। समाज के इतिहास के हिसाब से देखिए, हिंदी वालों के लिए मैं कह रहा हूँ देश भर के नहीं, तो एक तरह से जो भक्तिकाल का साहित्य है वह लगभग विद्यापति से शुरू होता है, और यह बहुत लोगों को भ्रम है न जानने के कारण कि भक्ति कविता एक तरह से मुगल काल के साथ खत्म हो गई। ऐसा नहीं है। वैसे स्वयं मुगल काल भी उन्नीसवीं सदी तक आता है। आप लोगों में से सबको यह तो मालूम ही होगा कि अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर थे, 1857 ई. के विद्रोह के समय जिनको अंग्रेजों ने गिरफ्तार किया, उनके सारे परिवार को मार डाला और स्वयं बहादुर शाह जफर को रंगून भेज दिया। यह ऐसा प्रसंग है जिसको याद करते ही थोड़ी भी देश के प्रति प्रेम-भक्ति का भाव होगा तो खून खौलने लगता है। हम जब इस समय आपसे बात कर रहे हैं उस समय उसी देश का प्रधानमंत्री हमारे देश के महान नेताओं से वार्ता के लिए आया हुआ है। ब्रिटेन का प्रधानमंत्री आया हुआ है। खैर, मैं जो मूल बात आपसे कह रहा था वह यह कि रामचंद्र शुक्ल ने एक बात लिखी है और ठीक लिखी है, उन्होंने कहा है कि हिंदी साहित्य की एक विशेषता यह है कि इसमें साहित्य की जो एक परंपरा शुरू हो जाती है वह कभी मरती नहीं है। पर नामकरण तो प्रधानता के आधार पर होता है कि जो प्रवृत्ति प्रधान होती है उसके आधार पर उस काल का नाम रख दिया जाता है। जाहिर है कि भक्तिकाल विद्यापति से ले कर और लगभग समझिए कि मुगल काल के मध्य तक, शाहजहाँ तक, भक्तिकाल के सारे बड़े कवि समाप्त हो चुके थे पर भक्ति कविता हिंदी साहित्य के रीतिकाल में भी मौजूद थी और उन्नीसवीं सदी तक आती है। अब भी हिंदी में कुछ कवि मिल जाएँगे आपको वृंदावन में, अयोध्या में जो उसी ढाँचे-खाके में कविता लिखते हैं। मेरे पास अभी कुछ दिन पहले आगरा विश्वविद्यालय से डी.लिट. का एक शोध-प्रबंध आया था, आज के किसी भक्त कवि की कविता का इतना बड़ा पोथा था, जाहिर है कि मैं न उस कवि को जानता था न उसकी कविता को जानता था इसलिए मैंने थीसिस लौटा दी, कि मैं जिसको जानता नहीं उस पर लिखी हुई थीसिस का मूल्यांकन नहीं करूँगा। खैर, यह जो मध्यकाल है उसकी अनेक विशेषताएँ हैं। मैं उसकी विस्तार से बात नहीं करूँगा, विस्तार से बात आपके सामने मैं थोड़ी देर में इसी के एक हिस्से रीतिकाल की करूँगा। वैसे ही आपका विश्वविद्यालय रीतिकाल का गढ़ माना जाता है। मुझे नहीं मालूम कि रीतिकाल की बाकी विशेषताएँ बाकी विश्वविद्यालय में हैं कि नहीं पर रीतिकालीन कविता को पढ़ने-पढ़ाने और उसी को कविता मानने की परंपरा नगेंद्र जी से शुरू होकर अब तक मौजूद है, उनके जो भी शिष्य और शिष्य के शिष्य हैं वे सब उसी रीतिकाल में ही घूमते हैं। इसलिए उस पर बात करना मुझे ठीक लगा और मैने वही विषय चुना है। पर व्यापक रूप से मध्यकाल जिसमें भक्तिकाल और रीतिकाल दोनों आते हैं, उसकी दो-एक विशेषताओं की चर्चा करके मैं रीतिकाल पर आऊँगा।

