रीति ग्रंथकार कवि / रीतिकाल / शुक्ल

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हिन्दी साहित्य का इतिहास
उत्तर मध्यकाल: रीतिकाल (संवत् 1700 - 1900) / प्रकरण 2 - रीति ग्रंथकार कवि

हिन्दी साहित्य की गति का ऊपर जो संक्षिप्त उल्लेख हुआ, उससे रीतिकाल की सामान्य प्रवृत्ति का पता चल सकता है। अब इस काल के मुख्य मुख्य कवियों का विवरण दिया जाता है।

1. चिंतामणि त्रिपाठी ये तिकवाँपुर (जिला-कानपुर) के रहनेवाले और चार भाई थे,चिंतामणि, भूषण, मतिराम और जटाशंकर। चारों कवि थे, जिनमें प्रथम तीन तो हिन्दी साहित्य में बहुत यशस्वी हुए। इनके पिता का नाम रत्नाकर त्रिपाठी था। कुछ दिन से यह विवाद उठाया गया है कि भूषण न तो चिंतामणि और मतिराम के भाई थे, न शिवाजी के दरबार में थे। पर इतनी प्रसिद्ध बात का जब तक पर्याप्त विरुद्ध प्रमाण न मिले तब तक वह अस्वीकार नहीं की जा सकती। चिंतामणि का जन्मकाल संवत् 1666 के लगभग और कविताकाल संवत् 1700 के आसपास ठहरता है। इनका 'कविकुलकल्पतरु' नामक ग्रंथ संवत् 1707 का लिखा है। इनके संबंध में शिवसिंहसरोज में लिखा है कि 'ये बहुत दिन तक नागपुर में सूर्यवंशी भोसला मकरंदशाह के यहाँ रहे और उन्हीं के नाम पर 'छंद विचार' नामक पिंगल का बहुत भारी ग्रंथ बनाया और 'काव्य विवेक', 'कविकुलकल्पतरु', 'काव्यप्रकाश', 'रामायण' ये पाँच ग्रंथ इनके बनाए हुए हमारे पुस्तकालय में मौजूद हैं। इनकी बनाई रामायण कवित्त और अन्य नाना छंदों में बहुत अपूर्व है। बाबू रुद्रसाहि सोलंकी, शाहजहाँ बादशाह और जैनदीं अहमद ने इनको बहुत दान दिए हैं। इन्होंने अपने ग्रंथ में कहीं कहीं अपना नाम मणिमाल भी कहा है।'

ऊपर के विवरण से स्पष्ट है कि चिंतामणि ने काव्य के सब अंगों पर ग्रंथ लिखे। इनकी भाषा ललित और सानुप्रास होती थी। अवध के पिछले कवियों की भाषा देखते हुए इनकी ब्रजभाषा विशुद्ध दिखाई पड़ती है। विषय वर्णन की प्रणाली भी मनोहर है। ये वास्तव में एक उत्कृष्ट कवि थे। रचना के कुछ नमूने देखिए,

येई उधारत हैं तिन्हैं जे परे मोह महोदधि के जल फेरे।

जे इनको पल ध्यान धारैं मन, ते न परैं कबहूँ जम घेरे

राजै रमा रमनी उपधान अभै बरदान रहैं जन नेरे।

हैं बलभार उदंड भरे हरि के भुजदंड सहायक मेरे


इक आजु मैं कुंदन बेलि लखी मनिमंदिर की रुचिवृंद भरैं।

कुरविंद के पल्लव इंदु तहाँ अरविंदन तें मकरंद झरैं

उत बुंदन के मुकतागन ह्वै फल सुंदर द्वै पर आनि परै।

लखि यों दुति कंद अनंद कला नँदनंद सिलाद्रव रूप धारैं


ऑंखिन मुँदिबे के मिस आनि अचानक पीठि उरोज लगावै।

कैहूँ कहूँ मुसकाय चितै अंगराय अनूपम अंग दिखावै

नाह छुई छल सो छतियाँ हँसि भौंह चढ़ाय अनंद बढ़ावै।

जोबन के मद मत्ता तिया हित सों पति को नित चित्त चुरावै

2. बेनी ये असनी के बंदीजन थे और संवत् 1700 के आसपास विद्यमान थे। इनका कोई ग्रंथ नहीं मिलता पर फुटकल कवित्त बहुत से सुने जाते हैं जिनसे यह अनुमान होता है कि इन्होंने नख शिख और षट् ऋतु पर पुस्तकें लिखी होंगी। कविता इनकी साधारणत: अच्छी होती थी। भाषा चलती होने पर भी अनुप्रासयुक्त होती थी। दो उदाहरण नीचे दिए जाते हैं,

छहरैं सिर पै छवि मोरपखा, उनकी नथ के मुकुता थहरैं।

फहरै पियरो पट बेनी इतै, उनकी चुनरी के झबा झहरैं

रसरंग भिरे अभिरे हैं तमाल दोऊ रसख्याल चहैं लहरैं।

नित ऐसे सनेह सों राधिका स्याम हमारे हिए में सदा बिहरैं


कवि बेनी नई उनई है घटा, मोरवा बन बोलत कूकन री।

छहरै बिजुरी छितिमंडल छ्वै, लहरै मन मैन भभूकन री।

पहिरौ चुनरी चुनिकै दुलही, सँग लाल के झूलहु झूकन री।

ऋतु पावस यों ही बितावत हौ, मरिहौ, फिरि बावरि! हूकन री

3. महाराज जसवंत सिंह ये मारवाड़ के प्रसिद्ध महाराज थे जो अपने समय के सबसे प्रतापी हिंदू नरेश थे और जिनका भय औरंगजेब को बराबर बना रहता था। इनका जन्म संवत् 1683 में हुआ। वे शाहजहाँ के समय में ही कई लड़ाइयों पर जा चुके थे। महाराज गजसिंह के ये दूसरे पुत्र थे और उनकी मृत्यु के उपरांत संवत् 1695 में गद्दी पर बैठे। इनके बड़े भाई अमरसिंह अपने उद्ध त स्वभाव के कारण पिता द्वारा अधिकारच्युत कर दिए गए थे। महाराज जसवंत सिंह बडे अच्छे साहित्यमर्मज्ञ और तत्वज्ञानसंपन्न पुरुष थे। उनके समय में राज्य भर में विद्या की बड़ी चर्चा रही और अच्छे अच्छे कवियों और विद्वानों का बराबर समागम होता रहा। महाराज ने स्वयं तो अनेक ग्रंथ लिखे ही, अनेक विद्वाना और कवियों से न जाने कितने ग्रंथ लिखवाए। औरंगजेब ने इन्हें कुछ दिनों के लिए गुजरात का सूबेदार बनाया था। वहाँ से शाइस्ता खाँ के साथ ये छत्रापति शिवाजी के विरुद्ध दक्षिण भेजे गए थे। कहते हैं कि चढ़ाई में शाइस्ताखाँ की जो दुर्गति हुई वह बहुत कुछ इन्हीं के इशारे से। अंत में ये अफगानों को सर करने के लिए काबुल भेजे गए जहाँ संवत् 1745 में इनका परलोकवास हुआ।

ये हिन्दी साहित्य के प्रधान आचार्यों में माने जाते हैं और इनका 'भाषाभूषण' ग्रंथ अलंकारों पर एक बहुत ही प्रचलित पाठयग्रंथ रहा है। इस ग्रंथ को इन्होंने वास्तव में आचार्य के रूप में लिखा है, कवि के रूप में नहीं। प्राक्कथन में इस बात का उल्लेख हो चुका है कि रीतिकाल के भीतर जितने लक्षण ग्रंथ लिखने वाले हुए वे वास्तव में कवि थे और उन्होंने कविता करने के उद्देश्य से ही वे ग्रंथ लिखे थे, न कि विषय प्रतिपादन की दृष्टि से। पर महाराज जसवंत सिंह जी इस नियम के अपवाद थे। वे आचार्य की हैसियत से हिन्दी साहित्य क्षेत्र में आए, कवि की हैसियत से नहीं। उन्होंने अपना 'भाषाभूषण' बिल्कुल 'चंद्रलोक' की छाया पर बनाया और उसी की संक्षिप्त प्रणाली का अनुसरण किया। जिस प्रकार चंद्रालोक में प्राय: एक ही श्लोक के भीतर लक्षण और उदाहरण दोनों का सन्निवेश है उसी प्रकार 'भाषाभूषण' में भी प्राय: एक ही दोहे में लक्षण और उदाहरण दोनों रखे गए हैं। इससे विद्यार्थियों को अलंकार कंठ करने में बड़ा सुबीता हो गया और 'भाषाभूषण' हिन्दी काव्य रीति के अभ्यासियों के बीच वैसा ही सर्वप्रिय हुआ जैसा कि संस्कृत के विद्यार्थियों के बीच चंद्रालोक। भाषाभूषण बहुत छोटा सा ग्रंथ है।

भाषाभूषण के अतिरिक्त जो और ग्रंथ इन्होंने लिखा है वे तत्वज्ञान संबंधी हैं; जैसे अपरोक्षसिध्दांत, अनुभवप्रकाश, आनंदविलास, सिध्दांतबोध, सिध्दांतसार, प्रबोधचंद्रोदय नाटक। ये सब ग्रंथ भी पद्य में ही हैं, जिनसे पद्य रचना की पूरी निपुणता प्रकट होती है। पर साहित्य से जहाँ तक संबंध है, ये आचार्य या शिक्षक के रूप में ही हमारे सामने आते हैं। अलंकारनिपुणता की इनकी पद्ध ति का परिचय कराने के लिए 'भाषाभूषण' के दो दोहे नीचे दिए जाते हैं,

अत्युक्ति, अलंकार अत्युक्ति यह बरनत अतिसय रूप।

जाचक तेरे दान तें भए कल्पतरु भूप

पर्यस्तापह्नुति, पर्यस्त जु गुन एक को और विषय आरोप।

होइ सुधाधर नाहिं यह वदन सुधाधर ओप

ये दोहे चंद्रालोक के इन श्लोकों की स्पष्ट छाया हैं,

अत्युक्तिरद्भुतातथ्य शौर्यौ दार्यादि वर्णनम्।

त्वयि दातारि राजेंद्र याचका: कल्पशाखिन:।

पर्य्यास्तापह्नुतिर्यत्रा धर्ममात्रां निषिधयते।

नायं सुधांशु: किं तर्हि सुधांशु: प्रेयसीमुखम्

भाषाभूषण पर पीछे तीन टीकाएँ रची गईं,'अलंकार रत्नाकर' नाम की टीका जिसे बंशीधार ने संवत् 1792 में बनाया, दूसरी टीका प्रतापसाहि की और तीसरी गुलाब कवि की 'भूषणचंद्रिका'।

4. बिहारीलाल,ये माथुर चौबे कहे जाते हैं और इनका जन्म ग्वालियर के पास बसुवा गोविंदपुर गाँव में संवत् 1660 के लगभग माना जाता है। एक दोहे के अनुसार इनकी बाल्यावस्था बुंदेलखंड में बीती और तरुणावस्था में ये अपनी ससुराल मथुरा में आ रहे। अनुमानत: ये संवत् 1720 तक वर्तमान रहे। ये जयपुर के मिर्जा राजा जयसाह (महाराज जयसिंह) के दरबार में रहा करते थे। कहा जाता है कि जिस समय ये कवीश्वर जयपुर पहुँचे उस समय महाराज अपनी छोटी रानी के प्रेम में इतने लीन रहा करते थे कि राजकाज देखने के लिए महलों के बाहर निकलते ही न थे। इस पर सरदारों की सलाह से बिहारी ने यह दोहा किसी प्रकार महाराज के पास भीतर भिजवाया,

नहिं पराग नहिं मधुर मधु नहिं विकास यहि काल।

अली कली ही सों बँधयो आगे कौन हवाल

कहते हैं कि इस पर महाराज बाहर निकले और तभी से बिहारी का मान बहुत अधिक बढ़ गया। महाराज ने बिहारी को इसी प्रकार के सरस दोहे बनाने की आज्ञा दी। बिहारी दोहे बनाकर सुनाने लगे और प्रति दोहे पर एक अशरफी मिलने लगी। इस प्रकार सात सौ दोहे बने जो संगृहीत होकर 'बिहारी सतसई' के नाम से प्रसिद्ध हुए।

श्रृंगाररस के ग्रंथों में जितनी ख्याति और जितना मान 'बिहारी सतसई' का हुआ उतना और किसी का नहीं। इसका एक एक दोहा हिन्दी साहित्य में एक एक रत्न माना जाता है। इसकी पचासों टीकाएँ रची गईं। इन टीकाओं में 4-5 टीकाएँ तो बहुत प्रसिद्ध हैं,कृष्ण कवि की टीका जो कवित्तों में है, हरिप्रकाश टीका, लल्लूजी लाल की लाल चंद्रिका, सरदार कवि की टीका और सूरति मिश्र की टीका। इन टीकाओं के अतिरिक्त बिहारी के दोहों के भाव पल्लवित करने वाले छप्पय, कुंडलियाँ, सवैया आदि कई कवियों ने रचे। पठान सुलतान की कुंडलियाँ इन दोहों पर बहुत अच्छी हैं, पर अधूरी हैं। भारतेंदु हरिश्चंद्र ने कुछ और कुंडलियाँ रचकर पूर्ति करनी चाही थी। पं. अंबिकादत्त व्यास ने अपने 'बिहारी बिहार' में सब दोहों के भावों को पल्लवित करके रोला छंद लगाए हैं। पं. परमानंद ने 'श्रृंगार सप्तशती' के नाम से दोहों का संस्कृत अनुवाद किया है। यहाँ तक कि उर्दू शेरों में भी एक अनुवाद थोड़े दिन हुए बुंदेलखंड के मुंशी देवीप्रसाद (प्रीतम) ने लिखा। इस प्रकार बिहारी संबंधी एक अलग साहित्य ही खड़ा हो गया है। इतने से ही इस ग्रंथ की सर्वप्रियता का अनुमान हो सकता है। बिहारी का सबसे उत्तम और प्रामाणिक संस्करण बड़ी मार्मिक टीका के साथ थोड़े दिन हुए प्रसिद्ध साहित्यमर्मज्ञ और ब्रजभाषा के प्रधान आधुनिक कवि बाबू जगन्नाथदास 'रत्नाकर' ने निकाला। जितने श्रम और जितनी सावधानी से यह संपादित हुआ है, आज तक हिन्दी का और कोई ग्रंथ नहीं हुआ।

बिहारी ने इस सतसई के अतिरिक्त और कोई ग्रंथ नहीं लिखा। यही एक ग्रंथ उनकी इतनी बड़ी कीर्ति का आधार है। यह बात साहित्य क्षेत्र के इस तथ्य की स्पष्ट घोषणा कर रही है कि किसी कवि का यश उसकी रचनाओं के परिमाण के हिसाब से नहीं होता, गुण के हिसाब से होता है। मुक्तक कविता में जो गुण होना चाहिए वह बिहारी के दोहों में अपने चरम उत्कर्ष को पहुँचा है, इसमें कोई संदेह नहीं। मुक्तक में प्रबंध के समान रस की धारा नहीं रहती जिसमें कथा प्रसंग की परिस्थिति में अपने को भूला हुआ पाठक मग्न हो जाता है और हृदय में एक स्थायी प्रभाव ग्रहण करता है। इसमें तो रस के ऐसे छींटे पड़ते हैं जिनसे हृदयकलिका थोड़ी देर के लिए खिल उठती है। यदि प्रबंधकाव्य एक विस्तृत वनस्थली है तो मुक्तक एक चुना हुआ गुलदस्ता है। इसी से यह सभा समाजों के लिए अधिक उपयुक्त होता है। उसमें उत्तरोत्तर अनेक दृश्यों द्वारा संगठित पूर्ण जीवन या उसके किसी एक पूर्ण अंग का प्रदर्शन नहीं होता, बल्कि कोई एक रमणीय खंडदृश्य इस प्रकार सहसा सामने ला दिया जाता है कि पाठक या श्रोता कुछ क्षणों के लिए मंत्रमुग्धा सा हो जाता है। इसके लिए कवि को अत्यंत मनोरम वस्तुओं और व्यापारों का एक छोटा सा स्तवक कल्पित करके उन्हें अत्यंत संक्षिप्त और सशक्त भाषा में प्रदर्शित करना पड़ता है। अत: जिस कवि में कल्पना की समाहारशक्ति के साथ भाषा की समाहारशक्ति जितनी अधिक होगी उतनी ही वह मुक्तक की रचना में सफल होगा। यह क्षमता बिहारी में पूर्ण रूप से वर्तमान थी। इसी से वे दोहे ऐसे छोटे छंद में इतना रस भर सके हैं। इनके दोहे क्या हैं, रस के छोटे छोटे छींटे हैं। इसी से किसी ने कहा है,

सतसैया के दोहरे ज्यों नावक के तीर।

देखत में छोटे लगैं बेधौं सकल शरीर

बिहारी की रसव्यंजना का पूर्ण वैभव उनके अनुभावों के विधान में दिखाई पड़ता है। अधिक स्थलों पर तो इनकी योजना की निपुणता और उक्तिकौशल के दर्शन होते हैं, पर इस विधान से इनकी कल्पना की मधुरता झलकती है। अनुभावों और हावों की ऐसी सुंदर योजना कोई श्रृंगारी कवि नहीं कर सका है। नीचे की हावभरी सजीव मूर्तियाँ देखिए,

बतरस लालच लाल की मुरली धारि लुकाइ।

सौंह करै, भौंहनि हँसे, देन कहै, नटि जाइ

नासा मोरि, नचाइ दृग, करी कका की सौंह।

काँटे सी कसकै हिए, गड़ी कँटीली भौंह

ललन चलनु सुनि पलनु में अंसुवा झलके आइ।

भई लखाइ न सखिनु हँ, झूठैं ही जमुहाइ

भावव्यंजना या रसव्यंजना के अतिरिक्त बिहारी ने वस्तुव्यंजना का सहारा भी बहुत लिया है,विशेषत: शोभा या कांति, सुकुमारता, विरहताप, विरह की क्षीणता आदि के वर्णन में। कहीं कहीं वस्तुव्यंजना औचित्य की सीमा का उल्लंघन करके खेलवाड़ के रूप में हो गई है; जैसेइन दोहों में,

पत्रा की तिथि पाइयै, वा घर के चहुँ पास।

नित प्रति पून्यौईं रहै आनन ओप उजास

छाले परिबे के डरनु सकै न हाथ छुवाइ।

झिझकति हियैं गुलाब कैं झवा झवावति पाइ

इत आवति चलि जात उत चली छ सातक हाथ।

चढ़ी हिंडोरे सैं रहै लगी उसासन साथ

सीरैं जतननि सिसिर ऋतु सहि बिरहिनि तनताप।

बसिबे कौं ग्रीषम दिनन परयो परोसिनि पाप

आड़े दै आले बसन जाड़े हूँ की राति।

साहसु ककै सनेहबस, सखी सबै ढिग जाति

अनेक स्थानों पर इनके व्यंग्यार्थ को स्फुट करने के लिए बड़ी क्लिष्ट कल्पना अपेक्षित होती है। ऐसे स्थलों पर केवल रीति या रूढ़ि ही पाठक की सहायता करती है और उसे पूरे प्रसंग का आक्षेप करना पड़ता है। ऐसे दोहे बिहारी में बहुत से हैं, पर यहाँ दो एक उदाहरण ही पर्याप्त होंगे,

ढीठि परोसिनि ईठ ह्वै कहे जु गहे सयान।

सबै सँदेसे कहि कह्यो मुसुकाहट मैं मान

नए बिरह बढ़ती बिथा खरी बिकल जिय बाल।

बिलखी देखि परोसिन्यौं हरषि हँसी तिहि काल

इन उदाहरणों से यह स्पष्ट है कि बिहारी का 'गागर में सागर' भरने का जो गुण इतना प्रसिद्ध है वह बहुत कुछ रूढ़ि की स्थापना से ही संभव हुआ है। यदि नायिकाभेद की प्रथा इतने जोर शोर से न चल गई होती तो बिहारी को इस प्रकार की पहेली बुझाने का साहस न होता।

अलंकारों की योजना भी इस कवि ने बड़ी निपुणता से की है। किसी किसी दोहे में कई अलंकार उलझ पड़े हैं, पर उनके कारण कहीं भद्दापन नहीं आया है। 'असंगति' और 'विरोधाभास' की ये मार्मिक और प्रसिद्ध उक्तियाँ कितनी अनूठी हैं,

दृग अरुझत, टूटत कुटुम, जुरत चतुर चित प्रीति।

परति गाँठ दुरजन हियैं; दई, नई यह रीति

तंत्रीनाद कबित्ता रस, सरस राग रति रंग।

अनबूड़े बूड़े, तिरे जे बूड़े सब अंग

दो-एक जगह व्यंग्य अलंकार भी बड़े अच्छे ढंग से आए हैं। इस दोहे में रूपक व्यंग्य है,

करे चाह सों चुटकि कै खरे उड़ौहैं मैन।

लाज नवाए तरफरत करत खूँद सी नैन

श्रृंगार के संचारी भावों की व्यंजना भी ऐसी मर्मस्पर्शिनी है कि कुछ दोहे सहृदयों के मुँह से बार बार सुने जाते हैं। इस स्मरण में कैसी गम्भीर तन्मयता है,

सघन कुंज छाया सुखद सीतल सुरभि समीर।

मन ह्वै जात अजौं वहै उहि जमुना के तीर

विशुद्ध काव्य के अतिरिक्त बिहारी ने सूक्तियाँ भी बहुत सी कही हैं जिनमेंबहुतसीनीतिसंबंधिनी हैं। सूक्तियों में वर्णनवैचित्रय या शब्दवैचित्रय ही प्रधान रहता है। अत: उनमें से कुछ एक की ही गणना असल काव्य में हो सकती है। केवलशब्दवैचित्रय के लिए बिहारी ने बहुत कम दोहे रचे हैं। कुछ दोहे यहाँ दिए जाते हैं,

यद्यपि सुंदर सुघर पुनि सगुणौ दीपक देह।

तऊ प्रकास करै तितो भरिए जितो सनेह

कनक-कनक तें सौ गुनी मादकता अधिाकाय।

वह खाए बौराय नर, यह पाए बौराय।

तो पर वारौं उरबसी, सुनि राधिाके सुजान।

तू मोहन कैं उर बसी, ह्वै उरबसी समान

बिहारी के बहुत से दोहे 'आर्यासप्तशती' और 'गाथासप्तशती' की छाया लेकर बने हैं, इस बात को पं. पद्मसिंह शर्मा ने विस्तार से दिखाया है। पर साथ ही, उन्होंने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि बिहारी ने गृहीत भावों को अपनी प्रतिभा के बल से किस प्रकार एक स्वतंत्र और कहीं कहीं अधिक सुंदर रूप दे दिया है।

बिहारी की भाषा चलती होने पर भी साहित्यिक है। वाक्य रचना व्यवस्थित है और शब्दों के रूप का व्यवहार एक निश्चित प्रणाली पर है। यह बात बहुत कम कवियों में पाई जाती है। ब्रजभाषा के कवियों में शब्दों को तोड़ मरोड़ कर विकृत करने की आदत बहुतों में पाई जाती है। 'भूषण' और 'देव' ने शब्दों का बहुत अंग भंग किया है और कहीं कहीं गढ़ंत शब्दों का व्यवहार किया है। बिहारी की भाषा इस दोष से भी बहुत कुछ मुक्त है। दो एक स्थल पर ही 'स्मर' के लिए 'समर' ऐसे कुछ विकृत रूप मिलेंगे। जो यह भी नहीं जानते कि क्रांति को 'संक्रमण' (अप. सक्रोन) भी कहते हैं, 'अच्छ' साफ के अर्थ में संस्कृत शब्द है, 'रोज' रुलाई के अर्थ में आगरे के आसपास बोला जाता है और कबीर, जायसी आदि द्वारा बराबर व्यवहृत हुआ है, 'सोनजाइ' शब्द 'स्वर्णजाति' से निकला है,जुही से कोई मतलब नहीं, संस्कृत में 'वारि' और 'वार' दोनों शब्द हैं और 'वार्द' का अर्थ भी बादल है, 'मिलान' पड़ाव या मुकाम के अर्थ में पुरानी कविता में भरा पड़ा है, चलती ब्रजभाषा में 'पिछानना' रूप ही आता है, 'खटकति' का रूप बहुवचन में भी यही रहेगा, यदि पचासों शब्द उनकी समझ में न आएँ तो बेचारे बिहारी का क्या दोष?

