रीवा में 'कृष्णायन' का लोकार्पण / जयप्रकाश चौकसे

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
रीवा में 'कृष्णायन' का लोकार्पण
प्रकाशन तिथि : 02 जून 2018


आज राज कपूर की पुण्यतिथि है और आज ही रीवा में 'श्रीमती कृष्णा राज कपूर संकुल' का उद्‌घाटन रणधीर कपूर के हाथों होने वाला है। पूरे विश्व में पहली बार किसी फिल्मकार की पत्नी को आदरांजलि दी जा रही है। मध्यप्रदेश सरकार ने इस पर बीस करोड़ रुपए खर्च किए हैं। चार मंजिला इमारत के साथ ही तीन सौ दर्शकों के लिए एम्फीथिएटर की स्थापना भी की गई है। ज्ञातव्य है कि कृष्णा राज कपूर के जन्मस्थान के आसपास की कुछ एकड़ जमीन सरकार ने अधिग्रहीत की है। राज कपूर का जीवन और फिल्म बहुप्रचारित रही हैं अौर और उन पर किताबें भी लिखी गई हैं। कनाडा में रहने वाली एक महिला ने भी किताब लिखी है। राज कपूर और कृष्णाजी की ज्येष्ठ सुपुत्री रितु नंदा ने भी दो किताबें संपादित एवं प्रकाशित की है। ऋषि कपूर की आत्म-कथा 'खुल्लम खुल्ला' में भी उन्होंने अपने पिता के बारे में बहुत कुछ लिखा है। हार्पर कॉलिन्स प्रकाशन संस्था ने अब इस पुस्तक का ऊषा चौकसे द्वारा किया हिंदी अनुवाद भी जारी किया है।

राज कपूर फिल्म माध्यम के प्रति पूरी तरह समर्पित थे और जीवनभर फिल्म निर्माण के अतिरिक्त किसी अन्य व्यवसाय में उन्होंने पूंजी निवेश नहीं किया। पूरे परिवार ने भी यही किया है। राज कपूर ने भव्य बजट की फिल्में बनाई परंतु लगभग सारा जीवन ही किराये के मकान में रहे। कृष्णा के बार-बार आग्रह करने पर उन्होंने 1983 में स्वयं का रैनबसेरा बनाया, जिसमें अपने भाइयों और संतानों के कक्ष भी बनाए गए हैं। संकट के समय पूरे परिवार के रहने की जगह बनाई है, क्योंकि सभी मनोरंजन उद्योग से जुड़े हैं, जिसमें प्रति शुक्रवार परिवर्तन आते हैं।

कृष्णाजी इस प्रतिभाशाली परिवार का केंद्र रही हैं। जब उनके देवर शम्मी कपूर की पत्नी गीता बाली का असमय निधन हुआ तब शम्मी कपूर उस नौका की तरह रहे, जिसे लहरें अपने ढंग से दसों दिशाओं में उछाल रही थीं। कृष्णाजी ने ही नीला देवी से उनका विवाह कराया और उत्तुंग लहरों पर सवार उस नाव को किनारा मिला। नीला देवी ने शम्मी-गीता की सुपुत्री कंचन और सुपुत्र के जीवन को संवारा। इस तरह जेनीफर केन्डल कपूर की मृत्यु के बाद उन्होंने शशि कपूर को भी संबल दिया। नीला देवी का आचार-विचार उन्होंने स्वयं की तरह ढाला और नीला देवी कृष्णा कपूर की क्लोन बन गई। वही वात्सल्य, वही करुणा एवं संवेदनाएं। यह काम कुछ उसी तरह हुआ जैसा राज कपूर को अपनी प्रेरणा मानकर कुछ लोग फिल्मकार बने परंतु नीला देवी-सा सौ फीसदी क्लोन कहीं और संभव नहीं हुआ। कृष्णाजी कपूर परिवार के लिए एक नदी की तरह बहती रहीं, जिसने अपने कूल-किनारों को उपजाऊ बनाया। यह बात और है कि उस नदी के किनारे कुछ घाट भी रहे जैसे नरगिस, वैजयंतीमाला और पद्‌मिनी।