पहली विशेषता यह है, पता नहीं आप लोगों ने कभी इस बात पर ध्यान दिया है कि नहीं कि भक्तिकाल की और भक्ति काव्य की अखिल भारतीय स्तर पर पहली और बुनियादी विशेषता यह है कि प्रत्येक भक्त कवि अपनी मातृभाषा का कवि है। प्रत्येक भक्त कवि कह रहा हूँ, मुझे आज तक कोई अपवाद मिला नहीं है। एक तरह के अपवाद तो हैं जो अपनी मातृभाषा के अलावा दूसरी भाषा में भी कविता लिखते हैं। जैसे स्वयं विद्यापति। विद्यापति तीन भाषाओं में कविता लिखते थे, संस्कृत में, अवहट्ट या अपभ्रंश में और अपनी मातृभाषा मैथिली में। पर महाकवि किसके हैं, संस्कृत के महाकवि नहीं हैं, अपभ्रंश के भी महाकवि नहीं है, महाकवि वो मैथिली के ही हैं। उसी तरह तुलसीदास अवधी में कविता लिखते थे और ब्रजभाषा में भी, पर ब्रजभाषा के महाकवि वो नहीं हैं। ब्रजभाषा के महाकवि सूरदास हैं। तुलसीदास अवधी के ही महाकवि हैं। इसलिए मैने कहा कि कुछ प्रतिभाशाली कवि अपनी मातृभाषा के अलावा दूसरी भाषाओं में भी कविता लिखते हैं पर बुनियादी महत्व तो उनकी मातृभाषा वाली कविता का है।

दूसरी विशेषता मध्यकाल की यह है कि जो मातृभाषाओं में कविता लिखी गई तो संस्कृत के पंडितों और फारसी के मुल्लाओं ने इसका बहुत विरोध किया। पता नहीं आपको मालूम है कि नहीं, अपना देश दो चीजों के लिए बहुत प्रसिद्ध है, पहली बात तो यही है कि यहाँ अश्लीलता को रेशमी चादर से ढँक कर उसको शालीनता कहते हैं और संस्कृति भी। इस दिल्ली शहर में कैसे अश्लीलता को रेशमी चादर से ढँकते हैं इसका प्रमाण इस दिल्ली शहर में औरतों के साथ हुई एक हजार ज्यादतियाँ हैं। एक साथ दोनों काम करते हैं, मंत्र भी जपते हैं - 'यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमंते तत्र देवता: ...' और स्त्रियों की पूजा करने के नाम पर उनके साथ जो-जो करते हैं उनमें से अधिकांश तो कहने लायक नहीं है। इसीलिए मैं कह रहा हूँ कि अश्लीलता को शालीनता की रेशमी चादर में ढँक कर उसे संस्कृति कहते हैं। दूसरा क्या है, सच को छुपाना और झूठ को मुलम्मा लगा कर पेश करना, यह एक पुरानी आदत है। यह जो विरोध हुआ वह कितनी दूर तक गया, उसके दो प्रमाण मैं दूँगा, ज्यादे नहीं। पचासों मेरे पास हैं। मराठी के एक भक्त कवि थे, संतकवि ज्ञानदेव। उनकी प्रसिद्ध रचना है, ज्ञानेश्वरी। मराठी का महान काव्य माना जाता है उसे। असल में ज्ञानेश्वरी ओबी छंद में है। इस ओबी छंद का ईजाद किया था ज्ञानेश्वर ने। ओबी छंद इसके पहले मराठी में नहीं था, देश में भी नहीं था। उन्होंने इस छंद को गढ़ा। उन्होंने ओबी छंद में और मराठी भाषा में गीता का अनुवाद किया है और व्याख्या भी की है। उसके तीसरे अध्याय की सत्रहवीं ओबी में ज्ञानेश्वर ने एक ऐसी बात लिखी है जिसे भारतीय समाज, संस्कृति और भाषाओं के इतिहास का सबसे क्रांतिकारी वाक्य मैं मानता हूँ। यह मैं आपसे पहले ही कह चुका हूँ कि वह गीता का अनुवाद है तो यह भी आप जानते ही हैं कि गीता अर्जुन और कृष्ण के बीच संवाद है। उस तीसरे अध्याय में अर्जुन कृष्ण से कहते हैं, ध्यान रखिए ज्ञानेश्वर के अर्जुन संस्कृत के अर्जुन नहीं, कि आप जो कुछ कह रहे हैं वह बहुत महत्वपूर्ण है लेकिन बहुत गूढ़ है। मेरी समझ में नहीं आ रहा है। इसलिए इसको सरल मराठी में समझा कर कहिए। पहली बार एक मनुष्य ने, अर्जुन कुल मिलाकर एक मनुष्य ही तो थे, ईश्वर तो कृष्ण थे, ईश्वर से कहा कि मेरी भाषा बोलो। आप जिस भाषा में कह रहे हो वह बहुत मुश्किल है इनलिए मेरी भाषा बोलो। तो इसका परिणाम क्या हुआ जानते हैं? यह जो काम उन्होंने किया यानी कि संस्कृत से महत्वपूर्ण अपनी मातृभाषा को बनाया, परिणाम यह हुआ कि पंडितों ने इक्कीस वर्ष की आयु में ज्ञानेश्वर को जीवित समाधि लेने के लिए मजबूर किया। यह तो हत्या करना है और बुरी तरह हत्या करना है। हत्या तो एक मिनट में हो सकती है, पर जीवित समाधि में जो आदमी होगा वह तो दो-एक दिन में मरेगा।