बिहारी ने यद्यपि लक्षण ग्रंथ के रूप में अपनी 'सतसई' नहीं लिखी है, पर 'नखशिख', 'नायिकाभेद', 'षट् ऋतु' के अंतर्गत उनके सब श्रृंगारी दोहे आ जाते हैं और कई टीकाकारों ने दोहों को इस प्रकार के साहित्यिक क्रम के साथ रखा भी है। जैसा कि कहा जा चुका है, दोहों को बनाते समय बिहारी का ध्यान लक्षणों पर अवश्य था। इसीलिए हमने बिहारी को रीतिकाल के फुटकल कवियों में न रख, उक्त काल के प्रतिनिधि कवियों में ही रखा है।

बिहारी की कृति का मूल्य जो बहुत अधिक ऑंका गया है उसे अधिकतर रचना की बारीकी या काव्यांगों के सूक्ष्म विन्यास की निपुणता की ओर ही मुख्यत: दृष्टि रखनेवाले पारखियों के पक्ष से समझना चाहिए, उनके पक्षों से समझना चाहिए जो किसी हाथी दाँत के टुकड़े पर महीन बेलबूटे देख घंटों वाह वाह किया करते हैं। पर जो हृदय के अंतस्तल पर मार्मिक प्रभाव चाहते हैं, किसी भाव की स्वच्छ निर्मल धारा में कुछ देर अपना मन मग्न रखना चाहते हैं, उनका संतोष बिहारी से नहीं हो सकता। बिहारी का काव्य हृदय में किसी ऐसी लय या संगीत का संचार नहीं करता जिसकी स्वरधारा कुछ काल तक गूँजती रहे। यदि घुले हुए भावों का आभ्यंतर प्रवाह बिहारी में होता तो वे एक एक दोहे पर ही संतोष न करते। मार्मिक प्रभाव का विचार करें तो देव और पद्माकर के कवित्त सवैयों का सा गूँजनेवाला प्रभाव बिहारी के दोहों का नहीं पड़ता।

दूसरी बात यह है कि भावों का बहुत उत्कृष्ट और उदात्ता स्वरूप बिहारी में नहीं मिलता। कविता उनकी श्रृंगारी है, पर प्रेम की उच्च भूमि पर नहीं पहुँचती, नीचे ही रह जाती है।

5. मंडन ये जैतपुर (बुंदेलखंड) के रहने वाले थे और संवत् 1716 में राजा मंगदसिंह के दरबार में वर्तमान थे। इनके फुटकल कवित्त सवैये बहुत सुने जाते हैं, पर कोई ग्रंथ अब तक प्रकाशित नहीं हुआ है। पुस्तकों की खोज में इनके पाँच ग्रंथों का पता लगा है, रसरत्नावली, रसविलास, जनकपचीसी, जानकी जू को ब्याह, नैन पचासा।

प्रथम दो ग्रंथ रसनिरूपण पर हैं, यह उनके नामों से ही प्रकट होता है। संग्रह ग्रंथों में इनके कवित्त सवैये बराबर मिलते हैं। 'जेइ जेइ सुखद दुखद अब तेइ तेइ कवि मंडन बिछुरत जदुपत्ती' यह पद भी इनका मिलता है। इससे जान पड़ता है कि कुछ पद भी इन्होंने रचे थे। जो पद्य इनके मिलते हैं उनसे ये बड़ी सरस कल्पना के भावुक कवि जान पड़ते हैं। भाषा इनकी बड़ी स्वाभाविक, चलती और व्यंजनापूर्ण होती थी। उसमें और कवियों का सा शब्दाडंबर नहीं दिखाई पड़ता। यह सवैया देखिए,

अलि हौं तो गई जमुना जल को, सो कहा कहौं वीर! विपत्ति परी।

घहराय कै कारी घटा उनई, इतनेई में गागरि सीस धरी

रपटयो पग, घाट चढयो न गयो, कवि मंडन ह्वै कै बिहाल गिरी।

चिर जीवहु नंद के बारो, अरी, गहि बाँह गरीब ने ठाढ़ी करी

6. मतिराम, ये रीतिकाल के मुख्य कवियों में हैं और चिंतामणि तथा भूषण के भाई परंपरा से प्रसिद्ध हैं। ये तिकवाँपुर (जिला, कानपुर) में संवत् 1674 के लगभग उत्पन्न हुए थे और बहुत दिनों तक जीवित रहे। ये बूँदी के महाराव भावसिंह के यहाँ बहुत काल तक रहे और उन्हीं के आश्रय में अपना 'ललितललाम' नामक अलंकार का ग्रंथ संवत् 1716 और 1745 के बीच किसी समय बनाया। इनका 'छंदसार' नामक पिंगल ग्रंथ महाराज शंभुनाथ सोलंकी को समर्पित है। इनका परम मनोहर ग्रंथ 'रसराज' किसी को समर्पित नहीं है। इनके अतिरिक्त इनके दो ग्रंथ और हैं, 'साहित्यसार' और 'लक्षण श्रृंगार'। बिहारी सतसई के ढंग पर इन्होंने एक 'मतिराम सतसई' भी बनाई जो हिन्दी पुस्तकों की खोज में मिली है। इसके दोहे सरसता में बिहारी के दोहों के समान ही हैं।

मतिराम की रचना की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उसकी सरलता अत्यंत स्वाभाविक है, न तो उसमें भावों की कृत्रिमता है, न भाषा की। भाषा शब्दाडंबर से सर्वथा मुक्त है। केवल अनुप्रास के चमत्कार के लिए अशक्त शब्दों की भर्ती कहीं नहीं है। जितने शब्द और वाक्य हैं, वे सब भावव्यंजना में ही प्रयुक्त हैं। रीतिग्रंथ वाले कवियों में इस प्रकार की स्वच्छ, चलती और स्वाभाविक भाषा कम कवियों में मिलती है, पर कहीं कहीं वह अनुप्रास के जाल में बेतरह जकड़ी पाई जाती है। सारांश यह कि मतिराम की सी रसस्निग्ध और प्रसादपूर्ण भाषा रीति का अनुसरण करनेवालों में बहुत ही कम मिलती है।

भाषा के ही समान मतिराम के न तो भाव कृत्रिम हैं और न उनके व्यंजक व्यापार और चेष्टाएँ। भावों को आसमान पर चढ़ाने और दूर की कौड़ी लाने के फेर में ये नहीं पड़े हैं। नायिका के विरहताप को लेकर बिहारी के समान मजाक इन्होंने नहीं किया है। इनके भावव्यंजक व्यापारों की श्रृंखला सीधी और सरल है, बिहारी के समान चक्करदार नहीं। वचनक्रता भी इन्हें बहुत पसंद न थी। जिस प्रकार, शब्दवैचित्रय को ये वास्तविक काव्य से पृथक् वस्तु मानते थे, उसी प्रकार खयाल की झूठी बारीकी को भी। इनका सच्चा कविहृदय था। ये यदि समय की प्रथा के अनुसार रीति की बँधी लीकों पर चलने के लिए विवश न होते, अपनी स्वाभाविक प्रेरणा के अनुसार चलने पाते, तो और भी स्वाभाविक और सच्ची भावविभूति दिखाते, इसमें कोई संदेह नहीं। भारतीय जीवन से छाँटकर लिए हुए इनके मर्मस्पर्शी चित्रों में जो भाव भरे हैं, वे समान रूप से सबकी अनुभूति के अंग हैं।

'रसराज' और 'ललितललाम' मतिराम के ये दो ग्रंथ बहुत प्रसिद्ध हैं, क्योंकि रस और अलंकार की शिक्षा में इनका उपयोग बराबर होता चला आया है। वास्तव में अपने विषय के ये अनुपम ग्रंथ हैं। उदाहरणों की रमणीयता से अनायास रसों और अलंकारों का अभ्यास होता चलता है। 'रसराज' का तो कहना ही क्या है। 'ललितललाम' में भी अलंकारों के उदाहरण बहुत सरस और स्पष्ट हैं। इसी सरसता और स्पष्टता के कारण ये दोनों ग्रंथ इतने सर्वप्रिय रहे हैं। रीतिकाल के प्रतिनिधि कवियों में पद्माकर को छोड़ और किसी कवि में मतिराम की सी चलती भाषा और सरल व्यंजना नहीं मिलती। बिहारी की प्रसिद्धि का कारण बहुत कुछ वाग्वैदग्ध्य है। दूसरी बात यह है कि उन्होंने केवल दोहे कहे हैं, इससे उनमें वह नादसौंदर्य नहीं आ सका है जो कवित्त सवैये की लय के द्वारा संघटित होता है।

मतिराम के कविता के कुछ उदाहरण नीचे दिए जाते हैं,

कुंदन को रँग फीको लगै, झलकै अति अंगनि चारु गोराई।

ऑंखिन में अलसानि चितौनि में मंजु विलासन की सरसाई

को बिनु मोल बिकात नहीं मतिराम लहे मुसकानि मिठाई।

ज्यों ज्यों निहारिए नेरे ह्वै नैननि त्यौं त्यौं खरी निकरै सी निकाई


क्यों इन ऑंखिन सों निहसंक ह्वै मोहन को तन पानिप पीजै।

नेकु निहारे कलंक लगै यहि गाँव बसे कहु कैसे कै जीजै

होत रहै मन यों मतिराम कहूँ बन जाय बड़ो तप कीजै।

ह्वै बनमाल हिए लगिए अरु ह्वै मुरली अधारारस पीजै


केलि कै राति अघाने नहीं दिन ही में लला पुनि घात लगाई।

प्यास लगी, कोउ पानी दै जाइयो, भीतर बैठि कै बात सुनाई

जेठी पठाई गई दुलही हँसि हेरि हरैं मतिराम बुलाई।

कान्ह के बोल पे कान न दीन्हीं सुगेह की देहरि पै धारि आई


दोऊ अनंद सो ऑंगन माँझ बिराजै असाढ़ की साँझ सुहाई।

प्यारी के बूझत और तिया को अचानक नाम लियो रसिकाई

आई उनै मुँह में हँसी, कोहि तिया पुनि चाप सी भौंह चढ़ाई।

ऑंखिन तें गिरे ऑंसुन के बूँद, सुहास गयो उड़ि हंस की नाई


सूबन को मेटि दिल्ली देस दलिबे को चमू,

सुभट समूह निसि वाकी उमहति है।

कहै मतिराम ताहि रोकिबे को संगर में,

काहू के न हिम्मत हिए में उलहति है

सत्रुसाल नंद के प्रताप की लपट सब,

गरब गनीम बरगीन को दहति है।

पति पातसाह की, इजति उमरावन की,

राखी रैया राव भावसिंह की रहति है

7. भूषण वीररस के ये प्रसिद्ध कवि चिंतामणि और मतिराम के भाई थे। इनका जन्मकाल संवत् 1670 है। चित्रकूट के सोलंकी राजा रुद्र ने इन्हें 'कविभूषण' की उपाधि दी थी। तभी से ये भूषण के नाम से ही प्रसिद्ध हो गए। इनका असली नाम क्या था, इसका पता नहीं। ये कई राजाओं के यहाँ रहे। अंत में इनके मन के अनुकूल आश्रयदाता, जो इनके वीरकाव्य के नायक हुए, छत्रापति महाराज शिवाजी मिले। पन्ना के महाराज छत्रसाल के यहाँ भी इनका बड़ा मान हुआ। कहते हैं कि महाराज छत्रसाल ने इनकी पालकी में अपना कंधा लगाया था जिस पर इन्होंने कहा था, 'सिवा को बखानौं कि बखानौं छत्रसाल को।' ऐसा प्रसिद्ध है कि इन्हें एक एक छंद पर शिवाजी से लाखों रुपये मिले। इनका परलोकवास संवत् 1772 में माना जाता है।

रीतिकाल के भीतर श्रृंगाररस की ही प्रधानता रही। कुछ कवियों ने अपने आश्रयदाताओं की स्तुति में उनके प्रताप आदि के प्रसंग में उनकी वीरता का भी थोड़ा बहुत वर्णन अवश्य किया है पर वह शुष्क प्रथापालन के रूप में ही होने के कारण ध्यान देने योग्य नहीं है। ऐसे वर्णनों के साथ जनता की हार्दिक सहानुभूति कभी नहीं हो सकती थी। पर भूषण ने जिन दो नायकों की कृति को अपने वीर काव्य का विषय बनाया वे अन्यायदमन में तत्पर, हिंदू धर्म के संरक्षक, दो इतिहासप्रसिद्ध वीर थे। उनके प्रति भक्ति और सम्मान की प्रतिष्ठा हिंदू जनता के हृदय में उस समय भी थी और आगे भी बराबर बनी रही या बढ़ती गई। इसी से भूषण के वीररस के उद्गार सारी जनता के हृदय की संपत्ति हुए। भूषण की कविता कविकीर्ति संबंधी एक अविचल सत्य का दृष्टांत है। जिसकी रचना को जनता का हृदय स्वीकार करेगा उस कवि की कीर्ति तब तक बराबर बनी रहेगी, जब तक स्वीकृति बनी रहेगी। क्या संस्कृत साहित्य में, क्या हिन्दी साहित्य में, सहस्रों कवियों ने अपने आश्रयदाता राजाओं की प्रशंसा में ग्रंथ रचे जिनका आज पता तक नहीं है। पुरानी वस्तु खोजने वालों को ही कभी कभी किसी राजा के पुस्तकालय में, कहीं किसी घर के कोने में, उनमें से दो-चार इधर उधर मिल जाती हैं। जिस भोज ने दान दे देकर अपनी इतनी तारीफ कराई उसके चरितकाव्य भी कवियों ने लिखे होंगे। पर उन्हें आज कौन जानता है?

शिवाजी और छत्रसाल की वीरता के वर्णनों को कोई कवियों की झूठी खुशामद नहीं कह सकता। वे आश्रयदाताओं की प्रशंसा की प्रथा के अनुसरण मात्र नहीं हैं। इन दो वीरों का जिस उत्साह के साथ सारी हिंदू जनता स्मरण करती है उसी की व्यंजना भूषण ने की है। वे हिंदू जाति के प्रतिनिधि कवि हैं। जैसा कि आरंभ में कहा गया है शिवाजी के दरबार में पहुँचने के पहले वे और राजाओं के पास भी रहे। उनके प्रताप आदि की प्रशंसा भी उन्हें अवश्य ही करनी पड़ी होगी। पर वह झूठी थी, इसी से टिक न सकी। पीछे भूषण को अपनी उन रचनाओं से विरक्ति ही हुई होगी। इनके 'शिवराजभूषण', 'शिवाबावनी' और 'छत्रसालदसक' ये ग्रंथ ही मिलते हैं। इनके अतिरिक्त 3 ग्रंथ और कहे जाते हैं, 'भूषणउल्लास', 'दूषणउल्लास', 'भूषणहजारा'।

जो कविताएँ इतनी प्रसिद्ध हैं उनके संबंध में यहाँ यह कहना है कि वे कितनी ओजस्विनी और वीरदर्पपूर्ण हैं, पिष्टपेषण मात्र होगा। यहाँ इतना ही कहना आवश्यक है कि भूषण वीररस के ही कवि थे। इधर इनके दो-चार कवित्त, श्रृंगार के भी मिले हैं, पर वे गिनती के योग्य नहीं हैं। रीतिकाल के कवि होने के कारण भूषण ने अपना प्रधान ग्रंथ 'शिवराजभूषण' अलंकार के ग्रंथ के रूप में बनाया। पर रीतिग्रंथ की दृष्टि से, अलंकारनिरूपण के विचार से यह उत्तम ग्रंथ नहीं कहा जा सकता। लक्षणों की भाषा भी स्पष्ट नहीं है और उदाहरण भी कई स्थलों पर ठीक नहीं हैं। भूषण की भाषा में ओज की मात्रा तो पूरी है पर वह अधिकतर अव्यवस्थित है। व्याकरण का उल्लंघन प्राय: है और वाक्यरचना भी कहीं कहीं गड़बड़ है। इसके अतिरिक्त शब्दों के रूप भी बहुत बिगाड़े गए हैं और कहीं कहीं बिल्कुल गढ़ंत के शब्द रखे गए हैं। पर जो कवित्त इन दोनों से मुक्त हैं वे बड़े ही सशक्त और प्रभावशाली हैं। कुछ उदाहरण नीचे दिए जाते हैं,

इंद्र जिमि जंभ पर, बाड़व सु अंभ पर,

रावन सदंभ पर रघुकुल राज हैं।

पौन वारिवाह पर, संभु रतिनाह पर,

ज्यों सहस्रबाहु पर राम द्विजराज हैं

दावा द्रुमदंड पर, चीता मृगझुंड पर,

भूषण वितुंड पर जैसे मृगराज हैं।

तेज तम अंस पर, कान्ह जिमि कंस पर,

त्यों मलेच्छ बंस पर सेर सिवराज हैं


डाढ़ी के रखैयन की डाढ़ी-सी रहति छाती,

बाढ़ी मरजाद जस हद्द हिंदुवाने की।

कढ़ि गई रैयत के मन की कसक सब,

मिटि गई ठसक तमाम तुरकाने की।

भूषन भनत दिल्लीपति दिल धाक धाक,

सुनि सुनि धाक सिवराज मरदाने की।

मोटी भई चंडी बिन चोटी के चबाय सीस,

खोटी भई संपति चकत्ता के घराने की


सबन के ऊपर ही ठाढ़ो रहिबे के जोग,

ताहि खरो कियो जाय जारन के नियरे।

जानि गैरमिसिल गुसीले गुसा धारि उर,

कीन्हों ना सलाम न बचन बोले सियरे

भूषन भनत महाबीर बलकन लाग्यो,

सारी पातसाही के उड़ाय गए जियरे।

तमक तें लाल मुख सिवा को निरखि भयो,

स्याह मुख नौरँग, सिपाह मुख पियरे।


दारा की न दौर यह, रार नहीं खजुबे की,

बाँधिबो नहीं है कैधौं मीर सहवाल को।

मठ विस्वनाथ को, न बास ग्राम गोकुल को,

देवी को न देहरा, न मंदिर गोपाल को।

गाढ़े गढ़ लीन्हें अरु बैरी कतलाम कीन्हें,

ठौर ठौर हासिल उगाहत हैं साल को।

बूड़ति है दिल्ली सो सँभारै क्यों न दिल्लीपति,

धाक्का आनि लाग्यौ सिवराज महाकाल को


चकित चकत्ता चौंकि चौंकि उठै बार बार,

दिल्ली दहसति चितै चाहि करषति है।

बिलखि बदन बिलखत बिजैपुर पति,

फिरत फिरंगिन की नारी फरकति है

थर थर काँपत कुतुब साहि गोलकुंडा,

हहरि हबस भूप भीर भरकति है।

राजा सिवराज के नगारन की धाक सुनि,

केते बादसाहन की छाती धारकति है


जिहि फन फूतकार उड़त पहार भार,

कूरम कठिन जनु कमल बिदलिगो।

विषजाल ज्वालामुखी लवलीन होत जिन,

झारन चिकारि मद दिग्गज उगलिगो

कीन्हो जिहि पान पयपान सो जहान कुल,

कोलहू उछलि जलसिंधु खलभलिगो।

खग्ग खगराज महाराज सिवराज जू को,

अखिल भुजंग मुगलद्दल निगलिगो

8. कुलपति मिश्र ये आगरा के रहनेवाले माथुर चौबे थे और महाकवि बिहारी के भानजे प्रसिद्ध हैं। इनके पिता का नाम परशुराम मिश्र था। कुलपतिजी जयपुर के महाराज जयसिंह (बिहारी के आश्रयदाता) के पुत्र महाराज रामसिंह के दरबार में रहते थे। इनके 'रसरहस्य' का रचना काल कार्तिक कृष्ण 11, संवत् 1727 है। अब तक इनका यही ग्रंथ प्रसिद्ध और प्रकाशित है। पर खोज में इनके निम्नलिखित ग्रंथ और मिले हैं,

द्रोणपर्व (संवत् 1737), युक्तितरंगिणी (1743), नखशिख, संग्रहसार, गुण रसरहस्य (1724)।

अत: इनका कविता काल संवत् 1724 और संवत् 1743 के बीच ठहरता है।

रीतिकाल के कवियों में ये संस्कृत के अच्छे विद्वान थे। इनका 'रसरहस्य' मम्मट के काव्यप्रकाश का छायानुवाद है। साहित्यशास्त्र का अच्छा ज्ञान रखने के कारण इनके लिए यह स्वाभाविक था कि प्रचलित लक्षणग्रंथों की अपेक्षा अधिक प्रौढ़ निरूपण का प्रयत्न करें। इसी उद्देश्य से इन्होंने अपना 'रसरहस्य' लिखा। शास्त्रीय निरूपण के लिए पद्य उपयुक्त नहीं होता, इसका अनुभव इन्होंने किया, इससे कहीं कहीं कुछ गद्य वार्तिक भी रखा। पर गद्य परिमार्जित न होने के कारण जिस उद्देश्य से इन्होंने अपना यह ग्रंथ लिखा वह पूरा न हुआ। इस ग्रंथ का जैसा प्रचार चाहिए था, न हो सका। जिस स्पष्टता से 'काव्यप्रकाश' में विषय प्रतिपादित हुए हैं वह स्पष्टता इनके ब्रजभाषा गद्य पद्य में न आ सकी। कहीं कहीं तो भाषा और वाक्यरचना दुरूह हो गई है।

यद्यपि इन्होंने शब्दशक्ति और भावादिनिरूपण में लक्षण, उदाहरण दोनों बहुत कुछ काव्यप्रकाश के ही दिए हैं, पर अलंकार प्रकरण में इन्होंने प्राय: अपने आश्रयदाता महाराज रामसिंह की प्रशंसा के स्वरचित उदाहरण दिए हैं। ये ब्रजमंडल के निवासी थे अत: इनको ब्रज की चलती भाषा पर अच्छा अधिकार होना ही चाहिए। हमारा अनुमान है, जहाँ इनको अधिक स्वच्छंदता रही होगी वहाँ इनकी रचना और सरस होगी। इनकी रचना का एक नमूना दिया जाता है,

ऐसिय कुंज बनी छबिपुंज रहै अलि गुंजत यों सुख लीजै।

नैन बिसाल हिए बनमाला बिलोकत रूप सुधा भरि पीजै

जामिनि जाम की कौन कहै जुग जात न जानिए ज्यों छिन छीजै।

आनंद यों उमग्योई रहै, पिय मोहन को मुख देखिबो कीजै

9. सुखदेव मिश्र दौलतपुर (जिला,रायबरेली) में इनके वंशज अब तक हैं। कुछ दिन हुए उसी ग्राम के निवासी सुप्रसिद्ध पं. महावीरप्रसाद द्विवेदी ने इनका एक अच्छा जीवनवृत्त 'सरस्वती' पत्रिका में लिखा था। सुखदेव मिश्र का जन्मस्थान 'कंपिला' था जिसका वर्णन इन्होंने अपने 'वृत्तविचार' में किया है। इनका कविताकाल संवत् 1720 से 1760 तक माना जा सकता है। इनके सात ग्रंथों का पता अब तक है,

