रूठन दास / संजीव ठाकुर

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सब कोई उसे रूठन दास कहने लगे थे। उसकी आदत ही थी रूठने की। वह हर बात में रूठ जाता था। ज़रा भी उसके मन का नहीं हुआ, वह रूठ जाता। नाश्ते में पूड़ी खाने का मन है, नहीं बन पाई तो रूठ गया। कोई चीज पसंद आ गई, नहीं मिली तो रूठ गया। रूठकर किसी कमरे में सो गया, कभी छत पर जाकर चुपचाप बैठ गया। इधर दादाजी ढूँढ़ते रहें, दादीजी पुकारती रहें, कोई बात नहीं। वह तो रूठा हुआ है, कोई जवाब नहीं देगा। खाना भी नहीं खाएगा। दादी कितना समझातीं—बेटा! रात में खाना नहीं खाने से एक चिडिय़ा के बराबर मांस शरीर से कम हो जाता है। लेकिन उसे समझना ही नहीं था।

एक बार की बात है, एक बरतन बेचने वाला आया था। दादी और पड़ोस की औरतें बरतन देख रही थीं। उसकी नज़र एक छोटी-सी थाली और छोटे से लोटे पर पड़ गई। वह लेने की जि़द करने लगा। दादी के पास शायद पैसे नहीं थे। वह समझाती रहीं लेकिन वह मानने वाला नहीं था। अपनी दाल गलती नहीं देख उसने रोना शुरू कर दिया। इससे भी नहीं हुआ तो जमीन पर लोटने लगा। अपने बड़े से आँगन में लोटते हुए वह इस छोर से उस छोर तक जाता और फिर लोटता हुआ इस छोर तक आता। लोटते-लोटते रोता भी जाता और बोलता भी जाता—"थाली लूँगा, लोटा लूँगा।"

आँगन के कई चक्कर लगा लेने के बाद दादी से नहीं रहा गया तो उन्होंने किसी से पैसे उधार लिये और थाली-लोटा खरीदकर उसे चुप कराया।

इसी तरह एक बार वह ननिहाल गया था। वहाँ किसी के पास कोई खिलौना देखकर मचल उठा। उसकी नानी ने समझाया कि नानाजी आएँगे तो खरीद देंगे लेकिन वह मान ही नहीं रहा था। गॢमयों के दिन थे। उसने अपनी कमीज उतार दी और जाकर तपते हुए आँगन में लेट गया।

हद तो तब हो गई थी जब वह दादाजी के ऑफिस के पेन स्टैंड पर मचल उठा था। उसके दादाजी स्कूल के हेडमास्टर थे। वह दादाजी के साथ अक्सर स्कूल जाया करता था। उस दिन उसकी नजर पेन स्टैंड पर पड़ ही गई। वह उसे लेने की जि़द करने लगा। दादाजी स्कूल की चीज देना नहीं चाहते थे। वह अनशन पर उतर आया। घर आकर उसने भोजन त्याग दिया। जाकर दरवाजे पर बैठ गया। दादाजी उधर से गुजरते तब भी वह उन्हें नहीं टोकता। दादाजी भी उसे नहीं टोकते। लेकिन रात जब दादाजी खाने बैठे तो उनसे नहीं रहा गया। दादाजी रोज उसे अपने साथ ही खिलाते थे। दादाजी ने उसे बुलाया। वह आता ही नहीं था। दादाजी समझ गए, 'लड़का मानने वाला नहीं है!' बस टार्च उठाई और कहा—"चलो, स्कूल! देता हूँ।" रात के अँधेरे में स्कूल खोलकर पेन स्टैंड देने के बाद ही वह भोजन पर बैठा था।

उसके रूठने की आदत को घर वाले तो किसी तरह बर्दाश्त कर लेते थे लेकिन उसके दोस्त उसका मजाक उड़ाते। बॉल-बॉल खेलते वक्त वह चाहता कि हर कोई उसे ही बॉल फेंके। ऐसा नहीं करने पर वह रूठ जाता और मैदान से बाहर बैठ जाता। कबड्ïडी खेलते समय वह चाहता कि कोई उसे मात नहीं करे। चोर-सिपाही के खेल में वह कभी चोर बनना पसंद नहीं करता। लड़के उसे चोर बनाना चाहते तो वह गुस्सा जाता, रूठकर घर चला जाता। उसकी इसी बीमारी के चलते उसके दोस्त उसे 'रूठन दास' कहने लगे थे। लड़कों ने क्लास में कबीर दास का नाम सुना था। 'कबीर दास की उल्टी बानी, पहले खानी तब असनानी' जैसे जुमले भी उन्होंने कहीं से याद कर रखे थे। इसी तर्ज पर लड़के उसे रूठन दास कहने लगे थे। रूठन दास नाम धीरे-धीरे उसके घर तक भी पहुँच गया था और दादी, दादा भी उसे रूठन दास कहने लगे थे।

कुछ दिन बाद वह गाँव से दूर शहर के बड़े स्कूल में पढऩे चला गया। वहीं हॉस्टल में रहने लगा था। हॉस्टल में भी वह बात-बात पर मित्रो से रूठ जाता था। लेकिन वहाँ दादाजी और दादीजी की तरह कोई मनाने वाला नहीं था। उसके रूठने की आदत कम होती गई थी। धीरे-धीरे खत्म भी हो गई। जब वह गर्मी की छुट्टियों में घर आया तो उसके दादाजी, दादीजी और दोस्तों को यह देखकर आश्चर्य होता था कि अब वह हर बात पर रूठ नहीं रहा है। उसके दोस्त अब उससे मजाक करने लगे थे—"लगता है रूठन दास का नाम अब बदलना पड़ेगा। यह तो किसी बात पर रूठता ही नहीं है?"

"नहीं! मेरा नाम नहीं बदलना। यह नाम मुझे याद दिलाता रहेगा कि मैं रूठने में कितना बहादुर था।" उसने हँसकर कहा था।