उसी तरह से मराठी के संत तुकाराम के साथ हुआ। मराठी संत तुकाराम जाति के माली थे। ब्राह्मण तो थे नहीं। इनसे कहा गया कि ये माली-वाली को अधिकार नहीं है कि ज्ञान का उपदेश दे इसलिए अपना यह लिखा-पढ़ा फेंको। एक कवि अपनी बात कह रहा है, वह चाहे जुलाहा कवि कबीर हो या माली कवि तुकाराम, वह फेंक काहे दे। तो पंडितों ने एक चाल चली और कहा कि तुम इसको नदी में डुबो दो और ईश्वर की कृपा होगी तो यह ऊपर आ जाएगा, नहीं तो हम मान लेंगे कि यह डूबने लायक थी। अब आपसे अलग से क्या यह बताने की जरूरत है कि ऋग्वेद से ले कर भगवत्‌ गीता तक की किताबें नदी में डुबोई जाएँ तो सब डूब जाएँगी। कौन नहीं डूबेगी! उसमें तो स्वयं भगवान ही मौजूद हैं। वो भी डूब जाएँगे उसी में। यह चाल चली उन्होंने। कहा जाता है कि, बाकी तो कथा है, तुकाराम ने पंडितों के कहने पर फेंका - मुझे तो हमेशा लगता है कि पंडितों ने तुकाराम से जबर्दस्ती छीन कर नदी में फेंक दिया - लेकिन डूबा नहीं वह। जो भी हुआ, बाद में तुकाराम घर में रहने के बदले जंगलों में घूमने लगे और कभी घर लौटे ही नहीं। मेरा अपना अनुमान यह है कि उनको मार दिया जंगल में। मराठी में जानते हैं कथा क्या चलती है, फिल्म बनी है तुकाराम पर जो हर साल दिखायी जाती है जिसमें दिखाया जाता है, सीधे स्वर्ग से विमान आया और तुकाराम को सशरीर स्वर्ग ले गया। जिन लोगों ने मारा वे सभी क्यों नहीं गए, स्वर्ग तो सब लोग जाना चाहते हैं! यह जो प्रवृत्ति है यह भी आपके यहाँ की ही प्रवृत्ति है।

मैं एक घटना आपको सुनाऊँ चलते-चलते। मैं जब कोई काम करता हूँ तो काफी गहरी खुदाई करता हूँ। जब मैंने ज्ञानेश्वरी पढ़ी और जब यह वाक्य, अर्जुन का कृष्ण से कथन, दिखाई पड़ा तो मुझे यह वाक्य बहुत ही महत्वपूर्ण लगा, अभी थोड़ी देर पहले आपसे मैंने कहा था कि मेरी जानकारी में भारतीय समाज में भाषाओं के इतिहास का सबसे क्रांतिकारी वाक्य है। मैंने इसका हिंदी अनुवाद खरीदा जो साहित्य अकादमी से छपा है और अंग्रेजी अनुवाद खरीदा जो भारतीय विद्या भवन, बंबई से छपा है। दोनों में दो काम एक साथ हुए हैं। दोनों अनुवाद करने वाले मराठी लोग हैं। दोनों की भूमिकाओं में ज्ञानेश्वर को लगभग ईश्वर जैसा दर्जा दिया गया है पर दोनों अनुवादों में यह वाक्य बदल दिया गया है कि 'सरल मराठी में समझा कर कहिए'। इसके बदले लिखा हुआ है कि 'सरल भाषा में समझा कर कहिए'। माने, संस्कृत से जो प्रेम है वह भारी पड़ा ज्ञानेश्वर से प्रेम पर। यह अपने यहाँ की जानी-पहचानी प्रवृत्ति है। पर ऐसी इतनी प्रवृत्तियाँ हैं कि मैं उसी पर ध्यान दूँ तो आज का भाषण उसी पर हो जाएगा। पर वह मैं नहीं करूँगा।