वृत्तविचार (संवत् 1728), छंदविचार, फाजिलअलीप्रकाश, रसार्णव, श्रृंगारलता, अध्यात्मप्रकाश (संवत् 1755), दशरथ राय।

अध्यात्मप्रकाश में कवि ने ब्रह्मज्ञान संबंधी बातें कही हैं जिससे यह जनश्रुति पुष्ट होती है कि वे एक नि:स्पृह विरक्त साधु के रूप में रहते थे।

काशी से विद्याधययन करके लौटने पर ये असोथर (जिला,फतेहपुर) के राजा भगवंतराय खीची तथा डौडियाखेरे के राव मर्दनसिंह के यहाँ रहे। कुछ दिनों तक ये औरंगजेब के मंत्री फाजिलअलीशाह के यहाँ भी रहे। अंत में मुरारमऊ के राजा देवीसिंह के यहाँ गए जिनके बहुत आग्रह पर ये सकुटुंब दौलतपुर में जा बसे। राजा राजसिंह गौड़ ने इन्हें 'कविराज' की उपाधि दी थी। वास्तव में ये बहुत प्रौढ़ कवि थे और आचार्यत्व भी इनमें पूरा था। छंदशास्त्र पर इनका-सा विशद निरूपण और किसी कवि ने नहीं किया है। ये जैसे पंडित थे वैसे ही काव्यकला में भी निपुण थे। 'फाजिलअली प्रकाश' और 'रसार्णव' दोनों में श्रृंगाररस के उदाहरण बहुत ही सुंदर हैं। दो नमूने लीजिए,

ननद निनारी, सासु मायके सिधारी,

अहै रैन अंधिायारी भरी, सूझत न करु है।

पीतम को गौन कविराज न सोहात भौन,

दारुन बहत पौन, लाग्यो मेघ झरु है

संग ना सहेली बैस नवल अकेली,

तन परी तलबेली महा, लाग्यो मैन सरु है।

भई अधिारात, मेरो जियरा डरात,

जागु जागु रे बटोही! यहाँ चोरन को डरु है


जोहैं जहाँ मगु नंदकुमार तहाँ चलि चंदमुखी सुकुमार है।

मोतिन ही को कियो गहनो सब फूलि रही जनु कुंद की डार है

भीतर ही जो लखी सो लखी अब बाहिर जाहिर होति न दार है।

जोन्ह सी जोन्हैं गई मिलि यों मिलि जाति ज्यौं दूध में दूध की धार है

10. कालिदास त्रिवेदी ये अंतर्वेद के रहनेवाले कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे। इनका विशेष वृत्त ज्ञात नहीं। जान पड़ता है कि संवत् 1745 वाली गोलकुंडे की चढ़ाई में ये औरंगजेब की सेना में किसी राजा के साथ गए थे। इस लड़ाई का औरंगजेब की प्रशंसा से युक्त वर्णन इन्होंने इस प्रकार किया है,

गढ़न गढ़ी से गढ़ि, महल मढ़ी से मढ़ि,

बीजापुर ओप्यो दलमलि सुघराई में।

कालिदास कोप्यो वीर औलिया अलमगीर,

तीन तरवारि गही पुहुमी पराई में

बूँद तें निकसि महिमंडल घमंड मची,

लोहू की लहरि हिमगिरि की तराई में।

गाड़ि के सुझंडा आड़ कीनी बादशाह तातें,

डकरी चमुंडा गोलकुंडा की लराई में

कालिदास का जंबूनरेश जोगजीत सिंह के यहाँ भी रहना पाया जाता है जिनके लिए संवत् 1749 में इन्होंने 'वार वधाू विनोद' बनाया। यह नायिकाभेद और नखशिख की पुस्तक है। बत्ताीस कवित्तों की इनकी एक छोटी सी पुस्तक 'जँजीराबंद' भी है। 'राधा माधव बुधामिलन विनोद' नाम का एक कोई और ग्रंथ इनका खोज में मिला है। इन रचनाओं के अतिरिक्त इनका बड़ा संग्रह ग्रंथ 'कालिदास हजारा' बहुत दिनों से प्रसिद्ध चला आता है। इस संग्रह के संबंध में शिवसिंहसरोज में लिखा है कि इसमें संवत् 1481 से लेकर संवत् 1776 तक के 212 कवियों के 1000 पद्य संगृहीत हैं। कवियों के काल आदि के निर्णय में यह ग्रंथ बड़ा ही उपयोगी है। इनके पुत्र कवींद्र और पौत्र दूलह भी बड़े अच्छे कवि हुए।

ये एक अभ्यस्त और निपुण कवि थे। इनके फुटकल कवित्त इधर उधर बहुत सुने जाते हैं जिनसे इनकी सहृदयता का अच्छा परिचय मिलता है। दो कवित्त नीचे दिए जाते हैं,

चूमौं करकंज मंजु अमल अनूप तेरो,

रूप के निधान कान्ह! मो तन निहारि दै।

कालिदास कहै मेरे पास हरै हेरि हेरि,

माथे धारि मुकुट, लकुट कर डारि दै

कुँवर कन्हैया मुखचंद की जुन्हैया चारु,

लोचन चकोरन की प्यासन निवारि दै।

मेरे कर मेहँदी लगी है, नंदलाल प्यारे!

लट उलझी है नकबेसर संभारि दै


हाथ हँसि दीन्हों भीति अंतर परसि प्यारी,

देखत ही छकी मति कान्हर प्रवीन की।

निकस्यो झरोखे माँझ बिगस्यो कमल सम,

ललित अंगूठी तामें चमक चुनीन की

कालिदास तैसी लाल मेहँदी के बुँदन की,

चारु नख चंदन की लाल अंगुरीन की।

कैसी छवि छाजति है छाप और छलान की सु,

कंकन चुरीन की जड़ाऊ पहुँचीन की

11. राम शिवसिंहसरोज में इनका जन्म संवत् 1703 लिखा है और कहा गया है कि इनके कवित्त कालिदास के हजारा में हैं। इनका नायिका भेद का एक ग्रंथ 'श्रृंगारसौरभ' है जिसकी कविता बहुत ही मनोरम है। खोज में एक 'हनुमान नाटक' भी इनका पाया गया है। शिवसिंह के अनुसार इनका कविताकाल संवत् 1730 के लगभग माना जा सकता है। इनका एक कवित्त नीचे दिया जाता है,

उमड़ि घुमड़ि घन छोड़त अखंड धार,

चंचला उठति तामें तरजि तरजि कै।

बरही पपीहा भेक पिक खग टेरत हैं,

धुनि सुनि प्रान उठे लरजि लरजि कै

कहै कवि राम लखि चमक खदोतन की,

पीतम को रही मैं तो बरजि बरजि कै।

लागे तन तावन बिना री मनभावन कै

सावन दुवन आयो गरजि गरजि कै

12. नेवाज ये अंतर्वेद के रहनेवाले ब्राह्मण थे और संवत् 1737 के लगभग वर्तमान थे। ऐसा प्रसिद्ध है कि पन्नानरेश महाराज छत्रसाल के यहाँ ये किसी भगवत् कवि के स्थान पर नियुक्त हुए थे जिसपर भगवत् कवि ने यह फबती छोड़ी थी,

भली आजु कलि करत हौ, छत्रसाल महराज।

जहँ भगवत् गीता पढ़ी तहँ कवि पढ़त नेवाज

शिवसिंह ने नेवाज का जन्म संवत् 1739 लिखा है जो ठीक नहीं जान पड़ता क्योंकि इनके 'शकुंतला नाटक' का निर्माणकाल संवत् 1737 है। दो और नेवाज हुए हैं जिनमें एक भगवंतराय खीची के यहाँ थे। प्रस्तुत नेवाज का औरंगजेब के पुत्र आजमशाह के यहाँ रहना भी पाया जाता है। इन्होंने 'शकुंतला नाटक' का आख्यान दोहा, चौपाई, सवैया आदि छंदों में लिखा। इनके फुटकल कवित्त बहुत स्थानों पर संगृहीत मिलते हैं जिनमें इनकी काव्यकुशलता और सहृदयता टपकती है। भाषा इनकी बहुत परिमार्जित, व्यवस्थित और भावोपयुक्त है। उसमें भरती के शब्द और वाक्य बहुत ही कम मिलते हैं। इनके अच्छे श्रृंगारी कवि होने में संदेह नहीं। संयोग श्रृंगार के वर्णन की प्रवृत्ति इनकी विशेष जान पड़ती है जिसमें कहीं कहीं ये अश्लीलता की सीमा के भीतर जा पड़ते हैं। दो सवैये इनके उध्दृत किए जाते हैं,

देखि हमैं सब आपुस में जो कछू मन भावै सोई कहती हैं।

ये घरहाई लुगाई सबै निसि द्यौस नेवाज हमैं दहती हैं

बातें चवाव भरी सुनिकै रिस आवति पै चुप ह्वै रहती हैं।

कान्ह पियारे तिहारे लिए सिगरे ब्रज को हँसिबो सहती हैं


आगे तौ कीन्हीं लगालगी लोयन, कैसे छिपे अजहूँ जौ छिपावति।

तू अनुराग को सोधा कियो, ब्रज की बनिता सब यों ठहरावति

कौन सँकोच रह्यो है नेवाज जो तू तरसै उनहूँ तरसावति।

बावरी! जो पै कलंक लग्यो तौ निसंक ह्वै क्यों नहिं अंक लगावति

13. देव ये इटावा के रहनेवाले सनाढय ब्राह्मण थे। कुछ लोगों ने इन्हें कान्यकुब्ज सिद्ध करने का भी प्रयत्न किया है। इनका पूरा नाम देवदत्ता था। 'भावविलास' का रचनाकाल इन्होंने 1746 में दिया है और उस ग्रंथनिर्माण के समय अपनी अवस्था 16 ही वर्ष की कही है। इस हिसाब से इनका जन्म संवत् 1730 निश्चित होता है। इसके अतिरिक्त इनका और कुछ वृत्तांत नहीं मिलता। इतना अवश्य अनुमित होता है कि इन्हें कोई अच्छा उदार आश्रयदाता नहीं मिला जिसके यहाँ रहकर इन्होंने सुख से कालयापन किया हो। ये बराबर अनेक रईसों के यहाँ एक स्थान से दूसरे स्थान पर घूमते रहे, पर कहीं जमे नहीं। इसका कारण या तो इनकी प्रकृति की विचित्रता मानें या इनकी कविता के साथ उस काल की रुचि का असामंजस्य। इन्होंने अपने 'अष्टयाम' और 'भावविलास' को औरंगजेब के बड़े पुत्र आजमशाह को सुनाया था जो हिन्दी कविता के प्रेमी थे। इसके पीछे इन्होंने भवानीदत्ता वैश्य के नाम पर 'भवानीविलास' और कुशलसिंह के नाम पर 'कुशलविलास' की रचना की। फिर मर्दनसिंह के पुत्र राजा उद्योत सिंह वैस के लिए 'प्रेमचंद्रिका' बनाई। इसके उपरांत ये बराबर अनेक प्रदेशों में भ्रमण करते रहे। इस यात्रा के अनुभव का इन्होंने अपने 'जातिविलास' नामक ग्रंथ में कुछ उपयोग किया। इस ग्रंथ में भिन्न भिन्न जातियों और भिन्न भिन्न प्रदेशों की स्त्रियों का वर्णन है। वर्णन में उनकी विशेषताएँ अच्छी तरह व्यक्त हुई हों, यह बात नहीं है। इतने पर्यटन के उपरांत जान पड़ता है कि इन्हें एक अच्छे आश्रयदाता राजा मोतीलाल मिले जिनके नाम पर संवत् 1783 में इन्होंने 'रसविलास' नामक ग्रंथ बनाया। इन राजा मोतीलाल की इन्होंने अच्छी तारीफ की है, जैसे 'मोतीलाल भूप लाख पोखर लेवैया जिन्ह लाखन खरचि रचि आखर खरीदे हैं।'

रीतिकाल के प्रतिनिधि कवियों में शायद सबसे अधिक ग्रंथ रचना देव ने की है। कोई इनकी रची पुस्तकों की संख्या 52 और कोई 72 तक बतलाते हैं। जो हों इनके निम्नलिखित ग्रंथों का तो पता है,

(1) भावविलास, (2) अष्टयाम, (3) भवानीविलास, (4) सुजानविनोद, (5)प्रेमतरंग, (6) रागरत्नाकर, (7) कुशलविलास, (8) देवचरित, (9) प्रेमचंद्रिका, (10) जातिविलास, (11) रसविलास, (12) काव्यरसायन या शब्दरसायन, (13) सुखसागर तरंग, (14)वृक्षविलास, (15) पावसविलास, (16) ब्रह्मदर्शन पचीसी, (17) तत्वदर्शन पचीसी, (18) आत्मदर्शन पचीसी, (19) जगदर्शन पचीसी, (20) रसानंद लहरी, (21) प्रेमदीपिका, (22) नखशिख, (23) प्रेमदर्शन।

ग्रंथों की अधिक संख्या के संबंध में यह जान रखना भी आवश्यक है कि देव जी अपने पुराने ग्रंथों के कवित्तों को इधर दूसरे क्रम में रखकर एक नया ग्रंथ प्राय: तैयार कर दिया करते थे। इससे वे ही कवित्त बार बार इनके अनेक ग्रंथों में मिलेंगे। 'सुखसागर तरंग' प्राय: अनेक ग्रंथों से लिए हुए कवित्तों का संग्रह है। 'रागरत्नाकर' में राग रागनियों के स्वरूप का वर्णन है। 'अष्टयाम' तो रात दिन के भोगविलास की दिनचर्या है जो मानो उस काल के अकर्मण्य और विलासी राजाओं के सामने कालयापन विधि का ब्योरा पेश करने के लिए बनी थी। 'ब्रह्मदर्शन पचीसी' और 'तत्वदर्शन पचीसी' में जो विरक्ति का भाव है वह बहुत संभव है कि अपनी कविता के प्रति लोक की उदासीनता देखते देखते उत्पन्न हुई हो।

ये आचार्य और कवि दोनों रूपों में हमारे सामने आते हैं। यह पहले ही कहा जा चुका है कि आचार्यत्व के पद के अनुरूप कार्य करने में रीतिकाल के कवियों में पूर्ण रूप से कोई समर्थ नहीं हुआ। कुलपति और सुखदेव ऐसे साहित्यशास्त्र के अभ्यासी पंडित भी विशद रूप में सिध्दांतनिरूपण का मार्ग नहीं पा सके। बात यह थी कि एक तो ब्रजभाषा का विकास काव्योपयोगी रूप में ही हुआ, विचार पद्ध ति के उत्कर्ष साधन के योग्य वह न हो पाई। दूसरे उस समय पद्य में ही लिखने की परिपाटी थी। अत: आचार्य के रूप में देव को भी कोई विशेष स्थान नहीं दिया जा सकता। कुछ लोगों ने भक्तिवश अवश्य और बहुत-सी बातों के साथ इन्हें कुछ शास्त्रीय उद्भावना का श्रेय भी देना चाहा है। वे ऐसे ही लोग हैं जिन्हें 'तात्पर्य वृत्ति' एक नया नाम मालूम होता है और जो संचारियों में एक 'छल' और बढ़ा हुआ देखकर चौंकते हैं। नैयायिकों की तात्पर्य वृत्ति बहुत काल से प्रसिद्ध चली आ रही है और यह संस्कृत के सब साहित्य मीमांसकों के सामने थी। तात्पर्य वृत्ति वास्तव में वाक्य के भिन्न भिन्न पदों (शब्दों) के वाच्यार्थ को एक में समन्वित करनेवाली वृत्ति मानी गई है अत: यह अभिधा से भिन्न नहीं, वाक्यगत अभिधा ही है। रहा 'छलसंचारी' वह संस्कृत की 'रसतरंगिणी' से जहाँ से और बातें ली गई हैं, लिया गया है। दूसरी बात यह है कि साहित्य के सिध्दांत ग्रंथों से परिचित मात्र जानते हैं कि गिनाए हुए 33 संचार उपलक्षणमात्र हैं, संचारी और भी कितने हो सकते हैं।

अभिधा, लक्षणा आदि शब्दशक्तियों का निरूपण हिन्दी के रीतिग्रंथों में प्राय: कुछ भी नहीं हुआ। इस विषय का सम्यक् ग्रहण और परिपाक जरा है भी कठिन। इस दृष्टि से देव जी के इस कथन पर कि,

अभिधा उत्तम काव्य है; मध्य लक्षणा लीन।

अधम व्यंजना रस विरस, उलटी कहत नवीन

यहाँ अधिक कुछ कहने का अवकाश नहीं। व्यंजना की व्याप्ति कहाँ तक है, उसकी किस किस प्रकार क्रिया होती है इत्यादि बातों का पूरा विचार किए बिना कुछ कहना कठिन है। देव जी का यहाँ 'व्यंजना' से तात्पर्य पहेली बुझौवलवाली 'वस्तुव्यंजना' का ही जान पड़ता है। यह दोहा लिखते समय उसी का विकृत रूप उनके ध्यान में था।

कवित्वशक्ति और मौलिकता देव में खूब थी पर उनके सम्यक् स्फुरण में उनकी रुचि विशेष प्राय: बाधक हुई है। कभी कभी वे बड़े पेचीले मजमून का हौसला बाँधाते थे, पर अनुप्रास के आडंबर की रुचि बीच में ही उनका अंगभंग करके सारे पद्य को कीचड़ में फँसा छकड़ा बना देती थी। भाषा में स्निग्ध प्रवाह न आने का एक बड़ा भारी कारण यह भी था। इनकी भाषा में रसाद्रता और चलतापन बहुत कम पाया जाता है। कहीं कहीं शब्दव्यय बहुत अधिक है और अर्थ बहुत अल्प।

अक्षरमैत्री के ध्यान से इन्हें कहीं कहीं अशक्त शब्द रखने पड़ते थे जो कभी कभी अर्थ को आच्छन्न करते थे। तुकांत और अनुप्रास के लिए ये कहीं कहीं शब्दों को ही तोड़ते, मरोड़ते और बिगाड़ते न थे, वाक्य को भी अविन्यस्त कर देते थे। जहाँ अभिप्रेत भाव का निर्वाह पूरी तरह हो पाया है, या जहाँ उसमें कम बाधा पड़ी है, वहाँ की रचना बहुत ही सरस हुई है। इनका सा अर्थ सौष्ठव और नवोन्मेष विरले ही कवियों में मिलता है। रीतिकाल के कवियों में ये बड़े ही प्रगल्भ और प्रतिभासम्पन्न कवि थे, इसमें संदेह नहीं। इस काल के बड़े कवियों में इनका विशेष गौरव का स्थान है। कहीं कहीं इनकी कल्पना बहुत सूक्ष्म और दुरारूढ़ है। इनकी कविता के कुछ उत्तम उदाहरण नीचे दिए जाते हैं,

सुनो कै परम पद, ऊनो कै अनंत मद

नूनो कै नदीस नद, इंदिरा झुरै परी।

महिमा मुनीसन की, संपति दिगीसन की,

ईसन की सिद्धि ब्रजवीथि बिथुरै परी

भादों की अंधेरी अधिाराति मथुरा के पथ,

पाय के संयोग 'देव' देवकी दुरै परी।

पारावार पूरन अपार परब्रह्म रासि,

जसुदा के कोरै एक बार ही कुरै परी


डार द्रुम पलना, बिछौना नवपल्लव के,

सुमन झ्रगूला सोहै तन छबि भारी दै।

पवन झुलावै केकी कीर बहरावै देव,

कोकिल हलावै हुलसावै कर तारी दै

पूरित पराग सों उतारो करै राई लोन,

कंजकली नायिका लतानि सिर सारी दै।

मदन महीप जू को बालक बसंत, ताहि,

प्रातहि जगावत गुलाब चटकारी दै


सखी के सकोच, गुरु सोच मृगलोचनि,

रिसानी पिय सों जो उन नेकु हँसि छुयोगात।

देव वै सुभाय मुसकाय उठि गए, यहाँ

सिसकि सिसकि निसि खोई, रोय पायो प्रात

को जानै, री बीर! बिनु बिरही बिरह बिथा,

हाय हाय करि पछिताय न कछू सुहात।

बड़े बड़े नैनन सों ऑंसू भरि भरि ढरि,

गोरो गोरो मुख परि ओरे सो बिलाने जात


झहरि झहरि झीनी बूँद हैं परति मानो,

घहरि घहरि घटा घेरी है गगन में।

आनि कह्यो स्याम मो सौं, 'चलौ झूलिबे को आज'

फूली न समानी भई ऐसी हौं मगन मैं

चाहत उठयोई उठि गई सो निगोड़ी नींद,

सोइ गए भाग मेरे जानि वा जगन में।

ऑंख खोलि देखों तौ न घन हैं न घनश्याम,

वेई छाईं बूँदें मेरे ऑंसु ह्वै दृगन में


साँसन ही में समीर गयो अरु ऑंसुन ही सब नीर गयो ढरि।

तेज गयो गुन लै अपनो अरु भूमि गई तनु की तनुता करि

'देव' जियै मिलिबेई की आस कै, आसहू पास अकास रह्यो भरि।

जा दिन तें मुख फेरि हरै हँसि हेरि हियो जु लियो हरि जू हरि


जब तें कुवँर कान्ह रावरी कलानिधान!