दरअसल, राज कपूर उस हिरण की तरह रहे, जो उस सुगंध की तलाश में छलांगें लगाता है, जो उसकी नाभि से उत्पन्न होती है। यह प्रकरण उपन्यास 'अलकेमिस्ट' के नायक की तरह है, जिसे सारी दुनिया की खाक छानने के बाद अपने ही घर में दिव्य प्रकाश मिला। उम्र के आखिरी पड़ाव पर राज कपूर पूरी तरह 'कृष्णामय' हो गए थे।

राज कपूर की सबसे महत्वाकांक्षी फिल्म थी 'मेरा नाम जोकर' परंतु कपूर खानदान में कृष्णाजी ने असल जोकर की तरह सबको हंसाया और संकट के समय वे सखा कृष्ण की तरह सबकी पथ प्रदर्शक साबित हुईं। अपने पर हंसने और दूसरों को हंसाने का अद्‌भुत माद्‌दा है उसमें। अठासी वर्ष की आयु में भी वे पूरी तरह सक्रिय हैं और अनेक लोगों की मदद करती हैं। आभास होता है मानो उनके पास भी श्रीकृष्ण द्वारा दिया गया कोई अक्षय पात्र है कि उनके घर से मेहमान ही नहीं वरन् मेहमान के ड्राइवर और चाकर भी खाली पेट नहीं लौटते।

एक बार मुंबई के ब्रीच कैन्डी अस्पताल में उन्हें शल्य चिकित्सा के लिए ले जाया जा रहा था। उन्होंने खाकसार से कहा कि उनके ऑटोग्राफ ले लें। उन्होंने ठहाका लगाते हुए स्पष्ट किया कि वे (ऑपरेशन) थिएटर जा रही हैं,जहां अपने अभिनय से वे सितारा हैसियत प्राप्त करेंगी, अत: ऑटोग्राफ ले लीजिए। यह प्रमाण है उनके असली 'जोकर' होने का। ग्रीक साहित्य की अवधारणा में जोकर यानी विदूषक दार्शनिक होता है। इसी प्रेरणा से शेक्सपीयर ने भी अपने विदूषक पात्र रचे हैं। कई बार आभास होता है कि कृष्णाजी ने जानबूझकर परदे के पीछे रहने का निर्णय लिया है। उनके विवाह की एक वर्षगांठ पर कहा गया कि कुछ ही वर्ष बाद विवाह की स्वर्ण जयंती मनाएंगे। उन्होंने कहा क इस स्वर्ण जयंती में कुछ 'फीडिंग' भी है। ज्ञातव्य है कि मनोरंजन उद्योग में जब कोई फिल्म जुबली के निकट कम दर्शक आकर्षित कर पाती है तब निर्माता कुछ टिकिट स्वयं खरीदकर उसे स्वर्ण जयंती तक पहुंचाता है, जिसे 'फीडिंग' कहते हैं। जाने कहां गए वो दिन जब फिल्म स्वर्ण जयंती मनाती थीं। आज तो पचास दिन चल जाए तो मान लें कि स्वर्ण जयंती हो गई। जहां एक ओर मध्यप्रदेश सरकार की प्रशंसा की जानी चाहिए, वहां दूसरी ओर रीवा से ही खबर आ रही है कि संकुल को पूरा करने में कई महीने लगेंगे। आधे-अधूरे काम का उद्‌घाटन कराया जा रहा है ताकि शीघ्र ही होने वाले चुनाव में इसका लाभ मिले। हम गांधीजी का यह आदर्श भूल चुके हैं कि साधन की पवित्रता साध्य की तरह ही महत्वपूर्ण है। गलत साधन लक्ष्य को भी कलंकित कर देते हैं।