यह जो मध्यकाल है, उसका जो रीतिकाल है, उसके बारे में जो कहना है उसे मैं आपके सामने रखना चाहता हूँ। पहली बात तो यह कि हिंदी आलोचना में महावीर प्रसाद द्विवेदी और बाद में रामचंद्र शुक्ल ने रीतिकाल के विरोध में बहुत सारा लिखा और दृष्टिकोण बनाया। महावीर प्रसाद द्विवेदी ने 'हिंदी नवरत्न' की समीक्षा लिखी थी। बाकी उनका छोड़ भी दीजिए, उसको देखिए तो उनका जो रीतिकाल विरोधी दृष्टिकोण है वह दिखाई देगा। यही काम आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने किया। ये दो हिंदी के इतने बड़े आलोचक थे कि बाद के लोगों ने उन्हीं की बातों को मिर्च-मसाला लगा कर कभी थोड़ा घटा कर कभी थोड़ा बढ़ा कर पेश किया। नया किसी ने लिखा हो, नगेंद्र जी समेत, ऐसा नहीं है। रामचंद्र शुक्ल का आरोप क्या था? पहला आरोप यह था कि इस कविता में श्रृंगारिकता बहुत है। यद्यपि आचार्य शुक्ल मन से स्वयं श्रृंगारिक व्यक्ति थे। एक महिला से प्रेम भी करते थे। इसलिए, ठाकुर का एक छंद उनको बहुत प्रिय था, मुझे लगता है उनके मन से मिलता होगा, बार बार उसको दुहराया है। मैं अपको सुना रहा हूँ :

वा निरमोहिनि रूप की रासि जऊ उर हेतु न मानति होइहैं।
आवत जात घरी घरी मेरो सूरति तो पहिचानति होइहैं।

ठाकुर या मन की परतीति है, जो पै सनेह न मानति होइहैं।
आवत हैं नित मेरे लिए इतना तो विशेष के जानति होइहैं।।

इसको आचार्य शुक्ल ने अपने चार लेखों में उद्धृत किया है, इतिहास के साथ। इससे उनकी मानसिकता का पता चलता है। लेकिन यही काम जब रीतिकाल के कवि कर रहे थे तो शुक्ल जी को पसंद नहीं था।

आचार्य शुक्ल को दो और बातें पसंद नहीं थीं। उनके नापसंद करने का आधार है, ऐसा नहीं कि उन्होंने निराधार कहा लेकिन जो है वही मैं कह रहा हूँ। एक बात उनको पसंद नहीं थी और यह रीतिकाल की कमजोरी है; नायिका-भेद का विस्तार। अपार है वह। सात बरस की बच्चियों से ले कर सत्तर बरस की बुढ़ियाओं तक सब नायिकाएँ हैं। अरे कोई स्त्री भी होगी! जो नायिका के अलावा हो। आचार्य शुक्ल को सबसे अधिक नाराजगी इसी बात से थी इसीलिए आचार्य शुक्ल ने बहुत कड़ा वाक्य रीतिकाल के बारे में लिखा है। लिखा है, रीतिकाल में कविता बँधी नालियों में बहने लगी। लेकिन इसका एक दुष्परिणाम यह हुआ कि हिंदी के बाद के आलोचकों ने रीतिकाल की कविता को समग्रता में पढ़ने-समझने और मूल्यांकन करने के बदले रामचंद्र शुक्ल की बातों को दुहराना शुरू किया। अब कह गए हैं आचार्य शुक्ल, अरे आचार्य शुक्ल ने पढ़-वढ़ के कहा था। बाद के बहुत लोगों ने बिना पढ़े ही कहा, क्योंकि पढ़ते तो कुछ और ऐसा दिखाई देता जो मैं आपके सामने अभी रखने वाला हूँ।