कान परी वाके कहूँ सुजस कहानी सी।

तब ही तें देव देखी देवता सी हँसति सी,

रीझति सी, खीझति सी, रूठति रिसानी सी

छोही सी छली सी छीन लीनी सी छकी सी, छिन

जकी सी, टकी सी, लगी थकी थहरानी सी।

बींधी सी, बँधी सी, विष बूड़ति बिमोहित सी।

बैठी बाल बकति, बिलोकति बिकानी सी


'देव' मैं सीस बसायो सनेह सों भाल मृगम्मद बिंदु कै भाख्यौ।

कंचुकि में चुपरयो करि चोवा लगाय लियो उर सों अभिलाख्यो

लै मखतूल गुहे गहने, रस मूरतिवंत सिंगार कै चाख्यो।

साँवरे लाल को साँवरो रूप मैं नैनन को कजरा करि राख्यो


धार में धाय धाँसी निराधार ह्वै, आय फँसी, उकसी न उधोरी।

री! अंगराय गिरीं गहिगी, गहि फेरे फिरी न, घिरी नहिं घेरी

'देव' कछू अपनों बस ना, रस लालच लाल चितै भइँ चेरी।

बेगि ही बूड़ि गई पँखियाँ अंखियाँ मधु की मखियाँ भई मेरी

14. श्रीधर या मुरलीधर ये प्रयाग के रहनेवाले ब्राह्मण थे और संवत् 1737 के लगभग उत्पन्न हुए थे। यद्यपि अभी तक इनका 'जंगनामा' ही प्रकाशित हुआ है जिसमें फर्रुखसियर और जहाँदार के युद्ध का वर्णन है, पर स्वर्गीय बाबू राधाकृष्णदास ने इनके बनाए कई रीतिग्रंथों का उल्लेख किया है, जैसे नायिकाभेद, चित्रकाव्य आदि। इनका कविताकाल संवत् 1760 के आगे माना जा सकता है।

15. सूरति मिश्र ये आगरे के रहने वाले कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे, जैसा कि इन्होंने स्वयं लिखा है, 'सूरति मिश्र कनौजिया, नगर आगरे बास' इन्होंने 'अलंकारमाला' संवत् 1766 में और बिहारी सतसई की 'अमरचंद्रिका' टीका संवत् 1794 में लिखी। अत: इनका कविताकाल विक्रम की अठारहवीं शताब्दी का अंतिम चरण माना जा सकता है।

ये नसरुल्ला खाँ नामक सरदार के यहाँ तथा दिल्ली के बादशाह मुहम्मदशाह के दरबार में आया जाया करते थे। इन्होंने 'बिहारी सतसई', 'कविप्रिया' और 'रसिकप्रिया' पर विस्तृत टीकाएँ रची हैं जिनसे इनके साहित्यज्ञान और मार्मिकता का अच्छा परिचय मिलता है। टीकाएँ ब्रजभाषा गद्य में हैं। इन टीकाओें के अतिरिक्त इन्होंने 'वैताल पंचविंशति' का ब्रजभाषा गद्य में अनुवाद किया है और निम्नलिखित रीतिग्रंथ रचे हैं,

(1) अलंकारमाला, (2) रसरत्नमाला, (3) रससरस, (4) रसग्राहकचंद्रिका, (5)नखशिख, (6) काव्यसिध्दांत, (7) रसरत्नाकर।

अलंकारमाला की रचना इन्होंने 'भाषाभूषण' के ढंग पर की है। इसमें भी लक्षण और उदाहरण प्राय: एक ही दोहे में मिलते हैं; जैसे

(क) हिम सो, हर के हास सो जस मालोपम ठानि

(ख) सो असंगति, कारन अवर, कारज औरै थान।

चलि अहि श्रुति आनहि डसत, नसत और के प्रान

इनके ग्रंथ सब मिले नहीं हैं। जितने मिले हैं उनसे ये अच्छे साहित्यमर्मज्ञ और कवि जान पड़ते हैं। इनकी कविता में तो कोई विशेषता नहीं जान पड़ती, पर साहित्यकाउपकार इन्होंने बहुत कुछ किया है। 'नखशिख' से इनका एक कवित्त दिया जाता है,

तेरे ये कपोल बाल अतिही रसाल,

मन जिनकी सदाई उपमा बिचारियत है।

कोऊ न समान जाहि कीजै उपमान,

अरु बापुरे मधूकन की देह जारियत है

नेकु दरपन समता की चाह करी कहूँ,

भए अपराधी ऐसो चित्त धारियत है।

'सूरति' सो याही तें जगत बीच आजहूँ लौ,

उनके बदन पर छार डारियत है

16. कवींद्र (उदयनाथ) ये कालिदास त्रिवेदी के पुत्र थे और संवत् 1736 के लगभग उत्पन्न हुए थे। इनका 'रसचंद्रोदय' नामक ग्रंथ बहुत प्रसिद्ध है। इसके अतिरिक्त 'विनोदचंद्रिका' और 'जोगलीला' नामक इनकी दो और पुस्तकों का पता खोज में लगा है। 'विनोदचंद्रिका' संवत् 1777 और 'रसचंद्रोदय' संवत् 1804 में बना। अत: इनका कविताकाल संवत् 1804 या उसके कुछ आगे तक माना जा सकता है। ये अमेठी के राजा हिम्मतसिंह और गुरुदत्तासिंह (भूपति) के यहाँ बहुत दिन रहे।

इनका 'रसचंद्रोदय' श्रृंगार का एक अच्छा ग्रंथ है। इनकी भाषा मधुर और प्रसादपूर्ण है। वर्ण्य विषय के अनुकूल कल्पना भी ये अच्छी करते थे। इनके दो कवित्त नीचे दिए जाते हैं,

शहर मँझार ही पहर एक रागि जैहै,

छोर पै नगर के सराय है उतारे की।

कहत कविंद मग माँझ ही परैगी साँझ,

खबर उड़ानी है बटोही द्वैक मारे की

घर के हमारे परदेस को सिधारे,

या तें दया कै बिचारी हम रीति राहबारे की।

उतरौ नदी के तीर, बर के तरे ही तुम,

चौकौं जनि चौकी तहाँ पाहरू हमारे की


राजै रसमै री तैसी बरखा समै री चढ़ी,

चंचला नचै री चकचौंध कौंध बारै री।

व्रती व्रत हारै हिए परत फुहारैं,

कछु छोरैं कछू धारैं जलधार जलधारैं री

भनत कविंद कुंजभौन पौन सौरभ सों,

काके न कँपाय प्रान परहथ पारै री?

कामकंदुका से फूल डोलि डोलि डारैं, मन

औरै किए डारै ये कदंबन की डारैं री

17. श्रीपति ये कालपी के रहने वाले कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे। इन्होंने संवत् 1777 में 'काव्यसरोज' नामक रीति ग्रंथ बनाया। इसके अतिरिक्त इनके निम्नलिखित ग्रंथ और हैं,

(1) कविकल्पद्रुम, (2) रससागर, (3) अनुप्रासविनोद, (4) विक्रमविलास, (5)सरोज कलिका, (6) अलंकारगंगा।

श्रीपति ने काव्य के सब अंगों का निरूपण विशद रीति से किया है। दोषों का विचार पिछले ग्रंथों से अधिक विस्तार के साथ किया है और दोषों के उदाहरणों में केशवदास के बहुत से पद्य रखे हैं। इससे इनका साहित्यिक विषयों का सम्यक् और स्पष्ट बोध तथा विचार स्वातंत्रय प्रकट है। 'काव्यसरोज' बहुत ही प्रौढ़ ग्रंथ है। काव्यांगों का निरूपण जिस स्पष्टता के साथ इन्होंने किया है उससे इनकी स्वच्छ बुद्धि का परिचय मिलता है। यदि गद्य में व्याख्या की परिपाटी चल गई होती तो आचार्यत्व ये और भी अधिक पूर्णता के साथ प्रदर्शित कर सकते थे। दासजी तो इनके बहुत अधिक ऋणी हैं। उन्होंने इनकी बहुत सी बातें ज्यों की त्यों अपने 'काव्यनिर्णय' में चुपचाप रख ली हैं। आचार्यत्व के अतिरिक्त कवित्व भी इनमें ऊँची कोटि का था। रचनाविवेक इनमें बहुत ही जागृत और रुचि अत्यंत परिमार्जित थी। झूठे शब्दाडंबर के फेर में ये बहुत कम पड़े हैं। अनुप्रास इनकी रचनाओं में बराबर आए हैं, पर उन्होंने अर्थ या भावव्यंजना में बाधा नहीं डाली है। अधिकतर अनुप्रास रसानुकूल वर्णविन्यास के रूप में आकर भाषा में कहीं ओज, कहीं माधुर्य घटित करते पाए जाते हैं। पावस ऋतु का तो इन्होंने बड़ा ही अच्छा वर्णन किया है। इनकी रचना के कुछ उदाहरण नीचे दिए जाते हैं,

जलभरे झूमैं मानौ भूमै परसत आय,

दसहु दिसान घूमैं दामिनि लए लए।

धूरिधार धूमरे से, धूम से धुंधारे कारे,

धुरवान धारे धावैं छवि सों छए छए

श्रीपति सुकवि कहै घेरि घेरि घहराहिं,

तकत अतन तन ताव तें तए तए।

लाल बिनु कैसे लाजचादर रहैगी आज,

कादर करत मोहिं बादर नये नये


सारस के नादन को बाद ना सुनात कहूँ,

नाहक ही बकवाद दादुर महा करै।

श्रीपति सुकवि जहाँ ओज ना सरोजन की,

फूल न फुलत जाहि चित दै चहा करै

बकन की बानी की बिराजति है राजधानी,

काई सों कलित पानी फेरत हहा करे।

घोंघन के जाल, जामें नरई सेवाल ब्याल,

ऐसे पापी ताल को मराल लै कहा करै?


घूँघट उदयगिरिवर तैं निकसि रूप

सुधा सो कलित छवि कीरति बगारो है।

हरिन डिठौना स्याम सुख सील बरषत,

करषत सोक, अति तिमिर बिदारो है

श्रीपति बिलोकि सौति बारिज मलिन होत,

हरषि कुमुद फूलै नंद को दुलारो है।

रंजन मदन, तन गंजन बिरह, बिबि,

खंजन सहित चंदबदन तिहारो है

18. बीर ये दिल्ली के रहने वाले श्रीवास्तव कायस्थ थे। इन्होंने 'कृष्णचंद्रिका' नामक रस और नायिकाभेद का एक ग्रंथ संवत् 1779 में लिखा। कविता साधारण है। वीररस का कवित्त देखिए,

अरुन बदन और फरकै बिसाल बाहु,

कौन को हियौ है करै सामने जो रुख को।

प्रबल प्रचंड निसिचर फिरैं धाए,

धूरि चाहत मिलाए दसकंधा अंधा मुख को

चमकै समरभूमि बरछी, सहस फन,

कहत पुकारे लंक अंक दीह दुख को।

बलकि - बलकि बोलैं बीर रघुबीर धीर,

महि पर मीड़ि मारौं आज दसमुख को

19. कृष्ण कवि ये माथुर चौबे थे और बिहारी के पुत्र प्रसिद्ध हैं। इन्होंने बिहारी के आश्रयदाता महाराज जयसिंह के मंत्री राजा आयामल्ल की आज्ञा से बिहारी सतसई की जो टीका की उसमें महाराज के लिए वर्तमानकालिक क्रिया का प्रयोग किया है और उनकी प्रशंसा भी की है। अत: यह निश्चित है कि यह टीका जयसिंह के जीवनकाल में ही बनी। महाराज जयसिंह संवत् 1799 तक वर्तमान थे। अत: यह टीका संवत् 1785 और 1790 के बीच की होगी। इस टीका में कृष्ण ने दोहों के भाव पल्लवित करने के लिए सवैये लगाए हैं और वार्तिक में काव्यांग स्फुट किए हैं। काव्यांग इन्होंने अच्छी तरह दिखाए हैं और वे इस टीका के प्रधान अंग हैं, इसी से ये रीतिकाल के प्रतिनिधि कवियों के बीच ही रखे गए हैं।

इनकी भाषा सरल और चलती है तथा अनुप्रास आदि की ओर बहुत कम झुकी है। दोहों पर जो सवैये इन्होंने लगाए हैं उनसे इनकी सहृदयता, रचनाकौशल और भाषा पर अधिकार अच्छी तरह प्रमाणित होता है। इनके दो सवैये देखिए,

सीस मुकुट कटि काछनी, कर मुरली उर माल।

यहि बानिक मो मन सदा, बसौ बिहारी लाल

छबि सों फबि सीस किरीट बन्यो रुचिसाल हिए बनमाल लसै।

कर कंजहि मंजु रली मुरली, कछनी कटि चारु प्रभा बरसै

कबि कृष्ण कहैं लखि सुंदर मूरति यों अभिलाष हिए सरसै।

वह नंद किसोर बिहारी सदा यहि बानिक मों हिय माँझ बसै


थोरेई गुन रीझते बिसराई वह बानि।

तुमहू कान्ह मनौ भए आजुकाल के दानि

ह्वै अति आरत मैं बिनती बहु बार करी करुना रस भीनी।

कृष्ण कृपानिधि दीन के बंधु सुनी असुनी तुम काहे को कीनी

रीझते रंचक ही गुन सों वह बानि बिसारि मनो अब दीनी।

जानि परी तुमहू हरि जू! कलिकाल के दानिन की गति लीनी

20. रसिक सुमति ये ईश्वरदास के पुत्र थे और संवत् 1785 में वर्तमान थे। इन्होंने 'अलंकारचंद्रोदय' नामक एक अलंकारग्रंथ कुवलयानंद के आधार पर दोहों में बनाया। पद्यरचना साधारणत: अच्छी है। 'प्रत्यनीक' का लक्षण और उदाहरण एक ही दोहे में देखिए,

प्रत्यनीक अरि सों न बस, अरि हितूहि दुख देय।

रवि सों चलै, न कंज की दीपति ससि हरि लेय

21. गंजन ये काशी के रहने वाले गुजराती ब्राह्मण थे। इन्होंने संवत् 1786 में 'कमरुद्दीन खाँ हुलास' नामक श्रृंगाररस का एक ग्रंथ बनाया जिसमें भावभेद, रसभेद के साथ षट् ऋतु का विस्तृत वर्णन किया है। इस ग्रंथ में इन्होंने अपना पूरा वंशपरिचय दिया है और अपने प्रपितामह मुकुटराय के कवित्व की प्रशंसा की है। कमरुद्दीन खाँ दिल्ली के बादशाह के वजीर थे और भाषाकाव्य के अच्छे प्रेमी थे। इनकी प्रशंसा गंजन ने खूब जी खोलकर की है जिससे जान पड़ता है उनके द्वारा कवि का बड़ा अच्छा सम्मान हुआ था। उपर्युक्त ग्रंथ एक अमीर को खुश करने लिए लिखा गया है इससे ऋतुवर्णन के अंतर्गत उसमें अमीरी शौक और आराम के बहुत से सामान गिनाए गए हैं। इस बात में ये ग्वाल कवि से मिलते जुलते हैं। इस पुस्तक में सच्ची भावुकता और प्रकृतिरंजन की शक्ति बहुत अल्प है। भाषा भी शिष्ट और प्रांजल नहीं। एक कवित्त नीचे दिया जाता है,

मीना के महल जरबाफ दर परदा हैं,

हलबी फनूसन में रोसनी चिराग की

गुलगुली गिलम गरक आब पग होत,

जहाँ बिछी मसनद लालन के दाम की

केती महताबमुखी खचित जवाहिरन,

गंजन सुकवि कहै बौरी अनुराग की।

एतमाद्दौला कमरुद्दीन खाँ की मजलिस,

सिसिर में ग्रीषम बनाई बड़ भाग की

22. अली मुहिब खाँ (प्रीतम), ये आगरे के रहने वाले थे। इन्होंने संवत् 1787 में 'खटमल बाईसी' नाम की हास्यरस की एक पुस्तक लिखी। इस प्रकरण के आरंभ में कहा गया है कि रीतिकाल में प्रधानता श्रृंगाररस की रही; यद्यपि वीररस लेकर भी रीतिग्रंथ रचे गए। पर किसी और रस को अकेला लेकर मैदान में कोई नहीं उतरा था। यह हौसले का काम हजरत अली मुहिब खाँ साहिब ने कर दिखाया। इस ग्रंथ का साहित्यिक महत्व कई पक्षों में दिखाई पड़ता है। हास्य आलंबन प्रधान रस है। आलंबन मात्र का वर्णन ही इस रस में पर्याप्त होता है। इस बात का स्मरण रखते हुए जब हम अपने साहित्य क्षेत्र में हास के आलंबनों की परंपरा की जाँच करते हैं तब एक प्रकार की बँधी रूढ़ि सी पाते हैं। संस्कृत के नाटकों में खाऊपन और पेट की दिल्लगी बहुत कुछ बँधी सी चली आई। भाषासाहित्य में कंजूसों की बारी आई। अधिकतर ये ही हास्य रस के आलंबन रहे। खाँ साहब ने शिष्ट हास का एक बहुत अच्छा मैदान दिखाया। इन्होंने हास्यरस के लिए खटमल को पकड़ा जिस पर यह संस्कृत उक्ति प्रसिद्ध है,

कमला कमले शेते, हरश्शेते हिमालये।

क्षीराब्धौ च हरिश्शेते मन्ये मत्कुणशंकया

इनका हास गंभीर हास है। क्षुद्र और महत् के अभेद की भावना उसके भीतर कहीं छिपी हुई है। इन सब बातों के विचार से हम खाँ साहब या प्रीतमजी को एकउत्तम श्रेणी का पथप्रदर्शक कवि मानते हैं। इनका और कोई ग्रंथ नहीं मिलता, न सही; इनकी 'खटमल बाईसी' ही बहुत काल तक इनका स्मरण बनाए रखने के लिए काफीहै,

'खटमल बाईसी' के दो कवित्त देखिए,

जगत के कारन करन चारौ वेदन के

कमल में बसे वै सुजान ज्ञान धारि कै।

पोषन अवनि, दुखसोषन तिलोकन के,

सागर मैं जाय सोए सेस सेज करि कै

मदन जरायो जो सँहारे दृष्टि ही में सृष्टि,

बसे है पहार वेऊ भाजि हरबरि कै।

बिधि हरि हर, और इनतें न कोऊ, तेऊ

खाट पै न सोवैं खटमलन कों डरिकै


बाघन पै गयो, देखि बनन में रहे छपि,

साँपन पै गयो, ते पताल ठौर पाई है।

गजन पै गयो,धूल डारत हैं सीस पर,

बैदन पै गयो काहू दारू ना बताई है

जब हहराय हम हरि के निकट गए,

हरि मोसों कही तेरी मति भूल छाई है।

कोऊ ना उपाय, भटकत जनि डोलै, सुन,

खाट के नगर खटमल की दुहाई है

23. दास (भिखारी दास), ये प्रतापगढ़ (अवध) के पास टयोंगा गाँव के रहने वाले श्रीवास्तव कायस्थ थे। इन्होंने अपना वंशपरिचय पूरा दिया है। इनके पिता कृपालदास, पितामह वीरभानु, प्रपितामह राय रामदास और वृद्ध प्रपितामह राय नरोत्ताम दास थे। दासजी के पुत्र अवधोश लाल और पौत्र गौरीशंकर थे जिनके अपुत्र मर जाने से वंशपरंपरा खंडित हो गई। दासजी के इतने ग्रंथों का पता लग चुका है,

रससारांश (संवत् 1799), छंदार्णव पिंगल (संवत् 1799) काव्यनिर्णय (संवत् 1803), श्रृंगारनिर्णय (संवत् 1807), नामप्रकाश कोश (संवत् 1795), विष्णुपुराण भाषा (दोहे चौपाई में); छंद प्रकाश, शतरंजशतिका, अमरप्रकाश (संस्कृत अमरकोष भाषा पद्य में)।

'काव्यनिर्णय' में दासजी ने प्रतापगढ़ के सोमवंशी राजा पृथ्वीसिंह के भाई बाबू हिंदूपतिसिंह को अपना आश्रयदाता लिखा है। राजा पृथ्वीपति संवत् 1791 में गद्दी पर बैठे थे और 1807 में दिल्ली के वजीर सफदरजंग द्वारा छल से मारे गए थे। ऐसा जान पड़ता है कि संवत् 1807 के बाद इन्होंने कोई ग्रंथ नहीं लिखा अत: इनका कविताकाल संवत् 1785 से लेकर संवत् 1807 तक माना जा सकता है।

काव्यांगों के निरूपण में दासजी को सर्वप्रधान स्थान दिया जाता है क्योंकि इन्होंने छंद, रस, अलंकार, रीति, गुण, दोष शब्दशक्ति आदि सब विषयों का औरों से विस्तृत प्रतिपादन किया है। जैसा पहले कहा जा चुका है, श्रीपति से इन्होंने बहुत कुछ लिया है। इनकी विषयप्रतिपादन शैली उत्तम है और आलोचनशक्ति भी इनमें कुछ पाई जाती है; जैसे हिन्दी काव्यक्षेत्र में इन्हें परकीया के प्रेम की प्रचुरता दिखाई पड़ी, जो रस की दृष्टि से रसाभास के अंतर्गत आता है। बहुत से स्थलों पर तो राधाकृष्ण का नाम आने से देवकाव्य का आरोप हो जाता है और दोष का कुछ परिहार हो जाता है, पर सर्वत्र ऐसा नहीं होता। इससे दासजी ने स्वकीया का लक्षण ही कुछ अधिक व्यापक करना चाहा और कहा,

श्रीमाननि के भौन में भोग्य भामिनी और।

तिनहूँ को सुकियाह में गनैं सुकवि सिरमौर

पर यह कोई बड़े महत्व की उद्भावना नहीं कही जा सकती है। जो लोग दासजी के दस और हावों के नाम लेने पर चौंके हैं उन्हें जानना चाहिए कि साहित्यदर्पण में नायिकाओं के स्वभावज अलंकार 18 कहे गए हैं,लीला, विलास, विच्छित्तिा, विव्वोक, किलकिंचित, मोट्टायित्ता, कुट्टमित्ता, विभ्रम, ललित, विहृत, मद, तपन, मौग्धय, विक्षेप,कुतूहल,हसित, चकित और केलि। इनमें से अंतिम आठ को लेकर यदि दासजीने भाषा में प्रचलित दस हावों में जोड़ दिया तो क्या नई बात की? यह चौंकनातब तक बना रहेगा जब तक हिन्दी में संस्कृत के मुख्य सिध्दांत ग्रंथों के सब विषयों का यथावत् समावेश न हो जाएगा और साहित्यशास्त्र का सम्यक् अध्ययन न होगा।

अत: दासजी के आचार्यत्व के संबंध में भी हमारा यही कथन है जो देव आदि के विषय में। यद्यपि इस क्षेत्र में औरों को देखते दासजी ने अधिक काम किया है, पर सच्चे आचार्य का पूरा रूप इन्हें भी प्राप्त नहीं हो सका है। परिस्थिति से ये भी लाचार थे। इनके लक्षण भी व्याख्या के बिना अपर्याप्त और कहीं कहीं भ्रामक हैं और उदाहरण भी कुछ स्थलों पर अशुद्ध हैं। जैसे उपादान लक्षणा लीजिए। इसका लक्षण भी गड़बड़ है और उसी के अनुरूप उदाहरण भी अशुद्ध है। अत: दासजी भी औरों के समान वस्तुत: कवि के रूप में ही हमारे सामने आते हैं।

दासजी ने साहित्यिक और परिमार्जित भाषा का व्यवहार किया है। श्रृंगार ही उस समय का मुख्य विषय रहा है। अत: इन्होंने भी उसका वर्णन विस्तार देव की तरह बढ़ाया है। देव ने भिन्न भिन्न देशों और जातियों की स्त्रियों के वर्णन के लिए जाति विलास लिखा, जिसमें नाइन, धोबिन, सब आ गईं, पर दास जी ने रसाभाव के डर से या मर्यादा के ध्यान से इनको आलंबन के रूप में न रखकर दूती के रूप में रखा है। इनके 'रससारांश' में नाइन, नटिन, धोबिन, कुम्हारिन, बरइन, सब प्रकार की दूतियाँ मौजूद हैं। इनमें देव की अपेक्षा अधिक रसविवेक था। इनका श्रृंगारनिर्णय अपने ढंग का अनूठा काव्य है। उदाहरण मनोहर और सरस है। भाषा में शब्दाडंबर नहीं है। न ये शब्द चमत्कार पर टूटे हैं, न दूर की सूझ के लिए व्याकुल हुए हैं। इनकी रचना कलापक्ष में संयत और भावपक्ष में रंजनकारिणी है। विशुद्ध काव्य के अतिरिक्त इन्होंने नीति की सूक्तियाँ भी बहुत सी कही हैं जिनमें उक्तिवैचित्रय अपेक्षित होता है। देव की सी ऊँची आकांक्षा या कल्पना जिस प्रकार इनमें कम पाई जाती है उसी प्रकार उनकी सी असफलता भी कहीं नहीं मिलती। जिस बात को ये जिस ढंग से,चाहे वह ढंग बहुत विलक्षण न हो,कहना चाहते थे उस बात को उस ढंग से कहने की पूरी सामर्थ्य इनमें थी। दासजी ऊँचे दरजे के कवि थे। इनकी कविता के कुछ नमूने लीजिए,

वाही घरी तें न सान रहै, न गुमान रहै, न रहै सुघराई।

दास न लाज को साज रहै न रहै तनकौ घरकाज की घाई

ह्याँ दिखसाधा निवारे रहौ तब ही लौ भटू सब भाँति भलाई।

देखत कान्हैं न चेत रहै, नहिं चित्त रहै, न रहै चतुराई


नैनन को तरसैए कहाँ लौं, कहाँ लौ हियो बिरहागि मै तैए।

एक घरी न कहूँ कल पैए, कहाँ लगि प्रानन को कलपैए?

आवै यही अब जी में बिचार सखी चलि सौति हुँ, कै घर जैए।

मान घटै ते कहा घटि है जु पै प्रानपियारे को देखन पैए


ऊधो! तहाँई चलौ लै हमें जहँ कूबरि कान्ह बसैं एक ठौरी।

देखिए दास अघाय अघाय तिहारे प्रसाद मनोहर जोरी

कूबरी सों कछु पाइए मंत्र, लगाइए कान्ह सों प्रीति की डोरी।

कूबरिभक्ति बढ़ाइए बंदि, चढ़ाइए चंदन बंदन रोरी


कढ़ि कै निसंक पैठि जाति झुंड झुंडन में,

लोगन को देखि दास आनंद पगति है।

दौरि दौरि जहीं तहीं लाल करि डारति है,

अंक लगि कंठ लगिबे को उमगति है

चमक झमक वारी, ठमक जमक वारी,

रमक तमक वारी जाहिर जगति है।

राम! असि रावरे की रन में नरन में,

निलज बनिता सी होरी खेलन लगति है


अब तो बिहारी के वे बानक गए री, तेरी

तन दूति केसर को नैन कसमीर भो।

श्रौन तुव बानी स्वाति बूँदन के चातक भे,

साँसन को भरिबो दु्रपदजा को चीर भो

हिय को हरष मरु धारनि को नीर भो, री!

जियरो मनोभव सरन को तुनीर भो।

एरी! बेगि करि कैं मिलापु थिर थापु, न तौ

आपु अब चहत अतनु को सरीर भो


अंखियाँ हमारी दईमारी सुधि बुधि हारीं,

मोहूँ तें जु न्यारी दास रहै सब काल में।

कौन गहै ज्ञानै, काहि सौंपत सयाने, कौन

लोक ओक जानै, ये नहीं हैं निज हाल में

प्रेम पगि रही, महामोह में उमगि रहीं,

ठीक ठगि रहीं, लगि रहीं बनमाल में।

लाज को अंचै कै, कुलधरम पचै कै, वृथा

बंधान सँचै कै भई मगन गोपाल में

24. भूपति (राज गुरुदत्ता सिंह) ये अमेठी के राजा थे। इन्होंने संवत् 1791 में श्रृंगार के दोहों की एक सतसई बनाई। उदयनाथ कवींद्र इनके यहाँ बहुत दिनों तक रहे। ये महाशय जैसे सहृदय और काव्यमर्मज्ञ थे वैसे ही कवियों का आदर सम्मान करने वाले भी थे। क्षत्रियों की वीरता भी इनमें पूरी थी। एक बार अवध के नवाब सआदतखाँ से ये बिगड़ खड़े हुए। सआदतखाँ ने जब इनकी गढ़ी घेरी तब ये बाहर सआदतखाँ के सामने ही बहुतों को मार-काट कर गिराते हुए जंगल की ओर निकल गए। इनका उल्लेख कवींद्र ने इस प्रकार किया है,

समर अमेठी के सरेष गुरुदत्तसिंह,

सादत की सेना समरसेन सों भानी है।

भनत कवींद्र काली हुलसी असीसन को,

सीसन को ईस की जमाति सरसानी है

तहाँ एक जोगिनी सुभट खोपरी लै उड़ी,

सोनित पियत ताकी उपमा बखानी है।

प्यालो लै चिनी को नीके जोबन तरंग मानो,

रंग हेतु पीवत मजीठ मुगलानी है

'सतसई' के अतिरिक्त भूपतिजी ने 'कंठाभूषण' और 'रसरत्नाकर' नाम के दो रीतिग्रंथ भी लिखे जो कहीं देखे नहीं गए हैं। शायद अमेठी में हों। सतसई के दोहे दिए जाते हैं,

घूँघट पट की आड़ दै हँसति जबै वह दार।

ससिमंडल ते कढ़ति छनि जनु पियूष की धार

भए रसाल रसाल हैं भरे पुहुप मकरंद।

मानसान तोरत तुरत भ्रमत भ्रमर मदमंद

25. तोषनिधि ये एक प्रसिद्ध कवि हुए हैं। ये शृंगवेरपुर (सिंगरौर, जिला, इलाहाबाद) के रहनेवाले चतुर्भुज शुक्ल के पुत्र थे। इन्होंने संवत् 1791 में 'सुधानिधि' नामक एक अच्छा बड़ा ग्रंथ रसभेद और भावभेद का बनाया। खोज में इनकी दो पुस्तकें और मिली हैं,विनयशतक और नखशिख। तोषजी ने काव्यांगों के बहुत अच्छे लक्षण और सरस उदाहरण दिए हैं। उठाई हुई कल्पना का अच्छा निर्वाह हुआ है और भाषा स्वाभाविक प्रवाह के साथ आगे बढ़ती है। तोषजी एक बड़े ही सहृदय और निपुण कवि थे। भावों का विधान सघन होने पर भी कहीं उलझा नहीं है। बिहारी के समान इन्होंने भी कहीं कहीं ऊहात्मक अत्युक्ति की है। कविता के कुछ नमूने दिए जाते हैं,

भूषन भूषित दूषन हीन प्रवीन महारस मैं छबि छाई।

पूरी अनेक पदारथ तें जेहि में परमारथ स्वारथ पाई

औ उकतैं मुकतै उलही कवि तोष अनोषभरी चतुराई।

होत सबै सुख की जनिता बनि आवति जौं बनिता कविताई


एक कहैं हँसि ऊधावजू! ब्रज की जुवती तजि चंद्रप्रभा सी।

जाय कियो कहँ तोष प्रभू! इक प्रानप्रिया लहि कंस की दासी

जो हुते कान्ह प्रवीन महा सो हहा! मथुरा में कहा मति नासी।

जीव नहीं उबियात जबै ढिग पौढ़ति हैं कुबिजा कछुआ सी


श्रीहरि की छबि देखिबे को अंखियाँ प्रति रोमहि में करि देतो।

बैनन को सुनिबे हित स्रौन जितै तित सो करतौ करि हेतो

मो ढिग छाँड़ि न काम कहूँ रहै तोष कहै लिखितो बिधि एतो।

तौ करतार इती करनी करिकै कलि में कल कीरति लेतो


तौ तन में रवि को प्रतिबिंब परे किरनै सो घनी सरसाती।

भीतर हू रहि जात नहीं, अंखियाँ चकचौंधि ह्वै जाति हैं राती

बैठि रहौ, बलि, कोठरी में कह तोष करौं बिनती बहु भाँती।

सारसीनैनि लै आरसी सो अंग काम कहा कढ़ि घाम में जाती?

26-27. दलपति राय और बंशीधर दलपति राय महाजन और बंसीधार ब्राह्मण थे। दोनों अहमदाबाद (गुजरात) के रहने वाले थे। इन लोगों ने संवत् 1792 में उदयपुर के महाराणा जगतसिंह के नाम पर 'अलंकाररत्नाकर' नामक ग्रंथ बनाया। इसका आधार महाराज जसवंत सिंह का 'भाषाभूषण' है। इसका 'भाषाभूषण' के साथ प्राय: वही संबंध है जो 'कुवलयानंद' का 'चंद्रालोक' के साथ। इस ग्रंथ में विशेषता यह है कि इसमें अलंकारों का स्वरूप समझाने का प्रयत्न किया गया है। इस कार्य के लिए गद्य व्यवहृत हुआ है। रीतिकाल के भीतर व्याख्या के लिए कभी कभी गद्य का उपयोग कुछ ग्रंथकारों की सम्यक् निरूपण की उत्कंठा सूचित करता है। इस उत्कंठा के साथ ही साथ गद्य की उन्नति की आकांक्षा का सूत्रपात समझना चाहिए जो सैकड़ों वर्ष बाद पूरी हुई।

'अलंकाररत्नाकर' में उदाहरणों पर अलंकार घटा कर बताए गए हैं और उदाहरण दूसरे अच्छे कवियों के भी बहुत से हैं। इससे यह अध्ययन के लिए बहुत उपयोगी है। दंडी आदि कई संस्कृत आचार्यों के उदाहरण भी लिए गए हैं। हिन्दी कवियों की लंबी नामावली ऐतिहासिक खोज में बहुत उपयोगी है।

कवि भी ये लोग अच्छे थे। पद्य रचना की निपुणता के अतिरिक्त इनमें भावुकता और बुद्धि वैभव दोनों हैं। इनका एक कवित्त नीचे दिया जाता है,

अरुन हरौल नभ मंडल मुलुक पर

चढयो अक्क चक्कवै कि तानि कै किरिनकोर।

आवत ही साँवत नछत्रा जोय धाय धाय,

घोर घमासान करि काम आए ठौर ठौर

ससहर सेत भयो, सटक्यो सहमि ससी,

आमिल उलूक जाय गिरे कंदरन ओर।

दुंद देखि अरविंद बंदीखाने तें भगाने,

पायक पुलिंद वै मलिंद मकरंद चोर

28. सोमनाथ ये माथुर ब्राह्मण थे और भरतपुर के महाराज बदनसिंह के कनिष्ठ पुत्र प्रतापसिंह के यहाँ रहते थे। इन्होंने संवत् 1794 में 'रसपीयूषनिधि' नामक रीति का एक विस्तृत ग्रंथ बनाया जिसमें पिंगल, काव्यलक्षण, प्रयोजन, भेद, शब्दशक्ति, ध्वनि, भाव, रस, रीति, गुण, दोष इत्यादि सब विषयों का निरूपण है। यह दास जी के काव्यनिर्णय से बड़ा ग्रंथ है। काव्यांगनिरूपण में ये श्रीपति और दास के समान ही हैं। विषय को स्पष्ट करने की प्रणाली इनकी बहुत अच्छी है।

विषयनिरूपण के अतिरिक्त कविकर्म में भी ये सफल हुए हैं। कविता में ये अपना उपनाम 'ससिनाथ' भी रखते थे। इनमें भावुकता और सहृदयता पूरी थी, इससे इनकी भाषा में कृत्रिमता नहीं आने पाई। इनकी एक अन्योक्ति कल्पना की मार्मिकताऔरप्र्रसादपूर्ण व्यंग्य के कारण बहुत प्रसिद्ध है। सघन और पेचीले मजमून गाँठने के फेर में न पड़ने के कारण इनकी कविता को साधारण समझना सहृदयता के सर्वथाविरुद्ध है। 'रसपीयूषनिधि' के अतिरिक्त खोज में इनके तीन और ग्रंथ मिले हैं,

1. कृष्ण लीलावती पंचाध्यायी (संवत् 1800)

2. सुजानविलास (सिंहासन बत्तीसी, पद्य में; संवत् 1807)

3. माधवविनोद नाटक (संवत् 1809)

उक्त ग्रंथों के निर्माणकाल की ओर ध्यान देने से इनका कविताकाल संवत् 1790 से 1810 तक ठहरता है।

रीतिग्रंथ और मुक्तक रचना के सिवा इस सत्कवि ने प्रबंधकाव्य की ओर भी ध्यान दिया। सिंहासनबत्तीसी के अनुवाद को यदि हम काव्य न मानें तो कम से कम पद्यप्रबंध अवश्य ही कहना पड़ेगा। 'माधवविनोद' नाटक शायद मालतीमाधव के आधार पर लिखा हुआ प्रेमप्रबंध है। पहले कहा जा चुका है कि कल्पित कथा लिखने की प्रथा हिन्दी के कवियों में प्राय: नहीं के बराबर रही। जहाँगीर के समय में संवत् 1673 में बना पुहकर कवि का 'रसरत्न' अब तक नाम लेने योग्य कल्पित प्रबंधकाव्य था। अत: सोमनाथ जी का यह प्रयत्न उनके दृष्टिविस्तार का परिचारक है। नीचे सोमनाथ जी की कुछ कविताएँ दी जाती हैं,

दिसि बिदिसन तें उमड़ि मढ़ि लीनो नभ,

छाँड़ि दीने धुरवा जवासे-जूथ जरिगे।

डहडहे भये दु्रम रंचक हवा के गुन,

कहूँ कहूँ मोरवा पुकारि मोद भरिगे

रहि गए चातक जहाँ के तहाँ देखत ही,

सोमनाथ कहै बूँदाबूँदि हू न करिगे।

सोर भयो घोर चारों ओर महिमंडल में,

'आये घन, आये घन' आयकै उघरिगे


प्रीति नयी नित कीजत है, सब सों छल की बतरानि परी है।

सीखी डिठाई कहाँ ससिनाथ, हमैं दिन द्वैक तें जानि परी है

और कहा लहिए, सजनी! कठिनाई गरै अति आनि परी है।

मानत है बरज्यो न कछू अब ऐसी सुजानहिं बानि परी है


झमकतु बदन मतंग कुंभ उत्तंग अंग वर।

बंदन बलित भुसुंड कुंडलित सुंड सिद्धि धार

कंचन मनिमय मुकुट जगमगै सुघर सीस पर।

लोचन तीनि बिसाल चार भुज धयावत सुर नर

ससिनाथ नंद स्वच्छंद, निति कोटि बिघन छरछंदहर।

जय बुद्धि बिलंद अमंद दुति इंदुभाल आनंदकर

29. रसलीन इनका नाम सैयद गुलाम नबी था। ये प्रसिद्ध बिलग्राम (जिला हरदोई) के रहनेवाले थे, जहाँ अच्छे अच्छे विद्वान मुसलमान होते आए हैं। अपने नाम के आगे 'बिलगरामी' लगाना एक बड़े सम्मान की बात यहाँ के लोग समझते थे। गुलाम नबी ने अपने पिता का नाम बाकर लिखा है। इन्होंने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'अंगदर्पण' संवत् 1794 में लिखी जिसमें अंगों का, उपमा उत्प्रेक्षा से युक्त चमत्कारपूर्ण वर्णन है। सूक्तियों के चमत्कार के लिए यह ग्रंथ काव्यरसिकों में बराबर विख्यात चला आया है। यह प्रसिद्ध दोहा जिसे जनसाधारण बिहारी का समझा करते हैं, अंगदर्पण का ही है,

अमिय हलाहल मदभरे सेत स्याम रतनार।

जियत मरत झुकि झुकि परत जेहि चितवत इक बार

'अंगदर्पण' के अतिरिक्त रसलीनजी ने संवत् 1798 में 'रसप्रबोध' नामक रसनिरूपण का ग्रंथ दोहों में बनाया। इसमें 1155 दोहे हैं और रस, भाव, नायिकाभेद, षट्ऋतु, बारहमासा आदि अनेक प्रसंग आए हैं। रसविषय का अपने ढंग का यह छोटा सा अच्छा ग्रंथ है। रसलीन ने स्वयं कहा है कि इस छोटे से ग्रंथ को पढ़ लेने पर रस का विषय जानने के लिए और ग्रंथ पढ़ने की आवश्यकता न रहेगी। पर यह ग्रंथ अंगदर्पण के ऐसा प्रसिद्ध न हुआ।

रसलीन ने अपने को दोहों की रचना तक ही रखा जिनमें पदावली की गति द्वारा नादसौंदर्य का अवकाश बहुत ही कम रहता है। अत: चमत्कार और उक्तिवैचित्रय की ओर इन्होंने अधिक ध्यान रखा। नीचे इनके कुछ दोहे दिए जाते हैं,

धारति न चौकी नगजरी यातें उर में लाय।

छाँह परे पर पुरुष की जनि तिय धरम नसाय

चख चलि स्रवन मिल्यो चहत कच बढ़ि छुवन छवानि।

कटि निज दरब धारयो चहत वक्षस्थल में आनि

कुमति चंद प्रति द्यौस बढ़ि मास मास कढ़ि आय।

तुव मुख मधुराई लखे फीको परि घटि जाय

रमनी मन पावत नहीं लाज प्रीति को अंत।

दुहुँ ओर ऐंचो रहै, जिमि बिबि तिय को कंत

तिय सैसव जोबन मिले भेद न जान्यो जात।

प्रात समय निसि द्यौस के दुवौ भाव दरसात

30. रघुनाथ ये बंदीजन एक प्रसिद्ध कवि हुए हैं जो काशिराज महाराजा बरिबंडसिंह की सभा को सुशोभित करते थे। काशीनरेश ने इन्हें चौरा ग्राम दिया था। इनके पुत्र गोकुलनाथ, पौत्र गोपीनाथ और गोकुलनाथ के शिष्य मणिदेव ने महाभारत का भाषा अनुवाद किया जो काशिराज के पुस्तकालय में है। ठाकुर शिवसिंह ने इनके चार ग्रंथों के नाम लिखे हैं,

काव्यकलाधार, रसिकमोहन, जगतमोहन और इश्कमहोत्सव। बिहारी सतसई की एक टीका का भी उन्होंने उल्लेख किया है। इनका कविता काल संवत् 1790 से 1810 तक समझना चाहिए।

'रसिकमोहन' (संवत् 1796) अलंकार का ग्रंथ है। इसमें उदाहरण केवल श्रृंगार के ही नहीं हैं, वीर आदि अन्य रसों के भी बहुत हैं। एक अच्छी विशेषता तो यह है कि इसमें अलंकारों के उदाहरणों में जो पद्य आए हैं उनके प्राय: सब चरण प्रस्तुत अलंकार के सुंदर और स्पष्ट उदाहरण होते हैं। इस प्रकार इनके कवित्त या सवैये का सारा कलेवर अलंकार को उदाहृत करने में प्रयुक्त हो जाता है। भूषण आदि बहुत से कवियों ने अलंकारों के उदाहरण में जो पद्य रखे हैं उनका अंतिम या और कोई चरण ही वास्तव में उदाहरण होता है। उपमा के उदाहरण में इनका यह प्रसिद्ध कवित्त लीजिए,

फूलि उठे कमल से अमल हितू के नैन

कहै रघुनाथ भरे चैन रस सियरे।

दौरि आए भौंर से करत गुनी गुनगान,

सिद्ध से सुजान सुखसागर सों नियरे

सुरभी सी खुलन सुकवि की सुमति लागी,

चिरिया सी जागी चिंता जनक के जियरे।

धानुष पै ठाढ़े राम रवि से लसत आजु,

भोर के से नखत नरिंद भए पियरे

'काव्यकलाधर' (संवत् 1802) रस का ग्रंथ है। इसमें प्रथानुसार भावभेद, रसभेद थोड़ा बहुत कहकर नायिकाभेद और नायकभेद का ही विस्तृत वर्णन है। विषयनिरूपणइसकाउद्देश्य नहीं जान पड़ता। 'जगतमोहन' (संवत् 1807) वास्तव में एक अच्छे प्रतापी और ऐवर्श्यवान् राजा की दिनचर्या बताने के लिए लिखा गया है। इसमें कृष्ण भगवान की 12 घंटे की दिनचर्या कही गई है। इसमें ग्रंथकार ने अपनी बहुज्ञता अनेक विषयों, जैसे राजनीति, सामुद्रिक, वैद्यक, ज्योतिष, शालिहोत्रा, मृगया, सेना, नगर, गढ़ रक्षा, पशुपक्षी, शतरंज इत्यादि के विस्तृत और अरोचक वर्णनों द्वारा प्रदर्शित की है। इस प्रकार वास्तव में पद्य में होने पर भी यह काव्यग्रंथ नहीं है। 'इश्कमहोत्सव' में आपने 'खड़ी बोली' की रचना का शौक दिखाया है। उससे सूचित होता है कि खड़ी बोली की धारणा तब तक अधिकतर उर्दू के रूप में ही लोगों को थी।

कविता के कुछ नमूने उध्दृत किए जाते हैं,

ग्वाल संग जैबो ब्रज, गैयन चरैबो ऐबो,

अब कहा दाहिने ये नैन फरकत हैं।

मोतिन की माल वारि डारौं गुंजमाल पर,

कुंजन की सुधि आए हियो धारकत हैं

गोबर को गारो रघुनाथ कछु यातें भारो,

कहा भयो महलनि मनि मरकत हैं।

मंदिर हैं मंदर तें ऊँचे मेरे द्वारका के,

ब्रज के खरिक तऊ हिये खरकत हैं


कैधौं सेस देस तें निकसि पुहुमी पे आय,

बदन ऊचाय बानी जस असपंद की।

कैधौं छिति चँवरी उसीर की दिखावति है,

ऐसी सोहै उज्ज्वल किरन जैसे चंद की

जानि दिनपाल श्रीनृपाल नंदलाल जू को,

कहैं रघुनाथ पाय सुघरी अनंद की।

छूटत फुहारे कैधौं फूल्यो है कमल, तासों,

अमल अमंद मढ़े धार मकरंद की


सुधरे सिलाह राखैं, वायुवेग वाह राखैं,

रसद की राह राखैं, राखे रहै बन को।

चोर को समाज राखैं, बजा औ नजर राखैं,

खबरि के काज बहुरूपी हर फन को

आगम भखैया राखैं, सगुन लेवैया राखैं,

कहै रघुनाथ औ बिचार बीच मन को।

बाजी हारैं कबहूँ न औसर के परे जौन,

ताजी राखै प्रजन को, राजी सुभटन को


आप दरियाव, पास नदियों के जाना नहीं,

दरियाव पास नदी होयगी सो धावैगी।

दरखत बेलि आसरे को कभी राखता न,

दरखत ही के आसरे को बेलि पावैगी

मेरे तो लायक जो था कहना सो कहा मैंने,

रघुनाथ मेरी मति न्याव ही की गावैगी।

वह मुहताज आपकी है, आप उसके न,

आप क्यों चलोगे? वह आप पास आवैगी

31. दूलह,ये कालिदास त्रिवेदी के पौत्र और उदयनाथ 'कवींद्र' के पुत्र थे। ऐसा जान पड़ता है कि ये अपने पिता के सामने ही अच्छी कविता करने लगे थे। ये कुछ दिनों तक अपने पिता के समसामयिक रहे। कवींद्र के रचे ग्रंथ 1804 तक के मिले हैं। अत: इनका कविताकाल संवत् 1800 से लेकर संवत् 1825 के आसपास तक माना जा सकता है। इनका बनाया एक ही ग्रंथ 'कविकुलकंठाभरण' मिला है जिसमें निर्माणकाल नहीं दिया है। पर इनके फुटकल कवित्त और भी सुने जाते हैं।

'कविकुलकंठाभरण' अलंकार का एक प्रसिद्ध ग्रंथ है। इसमें यद्यपि लक्षण और उदाहरण एक ही पद में कहे गए हैं, पर कवित्त और सवैया के समान बड़े छंद लेने से अलंकार-स्वरूप और उदाहरण दोनों के सम्यक् कथन के लिए पूरा अवकाश मिला है। भाषाभूषण आदि दोहों में रचे हुए इस प्रकार के ग्रंथों से इसमें यही विशेषता है। इसके द्वारा सहज में अलंकारों का चलता बोध हो सकता है। इसी से दूलहजी ने इसके संबंध में आप कहा है,

जो या कंठाभरण को कंठ करै चित लाय।

सभा मध्य सोभा लहै अलंकृती ठहराय

इनके कविकुलकंठाभरण में केवल 85 पद्य हैं। फुटकल जो कवित्त मिलते हैं वे अधिक से अधिक 15 या 20 होंगे। अत: इनकी रचना बहुत थोड़ी है, पर थोड़ी होने पर भी उसने इन्हें बड़े अच्छे प्रतिभासम्पन्न कवियों की श्रेणी में प्रतिष्ठित कर दिया है। देव, दास, मतिराम आदि के साथ दूलह का भी नाम लिया जाता है। इनकी इस सर्वप्रियता का कारण इनकी रचना की मधुर कल्पना, मार्मिकता और प्रौढ़ता है। इनके वचन अलंकारों के प्रमाण में भी सुनाए जाते हैं और सहृदय श्रोताओं के मनोरंजन के लिए भी। किसी कवि ने इन पर प्रसन्न होकर यहाँ तक कहा है कि 'और बराती सकल कवि, दूलह दूलहराय'।

इनकी रचना के कुछ उदाहरण देखिए,

माने सनमाने तेइ माने सनमाने सन,

माने सनमाने सनमान पाइयतु है।

कहैं कवि दूलह अजाने अपमाने,

अपमान सों सदन तिनही को छाइयतु है

जानत हैं जेऊ तेऊ जात हैं विराने द्वार,

जानि बूझि भूले तिनको सुनाइयतु है।

कामबस परे कोऊ गहत गरूर तौ वा,

अपनी जरूर जाजरूर जाइयतु है


धारी जब बाँहीं तब करी तुम 'नाहीं',

पायँ दियौ पलिकाही, 'नाहीं नाहीं' कै सुहाई हौ।

बोलत मैं नाहीं, पट खोलत मैं नाहीं, कवि

दूलह उछाही लाख भाँतिन लहाई हौ

चुंबन में नाहीं परिरंभन में नाहीं, सब

आसन बिलासन में नाहीं ठीक ठाई हौ।

मेलि गलबाहीं, केलि कीन्हीं चितचाही, यह

'हाँ' ते भली 'नाहीं' सो कहाँ न सीखि आई हौ


उरज उरज धाँसे, बसे उर आड़े लसे,

बिन गुन माल गरे धारे छवि छाए हौ।

नैन कवि दूलह हैं राते, तुतराते बैन,

देखे सुने सुख के समूह सरसाए हौ।

जावक सों लाल भाल, पलकन पीकलीक,

प्यारे ब्रजचंद सुचि सूरज सुहाए हौ।

होत अरुनोद यहि कोद मति बसी आजु,

कौन घरबसी घर बसी करि आए हौ?