रीतिकाल के बारे में मेरी पहली बात यह है कि अपने समय के समाज और इतिहास से जैसा संबंध रीतिकाल की कविता का है वैसा संबंध भक्तिकाल में भी नहीं है। प्रमाण क्या है? मैं कोई रीतिकाल का प्रेमी नहीं हूँ। अभी ठीक बताया गया कि मैने पूरी किताब लिखी है, 'भक्ति आंदोलन और सूरदास का काव्य'। मैं स्वयं भक्तिकाल का प्रेमी हूँ। पर जो जहाँ है उसके बारे में बात की जाएगी न, जो वास्तविकता है, सच्चाई है। देखिए, रीतिकाल के सबसे बड़े कवि माने जाते हैं केशवदास। अपने समय और समाज के इतिहास से केशव दास की कविता का क्या संबंध है? केशवदास की दो रचनाएँ हैं, जो सीधे इतिहास से जुड़ी हुई हैं मित्रो! मैं बाकी रामचंद्रिका आदि की बात नहीं कर रहा हूँ। एक उनका प्रबंध काव्य है, 'वीर सिंह देव चरित'। मैं दावे के साथ आपसे कह रहा हूँ कि रीतिकाल के बहुत सारे प्रेमियों ने इसे देखा ही नहीं है, बस नाम गिना देंगे। क्या है उसमें, उसमें मध्यकाल के इतिहास की जटिल समस्याएँ हैं। मुगल काल के इतिहास की खास तौर से। आप में से जो इतिहास के छात्र होंगे, उनको यह मालूम होगा कि अकबर के समय से और उनके राज्य-काल से संबंधित दो बड़ी घटनाएँ हुईं। पहली घटना यह हुई कि उनके पुत्र सलीम ने, जो बाद में जहाँगीर बना, विद्रोह कर दिया। यह विद्रोह की घटना 'वीर सिंह देव चरित' में है। उसी विद्रोह का एक और नतीजा हुआ कि सलीम ने वीर सिंह, जो ओरछा का राजा था - बहुत शक्तिशाली और प्रभावशाली, की मदद से अबुल फजल की हत्या करवाई। यह सब वीर सिंह देव चरित में है। आप बताइए, हमारा हिंदी साहित्य का स्वर्णयुग माना जाता है भक्तिकाल, केशवदास और तुलसीदास बहुत दूर तक समकालीन थे, मतलब दोनों अकबर के जमाने में जीवित थे, भक्तिकाल के किस कवि ने मुगल शासन के बारे में लिखा है। किस कवि ने? हमारे जो परम आदरणीय बाबा तुलसीदास हैं, उन्होंने तो यह घोषित कर दिया - कीन्हें प्राकृत जन गुन गाना / सिर धुनि गिरा लागि पछिताना। यानि, अपने समय के किसी मनुष्य की कविता में चर्चा करना सरस्वती का अपमान है, तो राम का गुणगान करेंगे। सारा भक्तिकाव्य परलोकवाद की चिंता से लिखा गया है। सारा रीतिकाल अपने समय और अपने समाज की चिंता से लिखा गया है। उसमें कोई परलोकवाद नहीं है। और जो परलोकवादी हैं उनके बारे में रीतिकाल के ही एक कवि ने कहा कि 'राधा कन्हाई सुमिरन को बहानो है', वास्तविक भक्ति नहीं है, बहाना है वह। कहना तो है किसी स्त्री और पुरुष के बारे में कुछ, तो डर लगता है कि ज्यादा कहेंगे तो पिटाई-विटाई होने लगेगी। परसाई जी ने एक व्यंग्य लिखा था कि कविता में सर्वनामों का प्रयोग क्यों होता है। अधिकांश कविताएँ 'वह' में लिखी जाती हैं। परसाई जी ने कहा कि वह में न लिखा जाय, संज्ञा में नाम ले कर लिखा जाय तो कोई चप्पल ले कर पहुँच जाएगी न घर पर! इसलिए सर्वनाम ही बचाता है। वही हाल है, अपने समय और समाज की चिंता नहीं है। खैर, हिंदी में केवल एक आलोचक ने, आप लोगों में जो छात्र हैं उनकी मदद के लिए कह रहा हूँ, केशवदास के इस काव्य के ऐतिहासिक महत्व पर विचार किया है। मिल जाए किताब कहीं तो पढ़िए। किताब मैं ले कर आया हूँ आपको दिखाने के लिए। यह किताब है चंद्रबली पांडेय की 'केशव दास' नाम से। कोई हिंदी का आलोचक इसका नाम नहीं लेता। जानते भी नहीं हैं लोग। उसके बाद केशवदास की दूसरी किताब है, यह थोड़ी छोटी है, 'जहाँगीर जस चंद्रिका'। मुझे लगता है कि इसके बारे में बिना बताए भी आप सीधे समझ जाएँगे कि सीधे मुगल इतिहास से जुड़ी है। मैं केशवदास के बारे में बहुत कुछ सोच कर आया था, मेरे पास नोट्‌स हैं, वह भी आपसे कहना चाहता था पर अब समय नहीं है। दूसरी एकाध बातें और कहूँगा।

केशवदास ने इसी 'वीर सिंह देव चरित' में राजनीति की विस्तार से चर्चा की है। रूपक में। यानी, केशवदास एक राजनीतिक कवि भी हैं। केशवदास ने एक ऐसे शब्द का उपयोग अपनी कविता में किया है जिसका उपयोग आज के कवि करते हैं, 'जनपद'। मैंने भक्ति काव्य बहुत पढ़ा है लेकिन मेरी जानकारी में किसी ने जनपद शब्द का उपयोग किया हो, मुझे नहीं मालूम। उसका संदर्भ ले कर आया हूँ आपके सामने लेकिन पढ़ूँगा नहीं। उसी 'वीर सिंह देव चरित' में। जनपद एकदम आधुनिक शब्द है, कोई नहीं जानता कि यह वहीं से आया है। आप लोगों को मालूम है कि आजकल जिला को या सब-डिवीजन को जनपद भी कहा जाता है। जनपद वैसे बहुत पुराना शब्द है। हिंदी के एक कवि हैं त्रिलोचन, उनकी कविता की किताब ही है, 'उस जनपद का कवि हूँ जो भूखा दूखा है!' इसलिए केशवदास पर ठीक से पुनर्विचार करने की जरूरत है। उनकी ऐतिहासिक दृष्टि, उनकी राजनीतिक चेतना पर नए सिरे से काम करने की जरूरत है पर उसके लिए मेहनत करनी पड़ेगी। आजकल लड़के-लड़कियाँ रिसर्च के नाम पर यात्रा कहाँ से कहाँ तक करते हैं, 'एक होस्टल से दूसरे होस्टल तक'। माने, लड़के लड़कियों के होस्टल तक और लड़कियाँ लड़कों के होस्टल तक, बस। इससे 'वीर सिंह देव चरित' नहीं मिलेगा। 'वीर सिंह देव चरित' या चंद्रबली पांडेय की किताब किसी पुरानी लाइब्रेरी में मिलेगी।

दूसरे इस काल के कवि जिनका सीधे इतिहास से संबंध है वे हैं भूषण। भूषण औरंगजेब के जमाने के कवि हैं। भूषण शिवाजी के समय के कवि हैं। मेरा ख्याल है यह तो आप लोगों को मालूम होगा कि उनके तीन ग्रंथ हैं और तीनों का संबंध इतिहास से है। 'शिवराजभूषण', यह शिवाजी पर है। 'शिवाबावनी', यह भी शिवा जी पर है। और उस समय ही मध्य प्रदेश के एक बहादुर राजा थे छत्रसाल, उन पर उनकी एक काव्य पुस्तक है, 'छत्रसाल प्रकाश'। इसका सीधे संबंध इतिहास से है। इस बात को और भी कम लोग जानते हैं, मित्रो, थोड़ी देर में उसकी और चर्चा करूँगा मैं, कि जिस समय औरंगजेब शासन कर रहा था (आप लोगों को मालूम है कि 1707 ई. में मरा वह) तब तक इस देश में अंग्रेज आ गए थे। रीतिकाल के चार कवि ऐसे हैं जो अंग्रेजों के आने से चिंतित थे। रामचंद्र शुक्ल ने भारतेंदु के प्रसंग में लिखा है कि जीवन दूसरी ओर जा रहा था और कविता दूसरी ओर जा रही थी यानी कि छाती पर अंग्रेजी साम्राज्यवाद चढ़ रहा था और कवि नायिका भेद की कविता कर रहे थे, यह पूरा सच नहीं है मित्रो। आप लोगों में से जिसको फुरसत हो, मैं किताब का नाम और छंद का नाम बता रहा हूँ भूषण के, उनकी किताब है 'शिवराज भूषण', उसमें छंद संख्या 116 और 261 इन दोनों में अंग्रेजों की चिंता है। 'शिवाबावनी' में छंद नं. 15 में अंग्रेजों की चिंता मौजूद है।