सारी की सरौट सब सारी में मिलाय दीन्हीं,

भूषन की जेब जैसे जेब जहियतु है।

कहै कवि दूलह छिपाए रदछद मुख,

नेह देखे सौतिन की देह दहियतु है

बाला चित्रसाला तें निकसि गुरुजन आगे,

कीन्हीं चतुराई सो लखाई लहियतु है।

सारिका पुकारै हम नाहीं, हम नाहीं

'एजू! राम राम कहौ', 'नाहीं नाहीं', कहियतुहै


फल विपरीत को जतन सों, 'विचित्र',

हरि ऊँचे होत वामन भे बलि के सदन में।

आधार बड़े तें बड़ो आधोय 'अधिक' जानौ,

चरन समायो नाहिं चौदहो भुवन में

आधोय अधिक तें आधार की अधिकताई,

'दूसरो अधिक' आयो ऐसो गननन में।

तीनों लोक तन में, अमान्यो ना गगन में।

बसैं ते संत मन में कितेक कहौ, मन में

32. कुमारमणिभट्ट इनका कुछ वृत्त ज्ञात नहीं। इन्होंने संवत् 1803 के लगभग 'रसिकरसाल' नामक एक बहुत अच्छा रीतिग्रंथ बनाया। ग्रंथ में इन्होंने अपने को हरिबल्लभ का पुत्र कहा है। शिवसिंह ने इन्हें गोकुलवासी कहा है। इनका सवैया देखिए,

गावैं बधू मधुरै सुर गीतन प्रीतम संग न बाहिर आई।

छाई कुमार नई छिति में छबि मानो बिछाई नई दरियाई

ऊँचे अटा चढ़ि देखि चहूँ दिसि बोली यों बाल गरो भरिआई।

कैसी करौं हहरैं हियरा, हरि आए नहीं उलही हरियाई

33. शंभुनाथ मिश्र इस नाम के कई कवि हुए हैं जिनमें से एक संवत् 1806 में, दूसरे 1867 में, तीसरे 1901 में हुए हैं। यहाँ प्रथम का उल्लेख किया जाता है, जिन्होंने 'रसकल्लोल', 'रसतरंगिणी' और 'अलंकारदीप' नामक तीन रीतिग्रंथ बनाए हैं। ये 'असोथर (जिला फतेहपुर) के राजा भगवंतराय खीची के यहाँ रहते थे।' 'अलंकारदीप' में अधिकतर दोहे हैं, कवित्त सवैया कम। उदाहरण श्रृंगारवर्णन में अधिक प्रयुक्त न होकर आश्रयदाता के यश और प्रतापवर्णन में अधिक प्रयुक्त हैं। एक कवित्त दिया जाता है,

आजु चतुरंग महाराज सेन साजत ही,

धौंसा की धुकार धूरि परी मुँह माही के।

भय के अजीरन तें जीरन उजीर भए,

सूल उठी उर में अमीर जाही ताही के

बीर खेत बीच बरछी लै बिरुझानो, इतै

धीरज न रह्यो संभु कौन हू सिपाही के।

भूप भगवंत बीर ग्वाही कै खलक सब,

स्याही लाई बदन तमाम पातसाही के

34. शिवसहायदास ये जयपुर के रहनेवाले थे। इन्होंने संवत् 1809 में 'शिवचौपाई' और 'लोकोक्तिरस कौमुदी' दो ग्रंथ बनाए। लोकोक्तिरस कौमुदी में विचित्रता यह है कि पखानों या कहावतों को लेकर नायिकाभेद कहा गया है झ्र जैसे

करौ रुखाई नाहिंन बाम। बेगिहिं लै आऊँ घनस्याम

कहै पखानो भरि अनुराग। बाजी ताँत की बूझ्यो राग

बोलै निठुर पिया बिनु दोस। आपुहि तिय बैठी गहि रोस

कहै पखानो जेहि गहि मोन। बैल न कूद्यौ, कूदी गोन

35. रूपसाहि ये पन्ना के रहनेवाले श्रीवास्तव कायस्थ थे। इन्होंने संवत् 1813 में 'रूपविलास' नामक ग्रंथ लिखा जिसमें दोहे में ही कुछ पिंगल, कुछ अलंकार, नायिकाभेद आदि हैं। दो दोहे नमूने के लिए दिए जाते हैं,

जगमगाति सारी जरी झलमल भूषन जोति।

भरी दुपहरी तिया की भेंट पिया सों होति

लालन बेगि चलौ न क्यों बिना तिहारे बाल।

मार मरोरनि सो मरति करिए परसि निहाल

36. ऋषिनाथ ये असनी के रहने वाले बंदीजन, प्रसिद्ध कवि ठाकुर के पिता और सेवक के प्रपितामह थे। काशिराज के दीवान सदानंद और रघुबर कायस्थ के आश्रय में इन्होंने 'अलंकारमणिमंजरी' नाम की एक अच्छी पुस्तक बनाई जिसमें दोहों की संख्या अधिक है, यद्यपि बीच बीच में घनाक्षरी और छप्पय भी हैं। इसका रचना काल संवत् 1831 है जिससे यह इनकी वृध्दावस्था का ग्रंथ जान पड़ता है। इनका कविताकाल संवत् 1790 से 1831 तक माना जा सकता है। कविता ये अच्छी करते थे। एक कवित्त दिया जाता है,

छाया छत्र ह्वै करि करति महिपालन को,

पालन को पूरो फैलो रजत अपार ह्वै।

मुकुत उदार ह्वै लगत सुख श्रौनन में,

जगत जगत हंस, हास, हीरहार ह्वै

ऋषिनाथ सदानंद सुजस बिलंद,

तमवृंद के हरैया चंद्रचंद्रिका सुढार ह्वै,

हीतल को सीतल करत घनसार ह्वै,

महीतल को पावन करत गंगधार ह्वै

37. बैरीसाल ये असनी के रहने वाले ब्रह्मभट्ट थे। उनके वंशधर अब तक असनी में हैं। इन्होंने 'भाषाभरण' नामक एक अच्छा अलंकारग्रंथ संवत् 1825 में बनाया जिसमें प्राय: दोहे ही हैं। दोहे बहुत सरस हैं और अलंकारों के अच्छे उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। दो दोहे उध्दृत किए जाते हैं,

नहिं कुरंग नहिं ससक यह, नहिं कलंक नहिं पंक।

बीस बिसे बिरहा वही, गही दीठि ससि अंक

करत कोकनद मदहि रद, तुव पव हर सुकुमार।

भए अरुन अति दबि मनो पायजेब के भार

38. दत्ता,ये माढ़ी (जिला कानपुर) के रहने वाले ब्राह्मण थे और चरखारी के महाराज खुमान सिंह के दरबार में रहते थे। इनका कविताकाल संवत् 1830 माना जा सकता है। इन्होंने 'लालित्यलता' नाम की एक अलंकार की पुस्तक लिखी है जिससे ये बहुत अच्छे कवि जान पड़ते हैं। एक सवैया दिया जाता है,

ग्रीषम में तपै भीषम भानु, गई बनकुंज सखीन की भूल सों।

घाम सों बामलता मुरझानी, बयारि करैं घनश्याम दुकूल सों

कंपत यों प्रगटयो तन स्वेद उरोजन दत्ता जू ठोड़ी के मूल सों।

द्वै अरविंद कलीन पै मानो गिरै मकरंद गुलाल के फूल सों

39. रतनकवि इनका वृत्त कुछ ज्ञात नहीं। शिवसिंह ने इनका जन्मकाल संवत् 1798 लिखा है। इससे इनका कविताकाल संवत् 1830 के आसपास माना जा सकता है। ये श्रीनगर (गढ़वाल) के राजा फतहसिंह के यहाँ रहते थे। उन्हीं के नाम पर 'फतेहभूषण्' नामक एक अच्छा अलंकार का ग्रंथ इन्होंने बनाया। इसमें लक्षणा, व्यंजना, काव्यभेद, ध्वनि, रस, दोष आदि का विस्तृत वर्णन है। उदाहरण में श्रृंगार के ही पद्य न रखकर इन्होंने अपने राजा की प्रशंसा के कवित्त बहुत रखे हैं। संवत् 1827 में इन्होंने 'अलंकारदर्पण' लिखा। इनका निरूपण भी विशद है और उदाहरण भी बहुत मनोहर और सरस है। ये एक उत्तम श्रेणी के कुशल कवि थे, इसमें संदेह नहीं । कुछ नमूने लीजिए,

बैरिन की बाहिनी को भीषन निदाघ रवि,

कुबलय केलि को सरस सुधाकरु है।

दान झरि सिंधुर है, जग को बसुंधार है,

बिबुधा कुलनि को फलित कामतरु है

पानिप मनिन को, रतन रतनाकर को,

कुबेर पुन्यजनन को, छमा महीधारु है।

अंग को सनाह, बनराह को रमा को नाह,

महाबाह फतेसाह एकै नरबरु है


काजर की कोरवारे भारे अनियारे नैन,

कारे सटकारे बार छहरे छवानि छ्वै।

स्याम सारी भीतर भभक गोरे गातन की,

ओपवारी न्यारी रही बदन उजारी ह्वै

मृगमद बेंदी भाल में दी, याही आभरन,

हरन हिए को तू है रंभा रति ही अवै।

नीके नथुनी के तैसे सुंदर सुहात मोती,

चंद पर च्वै रहै सु मानो सुधाबुंद द्वै

40. नाथ (हरिनाथ),ये काशी के रहनेवाले गुजराती ब्राह्मण थे। इन्होंने संवत् 1826 में 'अलंकारदर्पण' नामक एक छोटा सा ग्रंथ बनाया जिसमें एक एक पद के भीतर कई कई उदाहण हैं। इनका क्रम औरों से विलक्षण है। ये पहले अनेक दोहों में बहुत से लक्षण कहते गए हैं फिर एक साथ सबके उदाहरण कवित्त आदि में देते गए हैं। कविता साधारणत: अच्छी है। एक दोहा देखिए,

तरुनी लसति प्रकास तें मालति लसति सुबास।

गोरस गोरस देत नहिं गोरस चहति हुलास

41. मनीराम मिश्र ये कन्नौज निवासी इच्छाराम मिश्र के पुत्र थे। इन्होंनेसंवत् 1829 में 'छंदछप्पनी' और 'आनंदमंगल' नाम की दो पुस्तकें लिखीं। 'आनंदमंगल'भागवत दशम स्कंध का पद्य में अनुवाद है। 'छंदछप्पनी' छंदशास्त्र का बड़ा ही अनूठा ग्रंथहै।

42. चंदन ये नाहिल पुवायाँ (जिला शाहजहाँपुर) के रहनेवाले बंदीजन थे और गौड़ राजा केशरीसिंह के पास रहा करते थे। 'श्रृंगारसागर', 'काव्याभरण', 'कल्लोलतरंगिणी' ये तीन रीतिग्रंथ लिखे। इनके अतिरिक्त इनके निम्नलिखित ग्रंथ और हैं,

(1) केसरीप्रकाश, (2) चंदन सतसई, (3) पथिकबोध, (4) नखशिख,

(5) नाममाला (कोश), (6) पत्रिकाबोध, (7) तत्वसंग्रह, (8) सीतबसंत (कहानी), (9) कृष्णकाव्य, (10) प्राज्ञविलास।

ये एक अच्छे चलते कवि जान पड़ते हैं। इन्होंने 'काव्याभरण' संवत् 1845 में लिखा। फुटकल रचना तो इनकी अच्छी है ही। सीतबसंत की कहानी भी इन्होंने प्रबंध काव्य के रूप में लिखी है। सीतबसंत की रोचक कहानी इन प्रांतों में बहुत प्रचलित है। उसमें विमाता के अत्याचार से पीड़ित सीतबसंत नामक दो राजकुमारों की बड़ी लंबी कथा है। इनकी पुस्तकों की सूची देखने से यह धारणा होती है कि इनकी दृष्टि रीतिग्रंथों तक ही बद्ध न रहकर साहित्य के और अंगों पर भी थी।

ये फारसी के भी अच्छे शायर थे और अपना तखल्लुस 'संदल' रखते थे। इनका 'दीवाने संदल' कहीं कहीं मिलता है। इनका कविताकाल संवत् 1820 से 1850 तक माना जा सकता है। इनका एक सवैया नीचे दिया जाता है,

ब्रजवारी गँवारी दै जानै कहा, यह चातुरता न लुगायन में।

पुनि बारिनी जानि अनारिनी है, रुचि एती न चंदन नायन में

छबि रंग सुरंग के बिंदु बने, लगै इंद्रबधू लघुतायन में।

चित जो चहैं दी चकि सी रहैं दी, केहि दी मेहँदी इन पाँयन में

43. देवकीनंदन दये कन्नौज के पास मकरंदनगर ग्राम के रहनेवाले थे। इनके पिता का नाम सषली शुक्ल था। इन्होंने संवत् 1841 में 'श्रृंगारचरित्र' और 1857 मंत 'अवधूतभूषण' और 'सरफराजचंद्रिका' नामक रस और अलंकार के ग्रंथ बनाए। संवत् 1843 में ये कुँवर सरफराज गिरि नामक किसी धानाढय महंत के यहाँ थे जहाँ इन्होंने 'सरफराजचंद्रिका' नामक अलंकार का ग्रंथ लिखा। इसके उपरांत ये रुद्दामऊ (जिला हरदोई) के रईस अवधूत सिंह के यहाँ गए जिनके नाम पर 'अवधूतभूषण' बनाया। इनका एक नखशिख भी है। शिवसिंह को इनके इस नखशिख का ही पता था, दूसरे ग्रंथों का नहीं।

'श्रृंगारचरित्र' में रस, भाव, नायिकाभेद आदि के अतिरिक्त अलंकार भी आ गए हैं। 'अवधूतभूषण' वास्तव में इसी का कुछ प्रवर्धित रूप है। इनकी भाषा मँजी हुई और भाव प्रौढ़ हैं। बुद्धि वैभव भी इनकी रचना में पाया जाता है। कहीं कहीं कूट भी इन्होंने कहे हैं। कलावैचित्रय की ओर अधिक झुकी हुई होने पर भी इनकी कविता में लालित्य और माधुर्य पूरा है। दो कवित्त नीचे दिए जाते हैं,

बैठी रंग रावटी में हेरत पिया की बाट,

आए न बिहारी भई निपट अधीर मैं।

देवकीनंदन कहै स्याम घटा घिरि आई,

जानि गति प्रलय की डरानी बहु, बीर मैं

सेज पै सदासिव की मूरति बनाय पूजी,

तीनि डर तीनहू की करी तदबीर मैं।

पाखन में सामरे, सुलाखन में अखैवट,

ताखन में लाखन की लिखी तसवीर मैं


मोतिन की माल तोरि चीर सब चीरि डारै,

फेरि कै न जैहौं आली, दुख बिकरारे हैं।

देवकीनंदन कहै धोखे नागछौनन के,

अलकैं प्रसून नोचि नोचि निरबारे हैं

मानि मुख चंदभाव चोंच दई अधारन,

तीनौ ये निकुंजन में एकै तार तारे हैं।

ठौर ठौर डोलत मराल मतवारे, तैसे,

मोर मतवारे त्यों चकोर मतवारे हैं

44. महाराज रामसिंह,ये नरवलगढ़ के राजा थे। इन्होंने रस और अलंकार पर तीन ग्रंथ लिखे हैं अलंकार दर्पण, रसनिवास (संवत् 1839) और रसविनोद (संवत् 1860)। अलंकार दर्पण दोहों में है। नायिकाभेद भी अच्छा है। ये एक अच्छे और प्रवीण कवि थे। उदाहरण लीजिए,

सोहत सुंदर स्याम सिर, मुकुट मनोहर जोर।

मनो नीलमनि सैल पर, नाचत राजत मोर

दमकन लागी दामिनी, करन लगे घन रोर।

बोलति माती कोइलै, बोलत माते मोर

45. भान कवि इनके पूरे नाम तक का पता नहीं। इन्होंने संवत् 1845 में 'नरेंद्रभूषण' नामक अलंकार का एक ग्रंथ बनाया जिससे केवल इतना ही पता लगता है कि ये राजा जोरावरसिंह के पुत्र थे और राजा रनजोरसिंह बुंदेल के यहाँ रहते थे। इन्होंने अलंकारों के उदाहरण श्रृंगाररस के प्राय: बराबर ही वीर, भयानक, अद्भुत आदि रसों के रखे हैं। इससे इनके ग्रंथ में कुछ नवीनता अवश्य दिखाई पड़ती है जो श्रृंगार के सैकड़ों वर्ष के पिष्टपेषण से ऊबे हुए पाठक को विराम सा देती है। इनकी कविता में भूषण की सी फड़क और प्रसिद्ध शृंगारियों की सी तन्मयता और मधुरता तो नहीं है, पर रचना प्राय: पुष्ट और परिमार्जित है,

रनमतवारे ये जोरावर दुलारे तव,

बाजत नगारे भए गालिब दिगीस पर।

दल के चलत खर भर होत चारों ओर,

चालति धारनि भारी भार सों फनीस पर

देखि कै समर सनमुख भयो ताहि समै,

बरनत भान पैज कै कै बिसे बीस पर।

तेरी समसेर की सिफत सिंह रनजोर,

लखी एकै साथ हाथ अरिन के सीस पर


घन से सघन स्याम, इंदु पर छाय रहे,

बैठी तहाँ असित द्विरेफन की पाँति सी।

तिनके समीप तहाँ खंज की सी जोरी, लाल!

आरसी से अमल निहारे बहु भाँति सी

ताके ढिग अमल ललौहैं बिबि विदु्रम से,

फरकति ओप जामैं मोतिन की कांतिसी।

भीतर से कढ़ति मधुर बीन कैसी धुनि,

सुनि करि भान परि कानन सुहाति सी

46. थान कवि ये चंदन बंदीजन के भानजे थे और डौंड़ियाखेरे (जिला रायबरेली) में रहते थे। इनका पूरा नाम थानराय था। इनके पिता निहालराय, पितामह महासिंह और प्रपितामह लालराय थे। इन्होंने संवत् 1848 में 'दलेलप्रकाश' नामक एक रीतिग्रंथ चँड़रा (बैसवारा) के रईस दलेल सिंह के नाम पर बनाया। इस ग्रंथ में विषयों का कोई क्रम नहीं है। इसमें गणविचार, रस, भाव भेद, गुण दोष आदि का कुछ निरूपण है और कहीं कहीं अलंकारों के कुछ लक्षण आदि भी दे दिए गए हैं। कहीं रागरागिनियों के नाम आए, तो उनके भी लक्षण कह दिए। पुराने टीकाकारोंकी सी गति है। अंत में चित्रकाव्य भी रखे हैं। सारांश यह कि इन्होंने कोई सर्वांगपूर्ण ग्रंथ बनाने के उद्देश्य से इसे नहीं लिखा है। अनेक विषयों में अपनी निपुणता का प्रमाण सा इन्होंने उपस्थित किया है। ये इसमें सफल हुए हैं, यह अवश्य कहना पड़ता है कि जो विषय लिया है उस पर उत्तम कोटि की रचना की है। भाषा में मंजुलता और लालित्य है। Ðस्व वर्णों की मधुर योजना इन्होंने सुंदर की है। यदि अपने ग्रंथ को इन्होंने भानमती का पिटारा न बनाया होता और एक ढंग पर चले होते तो इनकी बड़े कवियों की सी ख्याति होती; इसमें संदेह नहीं। इनकी रचना के दो नमूने देखिए,

दासन पै दाहिनी परम हंसवाहिनी हौ,

पोथी कर, वीना सुरमंडल मढ़त है।

आसन कँवल, अंग अंबर धवल,

मुख चंद सो अंवल, रंग नवल चढ़त है

ऐसी मातु भारती की आरति करत थान,

जाको जस बिधि ऐसो पंडित पढ़त है।

ताकी दयादीठि लाख पाथर निराखर के,

मुख ते मधुर मंजु आखर कढ़त है



कलुषहरनि सुखकरनि सरनजन

बरनि बरनि जस कहत धारनिधार।

कलिमलकलित बलित अघ खलगन,

लहत परमपद कुटिल कपटतर

मदनकदन सुरसदन बदन ससि,

अमल नवल दुति भजन भगतवर।

सुरसरि! तव जल दरस परस करि,

सुरसरि! सुभगति लहत अधम नर

47. बेनी बंदीजन ये बैंती (जिला रायबरेली) के रहनेवाले थे और अवध के प्रसिद्ध वजीर महाराज टिकैत राय के आश्रय में रहते थे। उन्हीं के नाम पर इन्होंने 'टिकैतरायप्रकाश' नामक अलंकारग्रंथ, संवत् 1849 में बनाया। अपने दूसरे ग्रंथ 'रसविलास' में इन्होंने रसनिरूपण किया है। ये अपने दोनों ग्रंथों के कारण इतने प्रसिद्ध नहीं हैं जितने कि अपने भँड़ौवों के लिए। इनके भँड़ौवों का एक संग्रह 'भँड़ौवासंग्रह' के नाम से 'भारत जीवन प्रेस' द्वारा प्रकाशित हो चुका है।

भँड़ौवा हास्यरस के अंतर्गत आता है। इसमें किसी की उपहासपूर्ण निंदा रहती है। यह प्राय: सब देशों में साहित्य का अंग रहा है। जैसे फारसी और उर्दू की शायरी में 'हजो' का एक विशेष स्थान है वैसे ही अंग्रेजी में सटायर (ेंजपतम) का। पूरबी साहित्य में 'उपहासकाव्य' के लक्ष्य अधिकतर कंजूस अमीर या आश्रयदाता ही रहे हैं और योरपीय साहित्य में समसामयिक कवि और लेखक। इसमें योरप के उपहास काव्य में साहित्यिक मनोरंजन की सामग्री अधिक रहती थी। उर्दू साहित्य में सौदा 'हजो' के लिए प्रसिद्ध है। उन्होंने किसी अमीर के दिए घोड़े की इतनी हँसी की है कि सुननेवाले लोटपोट हो जाते हैं। इसी प्रकार किसी कवि ने औरंगजेब की दी हुई हथिनी की निंदा की है,

तिमिरलंग लइ मोल, चली बाबर के हलके।

रही हुमायूँ संग फेरि अकबर के दल के

जहाँगीर जस लियो पीठि को भार हटायो।

साहजहाँ करि न्याव ताहि पुनि माँड़ि चटायो

बलरहित भई पौरुष थक्यो, भगी फिरत बन स्यार डर।

औरंगजेब करिनी सोई लै दीन्हीं कविराज कर

इस पद्ध ति के अनुयायी बेनीजी ने भी कहीं बुरी रजाई पाई तो उसकी निंदा की, कहीं छोटे आम पाए तो उसकी निंदा जी खोल कर की।

पर जिस प्रकार उर्दू के शायर कभी कभी दूसरे कवि पर भी छींटा दे दिया करते हैं उसी प्रकार बेनीजी ने भी लखनऊ के ललकदास महंत (इन्होंने 'सत्योपाख्यान' नामक एक ग्रंथ लिखा है, जिसमें रामकथा बड़े विस्तार से चौपाइयों में कही है) पर कुछ कृपा की है। जैसे 'बाजे बाज ऐसे डलमऊ में बसंत जैसे मऊ के जुलाहे, लखनऊ के ललकदास'। इनका 'टिकैतप्रकाश' संवत् 1849 में और 'रसविलास' संवत् 1874 में बना। अत: इनका कविताकाल संवत् 1849 से 1880 तक माना जा सकता है। इनकी कविता के कुछ नमूने देखिए,

अलि डसे अधार सुगंधा पाय आनन को,

कानन में ऐसे चारु चरन चलाए हैं।

फटि गई कंचुकी लगे तें कंट कुंजन के,

बेनी बरहीन खोली, बार छबि छाए हैं

बेग तें गवन कीनी, धाक धाक होत सीनो,

ऊरधा उसासैं तन सेद सरसाए हैं।

भली प्रीति पाली बनमाली के बुलाइबे को,

मेरे हेत आली बहुतेरे दुख पाए हैं


घर घर घाट घाट बाट बाट ठाट ठटे,

बेला औ कुबेला फिरै चेला लिए आस पास।

कविन सौ बाद करैं, भेद बिन नाद करैं,

महा उनमाद करैं, धरम करम नास

बेनी कवि कहैं बिभिचारिन को बादसाह,

अतन प्रकासत न सतन सरम तास।

ललना ललक, नैन मैन की झलक,

हँसि हेरत अलक रद खलक ललकदास


चींटी को चलावै को? मसा के मुख आपु जाय,

स्वास की पवन लागे कोसन भगत है।

ऐनक लगाए मरु मरु के निहारे जात,

अनु परमानु की समानता खगत है

बेनी कवि कहै हाल कहाँ लौं बखान करौं

मेरी जान ब्रह्म को बिचारिबो सुगत है।

ऐसे आम दीन्हें दयाराम मन मोद करि,

जाके आगे सरसों सुमेरु सी लगत है

48. बेनी प्रवीन ये लखनऊ के वाजपेयी थे और लखनऊ के बादशाह गाजीउद्दीन हैदर के दीवान राजा दयाकृष्ण कायस्थ के पुत्र नवलकृष्ण उर्फ ललन जी के आश्रय में रहते थे जिनकी आज्ञा से संवत् 1874 में इन्होंने 'नवरसतरंग' नामक ग्रंथ बनाया। इसके पहले 'श्रृंगारभूषण' नामक एक ग्रंथ ये बना चुके थे। ये कुछ दिन के लिए महाराज नानाराव के पास बिठूर भी गए थे और उनके नाम पर 'नानारावप्रकाश' नामक अलंकार का एक बड़ा ग्रंथ कविप्रिया के ढंग पर लिखा था। खेद है इनका कोई ग्रंथ अब तक प्रकाशित न हुआ। इनके फुटकल कवित्त तो इधर उधर बहुत कुछ संगृहीत और उध्दृत मिलते हैं। कहते हैं कि बेनी बंदीजन (भँड़ौवावाले) से इनसे एक बार कुछ वाद हुआ था जिससे प्रसन्न होकर उन्होंने इन्हें 'प्रवीन' की उपाधि दी थी। पीछे से रुग्ण होकर ये सपत्नीक आबू चले गए और वहीं इनका शरीरपात हुआ। इन्हें कोई पुत्र न था।

इनका 'नवरसतरंग' बहुत ही मनोहर ग्रंथ है। उसमें नायिकाभेद के उपरांत रसभेद और भावभेद का संक्षेप में निरूपण हुआ है। उदाहरण और रसों के भी दिए हैं पर रीतिकाल के रस संबंधी और ग्रंथों की भाँति यह श्रृंगार का ही ग्रंथ है। इनमें नायिकाभेद के अंतर्गत प्रेमक्रीड़ा की बहुत ही सुंदर कल्पनाएँ भरी पड़ी हैं। भाषा इनकी बहुत साफ सुथरी और चलती है, बहुतों की भाषा की तरह लद्दू नहीं। ऋतुओं के वर्णन भी उद्दीपन की दृष्टि से जहाँ तक रमणीय हो सकते हैं किए गए हैं, जिनमें प्रथानुसार भोगविलास की सामग्री भी बहुत कुछ आ गई है। अभिसारिका आदि कुछ नायिकाओं के वर्णन बड़े ही सरस हैं। ये ब्रजभाषा के मतिराम ऐसे कवियों के समकक्ष हैं और कहीं कहीं तो भाषा और भाव के माधुर्य में पद्माकर तक से टक्कर लेते हैं। जान पड़ता है, श्रृंगार के लिए सवैया ये विशेष उपयुक्त समझते थे। कविता के कुछ नमूने उध्दृत किए जाते हैं,

भोर ही न्योति गई ती तुम्है वह गोकुल गाँव की ग्वालिनि गोरी।

आधिक राति लौं बेनी प्रवीन कहा ढिग राखि करी बरजोरी

आवै हँसी मोहिं देखत लालन, भाल में दीन्हीं महावर घोरी।

एते बड़े ब्रजमंडल में न मिली कहुँ माँगेहु रंचक रोरी

जान्यौं न मैं ललिता अलि ताहि जो सोवत माँहि गई करि झाँसी।

लाए हिए नख केहरि के सम, मेरी तऊ नहिं नींद बिनाँसी

लै गयी अंबर बेनी प्रवीन ओढ़ाय लटी दुपटी दुखरासी।

तोरि तनी, तन छोरि अभूषन भूलि गई गर देन को फाँसी

घनसार पटीर मिलै मिलै नीर चहै तन लावै न लावै चहै।

न बुझे बिरहागिन झार, झरी हू चहै घन लागे न लावै चहै

हम टेरि सुनावतिं बेनी प्रवीन चहै मन लावै, न लावै चहै।

अब आवै बिदेस तें पीतम गेह चहै धान लावै, न लावै चहै

काल्हि की गूँथी बाबा की सौं मैं गजमोतिन की पहिरी अतिआला।

आई कहाँ ते यहाँ पुखराज की, संग एई जमुना तट बाला

न्हात उतारी हौं बेनी प्रवीन, हसैं सुनि बैनन नैन रसाला।

जानति ना अंग की बदली, सब सों, 'बदली-बदली' कहै माला


सोभा पाई कुंज भौन जहाँ जहाँ कीन्हों गौन,

सरस सुगंधा पौन पाई मधुपनि है।

बीथिन बिथोरे मुकताहल मराल पाए,

आली दुसाल साल पाए अनगनि हैं

रैन पाई चाँदनी फटक सी चटक रुख,

सुख पायो पीतम प्रबीन बेनी धानि है।

बैन पाई सारिका, पढ़न लागी कारिका,

सो आई अभिसारिका कि चारु चिंतामनि है

49. जसवंत सिंह द्वितीय ये बघेल क्षत्रिय और तेरवाँ (कन्नौज के पास) के राजा थे और बड़े विद्याप्रेमी थे। इनके पुस्तकालय में संस्कृत और भाषा के बहुतसे ग्रंथ थे। इनका कविताकाल संवत् 1856 अनुमान किया गया है। इन्होंने दो ग्रंथ लिखे एक 'शालिहोत्रा' और दूसरा 'श्रृंगारशिरोमणि'। यहाँ इसी दूसरे ग्रंथ से प्रयोजन है, जो श्रृंगाररस का एक बड़ा ग्रंथ है। कविता साधारण है। एक कवित्त देखिए,

घनन के घोर, सोर चारों ओर मोरन के,

अति चितचोर तैसे अंकुर मुनै रहैं।

कोकिलन कूक हूक होति बिरहीन हिय,

लूक से लगत चीर चारन चुनै रहैं

झिल्ली झनकार तैसो पिकन पुकार डारी,

मारि डारी डारी दु्रम अंकुर सु नै रहैं।

लुनै रहैं प्रान प्रानप्यारे जसवंत बिनु,

कारे पीरे लाल ऊदे बादर उनै रहैं

50. यशोदानंदन इनका कुछ भी वृत्त ज्ञात नहीं। शिवसिंहसरोज में इनका जन्म संवत् 1828 लिखा पाया जाता है। इनका एक छोटासा ग्रंथ 'बरवै नायिका भेद' ही मिलता है जो निस्संदेह अनूठा है और रहीम वाले से अच्छा नहीं तो उसकी टक्कर का है। इनमें 9 बरवै संस्कृत में और 53 ठेठ अवधी भाषा में हैं। अत्यंत मृदु और कोमल भाव अत्यंत सरल और स्वाभाविक रीति से व्यंजित हैं। भावुकता ही कवि की प्रधान विभूति है। इस दृष्टि से इनकी यह छोटी सी रचना बहुत ही बड़ी बड़ी रचनाओं से मूल्य में बहुत अधिक है। कवियों की श्रेणी में ये निस्संदेह उच्च स्थान के अधिकारी हैं। इनके बरवै के नमूने देखिए,

(संस्कृत) यदि च भवति बुधामिलनं किं त्रिादिवेन।

यदि च भवति शठमिलनं किं निरयेण


(भाषा) अहिरिनि मन कै गहिरिनि उतरु न देइ।

नैना करै मथनिया, मन मथि लेइ

तुरकिनि जाति हुरुकिनी अति इतराइ।

छुवन न देइ इजरवा मुरि मुरि जाइ

पीतम तुम कचलोइया हम गजबेलि।

सारस के असि जोरिया फिरौं अकेलि

51. करन कवि ये षट्कुल कान्यकुब्जों के अंतर्गत पाँड़े थे और छत्रसाल के वंशधर पन्नानरेश महाराज हिंदूपति की सभा में रहते थे। इनका कविताकाल संवत् 1860 के लगभग माना जा सकता है। इन्होंने 'साहित्यरस' और 'रसकल्लोल' नामक दो रीतिग्रंथ लिखे हैं। 'साहित्यरस' में इन्होंने लक्षणा, व्यंजना,ध्वनिभेद, रसभेद, गुण दोष आदि काव्य के प्राय: सब विषयों का विस्तार से वर्णन किया है। इस दृष्टि से यह एक उत्तम रीतिग्रंथ है। कविता भी इनकी सरस और मनोहर है। इससे इनका एक सुविज्ञ कवि होना सिद्ध होता है। एक कवित्त देखिए,

कंटकित होत गात बिपिन समाज देखि,

हरी हरी भूमि हेरि हियो लरजतु है।

एते पै करन धुनि परति मयूरन की,

चातक पुकारि तेह ताप सरजतु है

निपट चवाई भाई बंधु जे बसत गाँव,

पाँव परे जानि कै न कोऊ बरजतु है।

अरज्यो न मानी तू न गरज्यो चलत बार,

एरे घन बैरी! अब काहे गरजतु है


खल खंडन मंडन धारनि, उद्ध त उदित उदंड।

दलमंडन दारुन समर, हिंदुराज भुजदंड

52. गुरदीन पांडे इनके संबंध में कुछ ज्ञात नहीं। इन्होंने संवत् 1860 में 'बागमनोहर' नामक एक बहुत ही बड़ा रीतिग्रंथ कविप्रिया की शैली पर बनाया। 'कविप्रिया' से इसमें विशेषता यह है कि इसमें पिंगल भी आ गया है। इस एक ही ग्रंथ में पिंगल, रस, अलंकार, गुण, दोष, शब्दशक्ति आदि सब कुछ अध्ययन के लिए रख दिया गया है। इससे वह साहित्य का एक सर्वांगपूर्ण ग्रंथ कहा जा सकता है। इसमें हर प्रकार के छंद हैं। संस्कृत के वर्णवृत्तों में बड़ी सुंदर रचना है। यह अत्यंत रोचक और उपादेय ग्रंथ है। कुछ पद्य देखिए,

मुखससी ससि दून कला धरे । कि मुकुतागन जावक में भरे।

ललितकुंदकलीअनुहारिके । दसन हैं वृषभानु कुमारि के

सुखद जंत्रा कि भाल सुहाग के । ललित मंत्र किधौं अनुरागके।

भ्रकुटियोंवृषभानुसुतालसै । जनु अनंग सरासन को हँसै

मुकुर तौ पर दीपति को धानी । ससि कलंकित, राहु बिथा घनी।

अपर ना उपमा जग में लहै । तव प्रिया! मुख के सम को कहै?

53. ब्रह्मदत्त ये ब्राह्मण थे और काशीनरेश महाराज उदितनारायण सिंह के छोटे भाई बाबू दीपनारायण सिंह के आश्रित थे। इन्होंने संवत् 1860 में 'विद्वद्विलास' और 1865 में 'दीपप्रकाश' नामक एक अच्छा अलंकार का ग्रंथ बनाया। इनकी रचना सरल और परिमार्जित है। आश्रयदाता की प्रशंसा में यह कवित्त देखिए,

कुसल कलानि में, करनहार कीरति को,

कवि कोविदन को कलप तरुवर है।

सील सनमान बुद्धि विद्या को निधान ब्रह्म,

मतिमान हंसन को मानसरवर है

दीपनारायन, अवनीप को अनुज प्यारो,

दीन दुख देखत हरत हरबर है।

गाहक गुनी को, निरबाहक दुनी को नीको,

गनी गज बकस गरीबपरवर है

54. पद्माकर भट्ट रीतिकाल के कवियों में सहृदय समाज इन्हें बहुत श्रेष्ठ स्थान देता आया है। ऐसा सर्वप्रिय कवि इस काल के भीतर बिहारी को छोड़ दूसरा नहीं हुआ है। इनकी रचना की रमणीयता ही इस सर्वप्रियता का एकमात्र कारण है। रीतिकाल की कविता इनकी और प्रतापसाहि की वाणी द्वारा अपने पूर्ण उत्कर्ष को पहुँचकर फिर विकासोन्मुख हुई। अत: जिस प्रकार ये अपनी परंपरा के परमोत्कृष्ट कवि हैं उसी प्रकार प्रसिद्धि में अंतिम भी। देश में जैसा इनका नाम गूँजा वैसा फिर आगे चलकर किसी और कवि का नहीं।

ये तैलंग ब्राह्मण थे। इनके पिता मोहनलाल भट्ट का जन्म बाँदा में हुआ था। ये पूर्ण पंडित और अच्छे कवि भी थे। जिसके कारण इनका कई राजधानियों में अच्छा सम्मान हुआ था। ये कुछ दिनों तक नागपुर के महाराज रघुनाथ राव (अप्पा साहब) के यहाँ रहे, फिर पन्ना के महाराज हिंदूपति के गुरु हुए और कई गाँव प्राप्त किए। वहाँ से वे फिर जयपुर नरेश महाराजा प्रतापसिंह के यहाँ जा रहे जहाँ इन्हें 'कविराजशिरोमणि'की पदवी और अच्छी जागीर मिली। उन्हीं के पुत्र सुप्रसिद्ध पद्माकरजी हुए। पद्माकरजी का जन्म संवत् 1810 में बाँदा में हुआ। इन्होंने 80 वर्ष की आयु भोगकर अंत में कानपुर गंगातट पर संवत् 1890 में शरीर छोड़ा। ये कई स्थानों पर रहे। सुगरा के नोने अर्जुनसिंह ने इन्हें अपना मंत्रगुरु बनाया। संवत् 1849 में ये गोसाईं अनूपगिरि उपनाम हिम्मतबहादुर के यहाँ गए जो बड़े अच्छे योध्दा थे और पहले बाँदे के नवाब के यहाँ थे, फिर अवध बादशाह के यहाँ सेना के बड़े अधिकारी हुए थे। इनके नाम पर पद्माकरजी ने 'हिम्मतबहादुर विरुदावली' नाम की एक वीर रस की बहुत ही फड़कती हुई पुस्तक लिखी। संवत् 1856 में ये सितारे के महाराज रघुनाथ राव (प्रसिद्ध राघोवा) के यहाँ गए और एक हाथी, एक लाख रुपया और दस गाँव पाए। इसके उपरांत पद्माकरजी जयपुर के महाराज प्रतापसिंह के यहाँ पहुँचे और वहाँ बहुत दिनों तक रहे। महाराज प्रतापसिंह के पुत्र महाराज जगतसिंह के समय में भी ये बहुत काल तक जयपुर रहे और उन्हीं के नाम पर अपना प्रसिद्ध ग्रंथ 'जगद्विनोद' बनाया। ऐसा जान पड़ता है कि जयपुर में ही इन्होंने अपना अलंकार ग्रंथ 'पद्माभरण' बनाया जो दोहों में है। ये एक बार उदयपुर के महाराजा भीमसिंह के दरबार में भी गए थे जहाँ इनका बहुत अच्छा सम्मान हुआ था। महाराणा साहब की आज्ञा से इन्होंने 'गनगौर' के मेले का वर्णन किया था। महाराज जगतसिंह का परलोकवास संवत् 1860 में हुआ। अत: उसके अनंतर ये ग्वालियर के महाराज दौलत राव सेंधिया के दरबार में गए और यह कवित्त पढ़ा ,


मीनागढ़ बंबई सुमंद मंदराज बंग,

बंदर को बंद करि बंदर बसावैगो।

कहै पदमाकर कसकि कासमीर हू को,

पिंजर सों घेरि के कलिंजर छुड़ावैगो।

बाँका नृप दौलत अलीजा महाराज कबौं,

साजि दल पकरि फिरंगिन दबावैगो।

दिल्ली दहपट्टि, पटना हू को झपट्ट करि,

कबहूँक लत्ता कलकत्ता को उड़ावैगो।

सेंधिया के दरबार में भी इनका अच्छा मान हुआ। कहते हैं कि वहाँ सरदार ऊदाजी के अनुरोध से इन्होंने हितोपदेश का भाषानुवाद किया था। ग्वालियर से ये बूँदी गए और वहाँ से फिर अपने घर बाँदे में आ रहे। आयु के पिछले दिनों में ये रोगग्रस्त रहा करते थे। उसी समय इन्होंने 'प्रबोधपचासा' नामक विराग और भक्तिरस से पूर्ण ग्रंथ बनाया। अंतिम समय निकट जान पद्माकरजी गंगा तट के विचार से कानपुर चले आए और वहीं अपने जीवन के शेष सात वर्ष पूरे किए। अपनी प्रसिद्ध 'गंगालहरी' इन्होंने इसी समय के बीच बनाई थी।

'रामरसायन' नामक वाल्मीकि रामायण का आधार लेकर लिखा हुआ एक चरितकाव्य भी इनका दोहे चौपाइयों में है पर उसमें इन्हें काव्यसंबंधिनी सफलता नहीं हुई है। संभव है वह इनका न हो।

मतिरामजी के 'रसराज' के समान पद्माकरजी का 'जगद्विनोद' भी काव्यरसिकों और अभ्यासियों दोनों का कंठहार रहा है। वास्तव में यह श्रृंगार रस का सारग्रंथसा प्रतीत होता है। इनकी मधुर कल्पना ऐसी स्वाभाविक और हावभावपूर्ण मूर्तिविधान करती है कि पाठक मानो प्रत्यक्ष अनुभूति में मग्न हो जाता है। ऐसी सजीव मूर्तिविधान करनेवाली कल्पना बिहारी को छोड़कर और किसी कवि में नहीं पाई जाती। ऐसी कल्पना के बिना भावुकता कुछ नहीं कर सकती, या तो वह भीतर ही भीतर लीन हो जाती है अथवा असमर्थ पदावली के बीच व्यर्थ फड़फड़ाया करती है। कल्पना और वाणी के साथ जिस भावुकता का संयोग होता है वही उत्कृष्ट काव्य के रूप में विकसित हो सकती है। भाषा की सब प्रकार की शक्तियों पर इस कवि का अधिकार दिखाई पड़ता है। कहीं तो इनकी भाषा स्निग्ध, मधुर पदावली द्वारा एक सजीव भावभरी प्रेममूर्ति खड़ी करती है, कहीं भाव या रस की धारा बहाती है, कहीं अनुप्रासों की मीलित झंकार उत्पन्न करती है, कहीं वीरदर्प से क्षुब्ध वाहिनी के समान अकड़ती हुई और कड़कती हुई चलती है और कहीं प्रशांत सरोवर के समान स्थिर और गंभीर होकर मनुष्य जीवन को विश्रांति की छाया दिखाती है। सारांश यह कि इनकी भाषा में वह अनेकरूपता है जो एक बड़े कवि में होनी चाहिए। भाषा की ऐसी अनेकरूपता गोस्वामी तुलसीदास जी में दिखाई पड़ती है।

अनुप्रास की प्रवृत्ति तो हिन्दी के प्राय: सब कवियों में आवश्यकता से अधिक रही है। पद्माकरजी भी उनके प्रभाव से नहीं बचे हैं। पर थोड़ा ध्यान देने पर यह प्रवृत्ति इनमें अरुचिकर सीमा तक कुछ विशेष प्रकार के पद्यों में ही मिलेगी। जिनमें ये जानबूझकर शब्द चमत्कार प्रकट करना चाहते थे। अनुप्रास की दीर्घ श्रृंखला अधिकतर इनके वर्णनात्मक (डिस्क्रिप्टिव) पद्यों में पाई जाती है। जहाँ मधुर कल्पना के बीच सुंदर कोमल भावतरंग का स्पंदन है वहाँ की भाषा बहुत ही चलती, स्वाभाविक और साफ सुथरी है। वहाँ अनुप्रास भी है तो बहुत संयत रूप में। भावमूर्तिविधायिनी कल्पना का क्या कहना है? ये ऊहा के बल पर कारीगरी के मजमून बाँधाने के प्रयासी कवि न थे। हृदय की सच्ची स्वाभाविक प्रेरणा इनमें थी। लाक्षणिक शब्दों के प्रयोग द्वारा कहीं कहीं ये मन की अव्यक्त भावना को ऐसा मूर्तिमान कर देते हैं कि सुनने वालों का हृदय आप से आप हामी भरता है। यह लाक्षणिकता भी इनकी एक बड़ी भारी विशेषता है।

पद्माकरजी की कविता के कुछ नमूने नीचे दिए जाते हैं ,

फागु की भीर, अभीरिन में गहि गोंवदै लै गई भीतर गोरी।

भाई करी मन की पद्माकर, ऊपर नाई अबीर की झोरी

छीनि पितंबर कम्मर तें सु बिदा दई मीड़ि कपोलन रोरी।

नैन नचाय कही मुसुकाय, 'लला फिर आइयो खेलन होरी'


आई संग आलिन के ननद पठाई नीठि,

सोहत सोहाई सीस ईड़री सुपट की।

कहैं पद्माकर गंभीर जमुना के तीर,

लागी घट भरन नवेली नेह अटकी।

ताही समै मोहन जो बाँसुरी बजाई, तामें,

मधुर मलार गाई ओर बंसीवट की।

तान लागे लटकी, रही न सुधि घूँघट की,

घर की, न घाट की, न बाट की, न घट की


गोकुल के, कुल के, गली के गोप गाँवनके

जौ लगि कछू को कछू भाखत भनैनहीं।

कहैं पद्माकर परोस पिछवारन के

द्वारन के दौरे गुन-औगुन गनै नहीं

तौ लौं चलि चातुर सहेली! याही कोद कहूँ

नीके कै निहारै ताहि, भरत मनै नहीं।

हौं तौ स्याम रंग में चोराइ चित चोराचोरी

बोरत तौ बोरयो, पै निचोरत बनै नहीं


आरस सो आरत, सँभारत न सीस पट,

गजब गुजारति गरीबन की धार पर।

कहैं पद्माकर सुरा सों सरसार तैसे,

बिथुरि बिराजै बार हीरन के हार पर

छाजत छबीले छिति छहरि छरा के छोर,

भोर उठि आई केलिमंदिर के द्वार पर।

एक पग भीतर औ एक देहरी पै धारे,

एक कर कंज, एक कर है किवार पर


मोहि लखि सोवत बिथोरिगो सुबेनीबनी,

तोरिगो हिए को हार, छोरिगो सुगैया को।

कहैं पद्माकर त्यों घोरिगो घनेरो दुख,

बोरिगो बिसासी आज लाज ही की नैयाको

अहित अनैसो ऐसो कौन उपहास?यातें,

सोचन खरी मैं परी जोवति जुन्हैया को।

बूझिहैं चवैया तब कैहौं कहा, दैया!