रीतिकाल के आखिरी महत्वपूर्ण कवि थे पद्माकर। मैं आपको पद्माकर का एक पूरा छंद पढ़ कर सुना रहा हूँ और तब आपको मालूम होगा कि रीतिकाल के कवि किस तरह से अंग्रेजों के आने से चिंतित थे। उस समय ग्वालियर का राजा था सिंधिया, बहुत प्रसिद्ध, माना जाता था बहादुर भी था, (माना जाता था इसलिए कह रहा हूँ कि मध्यकाल में बहादुर होने का एक ही अर्थ था कि कौन कहाँ से कितनी औरतों को भगा कर ले गया है, यही बहादुरी का एक प्रमाण था, वहाँ हर लड़ाई में यही होता था, मुझे नहीं मालूम सिंधिया ने यह भी किया था या नहीं, खैर) पद्माकर ने उनको एक चिट्ठी लिखी कविता में, मैं वही चिट्ठी या कविता पढ़ रहा हूँ (कविता से मालूम होगा कि पद्माकर को मालूम था कि अंग्रेज कहाँ-कहाँ अपनी जड़ जमा रहे हैं धीरे-धीरे) :

मीनागढ़, बंबई, सुमंद, मंदराज, बंग,
बंदर को बंद कर बंदर बसाओगे।
कहैं पद्माकर कसक कश्मीर हूँ को,
पिंजर सो घेरि के कलिंजर छुड़ाओगे।
बाका नृप दौलत अलीजा महराज कभौ,
साजि दल पकड़ फिरंगिन भगाओगे।
दिल्ली दहपट्टि, पटना हू को झपटि कर,
कबहूँ लत्ता कलकत्ता की उड़ाओगे॥

यह ललकारा था उन्होंने। पर कवि ललकार ही सकते हैं न। आजकल बहुत सारे कवि मनमोहन सिंह को ललकार रहे हैं। पर उन पर किसी चीज का फर्क नहीं पड़ता। पता नहीं सिंधिया पर कुछ फर्क पड़ा कि नहीं, कुछ किया तो नहीं उन्होंने पर कवि ने अपना काम किया। मैं आपसे यह कह रहा था कि क्या साबित होता है इससे! और भी मेरे पास कविताएँ हैं जो सीधे मुगल काल के इतिहास से जुड़ी हुई हैं। मैं उन सब को पढ़ नहीं रहा हूँ।

यह जो प्रवृत्ति है उससे लगता है कि रीतिकाल के कवि अपने समय के इतिहास से दो तरह से जुड़े थे, पहला तो यह कि सीधे उनका काल मुगल काल था उससे जुड़े हुए थे, उसका चित्रण-वर्णन अपने साहित्य में कर रहे थे और दूसरे आने वाली आफत अंग्रेजी राज की भी आपत्तियों-विपत्तियों को पहचानते थे, उसकी भी चर्चा कर रहे थे। घासीराम नाम के उस जमाने के एक कवि थे, आप लोगों में से कुछ को मालूम होगा कि उन्हीं के नाम पर विलासपुर में एक विश्वविद्यालय है, घासीराम ने लिखा सो पढ़ रहा हूँ आपसे, छंद का हिस्सा, उनकी किताब है - पथ्यापथ्य। 1834 ई. की। इसमें लिखा उन्होंने :

छाँड़ि के फिरंगिन को राज में सुधर्म काज
जहाँ पुण्य होत आज चलो उस देश को।

यानी, फिरंगियों के राज को छोड़ कर वहाँ चलो जहाँ पुण्य का काम होता हो, यहाँ तो सब पाप का काम होता है।

एक और कवि हैं रीतिकाल के, बहुत लोकप्रिय कवि हैं, आप लोग उन्हें जानते होंगे - दीनदयाल गिरि। बाबा दीनदयाल भी उनको कहा जाता है, उन्होंने लिखा है :