इत पारिगो को मैया! मेरी सेज पै कन्हैयाको?


एहो नंदलाल! ऐसी व्याकुल परी है बाल,

हाल ही चलौ तौ चलौ, जोरे जुरि जायगी।

कहैं पद्माकर नहीं तौ ये झकोरे लगै,

ओरे लौं अचाका बिन घोरे घुरि जायगी

सीरे उपचारन घनेरे घनसारन सों,

देखत ही देखौ दामिनी लौं दुरि जायगी।

तौही लगि चैन जौलौं चेतिहै न चंदमुखी,

चेतैगी कहूँ तौ चाँदनी में चुरि जायगी


चालो सुनि चंदमुखी चित में सुचैन करि,

तित बन बागन घनेरे अलि घूमि रहे।

कहैं पद्माकर मयूर मंजु नाचत हैं,

चाय सों चकोरनी चकोर चूमि चूमि रहे

कदम, अनार, आम, अगर, असोक थोक,

लतनि समेत लोने लोने लगि भूमि रहे।

फूलि रहे, फलि रहे, फबि रहे, फैलि रहे,

झपि रहे, झलि रहे, झुकि रहे, झूमि रहे


तीखे तेगवाही जे सिलाही चढ़ै घोड़न पै,

स्याही चढ़ै अमित अरिंदन की ऐल पै।

कहैं पद्माकर निसान चढ़ै हाथिन पै,

धूरि धार चढ़ै पाकसासन के सैल पै

साजि चतुरंग चमू जंग जीतिबे के हेतु,

हिम्मत बहादुर चढ़त फर फैल पै।

लाली चढ़ै मुख पै, बहाली चढ़ै बाहन पै,

काली चढ़ै सिंह पै, कपाली चढ़ै बैल पै


ऐ ब्रजचंद गोविंद गोपाल! सुन्यो क्यों न एते कलाम किए मैं।

त्यों पद्माकर आनंद के नद हौ नंदनंदन! जानि लिए मैं

माखन चोरी कै खोरिन ह्वै चले भाजि कछू भय मानि जिए मैं।

दूरि न दौरि दुरयो जौ चहौ तौ दुरौ किन मेरे अंधेरे हिए मैं

55. ग्वाल कवि, ये मथुरा के रहनेवाले बंदीजन सेवाराम के पुत्र थे। ये ब्रजभाषाके अच्छे कवि हुए हैं। इनका कविताकाल संवत् 1879 से संवत् 1918 तक है। अपना पहला ग्रंथ 'यमुना लहरी' इन्होंने संवत् 1879 में और अंतिम ग्रंथ 'भक्तभावना'संवत्1919 में बनाया। रीति ग्रंथ इन्होंने चारलिखे हैं , रसिकानंद (अलंकार), रसरंग (संवत् 1904), कृष्णजू को नखशिख (संवत् 1884) और दूषणदर्पण (संवत् 1891)। इनके अतिरिक्त इनके दो ग्रंथ और मिले हैं , हम्मीर हठ (संवत् 1881) और गोपीपच्चीसी।

और भी दो ग्रंथ इनके लिखे कहे जाते हैं , 'राधामाधव मिलन' और 'राधा अष्टक'। 'कविहृदयविनोद' इनकी बहुत सी कविताओं का संग्रह है।

रीतिकाल की सनक इनमें इतनी अधिक थी कि इन्हें 'यमुना लहरी' नामक देवस्तुति में भी नवरस और षट् ऋतु सुझाई पड़ी है। भाषा इनकी चलती और व्यवस्थित है। वाग्विदग्धाता भी इनमें अच्छी है। षट् ऋतुओं का वर्णन इन्होंने विस्तृत किया है, पर वही श्रृंगारी उद्दीपन के ढंग का। इनके ऋतुवर्णन के कवित्त लोगों के मुँह से अधिक सुने जाते हैं जिसमें बहुत से भोगविलास के अमीरी सामान भी गिनाए गए हैं। ग्वाल कवि ने देशाटन अच्छा किया था और इन्हें भिन्न भिन्न प्रांतों की बोलियों का अच्छा ज्ञान हो गया था। इन्होंने ठेठ पूरबी हिन्दी, गुजराती और पंजाबी भाषा में भी कुछ कवित्त, सवैया लिखे हैं। फारसी अरबी शब्दों का इन्होंने बहुत प्रयोग किया है। सारांश यह कि ये एक विदग्धा और कुशल कवि थे पर कुछ फक्कड़पन लिए हुए। इनकी बहुतसी कविता बाजारी है। थोड़ेसे उदाहरण नीचे दिए जाते हैं ,

ग्रीषम की गजब धुकी है धूप धाम धाम,

गरमी झुकी है जाम जाम अति तापिनी।

भीजे खसबीजन झलेहू ना सुखात स्वेद,

गात न सुहात, बात दावा सी डरापिनी

ग्वाल कवि कहैं कोरे कुंभन तें कूपन तें,

लै लै जलधार बार बार मुख थापिनी।

जब पियो तब पियो, अब पियो फेर अब,

पीवत हूँ पीवत मिटै न प्यास पापिनी


मोरन के सोरन की नैको न मरोर रही,

घोर हू रही न घन घने या फरद की।

अंबर अमल, सर सरिता विमल भल

पंक को न अंक औ न उड़न गरद की

ग्वाल कवि चित्त में चकोरन के चैन भए,

पंथिन की दूर भई, दूषन दरद की।

जल पर, थल पर, महल, अचल पर,

चाँदी सी चमक रही चाँदनी सरद की


जाकी खूबखूबी खूब खूबन की खूबी यहाँ,

ताकी खूबखूबी खूबखूबी नभ गाहना।

जाकी बदजाती बदजाती यहाँ चारन में,

ताकी बदजाती बदजाती ह्वाँ उराहना

ग्वाल कवि वे ही परमसिद्ध सिद्ध जो है जग,

वे ही परसिद्ध ताकी यहाँ ह्वाँ सराहना।

जाकी यहाँ चाहना है ताकी वहाँ चाहनाहै,

जाकी यहाँ चाह ना है ताकी वहाँ चाहना


दिया है खुदा ने खूब खुसी करो ग्वाल कवि,

खाव पियो, देव लेव, यहीं रह जाना है।

राजा राव उमराव केते बादशाह भए,

कहाँ ते कहाँ को गए, लग्यो न ठिकाना है

ऐसी जिंदगानी के भरोसे पै गुमान ऐसे,

देस देस घूमि घूमि मन बहलाना है।

आए परवाना पर चलै ना बहाना, यहाँ,

नेकी कर जाना, फेर आना है न जानाहै

56. प्रतापसाहि ये रतनसेन बंदीजन के पुत्र थे और चरखारी (बुंदेलखंड) के महाराज विक्रमसाहि के यहाँ रहते थे। इन्होंने संवत् 1882 में 'व्यंग्यार्थकौमुदी' और संवत् 1886 में 'काव्यविलास' की रचना की। इन दोनों परम प्रसिद्ध ग्रंथों के अतिरिक्त निम्नलिखित पुस्तकें इनकी बनाइ हुई और हैं ,

जयसिंहप्रकाश (संवत् 1882), श्रृंगारमंजरी (संवत् 1889), श्रृंगारशिरोमणि (1894), अलंकारचिंतामणि (संवत् 1894), काव्यविनोद (संवत् 1896), रसराज की टीका (संवत् 1896), रत्नचंद्रिका (सतसई की टीका, संवत् 1896), जुगल नखशिख (सीता राम का नखशिख वर्णन), बलभद्र नखशिख की टीका।

इस सूची के अनुसार इनका कविताकाल संवत् 1880 से 1900 तक ठहरता है। पुस्तकों के नाम से ही इनकी साहित्यमर्मज्ञता और पांडित्य का अनुमान हो सकता है। आचार्यत्व में इनका नाम मतिराम, श्रीपति और दास के साथ आता है और एक दृष्टि से इन्होंने उनके चलाए हुए कार्य को पूर्णता को पहुँचाया था। लक्षणा व्यंजना का उदाहरणों द्वारा विस्तृत निरूपण पूर्ववर्ती तीन कवियों ने नहीं किया था। इन्होंने व्यंजना के उदाहरणों की एक अलग पुस्तक ही 'व्यंग्यार्थ कौमुदी' के नाम से रची। इसमें कवित्त, दोहे, सवैये मिलाकर 130 पद्य हैं जो सब व्यंजना या ध्वनि के उदाहरण हैं। साहित्यमर्मज्ञ तो बिना कहे ही समझ सकते हैं कि ये उदाहरण अधिकतर वस्तुव्यंजना के ही होंगे। वस्तुव्यंजना को बहुत दूर तक घसीटने पर बड़े चक्करदार ऊहापोह का सहारा लेना पड़ता है और व्यंग्यार्थ तक पहुँच केवल साहित्यिक रूढ़ि के अभ्यास पर अवलंबित रहती है। नायिकाओं के भेदों, रसादि के सब अंगों तथा भिन्न-भिन्न बँधो उपमान का अभ्यास न रखनेवाले के लिए ऐसे पद्य पहेली ही समझिए। उदाहरण के लिए 'व्यंग्यार्थ कौमुदी' का यह सवैया लीजिए ,

सीख सिखाई न मानति है, बर ही बस संग सखीन के आवै।

खेलत खेल नए जल में, बिना काम बृथा कत जाम बितावै

छोड़ि कै साथ सहेलिन को, रहि कै कहि कौन सवादहि पावै।

कौन परी यह बानि, अरी! नित नीरभरी गगरी ढरकावै

सहृदयों की सामान्य दृष्टि में तो वय:संधि की मधुर क्रीड़ावृत्ति का यह एक परम मनोहर दृश्य है। पर फन में उस्ताद लोगों की ऑंखें एक और ही ओर पहुँचती हैं। वे इसमें से यह व्यंग्यार्थ निकालते हैं , घड़े के पानी में अपने नेत्रा का प्रतिबिंब देख उसे मछलियों का भ्रम होता है। इस प्रकार का भ्रम एक अलंकार है। अत: भ्रम या भ्रांति अलंकार, यहाँ व्यंग्य हुआ। और चलिए। 'भ्रम' अलंकार में 'सादृश्य' व्यंग्य रहा करता है अत: अब इस व्यंग्यार्थ परपहुँचे कि 'नेत्रा मीन के समान हैं'। अब अलंकार का पीछा छोड़िए, नायिकाभेद की तरफ आइए। वैसा भ्रम जैसा ऊपर कहा गया है 'अज्ञात यौवना' को हुआ करता है। अत: ऊपर का सवैया अज्ञात यौवना का उदाहरण हुआ। यह इतनी बड़ी अर्थयात्रा रूढ़ि के ही सहारे हुई है। जब तक यह ज्ञात न हो कि कविपरंपरा में ऑंख की उपमा मछली से दिया करते हैं, तब तक यह सब अर्थ स्फुट नहीं हो सकता।

प्रतापसाहि का यह कौशल अपूर्व है कि उन्होंने एक रस ग्रंथ के अनुरूप नायिकाभेद के क्रम से सब पद्य रखे हैं जिससे उनके ग्रंथ को जी चाहे तो नायिकाभेद का एक अत्यंत सरस और मधुर ग्रंथ भी कह सकते हैं। यदि हम आचार्यत्व और कवित्व दोनों के एक अनूठे संयोग की दृष्टि से विचार करते हैं तो मतिराम, श्रीपति और दास से ये कुछ बीस ही ठहरते हैं। इधर भाषा की स्निग्ध सुख सरल गति, कल्पना की मूर्तिमत्ता और हृदय की द्रवणशीलता मतिराम, श्रीपति और बेनीप्रवीन के मेल में जाती है तो उधर आचार्यत्व इन तीनों में भी और दास से भी कुछ आगे दिखाई पड़ता है। इनकी प्रखर प्रतिभा ने मानो पद्माकर की प्रतिभा के साथ रीतिबद्ध काव्यकला को पूर्णता पर पहुँचाकर छोड़ दिया। पद्माकर की अनुप्रासयोजना कभीकभी रुचिकर सीमा के बाहर जा पड़ी है, पर इस भावुक और प्रवीण की वाणी में यह दोष कहीं नहीं आने पाया है। इनकी भाषा में बड़ा भारी गुण यह है कि यह बराबर एक समान चलती है , उसमें न कहीं कृत्रिम आडंबर का अड़ंगा है, न गति का शैथिल्य और न शब्दों की तोड़ मरोड़। हिन्दी के मुक्तक कवियों में समस्यापूर्ति की पद्ध ति पर रचना करने के कारण एक अत्यंत प्रत्यक्ष दोष देखने में आता है। उनके अंतिम चरण की भाषा तो बहुत ही गँठी हुई, व्यवस्थित और मार्मिक होती है पर शेष तीन चरणों में यह बात बहुत ही कम पाई जाती है। बहुत से स्थलों पर तो प्रथम तीन चरणों की वाक्यरचना बिल्कुल अव्यवस्थित और बहुत सी पदयोजना निरर्थक होती है। पर 'प्रताप' की भाषा एकरस चलती है। इन सब बातों के विचार से हम प्रतापजी को पद्माकर के समकक्ष ही बहुत बड़ा कवि मानते हैं।

प्रतापजी की कुछ रचनाएँ उध्दृत की जाती हैं ,


चंचलता अपनी तजि कै रस ही रस सों रस सुंदर पीजियो।

कोऊ कितेक कहै तुमसों तिनकी कही बातन को न पतीजियो

चोज चवाइन के सुनियो न यही इक मेरी कही नित कीजियो।

मंजुल मंजरी पै हौ, मलिंद! विचारि कै भार सँभारि कै दीजियो


तड़पै तड़िता चहुँ ओरन तें, छिति छाई समीरन की लहरैं।

मदमाते महा गिरिशृंगन पै, गन मंजु मयूरन के कहरैं

इनकी करनी बरनी न परै, मगरूर गुमानन सों गहरैं।

घन ये नभमंडल में छहरैं, घहरैं कहुँ जाय, कहूँ ठहरैं


कानि करै गुरुलोगन की, न सखीन की सीखन ही मन लावति।

एेंड़ भरी अंगराति खरी, कत घूँघट में नए नैन नचावति

मंजन कै दृग अंजन ऑंजति, अंग अनंग उमंग बढ़ावति।

कौन सुभाव री तेरो परयो, खिन ऑंगन में खिन पौरि में आवति


कहा जानि, मन में मनोरथ विचारि कौन,

चेति कौन काज, कौन हेतु उठि आई प्रात।

कहै परताप छिन डोलिबो पगन कहूँ,

अंतर को खोलिबो न बोलिबो हमैं सुहात

ननद जिठानी सतरानी, अनखानी अति,

रिस कै रिसानी, सो न हमैं कछु जानीजात।

चाहौ पल बैठ रहौ, चाहौ उठि जाव तौन,

हमको हमारी परी, बूझै को तिहारी बात?


चंचल चपला चारु चमकत चारों ओर,

झूमि झूमि धाुरवा धारनि परसत है।

सीतल समीर लगै दुखद वियोगिन्ह,

सँयोगिन्ह समाज सुखसाज सरसत है

कहैं परताप अति निविड़ अंधेरी माँह,

मारग चलत नाहि नेकु दरसत है।

झुमड़ि झलानि चहुँ कोद तें उमड़ि आज,

धाराधार धारन अपार बरसत है



महाराज रामराज रावरो सजत दल,

होत मुख अमल अनंदित महेस के।

सेवत दरीन केते गब्बर गनीम रहैं,

पन्नग पताल त्यों ही डरन खगेस के

कहैं परताप धारा धाँसत त्रासत,

कसमसत कमठ पीठि कठिन कलेस के।

कहरत कोल, हहरत हैं दिगीस दल,

लहरत सिंधु, थहरत फन सेस के

57. रसिक गोविंद ये निंबार्क संप्रदाय के एक महात्मा हरिव्यास की गद्दी के शिष्य थे और वृंदावन में रहते थे। हरिव्यास जी की शिष्यपरंपरा में सर्वेश्वरशरण देव जी बड़े भारी भक्त हुए हैं। रसिक गोविंदजी उन्हीं के शिष्य थे। ये जयपुर (राजपूताना) के रहनेवाले और नटाणी जाति के थे। इनके पिता का नाम शालिग्राम, माता का गुमाना, चाचा का मोतीराम और बड़े भाई का बालमुकुंद था। इनका कविताकाल संवत् 1850 से 1890 तक अर्थात् विक्रम की उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य से लेकर अंत तक स्थिर होता है। अब तक इनके 9 ग्रंथों का पता चला है , संभवत: और भी दोहे होंगे। 9 ग्रंथ ये हैं ,

¼प½ रामायण सूचनिका 33 दोहों में अक्षरक्रम से रामायण की कथा संक्षेप में कही गई है। यह संवत् 1858 के पहले की रचना है। इसके ढंग का पता इन दोहों से लग सकता है ,

चकित भूप बानी सुनत, गुरु बसिष्ठ समुझाय।

दिए पुत्र तब, ताड़का मग में मारी जाय

छाँड़त सर मारिच उड़्यो, पुनि प्रभु हत्यो सुबाह।

मुनि मख पूरन, सुमन सुर बरसत अधिक उछाह

¼ii½ रसिक गोविंदानंदघन यह सात आठ सौ पृष्ठों का बड़ा भारी रीति ग्रंथ है जिसमें रस, नायकनायिका भेद, अलंकार, गुण, दोष आदि का विस्तृत वर्णन है। इसे इनका प्रधान ग्रंथ समझना चाहिए। इसका निर्माणकाल वसंतपंचमी संवत् 1858 है। यह चार प्रबंधों में विभक्त है। इसकी बड़ी भारी विशेषता यह है कि लक्षण गद्य में है और रसों, अलंकारों आदि के स्वरूप पद्य में समझाने का प्रयत्न किया गया है। संस्कृत के बड़े-बड़े आचार्यों के मतों का उल्लेख भी स्थान स्थान पर है। जैसे , रस का निरूपण इस प्रकार है ,

'अन्य ज्ञानरहित जो आनंद सो रस। प्रश्न , अन्य ज्ञानरहित आनंद तो निद्रा ही है। उत्तर , निद्रा जड़ है, यह चेतन। भरत आचार्य सूत्रकर्ता को मत-विभाव, अनुभाव, संचारी भाव के जोग से रस की सिद्धि । अथ काव्यप्रकाश को मत , कारण कारज सहायक हैं जे लोक में इन ही को नाटय में, काव्य में, विभाव संज्ञा है। अब टीकाकर्ता को मत तथा साहित्यदर्पण को मत-सत्व, विशुद्ध , अखंड स्वप्रकाश, आनंद, चित, अन्य ज्ञान नहि संग, ब्रह्मास्वाद, सहोदर रस।'

इसके आगे अभिनवगुप्ताचार्य का मत कुछ विस्तार से दिया है। सारांश यह कि यह ग्रंथ आचार्यत्व की दृष्टि से लिखा गया है और इसमें संदेह नहीं कि और ग्रंथों की अपेक्षा इसमें विवेचन भी अधिक है और छूटी हुई बातों का समावेश भी। दोषों का वर्णन हिन्दी के लक्षण ग्रंथों में बहुत कम पाया जाता है, इन्होंने काव्यप्रकाश के अनुसार विस्तार से किया है। रसों, अलंकारों आदि के उदाहरण कुछ तो अपने हैं, पर बहुतसे दूसरे कवियों के। उदाहरणों के चुनने में इन्होंने बड़ी सहृदयता का परिचय दिया है। संस्कृत के उदाहरणों के अनुवाद भी बहुत सुंदर करके रखे हैं। साहित्यदर्पण के मुग्धा के उदाहरण (दत्तोसालसमंथर...इत्यादि) को देखिए हिन्दी में ये किस सुंदरता से लाए हैं ,

आलस सों मंद मंद धारा पै धारति पाय,

भीतर तें बाहिर न आवै चित्त चाय कै।

रोकति दृगनि छिन छिन प्रति लाज साज,

बहुत हँसी की दीनी बानि बिसराय कै

बोलति बचन मृदु मधुर बनाय, उर

अंतर के भाव की गंभीरता जनाय कै।

बात सखी सुंदर गोविंद की कहात तिन्हैं,

सुंदर बिलोकै बंक भृकुटी नचाय कै

३. लछिमन चंद्रिका , 'रसिक गोविंदानंदघन' में आए लक्षणों का संक्षिप्त संग्रह जो संवत् 1886 में लछिमन कान्यकुब्ज के अनुरोध से कवि ने किया था।

४. अष्टदेशभाषा , इसमें ब्रज, खड़ी बोली, पंजाबी, पूरबी आदि आठ बोलियों में राधाकृष्ण की श्रृंगारलीला कही गई है।

५. पिंगल

६. समयप्रबंध , राधाकृष्ण की ऋतुचर्या 85 पद्यों में वर्णित है।

७. कलियुगरासो , इसमें 16 कवित्तों में कलिकाल की बुराइयों का वर्णन है। प्रत्येक कवित्त के अन्त में 'कीजिए सहाय जू कृपाल श्रीगोविंदराय, कठिन कराल, कलिकाल चलि आयो है' यह पद आता है। निर्माणकाल संवत् 1865 है।

८. रसिक गोविंद , चंद्रालोक या भाषाभूषण के ढंग की अलंकार की एक छोटी पुस्तक जिसमें लक्षण और उदाहरण एक ही दोहे में हैं। रचनाकाल संवत् 1890 है।

९. युगलरस माधुरी , रोलाछंद में राधाकृष्ण बिहार और वृंदावन का बहुत ही सरल और मधुर भाषा में वर्णन है जिससे इनकी सहृदयता और निपुणता पूरी पूरी टपकती है कुछ पंक्तियाँ दी जाती हैं ,

मुकलित पल्लव फूल सुगंधा परागहि झारत।

जुग मुख निरखि बिपिन जनु राई लोन उतारत

फूल फलन के भार डार झुकि यों छबि छाजै।

मनु पसारि दइ भुजा देन फल पथिकन काजै

मधु मकरंद पराग लुब्धा अलि मुदित मत्ता मन।

बिरद पढ़त ऋतुराज नृपति के मनु बंदीजन