पराधीनता दुख महा, सुखी जगत स्वाघीन।
सुखी रमत सुक बन बिसय , कनक पींजरा दीन।

यह जो दोहा है, यह आधुनिककाल का लगता है। इस तरह की बात आज का कोई कवि कहेगा। जो तोता है, वह बन में तो सुख से रहता है लेकिन सोने के पिंजरे में भी रख दीजिए तो वह दीन हो जाता है। जंगल में स्वतंत्र रहता है। इससे ज्यादा चिंता मैथिलीशरण गुप्त के पास भी नहीं थी। स्वाधीनता के महत्व का गान कर रहे थे दीनदयाल गिरि। ऐसी कविता और ऐसे काल को रामचंद्र शुक्ल के कह देने से गरियाने का काम पिछले सौ साल से हो रहा है। ये कवि तो अपने समय के अंग्रेजी राज की पहचान कर रहे हैं, विरोध कर रहे हैं और रीतिकाल पर लिखी हुई एक किताब में भी क्या मजाल कि यह कहीं मिले। इसलिए मैं यह कह रहा हूँ। अभी दो एक उदाहरण और दूँगा। सीधे इतिहास से संबद्ध।

एक राजस्थान के कवि हैं, बूँदी में राज कवि थे, सूर्जबल मीसण नाम है। 'वंश भाष्कर' नाम का उनका महान ग्रंथ है। आठ खंडों में साहित्य अकादमी से छपा हुआ है। उसकी भाषा थोड़ी मुश्किल है, उसमें प्राकृत और राजस्थानी मिली-जुली है इसलिए प्रायः आज के छात्रों को समझ में नहीं आएगी। हम लोगों को ही कम ही समझ में आती है। मेहनत करके उसमें से कुछ निकालते हैं। उसमें एक तो बूँदी राजघराने का पूरा इतिहास है। दूसरा औरंगजेब और दाराशिकोह के बीच जो बादशाहत के लिए सारी लड़ाई हुई, उसका इतिहास है उसमें। दारा शिकोह मध्यकाल के बड़े ही ट्रैजिक और महान पात्र थे, उनका संदर्भ रीतिकाल की अनेक कविताओं में है। भूषण की अनेक कविताओं में है। इसके साथ ही यह इतनी महत्वपूर्ण किताब है कि, एक इतिहासकार हैं कानूनगो, पूरा नाम उनका भूल रहा हू, कानूनगो अंत में आता है, वे दाराशिकोह के इतिहासकार हैं, यदुनाथ सरकार के शिष्य थे, ढाका में प्रोफेसर थे इतिहास के, उन्होंने दाराशिकोह पर एक किताब लिखी है और 'वंश भाष्कर' का उल्लेख किया है। हिंदी क्षेत्र में क्या है कि साहित्य और इतिहास के सारे संबंध खत्म हो गए हैं। इतिहास वाले साहित्य नहीं जानते। वीर सिंह देव चरित के संबंध में चंद्रबली पांडेय ने लिखा है कि अकबर के शासन के बारे में और सलीम के विद्रोह के बारे में बहुत सारी ऐसी बातें केशवदास ने लिखी हैं जो बहुत सारे इतिहासकारों को नहीं मालूम। क्योंकि उनके समय के कवि थे। जानते थे, क्योंकि राज दरबारों में रहते थे। पुराने और जो महत्वपूर्ण इतिहासकार थे वे साहित्य भी पढ़ते थे। हिंदुस्तान में क्या है, साहित्य पढ़ते तो हैं लेकिन केवल वही साहित्य पढ़ते हैं जिस समय का कोई इतिहास नहीं मालूम है। मान लीजिए कि आप वैदिक काल के समाज का इतिहास खोजने चलिए तो ऋगवेद के अलावा कुछ नहीं मिलेगा आपको। ऋगवेद ही पढ़कर काम करेंगे। रोमिला थापर भी यही करती हैं और उनके विरोधी भी यही करते हैं। जब एक जगह आप साहित्य का उपयोग करते हैं तो बाद के दिनों में क्यों नहीं करते। मध्यकाल का इतिहास लिखने वालों को केशवदास को पढ़ना चाहिए। पर कौन समझाए उनको, जब हिंदी वाले नहीं पढ़ते तो इतिहासकार क्यों पढ़ें। इसलिए मित्रो, रीतिकाल पर नए ढंग से सोचने, समझने और विचार करने की जरूरत है। तब आपको मालूम होगा कि रीतिकाल की कविता के बारे में जो प्रायः धारणाएँ बनाई गई हैं उनमें से अनेक गलत हैं। इस कविता का एक गहरा ऐतिहासिक पक्ष है और एक गहरा राजनीतिक पक्ष भी है।

(दिल्ली के वेंकटेश्वर कॉलेज में 19 फरवरी 2013 को ' मध्यकालीन हिंदी कविता ' पर व्याख्यान।)